उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब से सामने परिचय के संदर्भ में एक बार की ही मुलाक़ात है, जो आज भी नहीं भूलती.
उस्ताद अमीर ख़ां के जन्म शताब्दी वर्ष 2012 में मुंबई के एनसीपीए में एक भव्य आयोजन में वे सामने बैठे थे. किशोरी आमोनकर जी मुख्य अतिथि के तौर पर आईं थीं. मुझे आरंभिक वक्तव्य देना था, जिसके बाद उनका परफ़ॉर्मेंस होना था.
आयोजक कहते रहे कि भाषण के बाद तुरंत आपको मंच पर जाना है, इसलिए ग्रीन रूम में वे आ जाएं. वो ये कहकर सामने बैठे रहे कि- “एक नवयुवक उस्ताद जी पर बोलने वाला है, जिसे मैंने पहले कभी नहीं सुना. मुझे सुन लेने दीजिए, फिर आता हूं. कार्यक्रम पांच-सात मिनट देरी से शुरू करूंगा.”
ये सुनकर कि उस्ताद ज़ाकिर हुसैन मुझे सुनने को उत्सुक हैं और साथ में किशोरी ताई भी बैठीं हैं, मेरी रूह कांप गई थी.
ख़ैर, जैसे-तैसे अपनी तैयारी को संभाले मैं क़रीब पंद्रह मिनट के वक्तव्य के बाद जब पीछे विंग में पहुंचा, तो वे बड़े प्यार से आकर गले लगे और वक्तव्य को सराहते हुए मुझसे पूछ बैठे -‘आप किस घराने के शागिर्द हैं?’
मेरे जवाब पर कि बस सुन-सुनकर और घर के परिवेश के चलते संगीत पर कुछ लिखता-पढ़ता रहता हूं और भी ज़्यादा खुश होकर बोले, ‘तब तो और भी अच्छा है कि आप किसी घराने से बंधे हुए नहीं हैं, आप ऐसे ही बिना किसी घराने की हद में फंसकर, बेलौस ढंग से लिखते रहिएगा संगीत पर. मुझे खुशी है कि नए लोग, शास्त्रीय संगीत को गंभीरता से सुन और परख रहे हैं.’
मेरे लिए उस्ताद की इतनी मुक्त कंठ सराहना, जिसे तुरंत बजाने के लिए बैठना था, मुझसे मिलकर बात करना, दिल को गहरे से प्रभावित कर गया था. एक ज़िम्मेदारी भी सिखा गया, कि बड़े फनकार भी नयों को दिलचस्पी से सुनते हैं, इसलिए बहुत गंभीरता से ख़ुद की संगीत आलोचना को मुझे आगे बरतना होगा.
तबले को बनाया सार्वभौमिक साज़
आयोजन की समाप्ति पर उस्ताद ज़ाकिर हुसैन और किशोरी जी ने अपने वक्तव्यों में मुझे सराहा और प्यार से मंच पर प्रतीक चिह्न और दुशाला ओढ़ाई थी. आज, तबले के इस अपरिहार्य फनकार के चले जाने पर उनका सहज स्नेह और युवाओं में उनकी दिलचस्पी याद में उभर आया है.
ताल वाद्य की महान परंपरा में पूर्वज उपस्थितियों में उस्ताद अहमद जान थिरकवा, कंठे महाराज, पंडित समता प्रसाद गुदई महाराज, उस्ताद अल्ला रक्खा खां और पंडित किशन महाराज की रेपर्टरी को सर्वथा नए और प्रयोगशील ज़मीन पर उतारने का सफल उद्यम ज़ाकिर हुसैन ने बख़ूबी किया.
एक तरह से अपने उत्तराधिकार को संजोते हुए वे जिस तरह पश्चिम में जाकर नित नए ढंग से जुगलबंदी करते हुए नवाचार के लिए प्रस्तुत थे, उसने तबला को एक शास्त्रीय हिंदुस्तानी साज़ से बढ़कर, एक सार्वभौमिक छवि दे डाली.
एक ऐसे आधुनिक ताल निर्माता, जिन्होंने कभी करतब दिखाने के भाव से कभी कोई प्रदर्शन नहीं किया. हालांकि तबले पर उनकी चपल गतियों ने ढेरों ऐसे प्रयोग किए, जिसमें बादलों की गर्जना से लेकर हाथी की चाल, शंख ध्वनि सभी कुछ शामिल थे.
वे कुछ कुछ परंपरा के विद्रोही भी रहे, जिस तरह का काम पंडित रविशंकर सितार और पंडित राम नारायण सारंगी के लिए करते रहे. उन्होंने कम उम्र में ही यह जान लिया था कि घराने की पोथी पढ़ना ही काफ़ी नहीं है, उसमें आधुनिकता की खिड़की खोलने का काम भी करना चाहिए. उनके प्रयोग, पाश्चात्य संगीतकारों के साथ के काम ने तबले के लिए नई राह खोली. विश्व, ये भी समझ पाया कि भारतीय संगीत में नए आविष्कार स्वायत्त किए जा सकते हैं.
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के तालों को आज कोई नया विद्यार्थी, बिल्कुल टेक्स्ट बुक की तरह पढ़ सकता है और उसमें कुछ नया सीखते हुए दादरा, कहरवा, रूपक, दीपचंदी, एक ताल और चार ताल की सवारी में जोड़ सकता है.
क्या रही हैं उनकी ख़ासियतें
उनके कुछ उल्लेखनीय अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट्स में से ‘तबला बीट साइंस’ और ‘ताल मैट्रिक्स’ प्रमुख हैं, जिसे आज तबला की परंपरा में मानक माना जाता है.
उनकी दोस्तियों और सहकार के कुछ प्रयोग दुनिया भर के दिग्गजों के सहमेल से विकसित हुए जिनमें जैज़, ड्रम और बेस, एंबिएंट म्यूज़िक, एशियन अंडरग्राउंड और इलेक्ट्रॉनिका संगीत मुख्य हैं.
जॉन मैक्लोगुलिन, फराओ सैंडर्स, डेव हॉलैंड, मिकी हार्ट, एड्गर मेयर, पैट मार्टिनो, क्रिस पॉटर और बेला फ़्लेक न जाने कितनी शख़्सियतों के साथ ज़ाकिर हुसैन ने शानदार पारी साझा की.
एक परिघटना की तरह पांच दशकों तक संगीत आकाश पर छाए रहे उस्ताद की मासूमियत उनके वाह ताज वाले विज्ञापन के लिए भले ही याद की जाती हो, मगर यदि हम इस रूपक को पलटकर उनकी अदायगी के संदर्भ में वाह उस्ताद कहें, तो शायद अधिक समझदारी वाली बात लगेगी.
आज वो चले गए हैं, मगर उनकी थिरकती हुई उंगलियों को भला कौन भूल पाएगा? आज जन्नत में बाप-बेटे बरसों बाद, एक बार फिर से रियाज़ के लिए साथ बैठेंगे.
हम ऐसे बड़े दिल वाले सहज फनकार को विदा के शब्द कहकर, उनकी सौंपी हुई थाती को कम नहीं कर सकते. फ़िलहाल, नमन उस्ताद!
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित