सन 629 के जाड़े में 29 साल के लंबे-तगड़े शख़्स ने चीन के शहर चाँग’आन से अपना सफ़र शुरू किया, पैदल भारत पहुँचने के इरादे के साथ.
ये यात्रा करने का शायद सही समय नहीं था क्योंकि चीन में गृह युद्ध छिड़ा हुआ था और वहाँ की सड़कों पर डाकुओं और लुटेरों का बोलबाला था.
दूसरे चीन के नागरिकों के देश छोड़ने पर भी पाबंदी लगी हुई थी. इस यात्री का नाम ह्वेनसांग था.
विलियम डेलरिंपल अपनी हाल ही में प्रकाशित किताब ‘द गोल्डन रोड, हाउ एंशियंट इंडिया ट्रांसफ़ॉर्म्ड द वर्ल्ड’ में लिखते हैं, ”ह्वेनसांग का इरादा नालंदा विश्वविद्यालय में दाख़िला लेकर वहाँ पढ़ाई करने का था. उस समय नालंदा में दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध पुस्तकालय हुआ करता था. चाँग’आन से नालंदा की दूरी साढ़े चार हज़ार किलोमीटर से भी ज़्यादा थी.”
उस दौर के हालात में नालंदा पहुंचना कोई मामूली बात नहीं थी, चीनी प्रशासन ने उनके वहाँ जाने के आवेदन को नामंज़ूर कर दिया था.
डेलरिंपल लिखते हैं, ”उस साल चीन में बहुत बड़ा सूखा पड़ा था. इस बात की बहुत संभावना थी कि अगर ह्वेनसांग प्रशासन और डाकुओं से बच भी जाते तो भुखमरी उन्हें आगे नहीं जाने देती. लेकिन ह्वेनसांग को जोखिम उठाने की आदत पड़ी हुई थी.”
तीर से हमला
करीब डेढ़ सौ किलोमीटर चलने के बाद ह्वेनसांग लियानजो नगर पहुंचे. वहाँ उन्होंने एक घोड़ा ख़रीदने का मन बनाया. जब वो बाज़ार में घोड़ा ख़रीदने के लिए मोलभाव कर रहे थे तो सुरक्षाकर्मियों की नज़र उन पर पड़ गई.
स्थानीय गवर्नर ने उन्हें वापस लौट जाने का आदेश दिया. ह्वेनसांग ने आदेश को नहीं माना और भोर होने से पहले चुपचाप शहर से बाहर निकल आए. उन्होंने पश्चिम की तरफ़ अपनी आगे की यात्रा जारी रखी. पकड़े जाने के डर से वो दिन में छिप जाते थे और रात में चलते थे.
स्रमना हुइलाई और शी यैनकौंग अपनी किताब ‘अ बायोग्राफ़ी ऑफ़ द त्रिपिटका मास्टर ऑफ़ द ग्रेट सिएन मोनास्ट्री’ में लिखते हैं, ”इस डर से कि निगरानी टावर पर तैनात पहरेदार उन्हें देख लेंगे ह्वेनसांग बालू के एक गड्ढे में छिप गए और रात होने तक उसी में रहे. रात को जब वो एक तालाब से पानी ले रहे थे, एक तीर उनको करीब-करीब छूता हुआ निकल गया. एक क्षण बाद एक और तीर उनकी दिशा में आया. ये एहसास होते ही कि उन्हें निशाना बनाया जा रहा है, वो ज़ोर से चिल्लाए, ‘मैं राजधानी से आया भिक्षु हूँ. मुझे मत मारो’.”
निगरानी टावर पर तैनात पहरेदारों का प्रमुख एक बौद्ध था. हालांकि उसे ह्वेनसांग को गिरफ़्तार करने के आदेश मिल चुके थे लेकिन उसने उनकी मदद करने का फै़सला किया.
उसने उन्हें खाना खिलाया और बताया कि वो किस रास्ते से जाएं जहाँ उन्हें पकड़ा नहीं जा सकेगा. कुछ दूरी तक वो उनके साथ भी गया.
डाकुओं ने घेरा
इसके बाद ह्वेनसांग ने मोहेयान रेगिस्तान, पामीर दर्रा, समरकंद और बामियान होते हुए जलालाबाद के पास से भारत में प्रवेश किया.
मैदानी इलाके में पहुंचकर गंगा नदी में वो एक नाव पर सवार हुए. उनके साथ 80 और यात्री थे. करीब 100 मील चलने के बाद वो एक ऐसी जगह पर पहुंचे जहाँ नदी के दोनों तट पर अशोक के ऊँचे ऊँचे पेड़ थे.
अचानक उन पेड़ों के पीछे से डाकुओं का एक गिरोह सामने प्रकट हुआ और बहाव के विपरीत नाव चलाते हुए उनकी तरफ़ बढ़ने लगा.
ह्वेनसांग की नाव के लोग इतने डर गए कि उनमें से कुछ लोगों ने नदी में छलाँग लगा दी.
डाकुओं ने उनकी नौका को किनारे चलने के लिए मजबूर किया वहाँ पहुंच कर उन्होंने नौका पर सवार लोगों से अपने कपड़े उतारने के लिए कहा ताकि रत्नों और आभूषणों की पहचान की जा सके.
स्रमना हुइलाई और शी यैनकौंग लिखते हैं,”वो डाकू देवी के उपासक थे. वो शरद ऋतु में देवी के सामने एक हट्टे-कट्टे आकर्षक व्यक्ति की बलि चढ़ाया करते थे. ह्वेनसांग को देखते ही उन्होंने आँखों आँखों में बात की और कहा पूजा नज़दीक है. क्यों न हम इसकी बलि चढ़ा दें.”
काली आँधी ने बचाया
बलि के लिए एक मंडप तैयार किया जाने लगा. ह्वेनसांग ने तनिक भी आभास नहीं दिया कि उन्हें किसी तरह का डर है. उन्होंने उनसे अपनी अंतिम प्रार्थना करने की अनुमति माँगी. इसके बाद वो ध्यान में चले गए.
स्रमना हुइलाई और शी यानकौंग लिखते हैं, ”सभी यात्री ज़ोर ज़ोर से रोने और चिल्लाने लगे. तभी चारों तरफ़ से काली आँधी चलनी शुरू हो गई. नदी की लहरें तेज़ हो गईं और नौका करीब करीब उलटने लगी. डाकुओं ने यात्रियों से घबराकर पूछा, ये साधु कहाँ से आया है और इसका नाम क्या है?”
इसके बाद जो हुआ उसका विवरण काफ़ी दिलचस्प है, ”यात्रियों ने जवाब दिया ये साधु धर्म की तलाश में चीन से आया है. आँधी आने का मतलब है कि देवी तुमसे नाराज़ हो गई हैं. तुम तुरंत माफ़ी माँगो नहीं तो तुम बर्बाद हो जाओगे. डाकुओं ने एक एक करके ह्वेनसांग से माफ़ी माँगी. वो उनके सामने लेट गए. लेकिन ह्वेनसांग आँखें बंद किए बैठे रहे. जब उन्होंने उन्हें छुआ तब उन्होंने अपनी आँखें खोलीं.”
नालंदा में अभूतपूर्व स्वागत
छह साल तक लगातार चलने के बाद ह्वेनसांग ने उस धरती को छुआ जिस पर कभी गौतम बुद्ध चले थे. पहले वो श्रावस्ती पहुंचे, फिर सारनाथ गए जहाँ बुद्ध ने अपना पहला उपदेश दिया था. इसके बाद वो पाटलिपुत्र गए जहाँ अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था. इसके बाद वो बुद्ध की जन्मस्थली कपिलवस्तु होते हुए बोधगया पहुंचे.
लेकिन वहाँ उन्हें ये देखकर आश्चर्य हुआ कि जिस पेड़ के नीचे गौतम बुद्ध ध्यान पर बैठे थे, अब वो वहाँ नहीं था. बोधगया पहुंचने के दस दिन बाद चार बौद्ध साधुओं का एक दल उनसे मिलने पहुंचा.
विलियम डेलरिंपल लिखते हैं, ”वे लोग उन्हें अपने साथ बौद्ध गुरु शीलभद्र के पास ले जाने आए थे जो नालंदा में उनका इंतज़ार कर रहे थे. जैसे ही ह्वेनसांग नालंदा विश्वविद्यालय पहुंचे करीब 200 संन्यासियों और 1000 लोगों ने उनका स्वागत किया. उनके हाथ में पताकाएं और सुगंधित अगरबत्तियाँ थीं. उस समय नालंदा में दाखिला हो पाना बहुत ही मुश्किल होता था, इसके लिए कड़ी परीक्षा ली जाती थी.”
नालंदा विश्वविद्यालय की भव्य इमारत
नालंदा में घुसने का वर्णन करते हुए ह्वेनसांग लिखते हैं, ”मैं नालंदा की धरती पर स्थानीय नियमों का पालन करते हुए अपने घुटनों के बल घुसा. मैं शीलभद्र के पास सम्मान दिखाते हुए अपने घुटनों और कोहनियों के बल रेंगता हुआ पहुंचा. उनको देखते ही मैंने उनके पैर चूमे और उनके सामने दंडवत लेट गया.”
नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर को छह राजाओं ने बनवाया था. इसका एक प्रवेश द्वार था लेकिन इसके अंदर अलग-अलग चौक थे जिन्हें आठ विभागों में बाँटा गया था.
स्रमना हुइलाई और शी यानकौंग लिखते हैं, ”बीच में साफ़ पानी का तालाब था जिसमें नीले कमल के फूल खिले हुए थे. प्रांगण के अंदर चंदन के पेड़ थे और बाहर का इलाका घने आम के बागों से भरा हुआ था. हर विभाग की इमारत चार मंज़िल ऊँची थी. उस समय के भारत में हज़ारों मठ थे लेकिन इसकी इमारत सबसे अलग और भव्य थी.”
शिक्षा का उच्चतम स्तर
ह्वेनसांग धीरे-धीरे सभी व्याख्यान कक्षों, स्तूपों, मंदिरों और 300 कमरों में गए जहाँ दस हज़ार भिक्षु और छात्र रहा करते थे. वहाँ महायान और निकाय बौद्ध धर्म, वेदों, तर्कशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, चिकित्सा शास्त्र, गणित, खगोलशास्त्र और साहित्य की पढ़ाई होती थी.
ह्वेनसांग ने लिखा,”नालंदा में छात्रों की प्रतिभा और क्षमता उच्चतम स्तर की थी. इस विश्वविद्यालय के नियम बहुत कड़े थे और छात्रों को उनका पालन करना होता था. सुबह से लेकर शाम तक वो वाद-विवाद में व्यस्त रहते थे जिसमें वरिष्ठ और युवा बराबरी से भाग लेते थे. हर रोज़ करीब 100 अलग अलग कक्षों में व्याख्यान दिए जाते थे और छात्र बिना एक क्षण गँवाए बहुत मेहनत से पढ़ा करते थे.”
राजा हर्ष का नालंदा को संरक्षण
ह्वेनसांग जब भारत आए उस समय उत्तर भारत में राजा हर्ष का राज था. वो असधारण रूप से बौद्धिक और जिज्ञासु राजा थे जो बहुत साधारण पृष्ठभूमि से ऊपर आए थे. उनके पिता ने हूणों को हराया था जिसकी वजह से उनका साम्राज्य बंगाल से सिंधु नदी तक फैला हुआ था.
गुप्त वंश के पतन के बाद से उस इलाके में पहली बार शांति और समृद्धि दिखाई पड़ी थी. हालांकि हर्ष स्वयं हिंदू राजा थे लेकिन वो बौद्ध धर्म के भी बड़े संरक्षक थे. नालंदा विश्वविद्यालय को उसके चरम तक पहुंचाने में उनकी बड़ी भूमिका थी.
उन्होंने उसे 100 गाँव दे दिए थे जिनके ग्राम प्रधानों को निर्देश थे कि वो वहाँ पढ़ रहे छात्रों की सभी ज़रूरतें पूरी करें. हर गाँव के 200 परिवारों की ज़िम्मेदारी थी कि वो रोज़ बैलगाड़ियों में चावल, दूध और मक्खन जैसी चीज़ें विश्वविद्यालय में पहुँचाएँ.
ह्वेनसांग लिखते हैं, ”एक अतिथि छात्र के तौर पर उन्हें रोज़ 20 पान, सुपारी, जायफ़ल, सुगंधित धूप बत्तियों, आधा किलो चावल और असीमित मात्रा में दूध और मक्खन की आपूर्ति की जाती थी जिसके एवज़ में उनसे कुछ भी पैसा नहीं लिया जाता था. मेरे समय में नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका. सुमात्रा और यहाँ तक कि कोरिया के भिक्षु भी वहाँ शिक्षा के लिए आते थे.”
दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय
नालंदा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा आकर्षण था वहाँ का पुस्तकालय.
एलेक्ज़ेंड्रिया के विनाश के बाद संभवत: वो उस समय दुनिया की सबसे बड़ी लाइब्रेरी थी.
वाँग ज़ियाँग अपनी किताब ‘फ़्रॉम नालंदा टू चंगान’ में लिखते हैं, ”पुस्तकालय की इमारत नौ मंज़िल ऊँची थी और उसके तीन हिस्से थे. पहले हिस्से को ‘रत्नदढ़ी’ कहा जाता था. दूसरे हिस्से का नाम ‘रत्नसागर’ था और तीसरे हिस्से को ‘रत्नरंजक’ कहा जाता था. वहाँ से किसी भी पांडुलिपि को पढ़ने के लिए लिया जा सकता था लेकिन उसे विश्वविद्यालय के प्रांगण से बाहर ले जाने की अनुमति नहीं थी.”
नालंदा में ह्वेनसांग ने महान बौद्ध अध्येता शीलभद्र की देखरेख में पढ़ाई की थी. तीन साल तक चले अध्ययन में शीलभद्र ने उन्हें योग और दर्शन की शिक्षा दी थी.
नालंदा में रिवाज था कि छात्रों से अपेक्षा की जाती थी कि वो गुरुओं की सभी ज़रूरतों का ध्यान रखें जिसमें उनकी मालिश करना उनके कपड़े तह करना और उनके कमरे साफ़ करना शामिल रहता था.
बेंजामिन ब्रोस अपनी किताब, ‘ह्वेनसांग, चाइनाज़ लेजेंडरी पिलग्रिम एंड ट्रांसलेटर’ में लिखते हैं, ”हर सुबह ह्वेनसांग अपने 10 फीट बाई 10 फ़ीट के कमरे में नगाड़े की आवाज़ के साथ उठते. कमरे के बाहर उनके स्नान के लिए हौज़ बने होते. इसके बाद वो व्याख्यान सुनते और कभी-कभी खुद भी व्याख्यान देते. हर शाम वो पुस्तकालय में उन संस्कृत पांडुलिपियों की प्रति बनाते जिन्हें वो अपने साथ चीन ले जाना चाहते थे. पाँच साल के बाद उनके अपने पास दुर्लभ भारतीय पाँडुलिपियों की लाइब्रेरी तैयार हो गई थी जिन्हें वो अपने साथ चीन ले जाने का इरादा रखते थे.”
घोड़ों पर लदी लाइब्रेरी चीन चली
सन 643 में भारत में 10 साल गुज़ारने के बाद उन्होंने बंगाल के मठों की अंतिम यात्रा की और फिर चीन लौटने की तैयारी शुरू कर दी.
जाने से पहले राजा हर्ष ने उन्हें अपने दरबार में एक बहस के लिए आमंत्रित किया. दोनों पहले मिल चुके थे. पहली मुलाकात में हर्ष ने उनसे चीन और उसके राजाओं के बारे में प्रश्न पूछे थे.
हर्ष ने उनके ज़रिए चीन के राजा ताइज़ुन को बौद्ध साहित्य की कुछ पांडुलिपियाँ भेजीं. राजा हर्ष के सामने ह्वेनसांग की नास्तिक दार्शनिकों से बहस हुई.
हुइलाई के अनुसार ह्वेनसांग ने अपने तर्कों से उन दार्शनिकों को चुप करा दिया. अब तक ह्वेनसांग को चीन छोड़े 16 वर्ष बीच चुके थे.
डेलरिंपल लिखते हैं, “जब वो वापस जाने के लिए तैयार हुए तो उनके पास 657 किताबों और बहुत बड़ी संख्या में मूर्तियों का संग्रह था. वो अपने साथ बहुत सारे पेड़ों की पौध और बीज भी ले गए थे. उनके सारे सामान को 72 घोड़ों पर लादा गया था और उनके साथ करीब 100 कुली और पहरेदार चल रहे थे. वो खुद एक हाथी पर सवार थे जिसे राजा हर्ष ने उन्हें भेंट स्वरूप दिया था. उन्होंने उनको पर्याप्त धन भी दिया था और उन राजाओं के लिए पत्र दिए थे जिनके क्षेत्र से होकर ह्वेनसांग गुज़रने वाले थे.”
तूफ़ान में बेशकीमती पाँडुलिपियाँ नष्ट हुईं
लौटते समय ह्वेनसांग के साथ एक दुर्घटना हुई. जब वो अटक के पास सिंधु नदी पार कर रहे थे, एक बड़ा तूफ़ान आया जिसमें उनकी कुछ बेशकीमती पांडुलिपियाँ नष्ट हो गईं.
बेंजामिन ब्रॉस लिखते हैं, “हाथी पर सवार ह्वेनसांग खुद तो नदी पार करने में कामयाब हो गए लेकिन उनके पीछे चल रही पाँडुलिपियों से भरी हुई कुछ नौकाएं तूफ़ान में पलट गईं. नाविक लोग तो बचा लिया गए लेकिन करीब 50 पांडुलिपियाँ और बीजों से भरे कुछ बक्से बह गए. चीन पहुंचने से पहले उन्होंने सम्राट ताइज़ुन को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने ग़ैरकानूनी रूप से चीन छोड़ने के लिए माफ़ी माँगी लेकिन साथ ही ये भी बताया कि वो अपने साथ क्या कुछ ला रहे हैं और किस तरह ये सम्राट के लिए लाभकारी साबित हो सकता है.”
सम्राट ने उनके पत्र का जवाब देते हुए लिखा, ”हम ये सुनकर बहुत खुश हुए कि आप ज्ञान प्राप्त करने के बाद अपने देश वापस आ रहे हैं. आप तुरंत मुझसे मिलने आइए. अपने साथ उन भिक्षुओं को भी लाइए जो संस्कृत भाषा समझ सकते हैं. हमने प्रशासन को निर्देश दे रखे हैं कि वो आपकी हरसंभव मदद करें ताकि आपको समान उठाने वालों और घोड़ों की कमी न पड़े.”
आठ फ़रवरी, 645 की सुबह राजधानी चाँग’आन की सड़कों पर हज़ारों लोग ह्वेनसांग के स्वागत में सड़कों पर उतर आए.
16 साल पहले इसी जगह से वो भारत की यात्रा पर निकले थे. उनको सबसे पहले होंगफ़ू मठ ले जाया गया और 15 दिन बाद 23 फ़रवरी को सम्राट ताएज़ुन ने ल्योयेंग के अपने महल में उनसे मुलाकात की.
इन मुलाकातों का सिलसिला जारी रहा और सम्राट ने उनसे उनकी भारत यात्रा के अनुभव, वहाँ के मौसम, उत्पाद और रीति-रिवाजों के बारे में कई सवाल पूछे.
स्टेनली वीनस्टीन अपनी किताब ‘बुद्धिज़्म अंडर द टैंग’ में लिखते हैं, ”राजा ने उन्हें अपनी सरकार में शामिल होने का न्योता भी दिया लेकिन ह्वेनसांग ने उसे ये कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि सरकारी अधिकारियों के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण उनके पास नहीं है. वो चाँग’आन के एक शाही मठ में रहने चले गए और भारत के अपनी यात्रा के अनुभवों के बारे में लिखने लगे. बाद में इसका अंग्रेज़ी अनुवाद किया गया.”
ये चीन में भारत के बारे में सबसे प्रामाणिक और महत्वपूर्ण शोध बन गया. आज भी राजा हर्ष के दौर को समझने के लिए ह्वेनसांग के लिखे विवरणों की मदद ली जाती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित