भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने इस बात से इनकार किया है कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के फ़ैसले से ठीक पहले उन्होंने भगवान से इस समस्या का समाधान उन्हें सुझाने की प्रार्थना की थी.
बीबीसी संवाददाता स्टीफन सैकर को दिए एक विशेष साक्षात्कार में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अयोध्या फ़ैसले, अनुच्छेद 370 और न्यायिक पारदर्शिता समेत कई मुद्दों पर बात की.
स्टीफ़न सैकर ने जब उनसे पूछा कि, “आपने राम मंदिर विवाद पर फ़ैसले से ठीक पहले भगवान से इसका समाधान सुझाने की प्रार्थना की थी”
तो जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “ये बात पूरी तरह से ग़लत है. सोशल मीडिया पर फैलाई गई बात है. मेरी बात को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया.”
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ नवंबर 2022 से 10 नवंबर 2024 तक भारत के मुख्य न्यायधीश के पद पर रहे.
हाल के सालों में सबसे चर्चित मुख्य न्यायाधीशों में से एक रहे जस्टिस चंद्रचूड़ के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम फ़ैसले सुनाए हैं.
इनमें से कुछ फ़ैसलों के लिए उनकी आलोचना भी हुई है. ख़ासकर राजनीतिक दबाव को लेकर.
न्यायिक स्वतंत्रता
साल 2023 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा कि विश्लेषक, राजनयिक और विपक्ष इस बात पर सहमत हैं कि नरेंद्र मोदी ने भारत को एक पार्टी राज्य की ओर धकेला है और उनकी पार्टी ने खुद को बचाने और विरोधियों को निशाना बनाने के लिए कोर्ट का सहारा लिया.
इसका ज़िक्र करते हुए जब स्टीफ़न सैकर ने पूछा कि क्या उन्हें भी इस दौरान राजनीतिक दबाव का सामना करना पड़ा तो जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “न्यूयॉर्क टाइम्स बिल्कुल ग़लत है क्योंकि वे समझने में नाकाम रहे कि 2024 के चुनाव में क्या होने वाला है. 2024 का चुनाव परिणाम इस एक पार्टी एक राज्य के मिथक को तोड़ता है. भारत में राज्यों में क्षेत्रीय आकांक्षाएं और पहचान सर्वोपरि होती हैं. कई ऐसे राज्य हैं जहां अलग-अलग क्षेत्रीय पार्टियां हैं जिन्होंने अभूतपूर्व रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है और वहां उनका शासन है.”
बीते कुछ सालों में कई विपक्षी नेताओं, सिविल सोसायटी एक्टिविस्ट और पत्रकारों को जेल में डाला गया. 2023 में कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक मानहानि केस में गुजरात की एक कोर्ट ने सज़ा दी, जिसका मतलब था उनकी संसद सदस्यता छिन जाती, लेकिन बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस सज़ा पर रोक लगा दी थी.
जब सैकर ने जस्टिस चंद्रचूड़ से पूछा कि राहुल गांधी के मामले में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप क्या यह नहीं बताता है कि भारत में न्यायपालिका पर राजनीतिक दबाव है?
इस सवाल पर डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में 21,300 ज़मानत याचिकाएं दायर की गई थीं और सुप्रीम कोर्ट ने इन सभी पर फ़ैसला दिया. इसका मतलब है कि क़ानून अपना काम कर रहा है. चाहे, अमेरिका, ब्रिटेन या ऑस्ट्रेलिया हो, हर देश में एक क़ानूनी प्रक्रिया है.”
“लेकिन उच्च अदालतें, ख़ासकर सुप्रीम कोर्ट ने एक स्पष्ट संदेश दिया है कि वहां व्यक्तिगत आज़ादी की रक्षा की जाएगी. अलग-अलग मुकदमों को लेकर मतभेद हो सकते हैं चाहे उसमें सही तरीक़े से फ़ैसला हुआ हो या ग़लत तरीक़े से. हालांकि इसके भी उपाय है. लेकिन तथ्य यह है कि भारत का सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत आज़ादी की रक्षा करने में आगे रहा है.”
अनुच्छेद 370
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जम्मू कश्मीर को विशेष दर्ज़ा देने वाले अनुच्छेद 370 को मोदी सरकार ने पांच अगस्त 2019 में हटा दिया था. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी और 2023 में डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की पीठ ने सरकार के इस फ़ैसले को बरकार रखा.
सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले की कई क़ानूनविदों ने आलोचना करते हुए कहा था कि जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ संविधान की रक्षा करने में विफल रहे.
अपने इस फ़ैसले का बचाव करते हुए जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने इंटरव्यू में कहा, “इस मामले में फ़ैसलों में से एक को मैंने लिखा था. अनुच्छेद 370 संविधान बनने के साथ ही शामिल किया गया था और ट्रांजीशन प्रोविज़ंस शीर्षक अध्याय का हिस्सा था, बाद में इसका नाम बदलकर टेंपरेरी ट्रांज़िशनल प्रोविज़ंस कर दिया गया.”
“इसलिए जब संविधान बना था तो यह माना गया था कि ये प्रावधान धीरे धीरे ख़त्म हो जाएंगे. क्या 75 साल कम होते हैं ट्रांज़िशनल प्रोविज़न को ख़त्म किये जाने में?”
स्टीफ़न सैकर ने जब उनसे पूछा कि सिर्फ़ अनुच्छेद 370 ही नहीं, बल्कि जम्मू कश्मीर का राज्य का दर्जा भी ख़त्म कर उसे केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया गया और इसकी स्टेटहुड बहाल करने के लिए कोई डेडलाइन भी नहीं तय की गई.
इस सवाल के जवाब में जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू करने की एक डेडलाइन तय की थी और वह समय सीमा थी 30 सितंबर 2024 और अक्टूबर 2024 में चुनाव की तारीख़ तय की थी.”
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के जाने माने वकीलों प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले को ग़ैर संवैधानिक कहा था.
उनके इस आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “अब वहां लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार है और वहां एक ऐसी पार्टी को शांतिपूर्वक सत्ता हस्तांतरित हुई जो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी से अलग है. यह साफ़ दिखाता है कि जम्मू कश्मीर में लोकतंत्र सफल हुआ है.”
राज्य का दर्जा ख़त्म किए जाने पर उन्होंने कहा, “जम्मू कश्मीर राज्य को तीन केंद्र शासित क्षेत्रों में बदलने के मामले में हमने केंद्र सरकार के इस हलफ़नामे को स्वीकार किया कि जम्मू कश्मीर के राज्य के दर्जे को जल्द से जल्द बहाल किया जाएगा.”
लेकिन राज्य के दर्जे को बहाल किए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कोई डेडलाइन नहीं तय की. हालांकि जस्टिस चंद्रचूड़ का कहना था, “उस मायने में सुप्रीम कोर्ट ने लोकतांत्रिक जवाहबदेही, और चुनी हुई सरकार का बनना सुनिश्चित किया. यह आलोचना कि हमने अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल नहीं किया, यह सही नहीं है.”
अल्पसंख्यक मामले
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नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) में पड़ोसी देशों के सिर्फ़ हिंदू नागरिकों को भारतीय नागरिकता देने की बात कही गई. जबकि भारतीय संविधान में धर्म और नस्ल को ध्यान में रखे बिना सभी के साथ बराबरी के व्यवहार की बात कही गई है.
क्या इस संशोधन के माध्यम से यह बात स्थापित नहीं की गई कि भारत में अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है?
इस सवाल पर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “ब्रिटेन में तो कोर्ट के पास इस तरह के क़ानून को अमान्य करने का अधिकार भी नहीं है, भारत में है. नागरिकता का मामला अभी भी अदालत में है.”
“मैंने अपने कार्यकाल में संवैधानिक बेंच के लिए 62 फ़ैसले लिखे हैं. हमारे पास ऐसे संवैधानिक मामले थे जो 20 सालों से लंबित हैं जिनमें संघीय ढांचे का मामला था, जिसपर हमने फ़ैसला लिया और राज्यों को अधिक अधिकार दिए. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का अल्पसंख्यक दर्जा होना चाहिए या नहीं इस पर फ़ैसला लिया. हमने 1968 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया.”
यह संतुलन का सवाल है. अगर आप पुराने मामलों के बजाय नए मामलों की सुनवाई करते हैं तो आपकी आलोचना की जाएगी कि यह चीफ़ जस्टिस नए मामलों को ही सुनते हैं. इसीलिए मैंने कई पुराने मामलों की सुनवाई भी की.
राम मंदिर विवाद और फ़ैसला
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इसी तरह का एक पुराना मामला कोर्ट में चला आ रहा था बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद का.
1992 में उत्तर प्रदेश के अयोध्या में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया था. साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट के पांच सदस्यों की बेंच ने राम मंदिर निर्माण के हक़ में फ़ैसला सुनाया.
तब ऐसी कई ख़बरें आई थीं कि डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा था कि, “उन्होंने फ़ैसले से पहले भगवान से प्रार्थना की थी उन्हें इस समस्या का हल सुझाए.”
कुछ मीडिया रिपोर्टों में कहा गया था कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा था, “मैं भगवान के सामने बैठ गया और उनसे प्रार्थना की कि कुछ न कुछ हल निकालना होगा.”
लेकिन बीबीसी को दिए इस इंटरव्यू में जस्टिस चंद्रचूड़ ने इसे सोशल मीडिया के एक हिस्से में उड़ाई गई अफ़वाह बताया और कहा, “यह पूरी तरह ग़लत है.”
उन्होंने कहा, “मैंने पहले भी स्पष्ट किया है और फिर से स्पष्ट करता हूं कि यह पूरी तरह ग़लत है. अगर आप सोशल मीडिया के मार्फ़त किसी जज के बारे में जानना चाहते हैं तो आपको ग़लत जवाब मिलेगा.”
“मैं इस तथ्य से इनकार नहीं करता कि मैं आस्तिक व्यक्ति हूं. हमारे संविधान में स्वतंत्र जज बनने के लिए ज़रूरी नहीं कि व्यक्ति नास्तिक हो. मैं अपने धर्म को अहमियत देता हूं. लेकिन मेरा धर्म, सभी धर्मों का सम्मान करता है और किसी भी धर्म का व्यक्ति आए आपको इंसाफ़ समान रूप से देना होता है. मैंने जो कहा था वह ये कि- ये मेरा धर्म है.”
उन्होंने आगे कहा, “न्यायिक रचनात्मकता सिर्फ़ बौद्धिक क्षमता और कुशलता का ही मामला नहीं है. यह धारणा से भी संबंधित है. जब हमारे सामने कई सालों से चले आ रहे ऐसे विवाद के मामले आते हैं तो ऐसे मामलों में आप कैसे शांति पा सकते हैं. अलग-अलग जजों का शांति और धीरज पाने का अलग-अलग तरीक़ा होता है. मेरे लिए प्रार्थना और ध्यान करना अहम है और यह मुझे देश के हर समुदाय और समूह के साथ बराबरी का बर्ताव करने की बात सिखाता है.”
सीजेआई के घर पीएम मोदी का जाना
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कुछ महीनों पहले गणेश पूजा के लिए जस्टिस चंद्रचूड़ के घर पर प्रधानमंत्री की मौजूदगी वाली तस्वीर काफ़ी चर्चित हुई थी.
इसे लेकर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की काफ़ी आलोचना हुई और कहा गया कि यह स्पष्ट संदेश था कि जस्टिस चंद्रचूड़ पीएम मोदी के बहुत क़रीब हैं और किसी मुख्य न्यायधीश का प्रधानमंत्री के इतने क़रीब होना उसके फ़ैसलों पर भी असर डाल सकता है.
क्या यह एक ग़लती थी, इस पर जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, “संवैधानिक ज़िम्मेदारियों की बात करते हुए बुनियादी शालीनता को ज़्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए. मुझे लगता है कि हमारा तंत्र यह समझने में पर्याप्त परिपक्व है कि शीर्ष संवैधानिक पदों पर बैठने वालों के बीच बुनियादी शालीनता का मुकदमों से कोई लेना-देना नहीं होता. इस मुलाक़ात से पहले हमने इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे मामलों पर फ़ैसला दिया था, जिसमें हमने उस क़ानून को रद्द कर दिया जिसके तहत चुनावी फ़ंडिंग के लिए इलेक्टोरल बॉन्ड लाए गए थे. इसके बाद कई ऐसे फ़ैसले हमने दिए जो सरकार के ख़िलाफ़ जाते थे.”
जब उनसे पूछा गया कि क्या पिछले आठ सालों में वो कार्यपालिका के सामने कभी नहीं झुके, उनका जवाब था कि उनके कार्यकाल के दौरान उनके फ़ैसलों पर कभी भी राजनीतिक दबाव का असर नहीं था.
हालांकि उन्होंने कहा कि न्यायपालिका का काम सामूहिक होता है और कई मामलों में बाकी जजों से सलाह ली जाती है.
उन्होंने कहा, “एक बात कई बार कही जा चुकी है एक बार फिर दोहराना चाहता हूं कि लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका संसद में विपक्ष जैसी नहीं है. हम यहां क़ानून के हिसाब से काम करने और संविधान की रक्षा करने के लिए हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित