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अमेरिका के भारतीय निर्यात पर 50 फ़ीसदी टैरिफ़ बुधवार से लागू हो गए हैं.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाया था. इसके बाद ट्रंप ने भारत के रूस से तेल ख़रीदने पर 25 प्रतिशत का अतिरिक्त टैरिफ़ दंड के तौर पर लगाया. यानी भारत से अमेरिका निर्यात होने वाले सामान पर कुल टैरिफ़ 50 फ़ीसदी हो गया है.
अमेरिकी टैरिफ़ का बड़ा असर भारत के चमड़ा उद्योग से लेकर कपड़ा उद्योग पर जल्द दिख सकता है.
भारत अमेरिका को सालाना 87 अरब डॉलर का निर्यात करता है. अनुमानों के मुताबिक़ भारत का अमेरिका के लिए क़रीब 66 फ़ीसदी निर्यात इन टैरिफ़ से प्रभावित हो सकता है.
भारत अपने कुल निर्यात का बीस फ़ीसदी अमेरिका को ही करता है. ऐसे में अमेरिकी टैरिफ़ का असर भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ सकता है.
विश्लेषक मानते हैं कि टैरिफ़ की वजह से भारत का निर्यात कम होगा और इससे भारतीय सामानों की मांग कम होगी और बेरोज़गारी बढ़ सकती है.
वरिष्ठ अर्थशास्त्री मिताली निकोरे कहती हैं, “चमड़ा उद्योग, कपड़ा उद्योग और ज्वैलरी उद्योग पर ट्रंप के टैरिफ़ का असर दिखने लगा है. ख़रीदार चाहते हैं कि भारत के निर्यातक इस टैरिफ़ को बर्दाश्त करें लेकिन उनकी क्षमता इतनी नहीं हैं. अधिकतर निर्यातकों के पास माल तैयार होता है, ऐसे में उन्हें सीधा नुक़सान हो सकता है.”
वहीं दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “ये ख़तरा नज़र आता है कि सिर्फ़ अमेरिका के लिए ही नहीं बल्कि बाक़ी देशों के लिए भी निर्यात पर असर हो सकता है. उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ से ज़ीरो टैरिफ़ पर अमेरिका आयात करेगा और अमेरिका ईयू से पंद्रह फ़ीसदी पर. यानी सभी देशों का कारोबार अमेरिका के साथ कम होगा. इसका सीधा मतलब ये है कि बाक़ी देशों के पास भी सरप्लस उत्पाद होंगे जिसे वो एक दूसरे देशों में डंप करने का प्रयास करेंगे. इसका ख़तरा ये है कि डंपिंग बड़े स्तर पर हो सकती है. इससे बाक़ी देश भी टैरिफ़ बढ़ा सकते हैं.”
टैरिफ़ वार का एक पहलू ये भी है कि चीन के पास भी सरप्लस उत्पाद हैं जिन्हें वह यूरोपीय संघ में बेचने की कोशिश कर रहा है. इससे वैश्विक स्तर पर भारतीय उत्पादों के लिए प्रतिद्वंद्विता बढ़ेगी.
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “वैश्विक कारोबार में एक अनिश्चितता का माहौल है और ये सवाल है कि आगे क्या होगा. इससे निवेश की संभावनाएं भी कमज़ोर होंगी. भारत में मांग कम होने की वजह से पहले से ही निवेश कम हो रहा है. ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यस्था में चुनौतियां पैदा हो सकती हैं.”
इस घटनाक्रम के बीच भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि सरकार कई मोर्चों पर सुधार लागू करने के लिए तैयार है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को कहा, “रिफ़ॉर्म, परफॉर्म और ट्रांसफॉर्म के मंत्र पर चल रहा भारत आज इस स्थिति में है कि वह दुनिया को धीमी विकास दर से बाहर निकाल सकता है.”
वहीं, पंद्रह अगस्त को लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि भारत जल्द ही बड़े पैमाने पर जीएसटी (गुड्स एंड सर्विसेज़ टैक्स) में सुधार लागू करने जा रहा है.
उन्होंने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का आह्वान करते हुए कहा था, “दुनिया भर में आर्थिक स्वार्थ बढ़ रहा है और हमें अपनी मुश्किलों का रोना नहीं रोना चाहिए. हमें इनसे ऊपर उठकर दूसरों के चंगुल से बचना होगा.
ये माना जा सकता है कि अमेरिकी टैरिफ़ के दबाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये अपील की लेकिन शनिवार को उन्होंने कहा, “सुधार कोई मजबूरी नहीं है, ना ही संकट की वजह से हैं, ये हमारी प्रतिबद्धता है.”
तुरंत सुधारों की ज़रूरत
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इस स्थिति में, विश्लेषक इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि भारत को तुरंत आर्थिक सुधारों की ज़रूरत है.
मिताली निकोरे कहती हैं, “मौजूदा स्थित में कुछ लोगों को तुरंत मदद की ज़रूरत पड़ेगी. टैरिफ़ से प्रभावित हो रहे चमड़ा उद्योग, कपड़ा उद्योग में एमएसएमई ज़्यादा है, हालांकि ज्वैलरी क्षेत्र में बड़ी कंपनियां भी हैं. इन एमएसएमई को तुरंत लोन फंडिंग की ज़रूरत है, सरकार ऐसा कर सकती है.”
सरकार ने जीएसटी में सुधार के संकेत दिए हैं लेकिन विश्लेषक मानते हैं कि ये पर्याप्त नहीं होगा. मिताली निकोरे कहती हैं, “जीएसटी का क़दम अच्छा है. लेकिन इस स्थिति में सरकार को टैक्स छूट देनी चाहिए. निर्यातकों को राहत देने के लिए सरकार को आपात फंडिंग उपलब्ध करानी चाहिए.”
चिकोरे कहती हैं, “हम राष्ट्रीय स्तर पर सुधार की बात करते हैं लेकिन इस स्थिति में जिन क्षेत्रों पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ रहा है सबसे पहले मदद उन्हें मिले.”
वहीं, ग्लोबल ट्रेड रिसर्च इनिशिएटिव के संस्थापक अजय श्रीवास्तव भी ज़ोर देकर कहते हैं कि मौजूदा स्थिति से निबटने के लिए भारत को तुरंत सुधार लागू करने होंगे.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “चीन के पास कोई ट्रेड समझौता नहीं था ना ही चीन साल 2000 से पहले डब्ल्यूटीओ का सदस्य था. लेकिन चीन सबसे ज़्यादा निर्यात कर रहा था क्योंकि वह अच्छे और सस्ते उत्पाद बना रहा था. हमें चीन से सीखना होगा और दो तरह के सुधार करने होंगे. एक तो हमें तुरंत सुधार करने है ताकि उन निर्यातकों को राहत मिल सके जो टैरिफ़ की वजह से चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. इसके साथ ही हमें कुछ गहरे और व्यापक सुधारों की ज़रूरत है ताकि हमारा निर्यात बेहतर और विस्तृत हो सके.”
सस्ती दरों पर क़र्ज़
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अजय श्रीवास्तव इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सरकार को छोटे-मझौले उद्योगों (एमएसएमई) को ब्याज़ मुक्त क़र्ज़ देने की योजना को फिर से वापस लाना चाहिए.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “ज़रूरत इस बात की है कि भारतीय उत्पादक प्रतिद्वंद्विता बढ़ाएं और सस्ती दरों पर अच्छे उत्पाद बनाएं. इसके लिए उन्हें एक मददगार इकोसिस्टम की ज़रूरत है जिसमें उन्हें सस्ती दरों पर या ब्याज मुक्त क़र्ज़ मिल सके और जीएसटी के झंझट से मुक्ति मिल सके.”
श्रीवास्तव कहते हैं, “अगर भारतीय उत्पादक सस्ती दरों पर बेहतर उत्पाद बनाएंगे तो टैरिफ़ के बावजूद बाज़ार में उनकी मांग बनीं रहेगी.”
भारत में एक साल पहले तक इंटरेस्ट इक्वलाइजेशन स्कीम थी जिसके तहत निर्यात के लिए क़र्ज़ लेने वाले छोटे-मझौले उद्योगों (एमएसएमई) को ब्याज़ में पांच से सात प्रतिशत तक की छूट दी जाती थी. ये योजना अब फंड की कमी से जूझ रही है.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि ये एक कमयाब योजना थी और इसे योजना को तुरंत और पहले से बेहतर तरीक़े से वापस लाने की ज़रूरत है.
श्रीवास्तव कहते हैं, “पहले इस योजना का सालाना बजट 2500 करोड़ रुपए था इसे 15000 करोड़ रुपए तक बढ़ाने की ज़रूरत है. यही नहीं, इस योजना में न केवल एमएसएमई, बल्कि लार्ज और मीडियम साइज एक्सपोर्टर को भी शामिल करना चाहिए.”
जीएसटी सुधारों का दायरा बढ़े
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विश्लेषक इस बात पर भी ज़ोर देते हैं कि भारत को प्रस्तावित जीएसटी सुधारों का दायरा बढ़ाना होगा और भारत को कुछ विस्तृत और व्यापक दीर्घकालिक सुधार करने होंगे.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “जीएसटी सुधार के तहत दरों को रेशनलाइज़ करने की बात है लेकिन इससे भी अधिक करने की ज़रूरत है. आज सर्विस सेक्टर में बीस लाख तक और उत्पादन क्षेत्र के लिए 40 लाख रुपये तक के टर्नओवर में जीएसटी की छूट है. इसे बढ़ाना होगा. यदि बाज़ार के लिहाज़ से देखा जाए तो चालीस लाख तक की सीमा तर्कसंगत नहीं है. इसे बढ़ाकर कम से कम डेढ़ करोड़ तक करना होगा ताकि छोटे कारोबारियों को सीधा फ़ायदा पहुंच सके.”
भारत के जीएसटी कलेक्शन मेंअधिकतर राजस्व सरकार को अधिक टर्नओवर वाली कंपनियों से ही प्राप्त होता है. विश्लेषक मानते हैं कि जीएसटी से एमएसएमई को राहत देने से सरकार को राजस्व का बहुत अधिक नुक़सान नहीं होगा.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “ऐसा करने से भारत के 99 फ़ीसदी एमएसएमई जीएसटी के चंगुल से मुक्त हो जाएंगे. इससे सरकार के राजस्व पर भी बहुत अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ेगा ये सिर्फ़ तीन से चार प्रतिशत तक ही कम होगा.”
विश्लेषक मानते हैं कि इससे घरेलू स्तर पर मांग बढ़ेगी और रोज़गार के मौक़े भी पैदा होंगे. भारत में छोटे-मझौले उद्योग ही सबसे अधिक रोज़गार पैदा करते हैं.
घरेलू उत्पादन और खपत पर ज़ोर
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल क़िले से अपने भाषण में स्पष्ट संदेश देते हुए घरेलू उत्पादन और ख़र्च पर ज़ोर दिया.
उन्होंने कहा- भारत में बनाओ और यहीं पर ख़र्च करो.
विशेषज्ञ भी मानते हैं कि अमेरिका ने जो टैरिफ़ लगाए हैं और उससे जो दिक़्क़तें आ रही हैं वो एक तरह से भारत के लिए ये सबक हैं कि भारत को ट्रेड डील करने या दूसरे क़दम उठाने के मुक़ाबले घरेलू स्तर पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “भारत को ट्रंप ने सबक दिया है कि भारत अपनी एक्सपोर्ट कंपिटिटिवनेस बढ़ाए, उत्पादन ख़र्च कम करे. इससे घरेलू स्तर पर उद्योगों को मज़बूती मिलेगी तो निर्यात भी बढ़ेगा और जीडीपी भी बढ़ेगी. भारत को अपने घरेलू इंजन को चालू करने की ज़रूरत है.”
असंगठित क्षेत्र को भी करना होगा मज़बूत
भारत की अर्थव्यवस्था का एक पहलू ये भी है कि आज भी भारत में क़रीब पैंतालीस फ़ीसदी लोग कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं और बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है.
विश्लेषक मानते हैं कि भारत को असंगठित क्षेत्र में भी सुधारों पर ज़ोर देना होगा और अपनी आंतरिक मांग को बढ़ाना होगा.
दिल्ली की जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “सरकार ने आंतरिक मांग बढ़ाने के लिए लिए जीएसटी की दर कम करने की बात कही है और आयकर में भी छूट दी है. लेकिन ये पर्याप्त नहीं है.”
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “जीएसटी संगठित क्षेत्र देता है, जबकि आयकर छूट से भी बहुत सीमित आबादी को फ़ायदा पहुंचा है. ज़रूरत असंगठित क्षेत्र में बड़े पैमाने पर सुधार की है. सरकार जो जीएसटी सुधार ला रही है उससे संगठित क्षेत्र को तो फ़ायदा पहुंचेगा लेकिन असंगठित क्षेत्र को नहीं पहुंच पाएगा.”
प्रोफ़ेसर कुमार कहते हैं, “भारत की आबादी करीब 145 करोड़ है. ऐसे में सिर्फ़ चुनिंदा लोगों को राहत मिलने से बाज़ार में बहुत बड़ी मांग पैदा नहीं होगी. भारतीय बाज़ार में मांग बढ़ाने के लिए सरकार को कृषि क्षेत्र में सुधार करने होंगे. किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में ठोस क़दम उठाने होंगे. वहीं अन्य लघु उद्योगों में भी क़रीब चालीस फ़ीसदी लोग जुड़े हैं. सरकार को इन क्षेत्रों में मांग बढ़ाने की ज़रूरत है.”
स्पष्ट सोच और इच्छा शक्ति की ज़रूरत
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विश्लेषक जिन सुधारों की सलाह दे रहे हैं उन्हें सरकार चाहे तो तुरंत लागू कर सकती है. 1991 में भारत ने तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधार लागू किए थे.
विश्लेषक मानते हैं कि भारत को ऐसे ही या इससे आगे बढ़कर सुधार लागू करने होंगे.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “ये सुधार करने के लिए स्पष्ट सोच और मज़बूत माइंडसेट की ज़रूरत है. सारे एक्शन- चाहे मिलिट्री एक्शन हो, चाहे आर्थिक सुधार हो — वह एक झटके में होते हैं. तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने साल 1991 में बड़े आर्थिक सुधार किए थे. ये सभी सुधार एक ही झटके में दो-तीन महीने में हो गए थे. आज भी सरकार चाहे तो एक झटके में ये सुधार लागू कर सकती है क्योंकि ये नियामक सुधार हैं और ये सिर्फ़ दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करने से लागू हो जाएंगे.”
1991 में हुए आर्थिक सुधारों से भारत में लाइसेंस राज ख़त्म हुआ, भारत का बाज़ार खुला. इन आर्थिक सुधारों का असर आज भी भारत की अर्थव्यवस्था पर दिखाई देता है.
हालांकि अजय श्रीवास्वत मानते हैं कि उस समय भारत में एक उत्पादन आधारित इकोसिस्टम विकसित करने पर ज़ोर नहीं दिया गया.
भारत के जीडीपी में मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर की हिस्सेदारी आज भी 15 फ़ीसदी ही है. भारत सरकार ने सब्सिडी और प्रोडक्शन इंसेटिव की नीतियां लागू की हैं लेकिन बावजूद इस क्षेत्र की हिस्सेदारी नहीं बढ़ पा रही है.
अजय श्रीवास्तव कहते हैं, “वह 1990 का दौर था जब चीन अपनी व्यवस्था विकसित कर रहा था, उत्पादन क्षेत्र को विकसित कर रहा था, सेवाएं विकसित कर रहा था लेकिन भारत सिर्फ़ नियामक बदलाव ला रहा था.. डिरेगुलेट करना ज़रूरी था लेकिन उसके साथ ही विकास की नींव भी रखी जानी चाहिए थी. यही वजह है कि चीन आगे निकल गया. आज भारत को अपने उत्पादन क्षेत्र पर ध्यान देने की ज़रूरत है और ऐसी व्यवस्था विकसित करने की ज़रूरत है जहां कम क़ीमत पर अच्छे उत्पाद बनाए जा सकें.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित