23 नवंबर को महाराष्ट्र और झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों के नतीजे आए और दोनों ही राज्यों में सत्ताधारी गठबंधन की वापसी हुई है.
हालांकि महाराष्ट्र में पिछले पांच साल में दो अलग-अलग गठबंधनों की सरकार बनी थी जबकि झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने हेमंत सोरेन के नेतृत्व में लगभग (चंपई सोरेन के कार्यकाल को छोड़कर) पांच साल पूरे किए.
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने महाराष्ट्र में 2014 से लगातार तीसरी बार चुनाव जीता है जबकि झारखंड में लगातार दूसरी बार बीजेपी सत्ता से दूर रह गई.
2014 में लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी इन दोनों राज्यों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. लेकिन चुनाव दर चुनाव बीजेपी महाराष्ट्र में मज़बूत होती चली गई और झारखंड में कमजोर.
2024 के महाराष्ट्र चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी (130+) बनकर उभरी है, लेकिन झारखंड में बीजेपी का प्रदर्शन खराब रहा है. लोकसभा चुनाव में कुल 14 सीटों में से बीजेपी वाले एनडीए गठबंधन ने 9 सीटें (बीजेपी को आठ सीटें) जीती थीं जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा के ‘इंडिया’ गठबंधन ने 5 सीटें जीती थीं.
आख़िर बीजेपी लोकसभा चुनाव और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव जैसा प्रदर्शन झारखंड में क्यों नहीं दोहरा पाई?
हेमंत के सामने कोई चेहरा नहीं
झारखंड में वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ‘इंडिया’ गबंधन के एक बड़ा चेहरा हैं. हेमंत सोरेन के मुक़ाबले झारखंड बीजेपी में अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी बताए जाते हैं.
अर्जुन मुंडा ने अपनी सियासी पारी जेएमएम से शुरू की थी और बाद में वो बीजेपी में आए, जबकि वर्तमान झारखंड बीजेपी अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे हैं. साल 2006 में बाबूलाल मरांडी बीजेपी से अलग हो गए और झारखंड विकास मोर्चा नाम से नई पार्टी बनाई. फ़रवरी 2020 में वो फिर बीजेपी से जुड़ गए.
2014 में रघुवर दास बीजेपी की तरफ़ से झारखंड के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन अब वो भी सक्रिय राजनीति में नहीं है. रघुवर दास अभी ओडिशा के राज्यपाल हैं.
वरिष्ठ पत्रकार नीरज सिन्हा कहते हैं, “बीजेपी ने सीएम का चेहरा नहीं दिया था और ‘इंडिया’ ब्लॉक मज़बूती से हेमंत सोरेन का समर्थन कर रहा था. दूसरी तरफ़ बीजेपी की स्टेट यूनिट नहीं बल्कि केंद्रीय नेतृत्व ने इस चुनाव को अपने हाथ में लिया था. नरेंद्र मोदी ने मज़बूती से चुनाव लड़ा लेकिन नतीजे उनके पक्ष में नहीं आए.”
हालांकि बीजेपी के लिए एक सामान्य धारणा है कि बीजेपी कैडर आधारित पार्टी है और पार्टी बिना चेहरे के पिछले कई चुनावों में जीत हासिल कर चुकी है.
वरिष्ठ पत्रकार चंदन मिश्रा भी मानते हैं कि चेहरा नहीं देना बीजेपी की एक सामान्य रणनीति है.
चंदन मिश्रा कहते हैं, “चेहरा तो महाराष्ट्र में नहीं था. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नहीं दिया था. यह बीजेपी की रणनीति है कि वो मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेंगे और आख़िरी मौक़े पर चेहरा देंगे.”
‘बांग्लादेशी घुसपैठ’ का मुद्दा नहीं चला
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी ने केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को विधानसभा चुनाव के लिए प्रभारी और हिमंत बिस्व सरमा को सह प्रभारी बनाया था. सह प्रभारी बनने के बाद हिमंत बिस्व सरमा ने झारखंड में ‘बांग्लादेशी घसुपैठ’ का मुद्दा उठाया.
बाद में बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने भी इस मुद्दे को चुनावी सभा में बार-बार दोहराया था.
20 सितंबर को झारखंड में एक चुनावी रैली के दौरान अमित शाह ने कहा था, ”एक बार झारखंड सरकार बदल दीजिए. मैं आपसे वादा करता हूं कि रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठियों को चुन-चुनकर झारखंड के बाहर भेजने का काम भारतीय जनता पार्टी करेगी. ये हमारी सभ्यता को नष्ट कर रहे हैं. हमारी संपत्ति को हड़प रहे हैं.”
बांग्लादेश ने भी अमित शाह की टिप्पणी पर कड़ी आपत्ति जताई थी.
घुसपैठ के सवाल पर नीरज सिन्हा कहते हैं, “बीजेपी शुरू से ही ग़लत पिच पर चली गई थी. लोकसभा चुनाव के बाद बीजेपी ने सिर्फ़ और सिर्फ़ अवैध घुसपैठ और संथाल परगना में डेमोग्राफ़ी में बदलाव का मुद्दा उठाया जो नतीजों में उसके पक्ष में नहीं दिख रहा है. आदिवासियों और मुस्लिमों का वोटबैंक झारखंड मुक्ति मोर्चा के लिए मज़बूत वोटबैंक बन चुका है. आदिवासियों का एक बड़ा तबका इसे ग़ैर-ज़रूरी सवाल मानता है.”
बीजेपी की तरफ़ से कहा जा रहा था कि इस तरह की घुसपैठ से राज्य की डेमोग्राफ़ी बदल जाएगी. इसके लिए बीजेपी ने ‘रोटी, बेटी और माटी’ का नारा दिया था.
सितंबर, 2024 में जमशेदपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था, “जेएमएम ने अपने राजनीतिक फ़ायदे के लिए आदिवासी वोट का इस्तेमाल किया है और अब ये लोग उनके साथ काम कर रहे हैं जिन्होंने जंगल और ज़मीन पर कब्ज़ा किया है. वर्तमान में, घुसपैठ झारखंड के लिए एक बड़ा मुद्दा है. बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए संथाल परगना और कोल्हान क्षेत्र के लिए एक बड़ा ख़तरा है.”
हालांकि झारखंड राज्य की बांग्लादेश से कोई सीधी सीमा नहीं लगती है.
बताया जाता है कि राज्य में सत्ता की चाबी संथाल परगना के छह ज़िलों के वोटरों के हाथ में होती है और यहाँ से जो भी बढ़त बनाता है, उसकी सरकार बनाने की संभावना भी मज़बूत हो जाती है.
इस इलाक़े ने झारखंड को शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन, दो मुख्यमंत्री दिए हैं और बीजेपी ने इस इलाक़े को जीतने की भरपूर कोशिश की थी.
आदिवासियों का साथ नहीं मिला
झारखंड में विधानसभा की 81 और लोकसभा की कुल 14 सीटें हैं. राज्य में आदिवासियों की आबादी क़रीब 27 फ़ीसदी है और विधानसभा में 28 और लोकसभा में पांच सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.
2019 के चुनाव में 26 सीटों पर जेएमएम के गठबंधन ने जीत हासिल की थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने सूबे में सबसे ज़्यादा आठ सीटें जीती थीं, लेकिन आदिवासियों के लिए आरक्षित पांचों सीट पर बीजेपी की हार हुई थी.
इस चुनाव में जेएमएम ने इन 28 सीटों में से अधिकतर सीटों पर जीत दर्ज की या बढ़त हासिल की है.
वरिष्ठ पत्रकार नीरज सिन्हा कहते हैं, “2019 में हेमंत सोरेन के सत्ता पर काबिज होने का एक बड़ा असर आदिवासी राजनीति पर देखने को मिला है. इसके बाद लगातार आदिवासियों ने हेमंत के प्रति भरोसा दिखाया है. 2019 के विधानसभा चुनाव, 2024 लोकसभा चुनाव और अब आदिवासियों ने दिखा दिया है कि हेमंत सोरेन ही उनके सर्वमान्य आदिवासी नेता हैं. बीजेपी के पास लोकसभा चुनाव के बाद वापसी का मौक़ा था और उन्होंने भरपूर कोशिश की लेकिन आदिवासी जेएमएम के साथ रहे.”
2024 के जनवरी महीने में हेमंत सोरेन को कथित ज़मीन घोटाले के आरोप में जेल जाना पड़ा था. जेल जाने से पहले उन्होंने इस्तीफ़ा दिया था और उनकी जगह चंपई सोरेन मुख्यमंत्री बने थे.
हालांकि बतौर मुख्यमंत्री चंपई सोरेन की पारी ज़़्यादा लंबी नहीं चल पाई. हेमंत जेल से बाहर आए और 3 जुलाई 2024 को चंपई सोरेन ने इस्तीफ़ा दे दिया.
‘कोल्हान के टाइगर’ नाम से मशहूर चंपई झारखंड के कोल्हान क्षेत्र से आने वाले संथाल आदिवासी नेता हैं और उनकी गिनती राज्य के शीर्ष आदिवासी नेताओं में होती है.
कोल्हान इलाक़े में झारखंड के तीन ज़िले और 14 विधानसभा सीटें आती हैं. 2019 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी का इस इलाक़े से क्लीन स्वीप हो गया था और अब उन्हें चंपई सोरेन से बड़ी उम्मीदें थीं. चंपई इस बार भी अपनी सीट सरायकेला से जीत चुके हैं.
सरायकेला के बगल की जुगसलाई सीट से पूर्णिमा साहू (रघुवर दास की बहू) और जमशेदपुर पश्चिम से जेडीयू के सरयू रॉय चुनाव जीत चुके हैं.
यानी एनडीए को तीन सीट और 11 सीटें ‘इंडिया’ गठबंधन के खाते में गई हैं. अगर कोल्हान में इस चुनाव के नतीज़ों की तुलना 2009 के चुनाव से करें तो बीजेपी मज़ूबत दिखाई देती है. तब बीजेपी ने इस इलाक़े में छह सीटें जीती थीं जबकि जेएमएम ने चार सीटें जीते थीं. फिर चंपई सोरेन के आने से बीजेपी को क्या फ़ायदा हुआ?
वरिष्ठ पत्रकार चंदन मिश्रा का कहना है, “चंपई के आने से बीजेपी को फ़ायदा तो हुआ है लेकिन उतना नहीं जितना उन्होंने सोचा होगा. चंपई अपनी सीट जीत गए. बगल की एक दो-सीट भी बीजेपी गठबंधन जीत रहा है, लेकिन चंपई के क़द के हिसाब से इतनी सीटें काफ़ी नहीं हैं.”
सहयोगी दलों का ख़राब प्रदर्शन
जेएमएम का कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एम-एल) के साथ गठबंधन था. इसमें कांग्रेस 30 सीट, आरजेडी सात और सीपीआई (एम-एल) चार सीटों पर चुनाव लड़ रही थी. हालांकि कुछ सीटों जैसे छतपुर और विश्रामपुर पर गठबंधन के वाबजूद कांग्रेस-आरजेडी एक दूसरे के आमने-सामने थे.
कांग्रेस नौ सीटें, सीपीआई (एम-एल) दो और आरजेडी एक सीट जीत चुकी है. वहीं 10 सीटों पर गठबंधन के ये साथी आगे चल रहे हैं.
वहीं बीजेपी के साथ ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) 10 सीट, जेडीयू दो सीट और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) एक सीट पर चुनाव लड़ रही थी. इसमें सीट जेडीयू और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) ने 1-1 सीट जीती और आजसू एक सीट पर आगे चल रही है.
दोनों गठबंधनों की तुलना करें तो जेएमएम के सहयोगी बीजेपी के सहयोगियों से साफ़ तौर पर आगे दिखते हैं.
इसके अलावा दूसरे दलों से बीजेपी के गठबंधन में आए नेता भी ख़ास प्रभावित नहीं कर पाए. बीजेपी ने कम से कम आठ ऐसे नेताओं को टिकट दिया था जो दूसरे दलों से आए थे और इनमें से पांच को हार मिली है. हारने वालों में हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन और झारखंड के पूर्व सीएम मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा भी शामिल हैं. सहयोगी पार्टी आजसू ने कांग्रेस से आने वाले दो नेताओं को टिकट दिया था और दोनों हार गए.
परिवारवाद और भ्रष्टाचार का मुद्दा बेअसर
हेमंत सोरेन जब जेल गए थे तब बीजेपी ने राज्य में भ्रष्टाचार के मुद्दे को ज़ोर-शोर से उठाया था.
जेल जाने के बाद हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन राजनीति में सक्रिय हुईं और लोकसभा चुनाव में उन्होंने जेएमएम के लिए जमकर प्रचार किया था.
विधानसभा चुनाव में कल्पना जहां रैली करने जातीं वहां खूब भीड़ जुटती थी. बीजेपी ने कल्पना की सक्रियता को परिवारवाद से जोड़ा और भ्रष्टाचार के साथ परिवारवाद को भी अहम मुद्दा बनाया.
लेकिन यह मुद्दा भी बेअसर साबित हुआ. कल्पना सोरेन गांडेय विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत चुकी हैं.
कल्पना सोरेन को लेकर नीरज सिन्हा कहते हैं, “पहले कल्पना की पहचान सिर्फ़ हेमंत सोरेन की पत्नी की तौर पर थी, लेकिन अब वो पार्टी की एक बड़ी नेता बन चुकी हैं और उन्होंने ख़ुद को एक जननेता के तौर पर स्थापित किया है. इस बार चुनाव में हेमंत और कल्पना ने लगातार जो कैंपेन किया निश्चित रूप से उसका फ़ायदा जेएमएम को मिला. बीजेपी ने परिवारवाद का मुद्दा उठाया, लेकिन इस जोड़ी की काट नहीं ढूंढ पाई.”
लेकिन हेमंत सोरेन का कथित भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा था?
वरिष्ठ पत्रकार चंदन मिश्रा कहते हैं, “भ्रष्टाचार पर तो वोट पड़ता भी नहीं है. किसी ज़माने में यह मुद्दा रहा करता था लेकिन अब जब हर पार्टी के नेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो जनता भी इसकी आदी हो चुकी है.”
नीरज सिन्हा का कहना है कि ज़मानत मिलने के बाद हेमंत सोरेन ने इसे एक सहानुभूति के तौर पर भुनाया और उनके वोट बैंक ने हेमंत की इस अपील को स्वीकार कर लिया.
क्या इस चुनाव में बीजेपी को कुछ हासिल हुआ है?
इस सवाल के जवाब में नीरज सिन्हा और चंदन मिश्रा दोनों का ही मानना है कि बीजेपी ने सिर्फ़ खोया है, कुछ पाने जैसा सवाल फिलहाल प्रासंगिक नहीं है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित