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चीन लंबे समय तक कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणु निरस्त्रीकरण का प्रमुख समर्थक रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि हाल के वर्षों में उसने इस मुद्दे पर अपनी अहम पोजीशन छोड़ दी है.
साल 2023 के मध्य से ही चीन ने उत्तर कोरिया के परमाणु निरस्त्रीकरण पर अपना रुख खुलकर नहीं रखा है.
यहां तक कि सितंबर 2025 की शुरुआत में राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उत्तर कोरियाई नेता किम जोंग उन की ताज़ा मुलाक़ात में भी इस पर कोई साफ़ बयान नहीं दिया गया.
ये बदलाव ऐसे समय में दिखा है जब उत्तर कोरिया और रूस के रिश्ते लगातार मज़बूत होते दिखे हैं. इससे चीन का उत्तर कोरिया पर असर कमजोर हुआ है.
नतीजतन, चीन को नई भू-राजनीतिक हकीकत के मुताबिक़ ढलना पड़ा और उसने चुपचाप उत्तर कोरिया को एक परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में स्वीकार कर लिया.
उत्तर कोरिया का परमाणु रुख़ कैसे बदला?
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उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ध्यान तब खींचा जब उसने 1993 में परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) से खुद को अलग कर लिया.
1990 और 2000 के दशक में उसने परमाणु हथियार बनाने की कोशिश तेज़ की. और फिर 2006 में पहला और 2009 में दूसरा परमाणु परीक्षण किया.
2012 में उत्तर कोरिया ने अपना संविधान संशोधित कर खुद को “परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र” घोषित कर दिया.
2018 तक वह छह परीक्षण कर चुका था, जिनमें 2017 में इंटर कॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल का परीक्षण भी शामिल था.
हालांकि, 2018 में उसका रुख़ कुछ नरम दिखाई दिया, जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस कड़ी पाबंदियों वाले देश से बातचीत शुरू की.
ट्रंप और किम जोंग उन की 2018 और 2019 में तीन मुलाक़ातें हुईं.
अप्रैल 2018 में हुए पानमुंजोम घोषणा पत्र में अमेरिका और उत्तर कोरिया ने “पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण के ज़रिये परमाणु मुक्त कोरियाई प्रायद्वीप” के साझा लक्ष्य की पुष्टि की.
उसी साल जून में सिंगापुर शिखर बैठक के बाद व्हाइट हाउस ने एक संयुक्त बयान जारी किया, जिसमें किम ने कोरियाई प्रायद्वीप के “पूर्ण परमाणु निरस्त्रीकरण” के लिए अपनी “दृढ़ और अटल प्रतिबद्धता” दोहराई.
लेकिन 2019 में हनोई में हुई अगली ट्रंप-किम बैठक बिना किसी नतीजे के अचानक ख़त्म हो गई.
उसके बाद से उत्तर कोरिया ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले सभी निरस्त्रीकरण प्रस्तावों को ठुकरा दिया.
इसके बाद से उत्तर कोरिया का रुख़ और भी सख़्त होता गया.
2022 में उत्तर कोरिया एक नया क़ानून लाया. इसमें परमाणु सिद्धांत को अपडेट किया गया था.
इसमें देश के परमाणु हथियारों की कमान, नियंत्रण और उनके इस्तेमाल की स्पष्ट नीतियां तय की गईं.
उस समय किम ने कहा था कि उत्तर कोरिया का परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र का दर्जा “अब अपरिवर्तनीय” हो चुका है और भविष्य की किसी भी बातचीत में “न हम अपने परमाणु हथियार छोड़ेंगे और न ही निरस्त्रीकरण की कोई घोषणा करेंगे.”
2023 में उत्तर कोरिया ने फिर संविधान संशोधित किया और देश को “परमाणु शक्ति बनाने की नीति” को स्थायी बना दिया. इसे अब देश का मूल क़ानून घोषित कर दिया गया. कहा गया कि “इसे किसी भी स्थिति में नहीं बदला जा सकता.”
चीन ने परमाणु निरस्त्रीकरण की मांग कैसे छोड़ी?
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पूर्वोत्तर एशिया की सुरक्षा व्यवस्था में एक अहम खिलाड़ी के रूप में चीन लंबे समय तक कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणु निरस्त्रीकरण को बढ़ावा देता रहा.
चीन ने 2003 में उत्तर और दक्षिण कोरिया, जापान, रूस और अमेरिका को शामिल करते हुए पहले “सिक्स-पार्टी टॉक्स” की मेज़बानी भी की थी.
लेकिन 2003 से 2007 के बीच हुई पांच दौर की बातचीत किसी ठोस नतीजे तक नहीं पहुंची और यह फॉर्मेट धीरे-धीरे टूट गया.
चीन ट्रंप-किम वार्ता को लेकर भी सकारात्मक था. 2018 में किम की चीन यात्रा के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था कि वे इस बात से “खुश” हैं और इस बात की ” काफी तारीफ़” करते हैं कि सिंगापुर शिखर सम्मेलन में परमाणु निरस्त्रीकरण पर ” सैद्धांतिक सहमति” बन गई.
अमेरिका-उत्तर कोरिया वार्ता असफल होने के बावजूद चीन ने अगले कुछ वर्षों तक परमाणु मुद्दे पर अपना ये रुख़ बनाए रखा.
जुलाई 2023 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में चीनी प्रतिनिधि झांग जुन ने कहा कि कोरियाई प्रायद्वीप के मुद्दे पर बीजिंग की स्थिति “बहुत स्पष्ट” है और “हम हमेशा परमाणु निरस्त्रीकरण” पर दृढ़ रहते हैं.
यही आख़िरी मौका था जब चीन ने खुले तौर पर उत्तर कोरिया के परमाणु कार्यक्रम पर अपनी स्थिति साफ़ की.
अप्रैल 2024 में जब एक दक्षिण कोरियाई पत्रकार ने नियमित प्रेस ब्रीफिंग में उत्तर कोरिया के हाइपरसोनिक बैलिस्टिक मिसाइल परीक्षण पर सवाल पूछा, तो प्रवक्ता वांग वेनबिन ने सिर्फ़ इतना कहा कि चीन का ये रुख़ बरकरार है और उनके पास कहने के लिए कुछ नया नहीं है.
इसके बाद मई 2024 में चीन-जापान-दक्षिण कोरिया शिखर सम्मेलन में तीनों देशों ने कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणु निरस्त्रीकरण पर अपने-अपने “अलग-अलग रुख़” दोहराए.
यह 2019 की बैठक से बिल्कुल उलट था, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री ली कछियांग ने खुलकर “संयुक्त रूप से निरस्त्रीकरण का लक्ष्य हासिल करने” की अपील की थी.
अगस्त 2025 में चीन के विदेश मंत्रालय ने फिर कहा कि चीन की “बेसिक पोजीशन में कोई बदलाव” नहीं आया है.
29 सितंबर की ताज़ा टिप्पणी में प्रवक्ता गुओ जियाकुन ने किम के इस बयान पर सीधा जवाब देने से इनकार किया कि उत्तर कोरिया “कभी भी परमाणु हथियार नहीं छोड़ेगा.”
गुओ ने कहा कि चीन का रुख़ और नीति “लगातार बरकरार है”. वह “अपने तरीक़े से” कोरियाई प्रायद्वीप में राजनीतिक समाधान को बढ़ावा देने के लिए रचनात्मक भूमिका निभाता रहेगा.
गुओ की यह टिप्पणी 4 सितंबर को बीजिंग में हुई शी जिनपिंग और किम जोंग उन की छह साल बाद पहली बैठक के बाद आई.
उस बैठक में शी ने केवल इतना कहा कि कोरियाई प्रायद्वीप के मुद्दे को चीन “निष्पक्षता और वस्तुनिष्ठता’ से देखता है. वह उत्तर कोरिया के साथ तालमेल मज़बूत करने और शांति और स्थिरता बनाए रखना चाहता है. लेकिन उन्होंने परमाणु निरस्त्रीकरण का कोई ज़िक्र नहीं किया.
चीन के बदले रुख़ की क्या वजह है?
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2023 के बाद से चीन ने परमाणु निरस्त्रीकरण पर खुलकर बात नहीं की.
ये इस चिंता को जन्म देता है कि चीन ने चुपचाप उत्तर कोरिया को परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप में स्वीकार कर लिया है.
चीन बार-बार कहता रहा है कि इस मुद्दे पर उसका रुख़ बदला नहीं है.
चीन के विदेश मंत्रालय की आधिकारिक वेबसाइट पर “सिक्स-पार्टी टॉक्स” की जानकारी वाले पेज (जिसे आख़िरी बार अप्रैल 2025 में अपडेट किया गया) में अब भी लिखा है कि चीन “कोरियाई प्रायद्वीप के परमाणु निरस्त्रीकरण पर अडिग है.”
यह दिखता है कि औपचारिक रूप से चीन ने अपनी स्थिति नहीं बदली है.
लेकिन बार-बार अपना रुख़ स्पष्ट रूप से न बताना और केवल “राजनीतिक समाधान” जैसी अस्पष्ट बातें करना यह भी संकेत देता है कि चीन ने लंबे समय से चले आ रहे अपने सिद्धांत को खु़लकर बदलने की तुलना में उत्तर कोरिया की परमाणु शक्ति को एक “स्वीकृत वास्तविकता” मान लिया है.
यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि चीन ने आख़िरी बार जुलाई 2023 में परमाणु निरस्त्रीकरण का ज़िक्र किया था. यह किम जोंग उन की रूस यात्रा (सितंबर 2023) और फिर राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की उत्तर कोरिया यात्रा (जून 2024) से कुछ महीने पहले की बात है. उस दौरान दोनों देशों ने आपसी रक्षा समझौते को मज़बूत किया था.
इसी दौरान चीन और उत्तर कोरिया के रिश्तों में तेज़ गिरावट देखने को मिली.
2024 को “मैत्री वर्ष” घोषित किया गया था, लेकिन उसका समापन समारोह तक नहीं हुआ.
कई मौकों पर चीन और उत्तर कोरिया के बीच बधाइयां तक संक्षिप्त या देर से दी गईं.
सरकारों के बीच उच्च स्तर की भागीदारी भी नदारद रही.
विश्लेषकों का मानना है कि उत्तर कोरिया और रूस के बढ़ते संबंधों से चीन नाराज़ था. इससे उत्तर कोरिया पर चीन का असर कमजोर हुआ था.
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गौरतलब है कि लगभग इसी समय चीन और रूस ने भी अपनी द्विपक्षीय घोषणाओं से “निरस्त्रीकरण” का ज़िक्र हटा दिया.
मई 2024 के चीन-रूस के वार्षिक संयुक्त बयान में कोरिया प्रायद्वीप से जुड़े मुद्दे पर निरस्त्रीकरण का ज़िक्र नहीं था, जबकि मार्च 2023 के बयान में साफ़ कहा गया था कि दोनों देश “प्रायद्वीप में शांति और स्थिरता बनाए रखने में हमेशा दृढ़ रहे. इसमें निरस्त्रीकरण भी शामिल है.”
2024 के बयान में इसके बजाय अमेरिका और उसके सहयोगियों की आलोचना की गई, उन पर “सैन्य दबाव” और “टकराव को भड़काने” का आरोप लगाया गया.
अमेरिका से कहा गया कि वह सैन्य तनाव घटाए. “धमकाने” और प्रतिबंधों की नीति छोड़े और बातचीत फिर से शुरू करने की दिशा में काम करे.
निरस्त्रीकरण पर यह बदला हुआ रुख़ और अमेरिका के प्रति बढ़ती आलोचना, दोनों ही चीन की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनाए गए नैरेटिव के मुताबिक़ थे.
मई 2025 में परमाणु अप्रसार संधि की एक बैठक में चीनी प्रतिनिधि ने कुछ देशों की आलोचना की कि वे “एकतरफ़ा ढंग से उत्तर कोरिया के निरस्त्रीकरण पर ज़ोर देते हैं. वो प्रतिरोधक क्षमता के विस्तार को मजबूत कर रहे हैं. और यहां तक कि परमाणु साझेदारी और स्वतंत्र परमाणु हथियार हासिल करने जैसे विकल्पों पर चर्चा कर रहे हैं.”
यह टिप्पणी अमेरिका के दक्षिण कोरिया के साथ परमाणु सहयोग बढ़ाने के सुझाव की ओर इशारा थी.
चीन ने “संबंधित देशों” से कहा कि वे अपनी अंतरराष्ट्रीय ज़िम्मेदारियों और वादों का पालन करें और कोरियाई प्रायद्वीप में लंबे समय तक शांति और स्थिरता कायम करने में रचनात्मक भूमिका निभाएं. लेकिन उसने उत्तर कोरिया की ओर से परमाणु क्षमता बढ़ाने के मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.