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डॉलर का मूल्य गिरता जा रहा है.
इस साल जनवरी में व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप की वापसी के बाद शुरू हुए व्यापार युद्ध को लेकर बढ़ते तनाव के बीच अमेरिकी मुद्रा लगातार कमज़ोर होती जा रही है.
इस सप्ताह डॉलर में और गिरावट तब आई जब मई में अमेरिकी औद्योगिक उत्पादन लगातार तीसरे महीने घटा, जिससे डॉलर का मूल्य 2023 के बाद के सबसे निचले स्तर के करीब पहुंच गया.
कुछ निवेश बैंक, जैसे कि मॉर्गन स्टैनली, जेपी मॉर्गन और गोल्डमैन सैक्स, भविष्य में डॉलर में और गिरावट की संभावना जता रहे हैं, खासकर बढ़ते व्यापार युद्ध और दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के कमजोर होने की आशंकाओं के बीच.
मेक्सिको स्थित वित्तीय समूह ग्रुपो फिनान्सिएरो की आर्थिक विश्लेषक निदेशक गैब्रिएला सिल्लर ने बीबीसी मुंडो को बताया, “डॉलर ट्रंप की संरक्षणवादी और अस्थिर नीतियों के कारण गिर रहा है. ये नीतियां अमेरिका की साख को नुकसान पहुंचा रही हैं.”
सिल्लर के अनुसार, राष्ट्रपति ट्रंप के फैसले अमेरिका की विकास संभावनाओं को प्रभावित कर रहे हैं और डॉलर की “सुरक्षित निवेश” और दुनिया की प्रमुख रिज़र्व करेंसी की स्थिति पर सवाल खड़े कर रहे हैं.
डॉलर की गिरावट का एक नतीजा यह है कि अमेरिकी निर्यात अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में अधिक प्रतिस्पर्द्धी हो जाते हैं, क्योंकि वे विदेशी खरीदारों के लिए सस्ते हो जाते हैं. साथ ही अमेरिका में आयातित वस्तुएं महंगी हो जाती हैं.
इसी कारण, डॉलर के अवमूल्यन के चलते अमेरीकी सेंट्रल बैंक फेडरल रिज़र्व आयातित वस्तुओं की कीमतों में बढ़ोतरी और इसके कारण बढ़ने वाली महंगाई को लेकर ब्याज दरों को घटाने में हिचक सकता है.
कई अर्थशास्त्रियों को चिंता है कि डॉलर में हालिया गिरावट दरअसल कुछ और गंभीर संकेत देती है — वो है दुनिया के देशों का अमेरिका पर भरोसा कम हुआ है.
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के अर्थशास्त्री बैरी आइचेंग्रीन ने अप्रैल के अंत में कहा था, “डॉलर पर दुनिया का विश्वास और निर्भरता आधे से अधिक सदी में बना है, लेकिन इसे एक झटके में खोया भी जा सकता है.”
ट्रंप एक कमज़ोर डॉलर क्यों चाहते हैं
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ऐतिहासिक रूप से, अमेरिकी सरकारें दशकों तक एक मजबूत डॉलर को बढ़ावा देती रही हैं, क्योंकि इससे देश की उधारी लागत कम रहती है और यह वैश्विक मंच पर अमेरिका की ताक़त का प्रतीक भी बना रहता है.
यह उन देशों पर दबाव बनाने में भी मदद करता है जो अमेरिका के सहयोगी नहीं हैं — जैसे कि ईरान, रूस और वेनेजुएला — क्योंकि यह उन्हें डॉलर तक पहुंच से वंचित करता है, जिससे उनके लिए दुनिया के दूसरे देशों में व्यापार करना मुश्किल हो जाता है.
यहां तक कि अमेरिका में आर्थिक संकटों के दौर में भी दुनिया के दूसरे देशों में डॉलर की मांग बनी रहती है.
लेकिन कुछ विश्लेषकों का मानना है कि ट्रंप प्रशासन की सोच अलग है.
रिपोर्ट्स के अनुसार, राष्ट्रपति मानते हैं कि डॉलर की मजबूती उस औद्योगिक पुनर्जागरण में बाधा बन रही है जिसे वह अमेरिका में लाना चाहते हैं.
कमजोर डॉलर से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर को फिर से “गौरवशाली युग” में लौटाने में मदद मिलेगी.
सिल्लर कहती हैं, “ट्रंप एक मजबूत डॉलर नहीं चाहते क्योंकि यह इंपोर्ट को बढ़ाता है.”
ट्रंप के नज़रिये से देखा जाए तो देश को घरेलू मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने, नई नौकरियों के मौके बनाने, निर्यात में वृद्धि और व्यापार घाटे को कम करने के लिए कमज़ोर डॉलर ज़रूरी है.
कुछ अनौपचारिक रिपोर्ट्स में एक योजना का जिक्र है जिसे ‘मार-ए-लागो समझौता’ कहा जा रहा है, जिसे ट्रंप के आर्थिक सलाहकार स्टीफन मिरान ने प्रस्तावित किया है.
संदेह और आलोचना
यह योजना इस विचार पर आधारित है कि डॉलर का दुनिया की रिज़र्व करेंसी का दर्जा कोई विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक महंगा बोझ है, जिसने अमेरिका के औद्योगिक उत्पादकता कम करने में भूमिका निभाई है.
इस तर्क के अनुसार, डॉलर की वैश्विक मांग इसके मूल्य को बढ़ा देती है, जिससे अमेरिकी उत्पाद महंगे हो जाते हैं.
इससे व्यापार घाटा बना रहता है और मैन्युफैक्चरिंग कंपनियां अपनी उत्पादन इकाइयां विदेश ले जाने को प्रेरित होती हैं.नतीजा यह होता है कि स्थानीय स्तर पर नौकरियों की कमी होती है.
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री और आईएमएफ के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री केनेथ रोगॉफ ने लिखा, “मिरान की योजना, चालाकी भरी ज़रूर दिखती है, लेकिन यह समस्या का निदान नहीं है.”
रोगॉफ़ का मानना है कि डॉलर की भूमिका दुनिया भर में रिज़र्व करेंसी की रही है, लेकिन यह भी सही है कि अमेरिका के बढ़ते व्यापार घाटे की यह तमाम वजहों में से सिर्फ़ एक है. और अगर व्यापार घाटे के कई कारण हैं तो मानना संदिग्ध है कि टैरिफ़ इसका समाधान हो सकते हैं.
यहां यह बताना अहम है कि किसी भी राष्ट्रपति के पास डॉलर का मूल्य सीधे नियंत्रित करने की ताक़त नहीं होती, क्योंकि एक्सचेंज रेट स्वतंत्र रूप से चलते हैं.
अमेरिका सीधे तौर पर मुद्रा के मूल्य को ऊपर या नीचे नहीं कर सकता, क्योंकि इसका मूल्य वैश्विक मुद्रा बाजार द्वारा तय होता है, जहां निवेशक डॉलर को खरीदते या बेचते हैं.
फिर भी, अमेरिकी सरकार की आर्थिक नीतियां बाज़ार को संकेत देती हैं, जो डॉलर के मूल्य और ब्याज दरों जैसे अन्य फैक्टर्स को प्रभावित करती हैं.
नाज़ुक संतुलन
यह सब एक नाज़ुक मशीनरी की तरह काम करता है, जिसमें एक हिस्सा हिलने पर बाकी हिस्से भी प्रभावित होते हैं.
अप्रैल में यही हुआ जब ट्रंप की बार-बार बदलती टैरिफ़ घोषणाओं ने निवेशकों के विश्वास को कमज़ोर किया और अमेरिकी बॉन्ड्स को नुकसान पहुंचाया. ये बॉन्ड्स सरकार पैसा जुटाने के लिए बाज़ार में जारी करती है.
इस विश्वास की कमी डॉलर के लिए भी अच्छी नहीं रही, हालांकि कुछ विश्लेषकों का मानना है कि यह स्थायी नहीं बल्कि अस्थायी बदलाव है.
मिजुहो फाइनेंशियल के अर्थशास्त्री स्टीव रिक्कियूटो ने एसोसिएटेड प्रेस को बताया, “युआन, बिटकॉइन या सोने जैसी कोई अन्य मुद्रा या संपत्ति इतनी बड़ी नहीं है कि वह डॉलर की मांग को पूरा कर सके, अभी कोई विकल्प नहीं है.”
अमेरिकी लोग महंगाई में संभावित बढ़ोतरी को लेकर चिंतित हैं, क्योंकि उन्हें आयातित वस्तुओं के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ सकती है — अब चाहे वह टैरिफ़ की वजह से हो या डॉलर की गिरावट की वजह से.
आने वाले महीनों में यह देखना बाकी है कि ट्रंप की व्यापार नीति, बजट और कर कटौती (जो अभी अमेरिकी संसद में बहस का विषय है), महंगाई और ब्याज दरों का डॉलर पर क्या असर होगा.
फिलहाल सवाल ज्यादा हैं और जवाब कम, हालांकि वॉल स्ट्रीट के अनुमानों के मुताबिक, डॉलर के मजबूत होने की संभावना अभी दूर की बात लगती है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित