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पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के शहर मुल्तान में बहाउद्दीन ज़कारिया के मज़ार के अंदरूनी दरवाज़े के बाहर मौजूद कुछ क़ब्रों में एक क़ब्र मुज़फ़्फ़र ख़ान सदोज़ई की भी है जो सन 1757 से 1818 ईस्वी तक मुल्तान के राजा थे.
पॉल ओल्डफ़ील्ड ने ‘विक्टोरिया क्रॉसेज़ ऑन दी वेस्टर्न फ़्रंट’ में लिखा है कि पांच हज़ार साल पुराना मुल्तान शहर मध्यकाल के इस्लामी हिंदुस्तान में एक अहम व्यापारिक केंद्र था.
ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार 11वीं और 12वीं सदी में मुल्तान में कई सूफ़ी बुज़ुर्ग आए और इसी वजह से यह ‘औलिया का शहर’ कहलाया.
आज भी यहां कई सूफ़ियों के मज़ार मौजूद हैं. उनमें से एक हज़रत बहाउद्दीन ज़कारिया का मज़ार भी है.
मुग़लों ने सन 1557 ईस्वी में मुल्तान शहर पर क़ब्ज़ा किया. इसके बाद 200 साल तक इस शहर में ख़ुशहाली और शांति रही.
मुल्तान की दौलत के लिए इस पर हमला
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इस दौरान यह कृषि और व्यापार का एक अहम केंद्र बना.
अपनी किताब ‘अ ब्रीफ़ हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स’ में देविंदर सिंह मांगट बताते हैं कि सिंधु, चिनाब, रावी और सतलज नदियों से हरी-भरी रहने वाली मुल्तान की ज़मीन बहुत उपजाऊ थी जिससे सालाना 13 लाख रुपये से अधिक की आमदनी होती थी.
इसमें लिखा है, “इसके अलावा यह शहर कई देश के सामान और घोड़े के व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र था. मुल्तान का रेशम उद्योग अपनी कारीगरी और अच्छी क्वालिटी के लिए मशहूर था. बुख़ारा से रेशमी धागे यहां बिक्री के लिए लाए जाते थे, यहां उनसे कपड़े तैयार होते थे और पूरे भारत में उन्हें बेचा जाता था. मुल्तान में हर साल 40 हज़ार मीटर रेशम का कपड़ा तैयार होता था.”
और इसी बेहिसाब दौलत की वजह से यह लुटेरों को लुभाता था.
फ़क़ीर सैयद एजाज़ उद्दीन एक किताब ‘ज़ुब्दतुल अख़बार’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं कि सन 1759 में मराठों ने मुल्तान को जमकर लूटा, इसके बावजूद यहां इतनी दौलत बची थी कि इसने सिखों को आकर्षित किया.
वो लिखते हैं, “ईद के दिन 27 दिसंबर 1772 को भंगी सिखों ने उस वक़्त मुल्तान का क़िला फ़तह कर लिया जब उसका गवर्नर और उसके फ़ौजी ईद की नमाज़ अदा करने में लगे थे. मुल्तान 1780 तक उनके क़ब्ज़े में रहा. इसके बाद अफ़ग़ान हमलावर तैमूर शाह दुर्रानी ने एक लश्कर के साथ क़िले पर हमला किया और युवा अफ़ग़ान नवाब मुज़फ़्फ़र ख़ान सदोज़ई की मदद से वहां की फ़ौज को हराया.”
“अगले 38 वर्षों तक मुज़फ़्फ़र ख़ान ने मुल्तान को बड़ी ख़ूबी के साथ चलाया.”
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में लाहौर में शासन कर रहे महाराजा रंजीत सिंह की नज़रें मुल्तान पर जमी हुई थीं.
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जेएस ग्रेवाल अपनी किताब ‘द सिख्स ऑफ़ दी पंजाब’ में लिखते हैं कि रंजीत सिंह ने जिन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा किया था वह पहले उनके अधीन थे और टैक्स देते थे; चाहे वह सिख हों या ग़ैर सिख, मैदानी हों या पहाड़ी.
उदाहरण के लिए ख़ुशाब, साहीवाल, झंग और मनकेरा के शासक अपने इलाक़ों पर रंजीत सिंह के क़ब्ज़े से पहले बहुत सालों तक टैक्स देते रहे थे.
अक्सर तो यह हुआ कि रंजीत सिंह टैक्स की रक़म बढ़ाते जाते और टैक्स की यह रक़म इतनी हो जाती कि वह देने की स्थिति में ना होते या इनकार कर देते. इसके बाद ऐसी स्थिति पैदा हो जाती जिसके बहाने उस इलाक़े पर क़ब्ज़े का मौक़ा मिल जाता.
“मुल्तान के गवर्नर ने भी लगभग एक दशक तक उन्हें टैक्स दिया था.”
‘दी हिस्ट्री ऑफ़ दी सिख्स’ में इसके बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है. महाराजा रंजीत सिंह ने मुल्तान पर सात हमले किए.
“पहला हमला 1802 में हुआ जिस पर नवाब मुज़फ़्फ़र ख़ान ने उनके मातहत होने और टैक्स देने का वादा किया. 1805 में दूसरे हमले पर भी तोहफ़े और सत्तर हज़ार रुपये दिए. तीसरा हमला 1807 में झंग के शासक अहमद ख़ान सयाल के उकसाने पर हुआ मगर टैक्स और घोड़े देकर घेराबंदी ख़त्म कराई गई.”
”1810 में चौथे हमले पर भारी लड़ाई के बाद नवाब ने एक लाख अस्सी हज़ार रुपये और 20 घोड़े दिए और सालाना टैक्स देने के वादे पर सुलह की. पांचवां हमला 1812 में टैक्स देने के वादे पर ख़त्म हुआ. छठा हमला 1815 में टैक्स में देरी की वजह से हुआ जिसमें नवाब को दो लाख रुपये अलग से देने पड़े. 1816 और 1817 में टैक्स की अदायगी जारी रही लेकिन लगातार आर्थिक दबाव की वजह से नवाब ने आख़िरकार सैन्य प्रतिरोध की तैयारी शुरू कर दी.”
मुल्तान पर सिख फ़ौज का हमला
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सन 1818 की शुरुआत में रंजीत सिंह ने मुल्तान पर आख़िरी हमला किया.
गुलशन लाल चोपड़ा ने अपनी किताब ‘दी पंजाब ऐज़ अ सॉवरेन स्टेट’ में लिखा है कि जनवरी 1818 तक सिख सल्तनत ने लाहौर से मुल्तान तक रसद की व्यापक व्यवस्था कर ली जिसके तहत झेलम, चिनाब और रावी नदियों पर नावों से सामान ले जाया जाता था.
“रानी राज कौर (जो माई निकाइन से मशहूर हैं) को भोजन और हथियार पहुंचाने की कमान दी गई. उन्होंने ख़ुद घोड़ों, अनाज और बारूद की खेप लगातार कोट कमालिया भेजी जो लाहौर और मुल्तान के बीच है.”
लंबी घेराबंदी
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हेनरी थोबी प्रिंसेप अपनी किताब ‘ऑरिजिन्स ऑफ़ दी सिख पावर इन दी पंजाब’ में लिखते हैं कि मुल्तान के संसाधन हर साल ज़बरदस्ती लिए जाने वाले टैक्स, लूटमार और बर्बादी की वजह से कम होते जा रहे थे.
महाराजा रंजीत सिंह को उम्मीद थी कि मुज़फ़्फ़र ख़ान की रक्षा तैयारी के साधन अब इतने कम हो चुके हैं कि शहर और क़िला आसानी से जीते जा सकते हैं.
किताब में लिखा है, “लेकिन इस अभियान से पहले रंजीत सिंह ने झंग के पूर्व शासक अहमद ख़ान सयाल को रिहा कर दिया जो नौ माह से उनकी क़ैद में थे. उन्हें गुज़र बसर करने के लिए एक छोटी जागीर भी दी गई.”
उन्होंने लिखा है, “रंजीत सिंह के उत्तराधिकारी राजकुमार खड़क सिंह को ऊपरी तौर पर इस अभियान की कमान सौंपी गई जबकि दीवान चंद को व्यावहारिक कमान दी गई. वह अपनी योग्यता और मेहनत से एक मामूली दर्जे से तरक़्क़ी पाकर तोपख़ाने के कमांडर बन चुके थे.”
“लेकिन चूंकि जागीरदार ‘कल का आया हुआ आदमी’ कहकर उनके मातहत रहने से हिचकिचा रहे थे इसलिए रंजीत सिंह ने राजकुमार को औपचारिकता के लिए सिपहसालार बनाकर सबके नेतृत्व का हल निकाला. रावी और चिनाब में मौजूद सभी नावें फ़ौजी रसद और सामान ले जाने के लिए ली गईं और जनवरी 1818 में फ़ौज ने कूच किया.”
उन्होंने लिखा, “मुज़फ़्फ़र ख़ान से नक़द रक़म की बहुत बड़ी मांग की गई और उनके पांच बेहतरीन घोड़े मांगे गए. जब यह मांग तुरंत पूरी न हुई तो मुज़फ़्फ़रगढ़ और ख़ागढ़ के क़िले पर हमला करके क़ब्ज़ा कर लिया गया. फ़रवरी में मुल्तान शहर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया गया और शहर का क़िला बिना ज़्यादा जानी नुक़सान के घेरे में ले लिया गया.”
“सिख फ़ौज ने बिना किसी ठोस रणनीति के यह घेराबंदी की थी. क़िले की हर तरफ़ से तोप और बंदूक़ों से अंधाधुंध फ़ायरिंग की जा रही थी. लेकिन क़िले के अंदर संसाधनों की ऐसी कमी थी कि इस अव्यवस्थित हमले के बावजूद लगातार गोलाबारी से कई जगह से क़िला टूट गया और इसका ऊपरी हिस्सा लगभग बर्बाद हो गया.”
‘सिख एनसाइक्लोपीडिया’ में इसके बारे में लिखा गया है कि क़िला लाहौर दरबार की फ़ौजों से घिरा हुआ था. जनरल इलाही बख़्श की तोपें क़िले की दीवारों पर एक महीने से ज़्यादा अरसे तक गोलाबारी करती रहीं मगर वह दीवारें नहीं तोड़ सकीं. फिर अप्रैल में ‘ज़मज़मा’ तोप लाई गई.
इसमें लिखा है, “यह तोप हर बार 80 पाउंड वज़नी लोहे का गोला दागती थी और उससे बड़ी दरारें पड़ने लगीं. जब दुश्मन दूसरी दरारों को बंद करने में लगा था तो निहंग सिखों के एक गिरोह ने चुपके से तोप क़िले की दीवार के पास पहुंचा दी.”
“तोप ने दीवार में छेद तो कर दिया लेकिन उसका एक पहिया टूट गया. इससे यह बिना सहारे के सही दिशा में फ़ायर नहीं कर सकती थी. चूंकि लगातार फ़ायरिंग से छेद को बड़ा करना ज़रूरी था इसलिए सिख सिपाही एक दूसरे से तोप को सहारा देने का ‘सौभाग्य’ लेने के लिए झगड़ने लगे.”
“कई लोग तोप के धक्के से मारे गए मगर तोप लगातार फ़ायर करती रही और इसने क़िले की दीवार में बड़ा छेद कर दिया.”
सिख सिपाही का अचानक हमला
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प्रिंसेप के अनुसार, “मई में सिख फ़ौज की पहुंच रक्षा दीवार से पहले की खाई तक हो गई और फ़ौज हमले के लिए बेताब हो गई. लेकिन रंजीत सिंह, जो मौक़े पर मौजूद नहीं थे, उन्होंने किसी तरह का ख़तरा मोल न लेने का आदेश दिया. वह घेराबंदी के बारे में सभी फ़ैसले ख़ुद करते थे. उन्होंने नवाब मुज़फ़्फ़र ख़ान को बार-बार प्रस्ताव दिया कि अगर वह हथियार डाल दें तो उन्हें जागीर दी जाएगी लेकिन मुज़फ़्फ़र ख़ान आख़िरी दम तक मुक़ाबले के लिए तैयार दिखाई दिए.”
प्रिंसेप ने लिखा, “इसी दौरान 2 जून को एक अकाली सिपाही साधु सिंह कुछ साथियों के साथ बिना किसी आदेश के हमलावर हुए और तलवार लेकर खाई में अफ़ग़ानों पर टूट पड़े जो उस वक़्त नींद में थे या तैयार नहीं थे. खाई में मौजूद सिपाहियों की यह हालत देखकर सिख फ़ौजी बिना किसी आदेश के हमले का साथ देने के लिए आगे बढ़े और पूरी बाहरी सुरक्षा पट्टी पर क़ब्ज़ा कर लिया जिसमें बड़ी संख्या में अफ़ग़ान मारे गए.”
प्रिंसेप के अनुसार बिना किसी उम्मीद के मिली इस कामयाबी से उत्साहित होकर सिख सैनिकों ने क़िले पर हमला किया और चूंकि कई जगह दीवारें पहले ही टूट चुकी थीं, इसलिए उनके लिए अंदर जाना आसान हो गया.
क़िले की हिफ़ाज़त में लगे सिपाही इसकी उम्मीद नहीं कर रहे थे और ना ही वह कोई ढंग का प्रतिरोध दिखा सके. इसलिए क़िला अचानक फ़तह कर लिया गया.
“नवाब मुज़फ़्फ़र ख़ान अपने चार बेटों और घरवालों के साथ अपने घर के दरवाज़े पर लड़ाई करते हुए ज़ख़्मी होकर मारे गए.”
“उनके दो बेटे शाहनवाज़ ख़ान और हक़ नवाज़ मौक़े पर ही मारे गए जबकि एक और बेटा बुरी तरह ज़ख़्मी हुआ. चौथा बेटा सरफ़राज़ ख़ान, जिन्हें नवाब ने अपने बाद सरकार की बागडोर सौंपने के लिए चुना था, एक तहख़ाने से ज़िंदा पकड़े गए.”
प्रिंसेप लिखते हैं कि अब क़िले को लूट लिया गया और हमले में शामिल सिख सिपाहियों को बेहिसाब दौलत हाथ लगी.
वो लिखते हैं, “लेकिन रंजीत सिंह ने तुरंत आदेश जारी किया कि पूरी फ़ौज लाहौर वापस जाए, सिवाय एक दस्ते के जिसका नेतृत्व जोध सिंह कलसिया को सौंपा गया ताकि वह क़िले की व्यवस्था संभाले.”
उनके मुताबिक़ “फ़ौज के लाहौर पहुंचते ही ऐलान किया गया कि मुल्तान की लूटमार में मिली सभी दौलत सिख सल्तनत की है और हर वह सिपाही, अधिकारी या जागीरदार जिसके पास कोई भी लूटा हुआ माल हो वह उसे ख़ज़ाने में जमा कर दे. ऐसा नहीं करने वालों के लिए कड़ी सज़ा की घोषणा की गई.”
उनके मुताबिक़, “ज़्यादातर माल का पता लगाकर ख़ज़ाने में जमा करवाया गया हालांकि यह काम पसंद नहीं किया गया और छिपाने की कई कोशिशों के बाद पूरा हुआ. उन लोगों पर सख़्ती की गई जो माल छिपाए मिले और साथियों की ईर्ष्या से भी इसका पता चला. इसके बाद लाहौर के सरकारी ख़ज़ाने को इस लूटमार से बेहिसाब दौलत मिली.”
देविंदर सिंह मांगट लिखते हैं कि महाराजा रंजीत सिंह ने मुल्तान फ़तह करने के बाद अपने दरबारियों और दरबार में आने वाले मेहमानों को सम्मान के तौर पर मुल्तानी रेशमी लिबास पेश किए.
मुल्तान फ़तह करने वाले दीवान चंद को ‘ज़फ़र जंग बहादुर’ का ख़िताब मिला, एक जागीर मिली जिसकी क़ीमत पच्चीस हज़ार रुपये थी और एक ख़िलअत (शाही लिबास) इनाम में दिया गया जिसकी क़ीमत एक लाख रुपये थी.
“नवाब मुज़फ़्फ़र ख़ान के बेटों सरफ़राज़ ख़ान और ज़ख़्मी ज़ुल्फ़िक़ार ख़ान को लाहौर लाया गया जहां रंजीत सिंह ने उनके गुज़ारे के लिए एक वज़ीफ़ा तय किया.”
अफ़ग़ान प्रभाव का ख़ात्मा
मांगट लिखते हैं कि मुल्तान को सिंधु नदी और ख़ैबर दर्रे के बीच अफ़ग़ान प्रभुता का केंद्र समझा जाता था.
वो लिखते हैं, “लाहौर दरबार में मुल्तान के विलय ने पंजाब और दक्षिणी इलाक़ों में अफ़ग़ान वर्चस्व के ख़त्म होने का संकेत दे दिया. इस फ़तह ने बहावलपुर, डेरा ग़ाज़ी ख़ान, डेरा इस्माईल ख़ान और मनकेरा के सरदारों को अधीन करने और सिंध की तरफ़ बढ़ने का रास्ता आसान किया.”
अवतार सिंह सिंधु अपनी किताब ‘जनरल हरि सिंह नलवा’ में लिखते हैं कि मुल्तान की घेराबंदी ख़त्म होने के साथ ही अफ़ग़ानों का पंजाब पर प्रभाव पूरी तरह ख़त्म हो गया और सिखों ने जल्द ही पेशावर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया.
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