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भारत और अमेरिका के बीच दो साल के भीतर ही हालात पूरी तरह से बदल गए हैं. ये हैरान करने वाली बात है. सिर्फ़ दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का व्हाइट हाउस में गर्मजोशी से स्वागत किया गया था.
अमेरिकी संसद में उनके भाषण पर ज़ोरदार तालियां बजाई गई थीं. वह पल इस बात का प्रतीक था कि लगातार बंटती जा रही दुनिया में भारत अमेरिका का एक भरोसेमंद पार्टनर है.
राष्ट्रपति जो बाइडन ने मोदी का खुले दिल से स्वागत किया था. इसके पीछे दो रणनीतिक मक़सद थे. पहला, अमेरिका चाहता था कि भारत यूक्रेन पर रूस के हमले के मामले में थोड़ा साफ़ रुख़ अपनाए.
दूसरा, भारत को एक ऐसे गठबंधन में शामिल करना जो चीन के बढ़ते प्रभाव का सामना कर सके.
दो साल पहले तक भारत, अमेरिका की नज़रों में महज़ साझेदार नहीं था, बल्कि एशिया में लोकतंत्र की मज़बूती का एक स्तंभ था.
कुछ राजनयिक निजी बातचीत में मानते हैं कि यह ट्रेड वॉर भले ही थोड़े वक़्त के लिए भारत को नुक़सान पहुंचाएगा, लेकिन उनका मानना है कि इस वजह से अमेरिका एक क़रीबी साझेदार गंवा सकता है — एक ऐसा साथी जो चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका के काम आ सकता है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि ट्रंप के टैरिफ़ का फ़ैसला भारत को बड़ा झटका है. लेकिन भारतीय निर्यातक पहले ही इसके असर की तैयारी कर रहे थे.
भारतीय निर्यात संगठन (एफ़आईईओ) ने इसे ‘बेहद चौंकाने वाला’ निर्णय बताया है. संगठन का मानना है कि टैरिफ़ के फ़ैसले से अमेरिका को होने वाले भारत के कुल निर्यात का आधे से ज़्यादा हिस्सा प्रभावित होगा.
दिल्ली स्थित थिंक टैंक ‘ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव’ (जीटीआरआई) का अनुमान है कि अमेरिका को भारत का निर्यात 40 से 50 प्रतिशत तक गिर सकता है.
जीटीआरआई के संस्थापक अजय श्रीवास्तव ने संयम बरतने की सलाह दी. वह कहते हैं, “भारत को शांत रहना चाहिए. ये बात समझनी चाहिए कि धमकी या अविश्वास की स्थिति में सार्थक बातचीत नहीं हो सकती.”
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप की नाराज़गी सिर्फ़ भारत के रूसी तेल न ख़रीदने से नहीं है, बल्कि यूक्रेन में युद्धविराम ना करवा पाने से भी है.
चुनाव से पहले ट्रंप ने दावा किया था कि वे 24 घंटे के भीतर रूस और यूक्रेन की जंग रोक देंगे. उन्हें शपथ लिए सात महीने हो चले हैं लेकिन ये मुमकिन नहीं हो सका है.
ऐसे में क्या भारत एक आसान टारगेट बन गया है?
भारत दबाव में नहीं आएगा
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कुछ जानकार ट्रंप की नीति में गहरी रणनीतिक उलझन देखते हैं. बीजिंग स्थित राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर हुआंग हुआ का मानना है कि यह टैरिफ़ हमला दूरदर्शी नहीं है.
हुआंग कहते हैं, “भारत को तो नुक़सान होगा. लेकिन अमेरिका को ज़्यादा नुक़सान होगा, क्योंकि मेरे ख़्याल से ट्रंप की विदेश नीति भारत को लेकर ग़लत दिशा में जा रही है.”
उन्हें ये भी लगता है कि इससे भारत, चीन के क़रीब जा सकता है. हुआंग ऐसा भविष्य देखते हैं जहां चीन और भारत अमेरिकी दबाव का मुक़ाबला करने के लिए एक साथ खड़े होंगे.
ग़ौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए चीन जा सकते हैं.
मौजूदा हालात में मोदी का शी जिनपिंग के साथ मंच साझा करना अपने आप में एक संदेश होगा कि भारत को दबाव में झुकाया नहीं जा सकता.
भारत को कितना बड़ा झटका
ऐसा लगता है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत के लिए रेड कार्पेट नहीं बिछेगा. ब्राज़ील के बाद अब भारत पर भी कुल मिलाकर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ हो गए हैं.
व्हाइट हाउस का कहना था कि इसका कारण भारत का रूसी तेल का आयात जारी रखना है.
ट्रंप का कहना है कि भारत के रूसी तेल को आयात जारी रखने के कारण अमेरिका की रूस को अलग-थलग करने की कोशिश कमज़ोर हो रही है.
भारत ने इस घोषणा पर सधी हुई प्रतिक्रिया दी है. भारतीय विदेश मंत्रालय ने इस फ़ैसले को ‘अनुचित और बेबुनियाद’ बताया है.
बयान में दोहराया गया कि भारत अपने ‘राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठाएगा’.
ट्रंप रूस के रवैये से परेशान?
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यह भी समझना ज़रूरी है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में अमेरिकी कूटनीति का स्वरूप अलग है. इस बार ट्रंप अपनी कूटनीति को व्यापार की ओर मोड़ रहे हैं.
पूर्व भारतीय राजनयिक शरद सभरवाल का कहना है, “राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले भी कई देशों के मामले में जल्दबाज़ी में फ़ैसले लिए और बाद में बदल दिए. कई बार उनके बयान सिर्फ़ बातचीत में दबाव बनाने के लिए होते हैं.”
प्रोफ़ेसर हुआंग हुआ मानते हैं कि यह टैरिफ़ नीति अमेरिका के लिए नुक़सानदेह साबित होगी.
उन्होंने चीन और भारत के बीच मज़बूत रिश्तों को आगे बढ़ाने की बात कही, ताकि ट्रंप जैसे दबावों से निपटा जा सके.
शायद पीएम मोदी का संभावित चीन दौरा इस लिहाज़ से काफ़ी अहम हो सकता है.
क्या ये सिर्फ़ दिखावा है?
अगर मौजूदा अमेरिकी विदेश नीति दोस्तों पर व्यापार के ज़रिए महज़ दबाव बनाने की रणनीति है,
तो सत्ता के गलियारों में यह फुसफुसाहट है कि ट्रंप भारत से वाक़ई नाराज़ नहीं हैं.
जानकारों को लगता है कि अगर रूस युद्धविराम पर राज़ी हो जाए, तो रिश्ते फिर बहाल हो सकते हैं.
लेकिन सवाल यह है: क्या यह टैरिफ़ वॉर असली नीति है या ट्रंप इसका इस्तेमाल सौदेबाज़ी के लिए कर रहे हैं?
पूर्व भारतीय डिप्लोमैट सभरवाल कहते हैं, “हमें इंतज़ार करना होगा कि क्या ट्रंप भारत पर 50% टैरिफ़ वाक़ई लागू करते हैं. ये अतिरिक्त 25% टैरिफ़ 27 तारीख़ से लागू होंगे, और दोनों देशों के बीच अगली व्यापार वार्ता इससे कुछ दिन पहले ही होनी है.”
यानी, अभी बातचीत की गुंजाइश बाक़ी है. भारत के पास विकल्प हैं और उसे ये मालूम है.
मोदी सरकार अब तक अपनी प्रतिक्रिया में काफ़ी सावधान रही है.
लेकिन सभरवाल मानते हैं कि भारत की प्राथमिकताएं स्पष्ट हैं.
“भारत सरकार कह चुकी है कि वह अपने राष्ट्रीय हितों और ऊर्जा सुरक्षा की रक्षा करेगी.
मुझे नहीं पता कि सरकार के पास कौन-कौन से ठोस विकल्प हैं, लेकिन हमें बातचीत का रास्ता खुला रखना चाहिए.”
पाकिस्तान की तरफ़ झुकाव?
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इस सबके बीच जो बात भारत को और परेशान कर सकती है, वो है अमेरिका की पाकिस्तान से बढ़ती नज़दीकियां.
सभरवाल, पाकिस्तान में भारत के उच्चायुक्त भी रह चुके हैं. उन्हें अमेरिका की पाकिस्तान नीति में एक पैटर्न दिखता है.
सभरवाल कहते हैं, “पाकिस्तान के साथ फिर एक ‘लेन-देन पर आधारित’ रिश्ता बनता दिख रहा है.”
लेन-देन वाली बात पर सभरवाल ट्रंप परिवार के कथित क्रिप्टो कारोबार से जुड़े हितों और पाकिस्तान में तेल खोज के अचानक शुरू हुए ज़िक्र की ओर इशारा करते हैं.
फ़िलहाल पाकिस्तान में न तो कोई बड़ा तेल भंडार है और न ही वहां सुरक्षा के हालात स्थिर हैं.
सभरवाल कहते हैं, “असल में ये सहयोग शायद अमेरिका की अपेक्षाओं पर खरा न उतरे. पाकिस्तान को तवज्जो देना भारत पर दबाव बनाने की कोशिश का हिस्सा भी लग रहा है.”
हालांकि इसका मतलब यह नहीं कि भारत-अमेरिका रिश्ते दोबारा सुधर नहीं सकते.
रक्षा, तकनीक, शिक्षा और ख़ुफ़िया क्षेत्रों में संस्थागत संबंध अब भी मज़बूत हैं.
लेकिन रिश्तों की बुनियाद इज़्ज़त होती है — और फ़िलहाल उसी की परीक्षा हो रही है.
अगर ट्रंप इसी राह पर चलते रहे, तो वे ऐसे साझेदार को अमेरिका से दूर कर सकते हैं, जो वैश्विक शक्ति संतुलन में अहम भूमिका निभा सकता है.
ट्रंप के क़दमों से भारत भले ही चीन के पाले में न जाए, लेकिन वह एक स्वतंत्र और संतुलित रुख़ अपनाने पर मजबूर हो सकता है.
एक ऐसा रुख़ जिसमें अमेरिका का असर घट जाएगा.
फ़िलहाल गेंद ट्रंप के पाले में है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.