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मशहूर गायक ज़ुबिन गर्ग की मौत को एक महीने से ज़्यादा वक़्त गुज़र चुका है.
गुवाहाटी में जिस जगह पर ज़ुबिन का अंतिम संस्कार हुआ था, सरकार ने वहाँ उनकी याद में ‘ज़ुबिन क्षेत्र’ नाम से स्मारक बनाया है. वहाँ हर रोज़ सैकड़ों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने आ रहे हैं.
उनकी मौत के बाद से ही उनके चाहने वालों ने ‘जस्टिस फ़ॉर ज़ुबिन गर्ग’ का अभियान शुरू किया है. यही नहीं, पूरे राज्य में ज़ुबिन की याद में लगातार रैली और दूसरे कार्यक्रम हो रहे हैं. इसमें सबसे ज़्यादा हिस्सेदारी ‘ज़ेन ज़ी’ की देखी जा रही है.
इंसाफ़ की माँग वाली एक ऑनलाइन याचिका पर अब तक क़रीब चार लाख लोग दस्तख़त कर चुके हैं.
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इंसाफ़ की माँग वाली एक ऑनलाइन याचिका पर अब तक क़रीब चार लाख लोग दस्तख़त कर चुके हैं.
इस बीच, शुक्रवार को उनकी आख़िरी फ़िल्म रिलीज़ हो गई. यह अभी से असम के बॉक्स ऑफ़िस पर रिकॉर्ड तोड़ रही है.
इसी दौरान, राजनीतिक दलों के बीच भी उनकी मौत से उपजे आक्रोश को अपने पक्ष में करने की कोशिश चल रही है. यह इस मायने में अहम है क्योंकि अगले साल राज्य में विधानसभा चुनाव भी होने हैं.
ज़ुबिन की मौत से लोगों में अभी तक इतना ज़बरदस्त ग़म और ग़ुस्सा क्यों है? उनकी मौत क्या प्रदेश की राजनीति पर भी असर डालेगी? ऐसे कई सवालों पर जानकार क्या सोच रहे हैं, हमने यही जानने-समझने की कोशिश की.
ज़ुबिन की मौत और इस मामले की जाँच
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सिंगापुर में 19 से 21 सितंबर के बीच नार्थ ईस्ट इंडिया फ़ेस्टिवल का आयोजन था. ज़ुबिन इसी कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए वहाँ गए थे. इसी बीच, सिंगापुर के सेंट जॉन्स आइलैंड के पास 19 सितंबर को तैरते समय उनकी मौत हो गई.
लोगों के ज़बरदस्त ग़म-ग़ुस्से के बाद इस मामले की जाँच चल रही है. हालाँकि, सिंगापुर पुलिस फ़ोर्स (एसपीएफ़) की जाँच में उनकी मौत के पीछे कोई साज़िश नहीं पाई गई. एसपीएफ़ ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट भारत के उच्चायोग को सौंप दी थी. इसके बाद भारत में भी दूसरी बार पोस्टमॉर्टम कराया गया था.
मौत की वजह की जाँच के लिए गठित स्पेशल इंवेस्टिगेटिव टीम (एसआईटी) ने ज़ुबिन गर्ग की पत्नी गरिमा सैकिया गर्ग और 70 से अधिक लोगों के बयान दर्ज किए हैं. असम पुलिस ने फ़ेस्टिवल के आयोजकों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया है. सात व्यक्ति गिरफ़्तार हैं.
गिरफ़्तार लोगों में फ़ेस्टिवेल के आयोजक श्यामकानू महंता, ज़ुबिन के मैनेजर सिद्धार्थ शर्मा, उनके चचेरे भाई निलंबित डीएसपी संदीपन गर्ग, उनके दो निजी सुरक्षा अधिकारी, बैंड के एक साथी और एक सह-गायक हैं.
इन पर हत्या, ग़ैरइरादतन हत्या, साज़िश और लापरवाही से मौत के आरोप लगे हैं. रिटायर जस्टिस सौमित्र सैकिया वाली एक सदस्यीय न्यायिक आयोग इस जाँच की निगरानी कर रहा है. चार्जशीट नवंबर के अंत तक दाख़िल होने की उम्मीद है.
ज़ुबिन गर्ग के लिए असम में प्यार
लेकिन असम के बाहर के लोगों के ज़हन में यह बात ज़रूर आ रही है कि ज़ुबिन की मौत का शोक इतने दिनों बाद भी वहाँ के लोग क्यों मना रहे हैं?
इस सवाल पर डिब्रूगढ़ यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस के प्रोफ़ेसर कौस्तुभ डेका से बीबीसी न्यूज़ हिन्दी ने बात की. उन्होंने कहा, “वह एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति थे. सच्चे अर्थों में एक जन-कलाकार थे. वे अक्सर अलग-अलग मुद्दों पर सड़कों पर उतरते थे.”
प्रोफ़ेसर कौस्तुभ कहते हैं, “वह एक बहुत अनोखी शख़्सियत थे. यही उन्हें एक गायक और कलाकार से परे बनाता था. इसलिए उस खालीपन का अहसास या अचानक यह समझ में आना कि ऐसा कोई शख़्स हमारे बीच से हमेशा के लिए चला गया, इसने लोगों को सदमे में डाल दिया. मुझे लगता है, वह सदमा अपना असर दिखा रहा है.”
असम यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अखिल रंजन दत्ता बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहते हैं, “राज्य ने साल 1979 से 1985 के बीच असम आंदोलन या विदेशी-विरोधी आंदोलन के साथ ही कई समस्याओं का सामना किया. उसके बाद स्वतंत्र असम के लिए हिंसक तरीके से संघर्ष हुआ. यह एक बहुत निराशाजनक दौर था.”
”हम जानते नहीं थे कि हमारा राजनीतिक भविष्य क्या होगा. हमारा सांस्कृतिक भविष्य क्या होगा. इसी महत्वपूर्ण मोड़ पर नब्बे के दशक की शुरुआत में ज़ुबिन गर्ग उभरते हैं. उन्होंने नई पीढ़ी को नया संगीत दिया. नया अहसास दिया.”
ज़ुबिन के बारे में प्रोफ़ेसर अखिल कहते हैं, “लेकिन संस्कृति की इज़्ज़त करके, हमारी परम्परा बरक़रार रखते हुए, जब वे मंच पर होते थे तो कोई घमंड नहीं होता… और सबसे बड़ी बात, वे सत्ता और ताक़तवर लोगों से सच्चाई से बोल सकते थे.”
जानकारों का कहना है कि पिछली बार लोग तब इस तरह सड़क पर उतर आए थे जब नागरिकता संशोधन क़ानून या सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो रहे थे. उसके विरोध में एक बुलंद आवाज़ ज़ुबिन गर्ग की भी थी.
ज़ुबिन गर्ग ने सीएए-एनआरसी विरोधी गीतों से लोगों को जुटाया. इस दौरान उनके कई गाने बहुत मशहूर हुए थे. खुद उनके शब्दों में उन्होंने ‘अपने तरीक़े से’ लगातार विरोध करने का वादा किया.
फिर कोविड-19 महामारी की वजह से ये प्रदर्शन थम गए थे. उसके बाद असम में अब ज़ुबिन गर्ग की मौत पर हज़ारों लोग सड़कों पर उतरे हैं.
ज़ुबिन की मौत और राजनीति
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ज़ुबिन के लिए लगाव और उनकी मौत पर लोगों का ग़म और गुस्सा देख कर राजनीतिक दल भी एक-दूसरे से पीछे नहीं रहना चाहते.
पिछले कई हफ़्तों से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और विपक्ष पार्टियाँ जैसे, कांग्रेस, रायजोर दल और असम जातीय परिषद भी सड़कों पर रैलियाँ कर रही हैं. ये भी ज़ुबिन के लिए इंसाफ़ की माँग कर रही हैं.
इसकी एक बानगी है. सरकार ने ‘ज़ुबिन क्षेत्र’ में जाने के लिए रात 10 बजे तक की समय सीमा तय की. लोगों ने इसका विरोध किया.
तब कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष गौरव गोगोई ने कहा, “हम सब ज़ुबिन की फ़िल्मों और संगीत के साथ बड़े हुए हैं. यह असम के लोगों के लिए एक पवित्र स्थान है. कोई सरकारी आदेश हमारी श्रद्धा और भक्ति को निर्देशित नहीं कर सकता. असम के लोगों ने इस स्मारक को संरक्षित किया है. इसे आध्यात्मिक स्थल में बदल दिया है. सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह उनकी भावनाओं का सम्मान करे न कि पाबंदी लगाए.”
इसके बाद समय सीमा रात के 11 बजे तक बढ़ा दी गई.
तब असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा था, “हम चाहते हैं कि ज़ुबीन से प्रेम करने वाले लोग सरकार के साथ सहयोग करें. ज़ुबिन से प्रेम करने वाले लोगों को यह निर्णय लेना चाहिए कि ‘ज़ुबिन क्षेत्र’ को मंदिर और स्मारक में परिवर्तित कर दें. यह सरकार को कुछ करने के लिए हौसला देगी.”
ज़ुबिन की मौत के बाद बीजेपी और कांग्रेस के ऐसे कई बयान हर रोज़ आते रहते हैं.
लोगों का गुस्सा और सरकार के क़दम
सरकार की कोशिश के बारे में प्रोफ़ेसर अखिल कहते हैं, “बीजेपी ने ज़ुबिन के सीएए का विरोध करने पर बहुत आक्रामक जवाब दिया था. उनकी मौत के बाद सरकार शायद सोच रही थी कि सिंगापुर से शव लाने और जाँच में सक्रिय भूमिका निभाकर, वह यह छवि बनाने में कामयाब रहेगी कि सरकार बेहतर क़दम उठा रही है.”
प्रोफ़ेसर अखिल कहते हैं, “लेकिन हुआ यह कि लोग संतुष्ट नहीं हुए. लोगों की भावनाएँ खुलेआम दिख रही हैं. जिस तरह लोग अंतिम संस्कार की जगह पर जा रहे हैं और इंसाफ़ माँग रहे हैं, मेरी समझ है कि सरकार पूरी तरह असमंजस में पड़ गई है.”
ज़ुबिन गर्ग की मौत के मामले में गिरफ़्तार कुछ लोगों, जैसे श्यामकानू महंता और सिद्धार्थ शर्मा के बारे में लोग तरह-तरह के आरोप लगा रहे हैं. उनका इल्ज़ाम है कि इन लोगों के बीजेपी सरकार से नज़दीकी रिश्ते हैं. दावा है कि आरोपियों को बचाया जा रहा है और जाँच को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है.
प्रोफ़ेसर कौस्तुभ कहते हैं, “जो लोग (उनकी मौत के मामले में) आरोपी बनाए गए हैं, उनकी सरकार से क़रीब होने के दावे की वजह से सरकार के अंदर के कुछ प्रमुख लोग उनसे ख़ुद को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं.”
“ज़ुबिन की मौत के बाद चल रही मुहिम से बीजेपी पर काफ़ी नकारात्मक असर पड़ा है. वे अपनी छवि सुधारने की कोशिश में लगातार लगे हैं. वे अब अपने नेटवर्क और सोशल मीडिया को सक्रिय कर रहे हैं. वे यह बात पहुँचाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे भी इंसाफ़ के लिए काम कर रहे हैं जबकि दूसरे लोग इंसाफ़ की राह में रोड़े अटका रहे हैं.”
दूसरी ओर, फ़िल्ममेकर और डायरेक्टर अचिंत शंकर ने बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहा, “मुझे ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार काम नहीं कर रही है. ऐसा लगता है कि हिमंत इस मामले से हिल गए हैं. वे एक दिन में कई बयान देते हैं. वह स्लोगन दे रहे थे कि ‘हम भी ज़ुबिन हैं, आप भी ज़ुबिन हो.’ इसका मतलब क्या है? कोई ज़ुबिन बन सकता है क्या?”
अचिंत कहते हैं, “22 अक्तूबर को बीजेपी की रैली के बारे में उनके मिनिस्टर ने प्रेस में कहा कि जो ज़ुबिन के ‘ट्रू फ़ैंस’ हैं, वे आज रैली में आए हैं. तो 19 सितंबर से 23 सितंबर तक हुईं रैलियों में जो आए थे, क्या वे उनके फ़ैन नहीं हैं? क्या हम लोग उनके फ़ैन नहीं थे?”
दूसरी ओर, सरकार के बारे में उठते सवालों पर असम बीजेपी के मुख्य प्रवक्ता किशोर उपाध्याय ने बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहा, “इसमें दिक़्क़त क्या है? सरकार को जो करना चाहिए, वह कर रही है. मुख्यमंत्री होम मिनिस्टर भी हैं तो लोगों को सही जानकारी देना उनकी ड्यूटी है. ज़ुबिन गर्ग के लिए भावनाओं की राजनीति दूसरे लोग कर रहे हैं. उनका एक भी गाना नहीं सुना है और ख़ुद को फ़ैन बता रहे हैं.”
क्या असम के चुनाव पर असर होगा?
असम में अगले साल विधान सभा चुनाव होने हैं. क्या ज़ुबिन की मौत के बाद हुए जन उभार का असर चुनाव पर पड़ सकता है?
विधानसभा में विपक्ष के नेता कांग्रेस के देबब्रता सैकिया ने कहा, “अगर आप देखें, ज़ुबिन की मौत से पहले तक हिमंत बिस्वा सरमा कई बार सांप्रदायिक बातें करते थे. पिछले 40 दिनों से मुख्यमंत्री ने हिंदू-मुस्लिम मुद्दों पर एक भी शब्द नहीं कहा है.”
उनका आरोप है, ”हिमंत सार्वजनिक मंचों पर ज़ुबीन को गालियाँ दिया करते थे. तो मुख्यमंत्री जो कर रहे हैं, वह राजनीति करना है. इसी वजह से लोग भी कह रहे हैं- राजनीति मत करो.”
कांग्रेस, रायजोर दल और असम जातीय परिषद के नेताओं ने मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा और बीजेपी पर आरोप लगाया है कि वे ‘आरोपियों को बचाने’ की कोशिश कर रहे हैं.
इन्होंने सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री और अन्य बीजेपी नेताओं के साथ फ़ेस्टिवल के आयोजक श्याम कानू महंता की तस्वीरें शेयर की हैं. जवाब में बीजेपी भी विपक्षी नेताओं के साथ इस आरोपी की तस्वीरें साझा कर रही है. इसके साथ ही बीजेपी ने ‘न्याय यात्रा’ भी शुरू की है.
इन सबके बीच सीएम हिमंत ने कहा, “हम ज़ुबिन गर्ग मामले में लोगों को उकसाने वालों के ख़िलाफ़ एक केस दर्ज करने जा रहे हैं. मुझे यक़ीन है कि इस मामले में गौरव गोगोई से भी पूछताछ की जाएगी.”
कांग्रेस नेता गौरव गोगोई ने दावा किया था कि जाँच के ज़रिए लोगों को गुमराह किया जा रहा है.
राजनीतिक पार्टियों की इस सक्रियता के बारे में जानकारों का कहना है कि ज़ुबिन एकता के प्रतीक माने जाते हैं. असम में हर तबक़े- असमिया, आदिवासी, बंगाली, प्रवासी मुस्लिम और जनजातीय समुदायों में उनके चाहने वाले हैं. ये सब समुदाय साल 2026 में होने वाले चुनाव के लिए अहम हैं.
तो क्या ज़ुबिन के चाहने वाले वोट पर असर डालेंगे?
प्रोफ़ेसर अखिल कहते हैं, “यह इस बात पर निर्भर करता है कि राजनीतिक पार्टियाँ इस असंतोष को चुनावी नतीजों में कैसे बदलने की कोशिश करती हैं. बीजेपी अभी भी मज़बूत है क्योंकि उसके अपने नेटवर्क हैं. आरएसएस सक्रिय है और कई अन्य संगठन भी काम कर रहे हैं.”
“जो लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, वे सरकार की कार्रवाई से काफ़ी असंतुष्ट हैं लेकिन वे विपक्षी पार्टियों से भी सीधे तौर पर जुड़े नहीं हैं. हालाँकि, गौरव गोगोई जैसे कुछ नेताओं को इससे थोड़ा राजनीतिक फ़ायदा ज़रूर मिला है.”
प्रोफ़ेसर कौस्तुभ कहते हैं, “लोगों में अभी गुस्सा है. अगर यह चर्चा यूं ही जारी रहती है तो इसका चुनावों पर असर पड़ेगा.”
सोशल मीडिया पर ‘जस्टिस फ़ॉर ज़ुबिन’ अभियान अब भी ट्रेंड करता है.
प्रोफ़ेसर कौस्तुभ का कहना है कि यह एक अहम मुद्दा है लेकिन युवाओं और ‘ज़ेन ज़ी’ वोटरों के लिए इससे भी बड़े मुद्दे हैं. वह कहते हैं, “चुनावों के समय जाति की पहचान और अपनी पहचान सबसे प्रमुख मुद्दा बन जाता है.”
फ़िलहाल जो लोग ज़ुबिन गर्ग के चाहने वाले हैं, उनके लिए कई सवालों के जवाब मिलने बाक़ी हैं. वे राजनीतिक रस्साकशी के ख़िलाफ़ हैं.
अचिंत कहते हैं, “इंसाफ़ का मतलब यह नहीं है कि फाँसी की सज़ा दो. लोगों को जानने का हक़ है कि उन दिनों और पलों में ज़ुबिन के साथ क्या हुआ था. पहले सरकार कहती है, इंसाफ़ दिलाएँगे. फिर सरकार के मंत्री, विधायक इंसाफ़ के लिए रैली करने ख़ुद रास्ते पर आ जाते हैं. इसका मतलब क्या है? उनको भरोसा नहीं है? हम समझते हैं कि जाँच करने में वक़्त लगता है तो एसआईटी को बताने दो कि क्या हुआ.”
वे कहते हैं, “बहुत पॉलिटिक्स हो रही है. सिर्फ़ बीजेपी की तरफ़ से नहीं, दूसरी पार्टियों की तरफ़ से भी. सबको 2026 का चुनाव नज़र आ रहा है.”
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