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दुष्यंत कुमार के गुज़र जाने के पांच दशकों बाद भी हिंदी में लिखे उनके शेर आज भी सड़कों, सभाओं और महफ़िलों में गूंज रहे हैं.
दुष्यंत को हिंदी ग़ज़ल का एक प्रकाश स्तंभ माना जाता है. मीर ने ग़ज़लों को दर्द में ढाला. ग़ालिब ने उसे सोच की ऊंचाई दी. दाग़ ने उसे आसान लहजा दिया. नज़ीर ने उसे लोकभाषा दी.
जोश ने ग़ज़लों को जोशीला बनाया और 70 के दशक के बाद दुष्यंत कुमार ने उसे हिंदी, उर्दू के मिले-जुले रंग में एक नई पोशाक दी.
दुष्यंत की ग़ज़लों ने आम आदमी की तड़प को आवाज़ दी —
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
दुष्यंत कुमार से पहले ग़ज़ल लगभग डेढ़ हजार साल से भी पहले फ़ारसी में और फिर उर्दू में भारतीय उप-महाद्वीप में प्रचलित रही हैं. उर्दू ग़ज़ल की लंबी परंपरा में दुष्यंत ने आम आदमी की रोज़मर्रा की पीड़ा और उसका विरोध जोड़ दिया.
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शेर जो लोगों के लिए नारे बन गए
दुष्यंत उर्दू ग़ज़ल और उसकी परंपरा से परिचित थे इसलिए वह अपनी बात पूरी ताक़त से हिंदी ग़ज़ल में कह सके और उसे संवार सके.
कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
जहां उनके असरदार शेर लाखों-लाख लोगों के लिए पुरज़ोर नारे बन गए, वहीं उनकी शायरी में रूमानियत और ख़ूबसूरती अलग ही अंदाज़ में कायम रही. वह कहते हैं-
कहां तो तय था चराग़ां हर एक घर के लिए
कहां चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
वहीं इसी ग़ज़ल का आख़िरी शेर है-
जिएं तो अपने बाग़ीचे में गुलमुहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमुहर के लिए
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‘साये में धूप’ को महसूस करने वाले शायर
दुष्यंत कुमार के बारे में कहा जाता है कि हिंदी साहित्य में उनके लिखे को जितना दोहराया गया उतना हिंदी के किसी और कवि को नहीं.
एक सितंबर, 1933 को बिजनौर ज़िले के राजपुर नवादा गांव में उनका जन्म हुआ था. अपने शुरुआती सालों में वह अपने नाम के आगे ‘परदेसी’ उपनाम लगाते थे लेकिन आगे चलकर उन्होंने इसे छोड़ दिया.
‘सूर्य का स्वागत’ उनका पहला काव्य संग्रह था जो 1957 में छपा था. तब वह 24 साल के थे. अपने पहले ही संग्रह से ही उन्होंने अपनी मौजूदगी पुख़्ता तौर पर दर्ज कर दी.
‘साए में धूप’ दुष्यंत का पहला ग़ज़ल संग्रह था जो सन 1975 में छपा था और जिसने उन्हें पहले हिंदी ग़ज़लकार के तौर पर स्थापित कर दिया. दुष्यंत कुमार एक युग का नाम है जहां से हिंदी ग़ज़ल की विकास यात्रा शुरू होती है.
कमलेश भट्ट कमल अपनी किताब ‘हिंदी साहित्य के आधुनिक सूर्य’ में लिखते हैं, “दुष्यंत कुमार ने भले ही बहुत ज़्यादा ग़ज़लें नहीं लिखीं, मात्र 52 ग़ज़लें जो उनके इकलौते ग़ज़ल संग्रह ‘साये में धूप’ के माध्यम से सामने आ पाईं. लेकिन उनमें एक ऐसी अद्भुत कहन, जनसामान्य से जुड़े सरोकारों की अभिव्यक्ति की ऐसी छटपटाहट और ऐसी ताज़गी मौजूद है जो पहले लिखी जा चुकी ग़ज़लों से दुष्यंत को बिल्कुल अलग कर देती है.”
“दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल की दुनिया में प्रवेश न तो आकस्मिक था और न ही अप्रत्याशित. वह छंदमुक्त हिंदी कविता के बौद्धिक आतंक से स्वयं को मुक्त करने के लिए और व्यापक पाठक वर्ग तक अपनी पीड़ा को पहुंचाने के लिए हिंदी ग़ज़ल की दुनिया में बहुत सोच समझकर उतरे थे.”
उन्होंने ख़ुद लिखा था, “ग़ज़ल का चस्का मुझे शमशेर बहादुर सिंह की ग़ज़लें सुनकर लगा था. मैंने ग़ज़ल अपने चारों ओर बुनी जा रही कविता की एकरसता को तोड़ने के लिए भी कहना शुरू किया.”
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शानदार शख़्सियत के मालिक
उनके बेटे आलोक त्यागी याद करते हैं, “वह इतने प्रियदर्शी थे कि उनकी पहली छवि उनके लुक्स की बनती है. अच्छा ख़ासा डीलडौल था उनका. रंग साफ़ था. वह निडर इंसान थे. अपनी ज़िंदगी में प्रयोग करने का उनका जो जज़्बा था वह उनको बिल्कुल असाधारण बनाता था. कुल मिलाकर वह एक जीवंत और खूबसूरत इंसान और यारों के यार थे.”
दुष्यंत बहुत अच्छे पिता थे. जब वह दफ़्तर से घर लौटते थे तो घर बिल्कुल गुलज़ार हो जाया करता था.
लौटने के बाद का आधा एक घंटा वह अपने परिवार को देते थे. उसके बाद का समय समाज का हो जाया करता था. उनके मिलने-जुलने वालों का इतना रेला होता था कि उसके बाद परिजनों को समय देना मुश्किल हो जाया करता था.
आलोक त्यागी याद करते हैं, “आप इससे अंदाज़ा लगाएं कि हम उन्हें पापा की बजाए ‘पापा यार’ कहते थे, ‘पापा यार ये नहीं हो पा रहा हमसे.’ ‘पापा यार ज़रा देखो इसे.’ वह एक सरकारी नौकरी में थे. इसके बावजूद उन्होंने आर्थिक तौर से अपने-आपको खींचकर हमें बोर्डिंग स्कूल में भेजा था. वह बहुत ही उदार, आगे देखने वाले और प्रगतिशील किस्म के इंसान थे.”
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कमलेश्वर से गहरी दोस्ती
साहित्यकारों में कमलेश्वर उनके सबसे निकट थे. वह उनके कॉलेज के दोस्त थे. उनकी मित्रता जीवन भर रही. जब भी कोई नई चीज़ लिखते थे तो सबसे पहले कमलेश्वर से चर्चा करते थे.
डॉक्टर राजीव श्रीवास्तव अपने लेख ‘वह आदमी नहीं, मुकम्मल बयान है’ में लिखते हैं, “दुष्यंत और कमलेश्वर की मित्रता इतनी प्रगाढ़ थी कि आगे चलकर जब कमलेश्वर अपनी एकमात्र पुत्री ममता के विवाह का प्रस्ताव दुष्यंत के बड़े बेटे आलोक के लिए लेकर गए तो लड़के की मां राजेश्वरी ने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया.”
कमलेश्वर की उपस्थिति दुष्यंत के व्यक्तित्व और कृतित्व में एक ऐसे मूल स्तंभ के रूप में रही है जिसके लिए दुष्यंत ने खुद लिखा है- “और कमलेश्वर ! वह इस अफ़साने में न होता तो ये सिलसिला शायद यहां तक न आ पाता. मैं तो ‘
हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए’. “
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दुष्यंत की व्यवहार पटुता
कमलेश्वर की पत्नी गायत्री कमलेश्वर ने अपनी किताब ‘कमलेश्वर मेरे हमसफ़र’ में दुष्यंत का बेहद दिलचस्प चित्रण किया है.
वह लिखती हैं, “दुष्यंतजी एकदम गोरे लंबे, चेहरे पर नूरानी चमक लिए बिंदास कवियों जैसे दिखाई देते थे. दुष्यंत जब दिल्ली में एक इंटरव्यू देने आए थे तब मैंने उन्हें पहली बार देखा था. उन दिनों बंबई से राज बेदी भी हमारे यहां आए हुए थे.”
“कमलेश्वर जी ने देखा कि दुष्यंत जी के पास अटैची में एक भी ढंग के कपड़ा नहीं है. सारे कपड़े मैले पड़े हैं. उन्होंने वह सारे कपड़े मुझे धोने के लिए दे दिए. दूसरे दिन जब दुष्यंत को इंटरव्यू में जाना था, उन्होंने हंसते-हंसते सबसे कपड़े मांगे.”
“राज बेदी लंबे थे. उनकी पैंट ली. मोहन राकेश की एक शर्ट और टाई ली और राज बेदी से ही उनका एक कोट लिया. दूसरे दिन जब दुष्यंत इंटरव्यू के लिए जाने लगे तो कमलेश्वर उनसे हंसते हुए बोले, ‘भाई इंटरव्यू से लौट कर यहीं आना, कपड़े वापस करने. ऐसे ही भोपाल मत निकल जाना.”
इसी तरह कमलेश्वर ने एक इंटरव्यू में कुंभ का एक किस्सा सुनाया था, “एक बार मैं, मार्कण्डेय और दुष्यंत साइकिल से कुंभ मेले गए. घूमते-घमते जब भूख लगी तो हम काफ़ी भीड़भाड़ वाली पूरी-कचौरियों की दुकान में घुस गए. हमने ये सोच कर काफ़ी खा-पी लिया कि किसी के पास तो पैसे होंगे. बिल आया नौ रुपये का. पता चला हममें से किसी के पास उतने पैसे नहीं हैं.”
कमलेश्वर ने याद किया, “दुष्यंत ने हमसे कहा, तुम लोग सड़क पार कर जाओ. मैं यहां कुछ इंतज़ाम करता हूं. हम सड़क पार करके देखते रहे कि ये करते क्या हैं? हमने देखा कि दुष्यंत भीड़ में हलवाई के पास अपना हाथ बार-बार आगे-आगे ले जाते थे. ख़ाली हाथ.”
“दो तीन बार उन्होंने ऐसा ही किया. फिर जब मौका मिला तो उन्होंने हलवाई से कहा, ‘पैसे वापस करिए. आपको दिए न पैसे. कब से मांग रहा हूँ. ‘हलवाई ने परेशान होकर पूछा, ‘क्या मतलब?’ दुष्यंत ने जवाब दिया, ‘आपको दिया न दस का नोट. नौ रुपया हुआ. एक रुपया वापस करिए.’ वह हंसते हुए एक रुपये का नोट हाथ में लेकर हमारे पास आ गए.”
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सर्वेश्वर और भारती का साथ
भोपाल के दौर में मशहूर लेखक शानी भी उनके दोस्त हुआ करते थे. हालांकि उनकी दोस्ती और दुश्मनी दोनों एक नज़ीर की तरह पेश की जाती है. दोस्ती रही तो ग़ज़ब की रही लेकिन जब तलवारें खिंचीं तो किसी ने वार करने में लिहाज़ नहीं किया.
दो कवियों जिनका दुष्यंत सबसे अधिक सम्मान करते थे, वह थे भवानी प्रसाद मिश्र और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना. सर्वेश्वर को वह हमेशा ‘सर्वेश्वर भाई’ कहकर संबोधित करते थे.
सर्वेश्वर ने उनकी मृत्यु के बाद छपे ‘सारिका’ के विशेष अंक में ‘वह सब कुछ पा लेना चाहता था’ शीर्षक से लिखा था, “दुष्यंत बड़ा मायावी था. बहुत कम लोग होते हैं जो इतनी खुली ज़िंदगी जीते हों और फिर भी मायावी कहलाते हों. स्वस्थ, सुंदर, दिलफेंक, ज़िंदादिल आदमी था वह. उसके दोस्त भी बहुत थे और दुश्मन भी.”
“इस फेहरिस्त को बढ़ाते जाना ही उसकी जिंदगी थी. परेशानियों में अपने को फंसाना और फिर बहुत सफ़ाई से उससे निकल जाना, दिल में कोई मलाल न रखना, न कोई बोझ ढोना, अपने दोस्तों में वह सबसे ज़्यादा जानता था. वह बेहद हंसमुख था. अलमस्त और बेफ़िक्र. तनाव को गर्द की तरह झाड़ देना वह जानता था. उसको बहुत जल्दी ख़ुश और बहुत जल्दी नाराज़ किया जा सकता था.”
दुष्यंत धर्मयुग के संपादक डॉक्टर धर्मवीर भारती का भी बहुत सम्मान करते थे.
‘सारिका’ के उसी अंक में भारती ने दुष्यंत के बारे में लिखा था, “हरदम शरारती मुस्कान से आलोकित चेहरे पर बार-बार माथे पर झूलने वाली एक लट, हरदम बेचैन, हरदम सक्रिय, ज़रा-ज़रा सी बात पर चुनौती स्वीकार करने वाला और ज़रा से प्यार में पिघल कर आर्द्र हो उठने वाला दुष्यंत एक ऐसा दोस्त था जिस पर कुछ मामलों में आप आंख मूंदकर भरोसा कर सकते थे.”
“पर कुछ मामलों में क्या करेगा, क्या कहेगा, इसका कुछ भरोसा नहीं रहता था. हमारी दोस्ती में बेबाकी तो थी ही, लेकिन उम्र में मैं कुछ बड़ा था इसलिए आदरपूर्ण मर्यादा भी दुष्यंत ने हमेशा निबाही.”
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दुष्यंत का सलीका और नफ़ासत
किसी भी तरह के शोषण का वह मुखर होकर विरोध करते थे. जब भी वह कोई ग़लत चीज़ देखते थे उसे अभिव्यक्त करने में उन्हें कोई गुरेज़ नहीं होता था.
आलोक त्यागी बताते हैं, “चाहे हम भी कुछ ग़लत कर रहे हों उसे वह पसंद नहीं करते थे. उन्होंने कभी हम पर हाथ नहीं उठाया. कभी पिटाई नहीं की लेकिन जिस लहजे में वह बात करते थे उससे हमें समझ में आ जाता था कि ये चीज़ें नहीं करनी हैं.”
“दूसरा उन्हें अव्यवस्थित चीज़ें पसंद नहीं आती थीं. उन्हें सलीके से रहना और सलीके से बोलना बहुत पसंद था बल्कि वह हमसे कहते थे कि सबको एक बार ऑल इंडिया रेडियो में ज़रूर काम करना चाहिए. उससे बोलने का सलीक़ा आ जाता है.”
राजेंद्र यादव ने उनके बारे में लिखा था, “वैसे तो दुष्यंत बहुत रफ़-टफ़ था. लगता था कि कब किससे लड़ाई कर लेगा लेकिन जब वह आम काटता था तो इतने सलीके से काटता था कि लगता नहीं था कि ये वही आदमी है जो कुछ देर पहले लड़ाई करने पर आमादा था. इस तरह की शायस्तगी, इस तरह का सलीका और इस तरह की नफ़ासत कम लोगों में देखने में मिलती है.”
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आपातकाल का ज़बरदस्त विरोध
दुष्यंत कुमार उन गिने-चुने लेखकों में से थे जिन्होंने आपातकाल का पुरज़ोर विरोध किया. उन्होंने जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन का पूरा समर्थन किया. उन्होंने एक कविता लिखी थी-
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो,
इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है.
जब सन 1975 में भारत के राष्ट्रपति फ़ख़्रउद्दीन अली अहमद ब्रिटेन की यात्रा पर गए थे तो वहां पत्रकारों ने उनसे इसी शेर के बारे में पूछा था कि भारत में ऐसा कौन-सा शायर है जो इस तरह से लिख रहा है. राष्ट्रपति जब भारत लौटे तो इस विषय पर जांच शुरू हुई.
राजीव श्रीवास्तव लिखते हैं, “दिल्ली से मध्य प्रदेश सरकार के माध्यम से दुष्यंत कुमार से लिखित प्रश्न किया गया कि उनके शेर में ये बूढ़ा आदमी कौन है. दुष्यंत ने इसका जवाब देते हुए लिखा, ‘वह बूढ़ा आदमी विनोबा भावे है.’ सरकार ने इस उत्तर को सच मानकर उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की. विनोबा भावे ने आपातकाल को समर्थन देते हुए उसे अनुशासन पर्व कहा था.”
आलोक त्यागी बताते हैं, “उन दिनों की यादें अमिट हैं. जिस तरह से वह लिख रहे थे हमें लगता था कि किसी दिन कोई पुलिस वाला आकर हमारा दरवाज़ा खटखटाएगा और इन्हें उठाकर ले जाएगा. जिस दिन इमरजेंसी लगी थी उसी दिन भोपाल में लेखकों की एक मीटिंग हुई थी जिसमें दुष्यंत जी ने खुलेआम कहा था कि हमें सरकार के ख़िलाफ़ एक मार्च निकालना चाहिए.”
“लेकिन कुछ लोगों ने उसे ये कहकर चुप करा दिया था कि देखें ये इमरजेंसी कितने दिनों तक चलती है. इसका तुरंत विरोध करना प्रिमेच्योर होगा. इसके बाद कुछ लोग शांत हो गए और मौसम की बात करने लगे थे लेकिन दुष्यंत की ग़ज़लें आग उगलने लगीं.”
“उस दौरान लेखकों की बहुत सारी मीटिंग हमारे आंगन में होती थीं. उसमें कभी राजेंद्र माथुर होते थे तो कभी शरद जोशी. जब भी कभी कवि और उनके सरकारी नौकर होने में द्वंद हुआ है, उनका जो कवि है वह हमेशा विजयी रहा है. उन्होंने अपने कवि धर्म से कभी समझौता नहीं किया.”
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छोटी उम्र में देहावसान
दुष्यंत कुमार सिर्फ़ 44 साल की कम उम्र में 30 दिसंबर, 1975 को इस दुनिया से चले गए.
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था, “दिल के दौरे से उसका मरना एक बहुत बड़ा मज़ाक लगता है. उसे न तो दिल का कोई रोग था और न ही कभी इस तरह की शिकायत थी. वह बीमार आदमी नहीं था. न तन से, न मन से और न आदत से. वह सब कुछ पा लेना चाहता था.”
“बच्चों की तरह मचल कर, कभी जूझ कर. जब उसका चाहा नहीं हो पाता तो वह उदास होता, गालियां देता और अपने रास्ते के रोड़ों को नेस्तानाबूद करने के लिए ज़मीन-आसमान एक करते देखा जाता. पर दुनिया उसके हिसाब से नहीं चलती थी और वह बहुत चाहकर भी इस दुनिया के हिसाब से नहीं चल पाता था और जितना नहीं चल पाता था उसी की ताकत से वह लिखता था.”
इसी लेख में सर्वेश्वर ने याद किया, “उसने लिखा था- ‘हां, जिस दिन पिंजरे की सलाख़ें मोड़ लूंगा मैं/ उस दिन सहर्ष जीर्ण देह छोड़ दूंगा मैं’, और उसने देह को छोड़ दिया गोया कि पिंजरे की सलाख़ें मोड़ देने का उसका काम पूरा हो गया हो.”
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