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मिस्र की राजधानी काहिरा में कॉफी की दुकानें आम तौर पर ग़ज़ा के उन लोगों से भरी रहती हैं जो इसराइल और हमास की जंग शुरू होने से पहले वहां से निकलने में कामयाब रहे.
लेकिन ग़ज़ा में घर में उनके जो सगे-संबंधी रह गए हैं उन्हें उनकी सुरक्षा की चिंता सताती रहती है.
बीते कुछ दिनों से मिस्र के ख़ुफ़िया अधिकारी अस्थायी युद्धविराम को मज़बूत करने के लिए हमास नेताओं से मुलाक़ातें कर रहे हैं.
वहीं मिस्र के लाखों लोग लगातार ख़बरों पर नज़र बनाए हुए हैं क्योंकि ग़ज़ा की लड़ाई में वो अपने देश की अहम भूमिका देखते हैं.
बीते दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने युद्ध के बाद ग़ज़ा को लेकर अपना प्लान बताया था, जिसमें उन्होंने क़रीब 20 लाख फ़लस्तीनियों को मिस्र और जॉर्डन में जगह देने की बात कही थी.
अमेरिका के इस ग़ज़ा प्लान से मिस्र के लोगों में अस्तित्व को लेकर ख़तरा महसूस हो रहा है.
मिस्र के लोगों का कहना है कि ट्रंप के प्लान के लिए हक़ीकत को पहचानने की जरूरत है.
मिस्र में बतौर सिविल इंजीनियर काम कर रहे अबदो ने कहा, “ऐसा करने से जंग का स्थान बदलकर हमारी ज़मीन हो जाएगा. इसराइली सेना और फ़लस्तीनी लोग एकदूसरे के दुश्मन हैं. उनके बीच कोई शांति नहीं है.”
वो चिंता जताते हैं, “इसका मतलब, इसराइल को आत्मरक्षा के नाम पर हमारी ज़मीन पर हमला करने का मौक़ा देना होगा.”
यहां के कई लोग इस बात पर ज़ोर देते हैं कि ग़ज़ा के लोगों को अस्थायी रूप विस्थापित करने से अलग फ़लस्तीनी राष्ट्र के विचार की तलाश भी ख़त्म हो जाएगी.
लेकिन उनका ये भी मानना है कि इससे चरमपंथ को बढ़ावा मिलेगा और मिस्र में अस्थिरता पैदा हो सकती है.
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इसी तरह का संदेश देने के लिए मिस्र के राष्ट्रपति अब्दुल फतेह अल-सीसी ने पर्दे के पीछे से कूटनीतिक हमले शुरू कर दिए हैं.
वो अपने शासन के सबसे मुश्किल दौर का सामना कर रहे हैं जिसका सीधा असर पश्चिम में उसके मुख्य सहयोगी के साथ उनके संबंधों पर पड़ सकता है.
इस कारण मिस्र के पड़ोसी देश इसराइल के साथ अतीत में हुए शांति समझौते पर भी ख़तरा मंडरा रहा है. इस समझौते को मध्य पूर्व में स्थिरता और अमेरिका के प्रभुत्व के आधार के रूप में देखा जाता है.
1979 में जब से अमेरिका की मध्यस्थता में इसराइल और मिस्र के बीच ये संधि हुई है, तब से मिस्र अमेरिका का क़रीबी सहयोगी रहा है.
संधि के तहत मिस्र को अमेरिका से सैन्य मदद मिलती है. पिछले साल भी उसे अमेरिका की तरफ से 1.3 अरब डॉलर की सैन्य सहायता मिली.
हालांकि मिस्र के पॉपुलर नाइट टाइम टॉक शो पर टिप्पणीकार इसकी आलोचना करते हुए नज़र आए.
एक प्राइवेट चैनल पर प्रसारित होने वाले इस शो पर शो के होस्ट अहमद मूसा ने कहा कि “अमेरिका की सैन्य सहायता से मिस्र को कोई फायदा नहीं होता है.”
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मिस्र को “दबाव और ब्लैकमेल” को नकारना चाहिए.
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मिस्र के नेता हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति से मुलाक़ात करने वाले जॉर्डन के किंग अब्दुल्ला से अलग रवैया अपना रहे हैं.
किंग अब्दुल्ला ने नरम रुख़ अपनाते हुए ग़ज़ा के बीमार बच्चों को लेने की बात कही जबकि ग़ज़ा के लोगों के पुनर्वास के मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी.
मिस्र से मिल रही रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है ग़ज़ा के लोगों के विस्थापन के मुद्दे को लेकर राष्ट्रपति सीसी ने अमेरिका की यात्रा करने से इनकार कर दिया है. हालांकि अमेरिका ने इस तरह के किसी विस्थापन का कोई शेड्यूल होने से इनकार किया है.
ग़ज़ा जंग का सीधा असर मिस्र की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है.
मिस्र का कहना है कि इसराइल के ख़िलाफ़ यमन के हूती विद्रोहियों ने लाल सागर से होकर सामान लाने-ले जाने वाले जहाज़ों पर जो हमले किए, उनसे उसे 8 अरब डॉलर के राजस्व का नुक़सान पहुंचा है.
उम्मीद ये बचती है कि मिस्र ग़ज़ा के पुनर्निर्माण के लिए खुद योजना बनाए और ग़ज़ा के लोगों के विस्थापन से खुद को बचाकर अपनी अर्थव्यवस्था को भी बढ़ावा दे.
राष्ट्रपति सीसी के क़रीबी माने जाने वाले और मिस्र के रियल एस्टेट कारोबारी हिशाम तलत मुस्तफ़ा ने टेलिविज़न पर एक कार्यक्रम में 20 अरब अमेरिकी डॉलर में तीन साल के भीतर ग़ज़ा में 2 लाख घर बनाने का प्रस्ताव दिया.
उन्होंने कहा कि इसके लिए फ़लस्तीनियों को किसी और जगह पर नहीं जाना होगा.
काहिरा यूनिवर्सिटी में प्रोफे़सर मुस्तफ़ा कमल अल-सैय्यद मानते हैं कि यह प्लान मुमकिन है.
उन्होंने कहा, “अगर ग़ज़ा का पुनर्निर्माण होता है तो फ़लस्तीनियों के लिए सुरक्षित ठिकाना तलाशने में मिस्र के लोगों को मुश्किल का सामना नहीं करना होगा.”
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ग़ज़ा को फिर से बनाने को लेकर कई और योजनाएं भी पेश की जा रही हैं, जिनमें इमारतों के निर्माण में मलबे का इस्तेमाल भी शामिल है.
मध्य-पूर्व की अपनी यात्रा से पहले अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रूबियो ने ये स्वीकार है कि राष्ट्रपति ट्रंप की ग़ज़ा से जुड़ी योजना अरब देशों को कुछ ख़ास पसंद नहीं आई है.
उन्होंने कहा, “अगर किसी के पास बेहतर प्लान है, हमें उम्मीद है होगा… तो उसे पेश करने का वक्त आ गया है.”
अरब देशों के कुछ नेताओं की सऊदी अरब में मुलाक़ात होनी है. वहीं मिस्र 27 फरवरी को काहिरा में ग़ज़ा को लेकर अरब सम्मेलन की बात कर रहा है.
ग़ज़ा को लेकर प्रस्तावों में इसके पुनर्निर्माण के लिए खाड़ी देशों की अगुवाई वाले फंड की बात हो रही है. इसके लिए समझौते में हमास को किनारे करना भी शामिल है.
इसराइल और अमेरिका ने साफ किया है कि ग़ज़ा में 2007 से सत्ता की कमान संभाल रहे फ़लस्तीनी सशस्त्र बल की ग़ज़ा के भविष्य में कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए.
ग़ज़ा को लेकर मिस्र की योजना में नए सुरक्षा बलों को ट्रेनिंग देना शामिल है. इसके अलावा उन फ़लस्तीनी टेक्नोक्रेट की पहचान शामिल है जो किसी राजनीतिक दल के साथ न जुड़े हों और पुनर्निर्माण से जुड़े शुरुआती प्रोजेक्ट्स की अगुवाई कर पाएं.
हालांकि ऐसी कोई डील पेश करना चुनौतीपूर्ण है, जिससे इसराइल की सरकार संतुष्ट हो सके.
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अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने वैश्विक शक्तियों और संयुक्त राष्ट्र से तब तक ग़ज़ा में अस्थायी भूमिका निभाने की बात की थी, जब तक कब्जे़ वाले वेस्ट बैंक की कमान संभालने वाली फ़लस्तीनी अथॉरिटी (पीए) ग़ज़ा की कमान न संभाल ले.
लेकिन इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने पीए की भूमिका का विरोध किया क्योंकि वो फ़लस्तीन को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा देने के पक्ष में नहीं है.
दूसरे अरब देशों के साथ मिस्र भी ग़ज़ा में लंबे वक्त तक शांति के लिए दिए गए अंतरराष्ट्रीय फॉर्मूले के प्रति प्रतिबद्ध है. इसमें इसराइल के साथ -साथ एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में फ़लस्तीन को दर्जा दिया जाना शामिल है.
मिस्र के विदेश मंत्री ने कहा है कि “वो क्षेत्र में शांति के लिए राष्ट्रपति ट्रंप के साथ काम करने को तैयार हैं. लेकिन इसे फ़लस्तीन के समाधान के साथ ही हासिल किया जा सकता है.”
इधर काहिरा में मस्जिद के बाहर मौजूद आम लोग इस पर बात करते हैं कि कैसे देश को इतिहास में परेशानी झेलने वाली घटनाओं से बचने की कोशिश करनी चाहिए.
मिस्र का कहना है कि उसके यहां पहले से ही ग़ज़ा के एक लाख से ज्यादा लोग हैं.
यहां कुछ लोगों को चिंता है कि ग़ज़ा से और अधिक लोगों के मिस्र आने से इसके हमास का नया अड्डा बनने का ख़तरा पैदा हो सकता है.
हमास मुस्लिम ब्रदरहुड की एक वैचारिक शाखा है, जिसे मिस्र में प्रतिबंधित किया गया है. इसके बारे में मिस्र का तर्क है कि ग़ज़ा से अधिक लोगों के मिस्र आने से ये गुट फिर मज़बूत हो सकता है, जिससे घरेलू स्तर पर अशांति फैल सकती है.
आख़िरकार मिस्र के पास अमेरिका के सामने मज़बूत स्टैंड लेने के लिए भारी समर्थन है.
मित्र के एक दुकानदार ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “पहले से मौजूद विस्थापितों की वजह से जिंदगी पहले से ही मुश्किल हो चुकी है. सोचिए और ज्यादा लोग आएंगे तो क्या होगा.”
वो कहते हैं, “जीने के लिए फ़लस्तीनियों को अपनी ज़मीन की ज़रूरत है, हमारी नहीं. हमें अमेरिका से कुछ नहीं चाहिए. मैं अल-सीसी की सरकार के साथ हूं और हम इसके परिणामों का सामना करने के लिए तैयार हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित