ब्लू सिटी के नाम से मशहूर राजस्थान का जोधपुर शहर दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी तरफ़ खींचता रहा है.
लेखिका अर्शिया का कहना है कि अब शहर में नीले रंग की इमारतें अपनी रौनक और रंग खोती जा रही हैं.
जोधपुर में ब्रह्मपुरी का ये इलाक़ा एक प्रसिद्ध मेहरानगढ़ किले के साए में बसा हुआ है. 1459 में राजपूत राजा राव जोधा ने मेहरानगढ़ नाम के एक बड़े क़िले के पास एक मज़बूत चारदीवारी वाला शहर बनवाया.
राजा के नाम पर इस शहर को जोधपुर कहा गया और बाद में नीले रंग के घरों वाले इस इलाक़े को जोधपुर के पुराने या मूल शहर के रूप में मान्यता दी गई.
जिंदल स्कूल ऑफ आर्ट एंड आर्किटेक्चर की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर एस्तेर क्रिस्टिन श्मिट का कहना है कि इस लोकप्रिय नीले रंग को संभवत: 17वीं सदी से पहले नहीं अपनाया गया था.
लेकिन तब से, इस इलाक़े के नीले रंग के घर जोधपुर शहर की पहचान के ख़ास प्रतीक बन गए हैं.
मेहरानगढ़ संग्रहालय की देख-रेख करने वाली सुनैना राठौर बताती हैं, “राजस्थान के जोधपुर को ‘ब्लू सिटी’ के नाम से जाना जाता है, क्योंकि पिछले 70 सालों में विस्तार के बाद भी ब्रह्मपुरी इसका दिल बना हुआ है.”
इसकी तुलना होती है शेफ़चोएन से
ब्रह्मपुरी, जिसका संस्कृत में मतलब होता है “ब्राह्मणों का शहर.”
इसका निर्माण कथित ऊंची जाति वाले परिवारों की एक बस्ती के रूप में किया गया था. यहां रहनेवाले लोगों ने हिंदू जाति व्यवस्था में अपनी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक और धर्मनिष्ठा के प्रतीक के तौर पर नीले रंग को अपनाया था.
वे ख़ुद की पहचान उसी तरह अलग बताते हैं जैसे कि मोरक्को के शेफ़चोएन के यहूदी, जो 15वीं शताब्दी में स्पेन की क़ानूनी जांच से भागते समय मदीना नामक शहर के पुराने हिस्से में बस गए थे.
माना जाता है कि उन्होंने अपने घरों, प्रार्थना स्थलों और यहां तक कि सार्वजनिक कार्यालयों को भी नीले रंग से रंग दिया था, जिसे यहूदी धर्म में एक पवित्र रंग माना जाता है.
आख़िरकार यह रंग कई मायनों में फ़ायदेमंद साबित हुआ. चूना पत्थर प्लास्टर के साथ मिलाए गए नीले रंग से घर को अंदर से ठंडा रखने में मदद मिलती है. ब्रह्मपुरी में भी इसी तरह के घोल का इस्तेमाल हुआ है. ये न केवल घर को ठंडा रखने में मदद करते हैं बल्कि पर्यटकों को भी अपनी ओर खींचते हैं.
लेकिन शेफ़चोएन के विपरित जोधपुर में नीला रंग फीका पड़ने लगा है. इसकी कई वजहे हैं.
ऐतिहासिक रूप से देखें तो आसानी से उपलब्ध होने की वजह से ब्रह्मपुरी के लोगों के लिए पेंट का ये बेहतर विकल्प था.
पूर्वी राजस्थान का बयाना शहर उस समय देश में प्रमुख नील उत्पादक केंद्रों में से एक था. लेकिन समय के साथ नील की खेती कम होती गई क्योंकि इसे उगाने से मिट्टी को बहुत नुकसान पहुंचता है.
तापमान बन गया समस्या
बढ़ते तापमान ने भी इसकी रौनक को धक्का पहुंचाया है. अब घरों को ठंडा करने के लिए नीला रंग काफी नहीं है. वहीं लोगों की आय में वृद्धि ने भी धीरे-धीरे लोगों का रुख़ आधुनिक सुविधाओं की तरफ़ कर दिया है, जैसे एयर कंडीशनर, जो कि लोगों को चिलचिलाती गर्मी से राहत देती है.
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), गांधीनगर में सिविल इंजीनियरिंग के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर उदित भाटिया कहते हैं, “पिछले कुछ सालों में तापमान धीरे-धीरे बढ़ा है”.
प्रोफ़ेसर भाटिया जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिहाज से बनने वाली इमारतों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करते हैं.
आईआईटी गांधीनगर के द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि जोधपुर का औसत तापमान 1950 के दशक के 37.5 डिग्री सेल्सियस से बढ़कर 2016 में 38.5 डिग्री सेल्सियस हो गया.
भाटिया कहते हैं कि घरों को ठंडा रखने के अलावा इस पेंट से कीड़े-मकोड़े से बचाव करने वाले गुण भी हैं, क्योंकि इसमें प्राकृतिक नील को चमकीले नीले कॉपर सल्फेट के साथ मिलाया जाता है.
शहरीकरण में पारंपरिक चीज़ें छूट रही हैं पीछे
आईआईटी गांधीनगर में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर भाटिया कहते हैं कि शहरीकरण बुरा नहीं है, लेकिन इसकी वजह से वो पांरपरिक तरीक़े पीछे छूट रहे हैं जो उस माहौल और जलवायु के हिसाब से अनुकूल थे.
वे कहते हैं, “जैसे कल अगर कोई जोधपुर की उन गलियों में चलता जहाँ दोनों तरफ़ नीले रंग के घर थे और आज उस गली में कोई चले जहां घरों को अब गहरे रंग में रंगा गया है तो एक साफ़ अंतर महसूस होगा, नीली वाली गली की अपेक्षा गहरे रंग के घरों वाली गली में ज़्यादा गर्मी महसूस होगी.”
इसे हीट आइलैंड इफ़ेक्ट कहा जाता है, जहाँ बढ़ते तापमान में स्थिति तब और ख़राब हो जाती है, जब आपके आसपास कंक्रीट, सीमेंट और ग्लास का इस्तेमाल कर घर बनाए गए हों और इस पर जब गहरे रंग से पेंट होता है तो गर्मी कहीं अधिक बढ़ जाती है.
शहरों में अब घर बनाने के पुराने तरीक़े पीछे छूट से गए हैं. अधिक तापमान वाली वैसी जगहें जहां घर बनाने के लिए चूना पत्थर का इस्तेमाल होता था, अब उसकी जगह सीमेंट या कंक्रीट ने ले लिया है, जो कि नीले रंग को ठीक से सोख नहीं पाते हैं.
नील की कमी से बढ़ी लागत
ब्रह्मपुरी में रहने वाले 29 वर्षीय सिविल इंजीनियर आदित्य दवे कहते हैं कि उनके 300 साल से पुराने पुश्तैनी घर का ज़्यादातर हिस्सा नीले रंग से ही पेंट किया हुआ है.
हालांकि कभी-कभी वे बाहरी दीवारों को दूसरे रंगों से भी रंग देते हैं. वो ऐसा इसलिए करते हैं कि हाल के समय में नील की कमी से रंग की लागत बढ़ गई है.
एक दशक पहले तक घरों को नीला रंग करवाने में लगभग 5,000 रुपये का खर्च आता था लेकिन आज इसकी क़ीमत 30,000 रुपये से ज़्यादा होगी.
दवे कहते हैं, “आजकल घरों के आसपास खुली नालियां हैं, जो नीले रंग को गंदा कर देती है और दीवारों को नुक़सान पहुंचाती है.”
इसी वज़ह से जब उन्होंने पांच साल पहले ब्रह्मपुरी में खुद का घर बनवाया तो उसमें टाइल का इस्तेमाल करना ठीक समझा, जिसे बार-बार मरम्मत करने की ज़रूरत नहीं पड़ती.
वे कहते हैं, “इस तरह से यह ज़्यादा किफ़ायती है.”
पहचान का संकट
हालांकि इससे पहचान का संकट खड़ा होता है. इस इलाक़े के कपड़ा विक्रेता दीपक सोनी कहते हैं कि इससे यहाँ आने वाले पर्यटक खुद को ठगा महसूस करेंगे. दीपक स्थानीय अधिकारियों के साथ मिलकर ब्रह्मपुरी के नीले रंग की पहचान को बरकरार रखने के लिए काम करते हैं.
वे पूछते हैं, “हमें शर्म महसूस करनी चाहिए कि जब कोई हमारे शहर की पहचान को देखने आए तो उन्हें वो नीले रंग वाला घर देखने को ही न मिले. बहुत से विदेशी जोधपुर शहर की तुलना शेफ़चोएन से करते हैं. अगर शेफ़चोएन के लोग सदियों से अपने घरों को नीला रखने में कामयाब रहे हैं, तो हम क्यों नहीं कर सकते?
मूल रूप से ब्रह्मपुरी के रहने वाले सोनी अब जोधपुर के चारदीवारी वाले हिस्से से बाहर रहते हैं. वो बताते हैं कि 2018 में स्थानीय अधिकारी और स्थानीय लोगों ने मिलकर इस शहर की पहचान को संरक्षित करने का जिम्मा उठाया था.
2019 से उन्होंने हर साल 500 घरों की बाहरी दीवारों को नीले रंग से रंगने के लिए ब्रह्मपुरी निवासियों से स्थानीय स्तर पर धन भी जुटाया है.
सभी साथ मिलकर कर रहे हैं प्रयास
पिछले कुछ सालों में उन्होंने ब्रह्मपुरी के लगभग 3,000 मकान मालिकों को अपने घर की बाहरी दीवारों और छतों के रंग को नीला करने के लिए राज़ी किया है, ताकि कम से कम जब कोई ब्रह्मपुरी में तस्वीर ले, तब उसके पीछे का रंग नीला दिखाई दे.
सोनी का अनुमान है कि ब्रह्मपुरी में 33,000 घरों में से लगभग आधे घर मौजूदा समय में नीले रंग में रंगे हुए हैं.
वह स्थानीय अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के साथ मिलकर घरों पर लाइम प्लास्टर लगाने की योजना पर काम कर रहे हैं ताकि ज़्यादा घरों को इस रंग में रंगा जा सके.
उनका कहना है कि वह इतना तो उस शहर के लिए कर सकते हैं, जिसे वह अपना घर बुलाते हैं.
“अगर हम इसकी विरासत की परवाह नहीं करते हैं और इसे बचाने के लिए कुछ नहीं करते हैं, तो जोधपुर के बाहर रहने वाले लोग हमारे शहर की परवाह क्यों करेंगे?”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित