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इमेज कैप्शन, पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में 1946 तक कांग्रेस का अच्छा-ख़ास प्रभाव था. लेकिन अगले एक साल में हालात तेज़ी से बदले….में
17 अप्रैल 1948 को उत्तर-पश्चिमी सीमा के इलाक़ों का पाकिस्तान से औपचारिक विलय होने ही वाला था, क्योंकि नए देश के बनने से पहले ही समर्थन के संकेत मिलने लगे थे.
अमेरिकी अख़बार न्यूयॉर्क टाइम्स की अगले दिन छपी ख़बर के मुताबिक़, “पेशावर में 200 सरदारों ने गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना से अपील की कि वह उन्हें पाकिस्तान में शामिल कर लें.”
यह सरदार जिन लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे उनकी आबादी 25 लाख थी. इन लोगों का इलाक़ा दक्षिणी वज़ीरिस्तान से चित्राल तक लगभग 1,600 किलोमीटर तक फैला हुआ था.
न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक़ उन्होंने यह भी मांग की कि उनके लोगों को पाकिस्तानी फ़ौज में शामिल होने की इजाज़त दी जाए और गवर्नर जनरल जिन्ना को भरोसा दिलाया कि वह भारत की सेना को कश्मीर से खदेड़ देंगे, चाहे पाकिस्तान की मदद हो या न हो.
अख़बार ने आगे लिखा, “गवर्नर जनरल जिन्ना ने उनकी अपील पर ग़ौर करने का वादा किया और मुस्लिम एकता की ज़रूरत पर ज़ोर दिया.”
मुस्लिम लीग की ओर झुकाव
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इमेज कैप्शन, 1920 में ली गई चित्राल स्काउट्स की एक तस्वीर
अपनी किताब ‘इंपीरियल फ़्रंटियर–ट्राइब एंड स्टेट इन वाज़िरीस्तान’ में डॉक्टर ह्यू बीटी लिखते हैं कि साल 1946 में भारत के नॉर्थ वेस्ट फ़्रंटियर सूबे का असेंबली चुनाव फ़्रंटियर कांग्रेस पार्टी ने जीता. मगर जैसे-जैसे यह साफ़ होता गया कि बंटवारा एक सच्चाई बनने वाली है, वैसे-वैसे हालात बदलने लगे.
“पख़्तून, फ़्रंटियर कांग्रेस पार्टी से दूर होते गए क्योंकि यह पार्टी इंडियन कांग्रेस और उसकी हिंदू बहुमत वाले नेतृत्व से जुड़ी हुई थी. ज़्यादातर लोगों ने मुस्लिम लीग का समर्थन कर दिया. ख़ास तौर पर कबायलियों के ताक़तवर धड़े, बड़े-बड़े ‘मलिकों’ ने अपना वज़न मुस्लिम लीग के पलड़े में डालना शुरू कर दिया.”
ब्रिटिश भारत की अंतरिम सरकार में विदेश मंत्री बनने के बाद इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने अक्तूबर 1946 में क़बायली इलाक़ों का दौरा किया.
नेहरू के क़ाफ़िले पर कई जगहों पर पथराव किया गया. उस वक़्त सरहदी सूबे के गवर्नर सर ओलाफ़ कैरो को ख़तरा था कि भारी सुरक्षा के बावजूद नेहरू की हत्या की जा सकती है.
सैयद अब्दुल क़ुद्दूस ने अपनी किताब ‘नॉर्थ वेस्ट फ़्रंटियर ऑफ़ पाकिस्तान’ में कैरो के लॉर्ड वेवेल को लिखे ख़त का हवाला दिया है.
कैरो ने लिखा, “हम ख़ुशक़िस्मत हैं कि इस ट्रेजेडी से बच गए. मैं चेतावनी दोहराता हूं कि क़बायली मामलों का इंचार्ज नेहरू या कोई हिंदू अधिकारी होगा तो अफ़रा-तफ़री बढ़ेगी. यह क़बायली बग़ावत की वजह बन सकती है.”
वह अपनी किताब ‘पठान्स’ में लिखते हैं, “नेहरू अपने समर्थकों को संगठित करने पेशावर आए. यह एक दुस्साहस भरा क़दम था लेकिन इसके पीछे प्लानिंग ग़लत थी. इसे नाकाम होना ही था और यह उन सब के लिए बहुत बुरी बात साबित हुई जो अखंड भारत का सपना देख रहे थे.”
कैरो लिखते हैं, “न सिर्फ़ मैदानी बल्कि पहाड़ी इलाक़ों में भी क़बायली नेहरू को क़बूल करने को तैयार थे.”
जिन्ना के दौरे
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इमेज कैप्शन, जिन्ना के कबायली इलाक़ों के दौरे के बारे में छपी ख़बर
मोहम्मद अली जिन्ना ने भी 1945 और 1948 में इन इलाक़ों का दौरा किया.
शेर आलम शिनवारी ने 13 अगस्त, 2017 के अपने लेख ‘क़बायली अवाम अब भी जिन्ना के पाकिस्तान की तलाश में हैं’ में लिखा है, “नब्बे साल से ज़्यादा उम्र के क़बायली बुज़ुर्ग आज भी पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना के ऐतिहासिक ख़ैबर दर्रे के दो अहम दौरों को अच्छी तरह याद रखते हैं, इनमें से एक अक्तूबर 1945 और दूसरा अप्रैल 1948 का दौरा था.”
90 साल के मलिक राज मोहम्मद ख़ान उर्फ़ राजौन ने जिन्ना के पहले दौरे की लंडी कोतल की यादें सुनाते हुए कहा, “क़ौम के रहनुमा का पूरे जोशो-ख़रोश से इस्तक़बाल किया गया. जब वह गाड़ी से उतरे तो लोगों ने नारे लगाए, क़ायद-ए-आज़म ज़िंदाबाद!”
कैरो लिखते हैं कि इस्लाम के झंडे बुलंद हो गए और जिन्ना का रास्ता साफ़ हो गया.
डॉक्टर ह्यू बीटी के मुताबिक़ सरहद के साथ तनाव बढ़ता गया और 1947 में मुस्लिम लीग ने असहयोग आंदोलन शुरू किया.
“कुछ पख़्तून नेताओं, ख़ासकर अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने मांग की कि पश्तूनों को एक आज़ाद राज्य ‘पश्तूनिस्तान’ के लिए वोट देने का हक़ दिया जाए. मगर जुलाई 1947 में इस प्रांत के भविष्य पर हुए रेफ़रेंडम में केवल दो विकल्प दिए गए, पाकिस्तान या भारत. नतीजे में 99.02 फ़ीसद वोट पाकिस्तान के हक़ में आए.”
कैरो लिखते हैं कि 15 अगस्त, 1947 के रेफ़रेंडम के बाद सरहदी सूबा पूरे जोशो-ख़रोश से पाकिस्तान का हिस्सा बन गया, “और उसी साल नवंबर में सभी क़बायलियों ने डूरंड लाइन तक पाकिस्तान से विलय कर लिया. इसके अलावा चार सीमावर्ती रियासतें – दीर, स्वात, चित्राल और अंब भी पाकिस्तान में शामिल हो गईं.”
मोहम्मद अली जिन्ना ने 17 अप्रैल 1948 को पेशावर में क़बायली जिरगे को संबोधित किया.
ब्रिटिश शासन से अलग विज़न
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इमेज कैप्शन, भारत विभाजन के वक़्त कबायली इलाक़ों का भविष्य एक अहम मुद्दा था
आबिद मज़हर के शोध के मुताबिक़ जिन्ना का सरहदी सूबे के प्रशासन के लिए विज़न ब्रिटिश नज़रिए से अलग था.
मज़हर के मुताबिक “जिन्ना का विज़न दो बुनियादों पर आधारित था – क़बायली अवाम की स्वायत्तता, संस्कृति, रीति-रिवाज़ों और परंपराओं को क़बूल करना और उन्हें आर्थिक तरक़्क़ी के ज़रिए स्वायत्त और सम्मानित नागरिक बनाना.”
क्राइसिस ग्रुप एशिया की रिपोर्ट ‘पाकिस्तान ट्राइबल एरियाज़’ के अनुसार उन्नीसवीं सदी में ब्रिटेन ने इस रणनीतिक सीमावर्ती इलाक़े को मध्य एशिया से रूसी विस्तार के ख़िलाफ़ एक बफ़र और अफ़ग़ानिस्तान पर अपना कंट्रोल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया.
ब्रिटिश भारत ये इलाक़ा पंजाब का हिस्सा था और इसका शासन एक चीफ़ कमिश्नर चलाता था.
साल 1901 में इसे अलग सूबा बनाया गया और उसे दो हिस्सों में बांटा गया – स्थाई आबाद इलाक़े या ज़िले और क़बायली इलाक़े यानी एजेंसियां.
‘क़ायद-ए-आज़म ज़िंदाबाद’ के नारे
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इमेज कैप्शन, रज्मक में मनाया गया पाकिस्तान का पहला स्वतंत्रता दिवस (फ़ाइल फ़ोटो)
ब्रिटिश प्रशासन की तरफ़ से इस इलाक़े पर कंट्रोल बनाए रखने के लिए फ़ौज तैनात की गई लेकिन साथ ही थोड़ी-बहुत स्वायत्तता भी दी गई.
“यह विशेष दर्जा कई समझौतों में दर्ज किया गया था जिनके तहत ‘मलिक’ (क़बायली बुज़ुर्ग) इस वादे से बंधे थे कि वह व्यापार और स्वायत्तता के मक़सद के लिए सीमा के रास्ते खुले रखें और बदले में उन्हें अलाउंसेज़ और सब्सिडी दी जाती थी जिसे वे अपने लोगों में बांटा करते थे.”
तीन जून 1947 के इंडियन इंडिपेंडेंस ऐक्ट ने यह ख़ास समझौते ख़त्म कर दिए.
1949 में दैनिक ‘डॉन’ में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ फ़ातिमा जिन्ना ने 15 दिन के दौरे के बाद पाड़ा चिनार से पेशावर लौटते वक़्त कहा कि वह क़बायलियों की पाकिस्तान के लिए ‘बेपनाह मोहब्बत और जज़्बे’ से बहुत प्रभावित हुईं.
उन्होंने कहा कि कुर्रम एजेंसी में मिले ज़बरदस्त स्वागत को वह कभी नहीं भूल सकतीं, जहां बच्चे समेत लोग सड़क किनारे क़तारों में उनके स्वागत के लिए खड़े थे.
लेकिन अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान की स्थापना के साथ ही डूरंड लाइन की सीमा की हैसियत पर आपत्ति शुरू कर दी थी.
लेकिन ब्रिटेन ने इसमें पाकिस्तान का साथ दिया. ब्रिटेन के एक मंत्री नोएल बेकर ने हाउस ऑफ़ कॉमन्स में कहा, “अंतरराष्ट्रीय क़ानून के अनुसार पाकिस्तान के पास वही अधिकार हैं जो भारत और ब्रिटेन की पिछली सरकार के थे. डूरंड लाइन ही अंतरराष्ट्रीय सीमा है.”
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इमेज कैप्शन, जिन्ना की कबायली नेताओं के साथ मुलाक़ात
अपने एक लेख में मोहम्मद अली बाबाख़ेल कहते हैं कि पाकिस्तान में विलय के बाद सरहदी सूबे के शासन के बारे में कई संवैधानिक बदलाव किए गए.
उनके मुताबिक़ 1956 के संविधान में सरहदी सूबे को विशेष दर्जा दिया गया और 1962 के संविधान ने केंद्र और प्रांत के क़ानून पर अमल करने को सीमित कर दिया जो केवल राष्ट्रपति या गवर्नर के निर्देश के तहत लागू किए जा सकते थे.”
1973 के संविधान ने 37 हज़ार ‘मलिकों’ को वोट का हक़ दिया. आम क़बायली अवाम को चुनावी प्रक्रिया से बाहर रखा गया. 1997 में सभी वयस्क लोगों को मताधिकार दिया गया.
2010 में अठारहवें संशोधन से उत्तर-पश्चिमी सरहदी सूबे का नाम ख़ैबर पख़्तूनख़्वा कर दिया गया.
बाबाख़ेल लिखते हैं कि 25वें संवैधानिक संशोधन से पहले सरहदी सूबा सात एजेंसियों और फ़्रंटियर रीजन में बंटा हुआ था जो विलय के बाद दोबारा ज़िलों में बांटे गए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.