एक सितंबर को पूर्वी जर्मनी के दो राज्यों मे हुए स्थानीय चुनावों के नतीजों ने पूरे यूरोप में हड़कंप मचा दिया क्योंकि वहां अति-दक्षिणपंथी दल एएफ़डी पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की.
थुरिंजिया राज्य में एएफ़डी यानी अल्टरनेटिव फ़ॉर जर्मनी ने सबसे ज्यादा वोट हासिल किए. उसे एक तिहाई वोट हासिल मिले. पड़ोसी राज्य सैक्सोनी में वो दूसरे स्थान पर रही.
लगभग दस साल पहले एएफ़डी की स्थापना हुई थी और तभी से यह विवादों में घिरी रही है. इस पार्टी को जर्मनी के यूरोपीय संघ के साथ संबंधों को लेकर भी आपत्ति रही है और हाल में एएफ़डी उसके रूस समर्थक विचारों और एंटी इमीग्रेशन या प्रवासन विरोधी नीति के कारण भी चर्चा में रही है.
यह पार्टी पहली बार 2017 में जर्मनी की संसद में अपने उम्मीदवार भेजने में सफल हुई थी. इसके छोटे से राजनीतिक इतिहास में उसकी थुरिंजिया राज्य में जीत से जर्मनी की गठबंधन सरकार में शामिल दलों को भी मतदाताओं की ओर से कड़ा संदेश गया है.
दो राज्यों के इन चुनावों में सत्तारूढ़ गठबंधन की तीनों पार्टियों ने मिल कर भी 15 प्रतिशत से कम वोट हासिल किए. मगर यह नतीजे इतने चौंकाने वाले भी नहीं थे क्योंकि तीन साल पहले हुए चुनाव के बाद से जर्मनी के चांसलर ओलाफ़ शॉल्त्स की लोकप्रियता घटती गयी है.
इसलिए इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या अति दक्षिणपंथी दल जर्मनी को अपनी पकड़ में ले सकता है?
एएफ़डी की जड़ें
एएफ़डी यानी ऑल्टरनेटिव फ़ॉर जर्मनी पार्टी की स्थापना 2013 में हुई थी जब यूरोप आर्थिक संकट के परिणामों से उबरने की कोशिश कर रहा था.
जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंगेला मर्केल यूरोप की साझा मुद्रा यूरो को बरकरार रखने की कोशिश कर रही थीं मगर उस समय कई अर्थशास्त्रियों की सोच थी कि यूरो को अपनाने से जर्मनी को फ़ायदा कम और नुकसान ज़्यादा हो रहा है.
एएफ़डी की शुरुआत के बारे में हमने जर्मनी की मैनहाइम यूनिवर्सिटी में यूरोपीय राजनीति के प्रोफ़ेसर थॉमस कोनिग से बात की.
उन्होंने बताया कि एएफ़डी की स्थापना में बड़ी भूमिका उन जर्मन अर्थशास्त्रियों की थी जो जर्मनी द्वारा उसकी अपनी मुद्रा डॉइश मार्क के बजाय यूरो को अपनाने का विरोध करते थे.
उनका कहना था कि ऐसा करने से यूरो से जुड़े अन्य देशों के कर्ज़ का भार भी जर्मनी पर पड़ेगा.
तत्कालीन चांसलर एंगेला मर्केल ने कहा था कि जर्मनी के पास यूरो को अपनाने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है. लेकिन एएफ़डी के संस्थापक इससे सहमत नहीं थे.
थॉमस कोनिग ने कहा, “एएफ़डी के संस्थापकों का कहना था कि दूसरा विकल्प निश्चित ही है. वो दूसरा विकल्प था एएफ़डी. इस प्रकार एएफ़डी की शुरुआत हुई. शुरू में तो वो आर्थिक मुद्दों की बात करते थे लेकिन वक्त के साथ सरकार पर निशाना साधने के लिए वो दूसरे मुद्दों को भी उठाने लगे.”
जर्मनी की राजनीति में नया मोड़ सीरिया युद्ध के बाद आया जब 2015 में युद्ध से विस्थापित हो कर तीन लाख से ज़्यादा सीरियाई लोग जर्मनी पहुंच गए. तब एएफ़डी ने अपने यूरोप विरोधी एजेंडे से हट कर इमीग्रेशन या प्रवासन को मुख्य मद्दा बनाया और राष्ट्रवादी एजेंडा आगे बढ़ाना शुरू कर दिया.
हालांकि, जर्मनी अकेला यूरोपीय देश नहीं था जो बड़ी संख्या में हो रहे प्रवासन की चुनौती से जूझ रहा था.
थॉमस कोनिग का कहना है कि एएफ़डी के दोनों प्रमुख नेता टीनो च्रूपला और एलिस वाइडेल इस समस्या को मुद्दा बनाते हैं मगर उनके पास इस समस्या का कोई स्पष्ट समाधान नहीं है.
थॉमस कोनिग ने कहा, “ इस समस्या का क्या समाधान है? क्या हम दोबारा पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में बर्लिन वॉल जैसी दीवारें खड़ी करें जैसी पहले थी. और क्या जर्मनी के पास उन दीवारों की निगरानी करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा तंत्र है? उनके पास इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं है. वो इसे एक भावनात्मक मुद्दा बना रहे हैं.”
थॉमस कोनिग का कहना है कि इमीग्रेशन ही एक मुद्दा नहीं है बल्कि एएफ़डी रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में यूक्रेन को जर्मनी द्वारा सैनिक सहायता दिए जाने के भी ख़िलाफ़ है. लेकिन अगर रूस पूरे यूक्रेन पर कब्ज़ा कर ले तो उससे कैसे निपटा जाए इसका कोई जवाब एएफ़डी के पास नहीं है.
यहां यह भी याद रखना ज़रूरी है कि शीतयुद्ध के दौरान पूर्वी जर्मनी के सोविएट संघ के साथ नज़दीकी संबंध थे इसलिए पूर्वी जर्मनी में एएफ़डी की सफलता को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए. और हो सकता है पश्चिमी जर्मनी के मतदाताओं की इस बारे में राय अलग हो.
लेकिन एएफ़डी को लेकर चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि उसके कुछ नेता चुनावी रैलियों में नाज़ी प्रतीकों का इस्तेमाल कर चुके हैं जिसकी वजह से अदालत ने उनके एक नेता पर जुर्माना भी लगाया है. एएफ़डी के एक नेता रेने स्प्रिंगर ने प्रवासियों को उनके अपने देश वापिस भेजने की बात भी की है.
इमीग्रेशन
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यूरोप के कई देशों में श्रमिकों की किल्लत हो गई थी जिसके लिए दूसरे देशों से लोगों को काम के लिए वहां लाया जा रहा था.
अमेरिका की रिचमंड यूनिवर्सिटी में इतिहास की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर मिशेल लिन काह्न कहती हैं कि उस समय जर्मनी ने भी श्रमिकों को लाने के लिए कदम उठाए थे.
“जर्मनी ने 1955 में दक्षिणी और पूर्वी यूरोप और उत्तरी अफ़्रीकी देशों के साथ के साथ वहां से श्रमिकों को जर्मनी लाने के लिए कई समझौते किए थे जो 1973 तक जारी रहे थे. इसे गेस्ट वर्कर प्रोग्राम कहा जाता था. इस प्रोग्राम में इटली, पुर्तगाल, यूगोस्लाविया और ट्यूनीशिया शामिल थे. 1960 के आते-आते, तुर्की से सबसे अधिक श्रमिक इस गेस्ट वर्कर प्रोग्राम के तहत जर्मनी आने लगे थे.”
तुर्की से हज़ारों लोग जर्मनी मे आकर गेस्ट वर्कर की तरह काम करने लगे. इनमें से अधिकांश लोगों को खनन उद्योग और फ़ैक्ट्रियों में काम पर लगाया जाता था. उस समय जर्मन सरकार इसे एक अस्थायी समाधान की तरह देखती थी.
डॉक्टर मिशेल लिन काह्न ने कहा कि इस प्रोग्राम को रोटेशन पॉलीसी के तौर पर चलाया जाता था. इसका मतलब था कि गेस्ट वर्कर अधिकतम केवल दो साल तक काम करने के लिए जर्मनी आएंगे और बाद में उन्हें उनके देश वापस भेज दिया जाएगा और उनकी जगह नए श्रमिकों को लाया जाएगा. “मगर असल में इस रोटेशन पॉलिसी पर कड़ाई से अमल नहीं होता था. कई श्रमिक वापस लौट गए लेकिन कुछ लोग पैसे कमाने के लिए जर्मनी में रुक गए.
साथ ही कई कंपनियां भी अपने श्रमिकों को दो साल बाद उनके देश वापस नहीं भेजना चाहती थीं क्योंकि उनके लिए नए श्रमिकों को लाकर दोबारा प्रशिक्षण देना महंगा पड़ता था.”
1970 के अंत तक तुर्क पश्चिमी जर्मनी में सबसे बड़ा जातीय अल्पसंख्यक समुदाय बन चुके थे. उसी समय देश तेल संकट से जूझ रहा था और आम लोगों में यह धारणा घर करने लगी थी कि तुर्क जर्मन लोगों का रोज़गार हथिया रहे हैं. लेकिन इस मुद्दे का एक दूसरा आयाम भी था.
डॉक्टर मिशेल लिन काह्न ने कहा, “सांस्कृतिक नस्लवाद की एक वजह यह भी थी कि 99 प्रतिशत तुर्क मुसलमान थे. 1970 के दशक में इस सोच का हवा दी जाने लगी कि तुर्क रूढीवादी हैं, महिलाओं के बारे में पितृसत्तात्मक सोच रखते हैं. वो आधुनिक नहीं हैं.”
1983 में पश्चिम जर्मनी की सरकार ने एक कानून पास किया, जिसके तहत तुर्की के लोगों को स्वदेश लौटने के लिए आर्थिक प्रोत्साहन दिया जाने लगा. डॉक्टर मिशेल लिन काह्न का कहना है कि इसके चलते जर्मनी में रह रहे तुर्कियों में से पंद्रह प्रतिशत लोग पैसे लेकर स्वदेश लौट गए.
लेकिन फिर 2015 में जर्मनी में एक बड़ी प्रवासीविरोधी लहर आयी क्योंकि देश के सामने सीरियाई शरणार्थी संकट खड़ा हो गया था. उस समय चांसलर एंगेला मर्केल शरणार्थियों को स्वीकार करने की नीति अपना रही थीं लेकिन जल्द ही देश में इसका विरोध होने लगा.
उसके बाद 2022 में रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद बड़ी संख्या में यूक्रेनी शरणार्थी जर्मनी पहुंच गए. कोविड महामारी के प्रभाव से उबर रहे जर्मनी में दस लाख से ज्यादा शरणार्थियों के आगमन के बाद जनता में असंतोष था और अब वो लंबे समय से देश पर शासन कर रही मध्यमार्गी पार्टियों के विकल्प खोजने लगी थी.
राजनीति
जर्मनी की कोनस्टांज़ यूनिवर्सिटी में जर्मन राजनीति की प्रोफ़ेसर क्रिस्टीना ज़ुबैर कहती हैं किअति दक्षिणपंथी सोच केवल पूर्वी जर्मनी में ही जड़ नहीं पकड़ रही बल्कि दक्षिणपूर्वी राज्यों में, और ख़ास तौर पर वहां के ग्रामीण इलाकों में भी फैलती रही है और वहां भी आल्टरनेटिव फॉर जर्मनी या एएफ़डी पार्टी लोकप्रिय होती गयी है. मगर शहरी और औद्योगिक इलाकों में इमेग्रेशन बड़ा मुद्दा नहीं है इसलिए वहां लोगों का झुकाव अतिवादी दक्षिणपंथी दलों की ओर नहीं होता.
दरअसल, जर्मनी में चुनावी प्रतिनिधित्व जनसंख्या के अनुपात के अनुसार तय होता है और आमतौर पर गठबंधन सरकार बनती है. 2021 में हुए संसदीय चुनावों के बाद जर्मनी की राजनीति में नया मोड़ आया.
इससे पहले मध्य से दक्षिण की ओर झुकाव रखने वाली क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक पार्टी की नेता एंगेला मर्केल ने 16 सालों तक ने जर्मनी का नेतृत्व किया था. उनके हटने के बाद चुनाव में मध्य से वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी या एसपीडी ने संसद का नेतृत्व संभाला. उसने लिबरल फ्री डेमोक्रैटिक पार्टी या एएफ़डीपी और ग्रीन पार्टी के साथ मिल कर गठबंधन सरकार बनायी लेकिन पिछले तीन सालों में सरकार की लोकप्रियता घटती गयी है.
क्रिस्टीना ज़ुबैर ने कहा, “मुझे लगता है इसकी एक बड़ी वजह गठबंधन के दलों के बीच नीतियों को लेकर अंदरुनी लड़ाई है. और जनता को लगता है कि सरकार प्रभावी तरीके से समस्याओं का समाधान नहीं कर पा रही है.”
जर्मनी की सरकार ने जनता की इमीग्रेशन या प्रवासन से जुड़ी समस्या से निपटने के लिए कदम तो उठाए हैं मगर इससे सरकार की मुसीबतें कम नहीं हुईं.
क्रिस्टीना ज़ुबैर का कहना है कि सरकार ने इमीग्रेशन और शर्णार्थियों के आने को लेकर नियम कड़े कर दिए हैं. ऐसी नीतियां अगर मध्य से दक्षिण की ओर झुकाव रखने वाली रूढीवादी पार्टी अपनाती तो बात समझ में आती है लेकिन सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी ने भी इमीग्रेशन को लेकर कड़ी नीति अपना ली है.
नतीजा यह हुआ कि वामपंथी मतदाता सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी से दूर जाने लगे और इमीग्रेशन के मुद्दे से चिंतित मतदाता सीडीयू पार्टी और एएफ़डी पार्टी की ओर झुकने लगे हैं.
ताज़ा सर्वेक्षणों के अनुसार एएफ़डी जर्मनी की दूसरी सबसे लोकप्रिय पार्टी बन चुकी है. एएफ़डी के विरोधी इसे एक ख़तरनाक रुझान की तरह देखते हैं और वो मानते हैं कि एएफ़डी की लोकप्रियता जर्मनी को उसी मार्ग पर ले जा सकती है जिस पर लगभग सौ साल पहले नाज़ी ले गए थे.
क्रिस्टीना ज़ुबैर का यह भी कहना है कि जनवरी और फ़रवरी में देश में उन लोगों ने बड़े विरोध प्रदर्शन किए जो एएफ़डी की अति दक्षिणपंथी विचारधारा से सहमत नहीं हैं. ‘उन लोगों का कहना था कि वो जर्मनी को एक बहुसांस्कृतिक देश के रूप में देखना चाहते हैं जहां खुलापन हो. मगर अधिकांश पार्टियां इन लोगों की बात नहीं सुन रही हैं.”
क्रिस्टीना ज़ुबैर कहती हैं कि मतदाताओं को सतर्क रहना होगा क्योंकि एएफ़डी पार्टी अगर चुनाव जीत जाती है तो वो तानाशाही तरीके अपनाएगी और जिस तरह नाज़ियों ने देश से लोकतंत्र को ख़त्म कर दिया था अति दक्षिणपंथी पार्टी भी यही करेगी.
अगला पड़ाव
थुरिंजिया राज्य में एएफ़डी पार्टी ने सबसे ज़्यादा वोट तो हासिल किये मगर पुराने दलों ने गठबंधन बना कर एएफ़डी को सरकार से बाहर रखने में कामयाबी हासिल कर ली.
वॉशिंगटन स्थित दी अटलांटिक काउंसिल के यूरोप सेंटर के वरिष्ठ निदेशक यॉन फ़्लेक कहते हैं कि देश के राष्ट्रीय चुनावों में भी यही होगा और एएफ़डी पार्टी के किसी गठबंधन सरकार में शामिल होने की संभावना बहुत कम है.
”मुख्यधारा की सभी लोकतांत्रिक पार्टियों ने एएफ़डी के ख़िलाफ़ असहयोग का संकल्प कर रखा है और वो बहुत पहले कह चुके हैं कि वो एएफ़डी को किसी गठबंधन सरकार में भागीदार नहीं बनाएंगे.”
लेकिन अगर एएफ़डी को गठबंधन में शामिल नहीं किया गया तो क्या ऐसी सरकार वाक़ई जनादेश को परिलक्षित करेगी और क्या मतदाताओं की ओर से दबाव नहीं पड़ेगा?
यॉन फ़्लेक ने स्वीकार किया कि इसमें समस्या तो है. “अगर मतदाता मध्य से दक्षिणपंथ की ओर झुकाव रखने वाली सीडीयू पार्टी और अति दक्षिणपंथी पार्टी को वोट दे और मध्य से वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली पार्टियां गठबंधन सरकार बना लें तो इससे सरकार और देश की राजनीति की वैधता पर सवाल उठेंगे.”
राजनीतिक तौर पर अलग-थलग पड़ जाने के अलावा एएफ़डी के सामने एक संकट और है. मई में एक अदालत ने फ़ैसला सुनाया कि देश की ख़ुफ़िया संस्थाओं द्वारा एएफ़डी को एक संदिग्ध चरमपंथी संस्था घोषित किया जाना जायज़ है.
एएफ़डी ने इस फ़ैसले का विरोध किया है और पार्टी के अलोकतांत्रिक होने के आरोपों का खंडन किया है. लेकिन क्या मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां एएफ़डी पर प्रतिबंध लगाने के बारे विचार कर सकती हैं?
यॉन फ़्लेक के अनुसार संविधान और कानून को देखा जाए तो एएफ़डी पर प्रतिबंध लगाना बहुत ही मुश्किल होगा.
वो कहते हैं कि मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के पास एएफ़डी पर अंकुश लगाने का सबसे बेहतर तरीका यही होगा कि वो ख़ुद देश को बेहतर प्रशासन दें.
उन्होंने कहा, “ हमें याद रखना चाहिए कि 70 प्रतिशत मतदाताओं ने एएफ़डी को नहीं बल्कि दूसरे दलों को वोट दिया है. पचास से साठ प्रतिशत मतदाताओं ने मुख्यधारा के लोकतांत्रिक दलों को वोट दिया है. और अभी भी बहुसंख्यक मतदाता एएफ़डी को सरकार में नहीं देखना चाहते.”
तो अब हम लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या अति दक्षिणपंथी दल जर्मनी को अपनी पकड़ में ले सकता है?
स्थानीय चुनावों में जर्मनी के पूर्वी राज्य थिरुंजिया में एएफ़डी ने सबसे ज्यादा वोट हासिल किए और मुख्यधारा की पार्टियों को दूसरे और तीसरे स्थान पर धकेल दिया. राष्ट्रीय चुनावों से पहले किए गए सर्वेक्षणों के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर वो दूसरे स्थान पर है जब कि विपक्षी दल सीडीयू पहले स्थान पर है. जर्मनी में अक्सर गठबंधन सरकार बनती रही है मगर मुख्यधारा के सभी दलों ने कह दिया है कि वो एएफ़डी के साथ मिल कर गठबंधन सरकार नहीं बनाएंगे.
यानी सरकार में आने के लिए उसे संसद में अपने बल पर बहुमत प्राप्त करना होगा. फ़िलहाल देश में उसे केवल 17 प्रतिशत वोट मिल रहे हैं जिसे देखते हुए उसका संसद में बहुमत प्राप्त करना मुश्किल लगता है. लेकिन राज्य स्तर पर एएफ़डी की लोकप्रियता बढ़ रही है.
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि एएफ़डी की स्थापना सत्ता हासिल करने के लिए नही बल्कि सरकार को चुनौति देने के लिए की गयी थी. एएफ़डी जर्मनी में सरकार भले ही ना बना पाए लेकिन वह देश की राजनीति में इमीग्रेशन या प्रवासन को बड़ा मुद्दा बनाने में ज़रूर कामयाब हो गयी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित