इमेज स्रोत, Getty Images
बात वर्ष 1980 की है. भारतीय हॉकी टीम मॉस्को ओलंपिक की तैयारी कर रही थी. टीम को बंगलौर में ट्रेनिंग दी जा रही थी. ट्रेनिंग के दौरान 1971 की लड़ाई के हीरो फ़ील्ड मार्शल मानेक शॉ ने आकर टीम का जोश बढ़ाया था.
यही नहीं, इसके बाद दो पूर्व हॉकी लीजेंड्स लेज़ली क्लॉडियस और एम राजगोपाल ने आकर उन्हें अपने स्वर्ण पदक जीतने की कहानी भी सुनाई थी.
ये टीम जब मॉस्को के लिए रवाना हुई, तो उससे कोई बहुत अधिक उम्मीदें नहीं थीं. एक तो 1976 के मॉन्ट्रियल ओलंपिक में वो सिर्फ़ सातवाँ स्थान प्राप्त कर पाए थे और दूसरे इस टीम के सिर्फ़ पाँच खिलाड़ियों को ही अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का अनुभव था.
सन 1980 के ओलंपिक खेलों में सिर्फ़ छह देशों ने भाग लिया था. कई पश्चिमी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना भेजे जाने के विरोध में मॉस्को ओलंपिक खेलों का बहिष्कार किया था.
पहले मैच में आसान जीत
इमेज स्रोत, Getty Images
मॉस्को के मौसम और प्लेइंग कंडिशन्स को समझने के लिए हॉकी टीम को ओलंपिक दल से 12 दिन पहले मॉस्को भेजा गया.
इसकी एक वजह ये भी थी कि मॉस्को ओलंपिक में पहली बार पॉली ग्रास का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिस पर खेलने के भारतीय खिलाड़ी अभ्यस्त नहीं थे. भारत ने टूर्नामेंट की शानदार शुरुआत करते हुए तंज़ानिया को 18-0 से हराया.
वरिष्ठ खेल पत्रकार के दत्ता ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के 21 जुलाई, 1980 के अंक में लिखा था, “इस जीत ने भारतीय हॉकी के पुराने दिनों की याद ताज़ा कर दी. डायनामो स्टेडियम में खेला गया मैच पूरी तरह एकतरफ़ा था और भारतीय टीम को अपनी कमियाँ जाँचने का कोई मौक़ा नहीं मिला.”
मैच देख रहे बलबीर सिंह सीनियर ने भी कहा था, “पहले ही मैच में इतना अच्छा स्कोर भारतीय टीम और हमारा मनोबल बढ़ाने के लिए काफ़ी था.”
पोलैंड से आख़िरी सेकेंड में हुआ मैच बराबर
इमेज स्रोत, Getty Images
दूसरे मैच में भारत की टक्कर हुई पोलैंड की टीम से. अंतिम क्षणों तक भारत की टीम पोलैंड से 1-2 से पीछे थी.
बिल्कुल आख़िरी सेकेंड में मर्विन फ़र्नांडिस ने गोल दागकर भारत की आशाओं को जगाए रखा. इस मैच में भारतीय टीम डच अंपायर बॉब डेविडसन के कई फ़ैसलों से ख़ुश नहीं थी.
पेनल्टी कॉर्नर से गोल न कर पाने के लिए उन्होंने अंपायर को दोषी ठहराया.
उस टीम में भारतीय टीम के लेफ़्ट आउट ज़फ़र इक़बाल ने बीबीसी को बताया था, “इस मैच में हमारे पसीने छूट गए. पोलैंड ने मैन टू मैन मार्किंग कर रखी थी और हम लोग इसके आदी नहीं थे. इससे पहले भी पिछले 20-30 सालों में जब भी पोलैंड से हमारा मुक़ाबला हुआ था. हमारे लिए उनको हराना कभी आसान नहीं रहा था.”
भारत का तीसरा मैच स्पेन से था. इस मैच में भी भारत ने आख़िरी क्षणों में गोल मारकर अपनी उम्मीदें बनाए रखीं. इस मैच में भी भारतीय टीम अंपायर के फ़ैसलों से ख़ुश नहीं दिखी, लेकिन उसने उनके ख़िलाफ़ कोई औपचारिक शिकायत नहीं की.
बोरिया मजूमदार और नलिन मेहता ने अपनी किताब ‘ओलंपिक्स: द इंडियन स्टोरी’ में लिखा है, “मॉस्को भेजी गई भारतीय हॉकी टीम सबसे शक्तिशाली टीम भले ही न रही हो, लेकिन शारीरिक फ़िटनेस के क्षेत्र में ये टीम कई भारतीय टीमों से बेहतर थी.”
अगले मैच में भारत ने कमज़ोर क्यूबा की टीम को 13-0 से हराया. इसके बाद भारतीय टीम का मुक़ाबला मेज़बान सोवियत संघ की टीम से था.
भारत ने ये मैच देवेंदर सिंह के दो गोलों की बदौलत 4-2 से जीता. लेकिन ये मुक़ाबला इतना आसान नहीं था, जितना स्कोरबोर्ड बता रहा था. इस मैच में अंपायर भारतीय टीम पर मेहरबान रहे और सोवियत खिलाड़ी अंपायरिंग से ख़ुश नहीं दिखाई दिए.
के दत्ता ने टाइम्स ऑफ़ इंडिया के 26 जुलाई, 1980 के अंक में लिखा, “रूसियों ने भारत से बेहतर गति दिखाई. हाँ, उनका गेंद पर नियंत्रण भारत से कमज़ोर था. कई बार वो फ़्लैंक्स से भारतीय क्षेत्र में घुसे और गोलकीपर छेत्री को उन्होंने कभी चैन से नहीं बैठने दिया.”
टीम के कप्तान भास्करन ने बीबीसी को बताया था, “इस टूर्नामेंट में पहली बार हमने मैच से पहले वीडियो पर रात भर सोवियत खिलाड़ियों के खेल को देखा और अपनी रणनीति बनाई. हमने तय किया कि देवेंदर सिंह डायरेक्ट पेनल्टी कॉर्नर न लेकर इनडायरेक्ट पेनल्टी कॉर्नर लेंगे. रूसी हमसे इस तरह की रणनीति की उम्मीद नहीं कर रहे थे और वो इसके लिए तैयार भी नहीं थे.”
फ़ाइनल में स्पेन पर शुरुआती बढ़त
इमेज स्रोत, Getty Images
भारत का फ़ाइनल मैच स्पेन से था. स्पेन उस वर्ष का यूरोपियन चैंपियन था और उसकी पेनल्टी कॉर्नर से गोल करने की क्षमता भारत से बेहतर थी.
भारत की अपेक्षाकृत अनुभवहीन टीम 16 वर्षों के बाद ओलंपिक फ़ाइनल खेल रही थी.
ज़फ़र इक़बाल ने बताया था, “स्पेन की टीम काफ़ी परिपक्व थी. ग्रेसिया उनका गोलकीपर था. हुआन अमात उनका फ़ुल बैक होता था. वो पेनल्टी कॉर्नर लेने के विशेषज्ञ थे और अपना तीसरा या चौथा ओलंपिक खेल रहे थे. उन्होंने हमारे लेफ़्ट फ़्लैंक को पूरी तरह से ब्लॉक कर रखा था. लेकिन मोहम्मद शाहिद अद्वितीय खिलाड़ी थे. उनका स्टिक वर्क शायद उस समय दुनिया में सर्वश्रेष्ठ था. पहले हाफ़ में उन्होंने हमें खुलकर खेलने नहीं दिया, लेकिन दूसरे हाफ़ में शाहिद ने बेहतरीन डॉजिंग कर उनके मैन टू मैन मार्किंग के प्लान को तितर-बितर कर दिया.”
पहले दो गोल किए सेंटर फ़ॉरवर्ड सुरिंदर सिंह सोढ़ी ने. स्पेन ने एक गोल उतारा, लेकिन फिर राइट आउट कौशिक ने एक गोल कर भारत को 3-1 से आगे कर दिया.
स्पेन के खिलाड़ियों ने अपना सब कुछ मैच में झोंका
हाफ़ टाइम के बाद मोहम्मद शाहिद ने कई खिलाड़ियों को चकमा देते हुए रिवर्स फ़्लिक से गोल कर भारत को 4-1 से आगे कर दिया.
इस गोल के बाद खेल के परिणाम के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं रह गया.
भारत से आए खेल संवाददाता खेल बीच में ही छोड़ कर प्रेस रूम की तरफ़ भागे ताकि वहाँ पर उपलब्ध एक-आध अंग्रेज़ी टाइप राइटरों का पहले इस्तेमाल कर सकें.
इस बीच भारतीय खिलाड़ियों को थोड़ा ध्यान भंग हुआ और स्पेन के खिलाड़ियों ने अपना सब कुछ मैच में झोंक दिया.
उस टीम के सदस्य मर्विन फ़र्नांडिस ने बीबीसी को बताया था, “स्पेन का कम बैक इसलिए हुआ क्योंकि उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं था. उस दिन भास्करन ने टीम को अच्छी तरह संभाला और टीम का मनोबल गिरने नहीं दिया. उन्होंने हमें बार-बार हिदायत दी कि हम अपना धैर्य नहीं खोएँ और अपना स्वाभाविक खेल खेलते रहें.”
ख़तरनाक आख़िरी पाँच मिनट
इमेज स्रोत, Getty Images
भारत पर स्पेन का दबाव बना ही था कि उसी समय संपूर्ण उत्तर भारत में भूकंप के ज़बरदस्त झटके महसूस किए गए.
रेडियो पर कमेंट्री सुन रहे लाखों लोग अपने-अपने घरों के बाहर भागे. दस मिनट बाद जब वे अपने घरों के अंदर आए, तब तक हुआन अमात पेनल्टी कॉर्नर से भारत पर दो गोल कर चुके थे.
खेल ख़त्म होने में कुछ मिनट शेष थे. उस समय भी स्कोर भारत के पक्ष में 4-3 था. लेकिन स्पेन के 10 खिलाड़ी भारत के ‘डी’ में थे.
उन रोमांचक क्षणों को याद करते हुए ज़फ़र इक़बाल ने बीबीसी को बताया था, “खेल ख़त्म होने में सिर्फ़ दो या तीन मिनट रह गए थे और स्पेन को शॉर्ट कॉर्नर पर शॉर्ट कॉर्नर मिले जा रहे थे. हाफ़ लाइन पर खड़े हम जैसे लोग अपने गोल की तरफ़ देखते ही नहीं थे, इस डर से कि गेंद कहीं गोल के फट्टे पर न लग जाए. आख़िरी शॉर्ट कॉर्नर पर भागने की ज़िम्मेदारी मैंने किसी और को दे दी.”
“हमारे दिल की धड़कनें रुक सी गईं, जब अमात को शॉर्ट कॉर्नर पर रिबाउंड मिल गया. वो गोलकीपर छेत्री से सिर्फ़ 10 गज़ की दूरी पर खड़ा हुआ था. उस समय खेल ख़त्म होने में सिर्फ़ डेढ़ मिनट बाक़ी थे. हमारे गोल का बायाँ हिस्सा भी ख़ाली पड़ा था, लेकिन उसका मारा शॉट गोलपोस्ट से चार-पाँच इंच बग़ल से निकल गया.”
16 वर्षों बाद भारत बना ओलंपिक चैंपियन
इमेज स्रोत, Getty Images
आख़िरी मिनट में स्पेन को एक और पेनल्टी कॉर्नर मिला. दर्शकों ने साँस रोक कर हुआन अमात को एक और शक्तिशाली पेनल्टी कॉर्नर शॉट लेते हुए देखा.
भारतीय गोलकीपर छेत्री मुँदी आँखों से अपनी दाईं ओर झुके और झन्नाटेदार शॉट उनके पैड से लग कर मैदान से बाहर हो गया.
तभी फ़ाइनल सीटी बजी और भारत की युवा टीम 16 वर्ष के अंतराल के बाद ओलंपिक चैंपियन बन गई.
भास्करन ने उस मैच को याद करते हुए बीबीसी को बताया था, “स्पेन को आख़िरी पाँच मिनट में चार पेनल्टी कॉर्नर मिले. उनमें से तीन शॉट मैंने गोल लाइन पर बचाए. ये बहुत ही मुश्किल मैच के बाद मिली जीत थी. इस पूरे टूर्नामेंट के दौरान उस समय सोवियत संघ में भारत के राजदूत और बाद में भारत के प्रधानमंत्री बने इंदर कुमार गुजराल भारतीय टीम का मनोबल बढ़ाने मैदान में मौजूद थे.”
इंदिरा गांधी ने दी फ़ोन पर बधाई
इमेज स्रोत, Getty Images
फ़ाइनल के बाद अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के सदस्य अश्वनी कुमार ने विजेताओं को पदक बाँटे. मैच के तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फ़ोन कर भारतीय टीम को बधाई दी.
स्पेनिश टीम के जर्मन कोच हॉर्स्ट वेन ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि इस जीत से भारत की टीम एक बार फिर दुनिया की सर्वश्रेष्ठ हॉकी टीम बन जाएगी.
उस भारतीय टीम के फ़ुल बैक सिल्वानस डुंग डुंग ने उन क्षणों का याद करते हुए बीबीसी को बताया था, “जीतने के बाद मैदान में ही चोटी की तीन टीमों को पदक दिए गए. सबसे ऊपर भारत का झंडा देखकर मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि मेरी आँखों में आँसू आ गए.”
शाहिद की दुविधा
इमेज स्रोत, Getty Images
भारत लौटने पर विजेता भारतीय हॉकी टीम को लोगों ने अपने सिर आँखों पर बैठाया. इस प्रतियोगिता के बाद से ही मोहम्मद शाहिद की गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फ़ॉरवर्ड्स में होने लगी.
19 वर्षीय शाहिद के लिए वो बहुत ही महान क्षण था, जब वह स्वर्ण पदक के साथ अपने पुश्तैनी शहर बनारस पहुँचे.
शाहिद ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, “मुझे याद है कि जब 1980 में हम स्वर्ण पदक जीत कर पहले दिल्ली और फिर बनारस पहुँचे, तो स्टेशन पर बहुत से लोग हमें लेने पहुँचे थे. सुबह से लेकर शाम तक हमारे स्वागत में कार्यक्रम आयोजित किए जाते. मैं जहाँ भी जाता, लोग मुझसे कहते कि आप भाषण दीजिए और मॉस्को के अपने अनुभवों को बताइए. 18-19 साल की उम्र में हमें इतनी शर्मिंदगी महसूस होती थी और मैं सोचता था कि मैं कहाँ फँस गया. मेरे लिए भाषण देने से आसान था भारत के लिए गोल मारना.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित