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दशकों से जापान एक स्थिर मध्यपंथी देश के रूप में देखा जाता रहा है.
जापान में मध्य से दक्षिण की ओर झुकाव रखने वाली लिबरल डेमोक्रैटिक पार्टी या एलडीपी की गठबंधन सरकार लगभग सत्तर सालों से सत्ता में रही है. लेकिन अब उसकी पकड़ कमज़ोर होती जा रही है.
जुलाई में गठबंधन सरकार ने देश की संसद के ऊपरी सदन में बहुमत खो दिया और उसके कुछ महीने पहले वित्तीय घोटाले के चलते शक्तिशाली निचले सदन का नियंत्रण भी उसके हाथ से निकल गया था.
आश्चर्यजनक बात यह है कि उसे अब सानसेइतो नाम की अति दक्षिणपंथी पार्टी से भारी चुनौती मिल रही है.
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सानसेइतो पार्टी का गठन यूट्यूब चैनलों पर कोविड वैक्सीन विरोधी साज़िशों की धारणाओं का प्रचार करने वाले यूट्यूबरों ने किया था.
2022 में इस पार्टी के पास केवल एक सीट थी जो अब बढ़ कर 15 हो गयी है.
यह पार्टी चुनाव प्रचार के दौरान जापानीज़ फ़र्स्ट या जापानियों का हित सर्वोपरि जैसे भड़काऊ नारे लगा रही है.
तो इस सप्ताह हम दुनिया जहान में यही जानने की कोशिश करेंगे कि क्या जापान दक्षिणपंथ का रुख़ कर रहा है?
युद्ध के बाद जापान का लोकतंत्र
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जापान में आ रहे इस राजनीतिक बदलाव को समझने के लिए हमें 1947 पर नज़र डालनी होगी, जब दूसरे महायुद्ध के बाद अमेरिकी नेतृत्व वाले मित्र देशों के क़ब्ज़े के दौरान नया संविधान लागू किया गया.
इसका उद्देश्य जापान को एक ऐसे लोकतांत्रिक देश में बदलना था जो पश्चिमी देशों का भरोसेमंद सहयोगी बने.
इस विषय पर हमने बात की डॉक्टर कैनेथ मोरी मैकएलवेन से, जो टोक्यो यूनिवर्सिटी के कंपैरेटिव पॉलिटिक्स विभाग के प्रोफ़ेसर हैं.
उन्होंने कहा कि इस संविधान का अनुच्छेद 9 विवादास्पद है, क्योंकि इसमें यह प्रावधान किया गया था कि जापान अपनी सेना या आक्रामक सैन्य क्षमता नहीं रखेगा जिससे उसके पड़ोसियों को ख़तरा पैदा हो सके.
“पिछले लगभग 80 सालों से लिबरल डेमोक्रैटिक पार्टी में इस बात पर मतभेद है कि क्या अपनी रक्षा के लिए पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर रहना समझदारी है, या फिर जापान को अपनी सैन्य क्षमता दोबारा तैयार करनी होगी ताकि उसकी विदेश नीति भी स्वतंत्र रह सके.”
देश के सैन्यीकरण को लेकर जापान में हमेशा मतभेद रहा है. रूढ़िवादी नेता कम्युनिस्ट ख़तरे से निपटने के लिए अमेरिका से सहायता लेने के पक्ष में हैं, जबकि समाजवादी पार्टियां अमेरिका पर निर्भरता कम करने के लिए क्षेत्रीय ताक़तों के साथ सहयोग की पक्षधर रही हैं. वहीं राष्ट्रवादी दक्षिणपंथी दल जापान को दूसरे महायुद्ध से पहले वाले जापान जैसा बनाना चाहते हैं.
डॉक्टर कैनेथ मोरी मैकएलवेन कहते हैं कि ये राजनीतिक पार्टियां जापान को दोबारा राजशाही में तो नहीं बदलना चाहतीं, मगर जापानी सम्राट के लिए अधिक प्रभावशाली भूमिका ज़रूर चाहती हैं. साथ ही वे सैनिक मामलों में अधिक स्वतंत्रता के पक्ष में हैं. ऐसी ही राय दक्षिणपंथी दलों की भी रही है.
डॉक्टर कैनेथ कहते हैं, “दक्षिणपंथी और वामपंथी दलों में इस बात पर आम सहमति रही है कि जापान को लोकतांत्रिक बने रहना चाहिए, मगर उसकी सैनिक क्षमता पर कुछ नियंत्रण आवश्यक हैं ताकि अमेरिका को भी ख़ुश रखा जा सके.”
डॉक्टर कैनेथ मोरी मैकएलवेन बताते हैं कि 1955 में कम्युनिस्ट और समाजवादी दलों की बढ़ती लोकप्रियता से निपटने के लिए दो रूढ़िवादी दलों लिबरल पार्टी और डेमोक्रैटिक पार्टी का विलय हुआ और एलडीपी का गठन हुआ.
पिछले 25 सालों से एलडीपी, रूढ़िवादी झुकाव रखने वाली समाजवादी पार्टी कोमेटो के साथ गठबंधन सरकार चलाती रही है. लेकिन अब इस गठबंधन के पास बहुमत की गारंटी नहीं बची है.
अब मध्य से वामपंथ की ओर झुकाव रखने वाली कांस्टिट्यूशनल डेमोक्रैटिक पार्टी और मध्य से दक्षिण की ओर झुकाव रखने वाली डेमोक्रैटिक पार्टी फॉर द पीपल जैसे विपक्षी दलों की ताक़त बढ़ चुकी है.
एलडीपी के लिए एक और मुश्किल यह है कि उसके 68 वर्षीय नेता प्रधानमंत्री शिगेरू इशिबा जो कि अब इस्तीफ़ा दे चुके हैं, उनकी देश के ग्रामीण इलाक़ों की बुज़ुर्ग आबादी पर अच्छी पकड़ थी, मगर वह आबादी घट रही है और ग्रामीण युवाओं को लगता है कि उनकी आकांक्षाएं नज़रअंदाज़ हो रही हैं.
डॉक्टर कैनेथ मोरी मैकएलवेन के अनुसार, एक बड़ा मुद्दा यह है कि ग्रामीण इलाक़ों में श्रमिकों की किल्लत बढ़ रही है. टोक्यो की आबादी बढ़ रही है क्योंकि बड़ी संख्या में युवा शिक्षा और रोज़गार के लिए टोक्यो जा रहे हैं.
वह कहते हैं कि जापान की आबादी काफ़ी समय से घटती जा रही है और आने वाले पच्चीस सालों तक सभी राजनेताओं के सामने यह चुनौती बनी रहेगी.
एलडीपी के पूर्व नेता शिंज़ो आबे पार्टी को दक्षिणपंथ के क़रीब ले गए थे, जिससे उसे रूढ़िवादी मतदाताओं का समर्थन मिला.
इशिबा के इस्तीफ़े के बाद एलडीपी नेतृत्व को लेकर अनिश्चितता बढ़ गई है. मगर इसी बीच एक नई अति दक्षिणपंथी पार्टी तेज़ी से उभर रही है.
सानसेइतो की सफलता
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जर्मनी की फ़्रेड्रिक अर्लेंगन यूनिवर्सिटी में जापानी अध्ययन विभाग के प्रमुख डॉक्टर फ़ेबियन शैफ़र का कहना है कि जापान में पहले कभी भी दक्षिणपंथी दलों में इतनी एकजुटता नहीं देखी गई थी.
वो कहते हैं कि सानसेइतो पार्टी ख़ुद को “डू इट यॉरसेल्फ़” यानी ख़ुद काम करने वालों की पार्टी बताती है. यह नाम दरअसल इस पार्टी के नेता कामिया सोहेई के यूट्यूब चैनल से प्रेरित है.
डॉक्टर फ़ेबियन शैफ़र बताते हैं कि 2019 में कामिया सोहेई ने एक यूट्यूब चैनल शुरू किया था, जिसका नाम था पॉलिटिकल पार्टी डीआईवाई. इस चैनल का उद्देश्य यह दिखाना था कि किस तरह कोई अपना राजनीतिक दल स्थापित कर सकता है.
पहले कामिया सोहेई एलडीपी के सदस्य भी थे और एलडीपी के पूर्व नेता शिंज़ो आबे के सेना समर्थक रुख़ का समर्थन करते थे.
2012 में उन्होंने चुनाव लड़ा लेकिन हार गए. दस साल बाद, अपनी पार्टी के टिकट पर वो पहली बार संसद के ऊपरी सदन में चुने गए.
इन दस सालों में उन्होंने अपना यूट्यूब चैनल मज़बूत किया, जिस पर विशेषकर 2020 की कोविड महामारी के दौरान कॉन्स्पिरेसी थ्योरीज़ और साज़िशों की धारणाएं प्रचारित की जाती थीं.
डॉक्टर फ़ेबियन शैफ़र के मुताबिक, “कोविड महामारी के दौरान कामिया वैक्सीनेशन की आलोचना करते थे. बाद में उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि यह महामारी सुनियोजित तरीके़ से फैलाई गई है. इससे जापान सरकार कई क़दम उठाने पर मजबूर हो गई, जैसे दुकानों को बंद करना और व्यापक स्तर पर टीकाकरण शुरू करना.”
“इस तरह वह एक प्रभावशाली नेता के रूप में उभरे. वह समाज में विभिन्न प्रकार के सरकारी नियंत्रणों का विरोध करते रहे हैं.”
कामिया सोहेई की कॉन्स्पिरेसी थ्योरी यहीं तक सीमित नहीं रही.
उन्होंने यह कहना भी शुरू कर दिया कि जापान को विश्व के ताक़तवर लोगों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाओं से ख़तरा है. उनके यूट्यूब चैनल के सब्सक्राइबर न केवल बढ़ते गए, बल्कि वही उनके वोट बैंक में भी बदल गए.
इस दौरान कामिया सोहेई ने यूरोप की अति दक्षिणपंथी पार्टियों और अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के “मेक अमेरिका ग्रेट अगेन” आंदोलन से भी काफ़ी कुछ सीखा.
डॉक्टर शैफ़र कहते हैं कि कामिया ट्रंप और अन्य दक्षिणपंथी नेताओं की तरह नाटकीय ढंग से बातों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, और यही उनकी सफलता का मुख्य ज़रिया भी है.
हालांकि कई मामलों में सानसेइतो पश्चिमी अति दक्षिणपंथी पार्टियों से अलग है.
डॉक्टर शैफ़र के अनुसार, यह पार्टी लोगों से संवाद साधने के लिए कॉन्स्पिरेसी थ्योरीज़ का इस्तेमाल करती है. “वह प्रवासियों के जापान में बसने के ख़िलाफ़ हैं. उनके कई नेता इतने आक्रामक हैं कि उन्हें नस्लवादी भी कहा जा सकता है.”
कामिया सोहेई इन आरोपों का खंडन करते हैं. लेकिन वह जापान के उस तबके को आकर्षित करने में कामयाब रहे हैं, जो राजनीति और राजनीतिक व्यवस्था से निराश हो चुका है.
डॉक्टर फ़ेबियन शैफ़र का मानना है कि एलडीपी से निराश हो चुके युवा सानसेइतो की ओर आकर्षित हो रहे हैं. साथ ही, सानसेइतो समलैंगिकता का विरोध करती है और पुरुष प्रधान व्यवस्था की समर्थक है और कई लोग इस वजह से भी उसका समर्थन कर रहे हैं.
मतदाता दक्षिणपंथ की ओर क्यों झुक रहे हैं?
जेफ़्री हॉल जापान की कांडा इंटरनेशनल स्टडीज़ यूनिवर्सिटी में लेक्चरर हैं और ‘जापान्स नैशनलिस्ट राइट इन इंटरनेट एज’ किताब के लेखक हैं.
हमने उनसे पूछा कि जो मतदाता जापान की मुख्यधारा की पार्टियों से निराश होकर अति दक्षिणपंथी पार्टियों की ओर आकर्षित हो रहे हैं, वो दरअसल क्या चाहते हैं?
जेफ़्री हॉल का मानना है कि प्रवासन एक ऐसा बड़ा मुद्दा है जिसे सुलझाने में लिबरल डेमोक्रैटिक पार्टी असफल रही है. वो कहते हैं कि जापान की आबादी बूढ़ी हो रही है और जन्म दर कम है, जिसके चलते श्रमिकों की किल्लत हो गयी है.
इसके लिए एलडीपी ने पिछले दस सालों में लगभग दस लाख लोगों को जापान में आकर काम करने की अनुमति दी है, जो कि जापान की आबादी के हिसाब से बड़ी संख्या है.
हालांकि सरकार इन विदेशी श्रमिकों को प्रवासी नहीं बल्कि ट्रेनी या प्रतिभाशाली लोग कहती है और दावा करती है कि ये लोग अस्थायी तौर पर जापान में रह रहे हैं. मगर यह सच नहीं है. कई लोग शिक्षा के लिए आते हैं, लेकिन पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें जापान में नौकरी मिल जाती है.
वो कहते हैं, “उद्योगों और किसानों को मज़दूरों की ज़रूरत है. मसला यह है कि एलडीपी ने जनता को यह समझाने की कोशिश नहीं की है कि वह यह कदम श्रमिकों की किल्लत की वजह से उठा रही है.”
“पारदर्शिता की कमी की वजह से कॉन्स्पिरेसी थ्योरी फैलाने वालों को हवा मिल रही है और वे कह रहे हैं कि जापान पर विदेशियों का कब्ज़ा होता जा रहा है.”
यहां ग़ौर करने वाली बात यह भी है कि जहां जापान की आबादी घट रही है, वहीं 2024 में देश में विदेशियों की संख्या 38 लाख तक पहुंच गयी और 2023 के मुकाबले उसमें दस प्रतिशत वृद्धि हुई.
जापानियों को डर है कि विदेशी उनकी नौकरियां हथिया लेंगे और दक्षिणपंथी दल इसी डर का फ़ायदा उठा रहे हैं.
जेफ़्री हॉल का कहना है कि एलडीपी समझ नहीं पा रही है कि इस मुद्दे पर लोगों का विश्वास जीतने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए. उसने प्रवासन के मुद्दे पर दक्षिणपंथी रुख़ अपनाते हुए अवैध प्रवासन पर पूरी रोक लगाने की बात की है, मगर असलियत यह है कि अवैध प्रवासियों की संख्या बहुत कम है. वह कॉन्स्पिरेसी थ्योरी फैलाने वाली सानसेइतो पार्टी और उस जैसी अन्य पार्टियों के अभियान को निष्क्रिय करना चाहती थी, लेकिन इसमें असफल रही.
जेफ़्री हॉल का कहना है कि जापान की युवा आबादी को चिंता है कि आने वाले समय में बूढ़ी आबादी का ख़र्च उठाने के लिए सरकार उन पर अधिक टैक्स थोपेगी. सरकार ने इस समस्या का कोई स्पष्ट हल भी पेश नहीं किया है, जिस वजह से युवा निराश हैं और उन्हें लगता है कि छोटे अति दक्षिणपंथी दल एलडीपी से बेहतर विकल्प हो सकते हैं.
जेफ़्री हॉल ने कहा, “जब युवाओं को लगता है कि उनकी आर्थिक स्थिति हर साल ख़राब होती जा रही है और उसी समय कोई पार्टी आकर कहती है कि यह स्थिति जापान के लोगों की वजह से नहीं बल्कि वैश्विक ताकतों और प्रवासन की वजह से खड़ी हुई है, तो लोगों के लिए उनकी दलील मानना आसान हो जाता है.”
जापान का भविष्य
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यूके की ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में जापानी राजनीति की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर क्रिस्टी गोवेला का मानना है कि जापान में वैश्विक ताक़तों या प्रवासन के ख़िलाफ़ कोई बड़ा विरोध दिखायी नहीं देता इसलिए अति दक्षिणपंथी दलों की कुछ चुनावों में जीत से बहुत कुछ बदलने वाला नहीं है. लेकिन एलडीपी के सामने चुनौतियां ज़रूर हैं.
उनकी राय है कि आने वाले समय में एलडीपी को कुछ मुश्किल फ़ैसले करने होंगे और जो लोग सानसेइतो या कंज़रवेटिव पार्टी ऑफ़ जापान की ओर खिसक रहे हैं, उनका भरोसा जीतना होगा.
वो कहती हैं कि एलडीपी के भीतर कई नेता मानते हैं कि पार्टी को अपने आपको दक्षिणपंथ से दूर कर के मध्यपंथी नीतियां अपनानी चाहिए क्योंकि देश में मध्यपंथी मतदाता दक्षिणपंथी सोच वाले मतदाताओं से कहीं अधिक हैं.
डॉक्टर क्रिस्टी गोवेला ने कहा कि, “फ़िलहाल देश में राजनीतिक माहौल एलडीपी के हक़ में नहीं है क्योंकि सरकार अपनी छवि बदलने में ख़ास कामयाब नहीं रही है. अभी चुनाव हुए तो हो सकता है कि एलडीपी की कुछ सीटें और कम हो जाएं.”
ऐसे में इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस्तेमाल में माहिर सानसेइतो जैसी अति दक्षिणपंथी पार्टी क्या हासिल कर सकती है?
डॉक्टर क्रिस्टी गोवेला का जवाब था, “सानसेइतो और दूसरी अति दक्षिणपंथी पार्टियां अभी नई हैं. सानसेइतो को अभी साबित करना है कि वो प्रभावी नीतियां ला सकती है और सरकार चलाने की क्षमता रखती है. यह आसान नहीं होगा.”
“यह कोई तय बात नहीं है कि भविष्य में होने वाले चुनावों में यह पार्टियां सफल रहें. हालांकि सानसेइतो दूसरी छोटी दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ गठबंधन कर के एलडीपी की कमज़ोरी का फ़ायदा उठा सकती है.”
“हाल में हुए चुनाव के एक्ज़िट पोल से पता चलता है कि 6 प्रतिशत मतदाताओं के लिए प्रवासन और अन्य सामाजिक समस्याएं बड़ा मसला है. मगर जापान किस विचारधारा की ओर जा रहा है, यह अभी कहना मुश्किल है.”
तो अब लौटते हैं अपने मुख्य प्रश्न की ओर- क्या जापान दक्षिणपंथ का रुख़ कर रहा है?
सानसेइतो की बढ़ती लोकप्रियता ने जापान की राजनीतिक व्यवस्था के सामने तीखे सवाल ज़रूर खड़े किए हैं, मगर कुछ चुनावों में सानसेइतो की सफलता से यह साबित नहीं होता कि जापान के लोकतंत्र में कोई बड़ा बदलाव आया है.
सानसेइतो के पास अभी भी ऊपरी सदन की 248 सीटों में केवल 15 सीटें ही हैं. इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि सानसेइतो की सफलता मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ नाराज़गी मात्र है या देश की विचारधारा में बदलाव का संकेत है.
हां, उसने लोगों में प्रवासन और आर्थिक मुद्दों को ज़रूर खड़ा कर दिया है. अब सत्तारूढ़ एलडीपी के सामने यह चुनौती है कि वो श्रमिकों की किल्लत और प्रवासन के प्रति चिंता का हल कैसे निकालेगी.
दूसरी बात यह कि क्या वह कोई ऐसा नेता चुनेगी जो जनता का समर्थन प्राप्त कर के देश की आर्थिक समस्याएं सुलझा सकता है. इसी से एलडीपी और जापान में राजनीति का भविष्य भी तय होगा.
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