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थाईलैंड और कंबोडिया के जंगलों से घिरे सीमाई इलाके़ में बंदूकें पिछले तीन हफ़्तों से खामोश हैं, लेकिन दोनों देशों के बीच तीख़ी ज़ुबानी जंग जारी है.
दोनों देश अंतरराष्ट्रीय सहानुभूति हासिल करने और अपने-अपने यहां जन समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे हैं.
थाईलैंड में आम धारणा यह है कि वे इस जंग में पिछड़ रहे हैं. थाई पब्लिक ब्रॉडकास्टिंग सिस्टम के पॉडकास्ट मीडिया पल्स में क्लेयर पैचिमानोन ने कहा, “थाईलैंड में आम धारणा ये है कि कंबोडिया इस मामले में अधिक चुस्त, आत्मविश्वासी और मीडिया के प्रति अधिक जागरूक दिखाई दे रहा है.”
दोनों के बीच एक सदी पुराने सीमा विवाद ने उस समय नाटकीय रूप ले लिया था जब 24 जुलाई की सुबह कंबोडिया की तरफ से हुए रॉकेट हमले के बाद थाईलैंड ने जवाबी हमले किए थे. बाद में इन हमलों ने बड़ा रूप ले लिया था.
इसके बाद कंबोडिया में सरकार नियंत्रित अंग्रेज़ी मीडिया चैनलों के समर्थन से सोशल मीडिया पर बड़ी संख्या में लोगों ने आरोप लगाए और भड़काऊ रिपोर्टें शेयर की. इस तरह की रिपोर्टों की बाढ़-सी आ गई. हालांकि इनमें से कई रिपोर्ट बाद में झूठी साबित हुईं.
आरोप और प्रत्यारोप
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कंबोडिया के लोगों ने दावा किया कि थाईलैंड के एक ए़फ़ 16 लड़ाकू विमान को गिरा दिया गया है.
उन्होंने आसमान से गिरते हुए विमान की तस्वीर साझा की, जिसमें आग लगी हुई थी. लेकिन ये तस्वीरें वास्तव में यूक्रेन की थीं.
इस दौरान कंबोडिया से एक और बेबुनियाद ख़बर शेयर की गई. वो ये कि थाईलैंड ने “ज़हरीली गैस” का इस्तेमाल किया. इससे जुड़ी तस्वीर में एक वॉटर बॉम्बर पिंक फ़ायर रीटारडेंट गिरा रहा है. दरअसल ये कैलिफ़ोर्निया के जंगलों की तस्वीर थी.
थाईलैंड ने भी आधिकारिक बयान जारी किए, लेकिन वे ज़्यादातर आंकड़े भर थे और कई स्रोतों से थे, जैसे- सेना, स्थानीय सरकार, स्वास्थ्य मंत्रालय, विदेश मंत्रालय – जो हर बार एकदूसरे के साथ मेल खाते नहीं दिख रहे थे.
बैंकॉक यह तर्क प्रभावी ढंग से नहीं रख पाया कि कंबोडिया ने ही स्थिति को भड़काया था, क्योंकि उसी ने सबसे पहले रॉकेट का इस्तेमाल किया था, जिसमें कई थाई नागरिक मारे गए थे.
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि विवादित अरबपति और राजनेता थक्सिन शिनावात्रा की फ्यू थाई पार्टी की निर्वाचित थाई सरकार और सेना के बीच रिश्ते सहज नहीं हैं.
इस साल जून में हालात में और बिगड़ गए जब कंबोडिया के पूर्व नेता और थक्सिन के पुराने मित्र हुन सेन और थक्सिन की बेटी और थाईलैंड की प्रधानमंत्री पैतोंगटार्न शिनावात्रा के साथ फ़ोन पर हुई निजी बातचीत का ऑडियो लीक हो गया.
इस बातचीत में पैतोंगटार्न ने हुन सेन से सीमा विवाद सुलझाने में मदद की अपील की थी और शिकायत की थी कि वहां तैनात थाई सेना के जनरल उनकी बात का विरोध कर रहे हैं.
इस लीक ने थाईलैंड में राजनीतिक तूफ़ान खड़ा कर दिया. संवैधानिक अदालत ने प्रधानमंत्री पैतोंगटार्न शिनावात्रा को निलंबित कर दिया, जिससे थाईलैंड में सरकार कमज़ोर हो गई. यह सब तब हुआ जब सीमा विवाद और गंभीर होता जा रहा था.
हुन सेन का थाईलैंड पर आरोप
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हुन सेन को ऐसी कोई दिक्कत नहीं है. तकनीकी तौर पर उन्होंने सत्ता अपने बेटे हुन मानेट को सौंप दी है, लेकिन लगभग 40 साल तक देश चलाने के बाद यह साफ़ है कि आज भी कमान उनके ही हाथ में है. माना जाता है कि सेना, सत्तारूढ़ पार्टी और मीडिया पूरी तरह उनके नियंत्रण में हैं.
यह साफ़ नहीं है कि शिनावात्रा परिवार से रिश्ते तोड़ने के पीछे उनकी क्या मंशा थी. लेकिन ऐसा लगता है कि वह सीमा को लेकर बड़े टकराव की तैयारी कर रहे थे.
शुरुआत से ही हुन सेन फ़ेसबुक पर लगातार सक्रिय रहे, खमेर और अंग्रेज़ी भाषा में पोस्ट करते हुए वो थाई सरकार को चुनौती देते रहे. उन्होंने खुद की तस्वीरें भी साझा कीं, जिनमें वे सेना की वर्दी पहने या सैन्य नक्शों पर नज़र गड़ाए दिख रहे थे.
इसके विपरीत, थाईलैंड की ओर से इस संघर्ष के दौरान सबसे चर्चित चेहरा रहे सेकेंड आर्मी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल बूनसिन पैडक्लांग. ये वही अधिकारी हैं जिनके बारे में पैतोंगटार्न शिनावात्रा ने शिकायत की थी.
उनके उग्र राष्ट्रवाद के कारण थाईलैंड में उन्हें काफी समर्थन मिल रहा है, लेकिन साथ ही इसने सरकार की साख़ को भी कमज़ोर किया है.
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‘हुन सेन्स कंबोडिया’ नामक पुस्तक के लेखक सेबेस्टियन स्ट्रांजियो कहते हैं, “हुन सेन बहुत चतुर हैं.”
इस क़िताब में बताया गया है कि किस तरह उनके नेतृत्व ने कंबोडिया को आकार दिया.
सेबेस्टियन स्ट्रांजियो कहते हैं, “उन्होंने थाईलैंड में पहले से मौजूद दरारों को और गहरा करने की रणनीति अपनाई है. यह तथ्य कि कंबोडिया खुद को पीड़ित दिखाने में माहिर है, उसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर थाईलैंड के ख़िलाफ़ एक और ताक़तवर हथियार देता है.”
थाईलैंड के अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि कंबोडिया की रणनीतियों का जवाब देने में उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है.
विदेश मामलों के उपमंत्री रस जालिचंद्र ने बीबीसी को बताया, “अब तक जिस तरह के सूचना-युद्ध लड़े गए हैं, उनसे यह काफ़ी अलग है.”
जालिचंद्र कहते हैं, “हमारा कहा विश्वसनीय और साबित करने योग्य होना चाहिए. यही एकमात्र हथियार है जिससे हम इस युद्ध में लड़ सकते हैं. हमें इसी पर टिके रहना होगा, भले ही कभी-कभी ऐसा लगता है कि हम पर्याप्त प्रभावी नहीं हैं.”
सीमा विवाद
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थाईलैंड इस बात पर ज़ोर देता रहा है कि कंबोडिया के साथ उसका सीमा विवाद द्विपक्षीय रूप से सुलझाया जाना चाहिए. वो बाहरी दख़ल का विरोध करता है. उसके अनुसार इसके लिए ज्वाइंट बाउंड्री कमिशन का इस्तेमाल किया जाना चाहिए जिसे दोनों देशों ने 25 साल पहले बनाया था.
लेकिन कंबोडिया चाहता है कि इस विवाद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाया जाए. पिछले महीने वही सबसे पहले बढ़ते संघर्ष को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद तक ले गया. उसने अंतरराष्ट्रीय अपराध न्यायालय (आईसीजे) से भी अपील की है कि वह तय करे सीमा कहां होनी चाहिए.
इससे थाईलैंड के सामने एक दुविधा खड़ी हो गई है. आधिकारिक तौर पर थाईलैंड कहता है कि वह आईसीजे के दायरे को मान्यता नहीं देता, जैसा कई अन्य देश भी करते हैं.
लेकिन इसका एक अहम कारण थाईलैंड की वह सामूहिक स्मृति है जो आईसीजे में हुई हार और अपमान जुड़ी हुई है. ये भावना सीधे इस सीमा विवाद के केंद्र से जुड़ती है.
दरअसल थाईलैंड और कंबोडिया दोनों ने “अपने इलाक़ों को अन्यायपूर्ण तरीके से हुए नुक़सान” की कहानियां गढ़ रखी हैं.
कंबोडिया के मामले में यह कभी शक्तिशाली रहे एक साम्राज्य की कहानी है, जो युद्ध और क्रांतियों की वजह से ग़रीबी में धकेल दिया गया और जिसे अपने बड़े पड़ोसियों की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.
वहीं थाईलैंड की कहानी अपेक्षाकृत हाल के वक्त की है, जब उसे 20वीं सदी की शुरुआत में फ्रांसीसी या ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से बचने के लिए कुछ क्षेत्रों का त्याग करने पर मजबूर किया गया. जब थाईलैंड ने फ्रांस के कब्ज़े वाले कंबोडिया के साथ नई सीमा मान ली, तो उसने फ्रांसीसी सर्वेक्षकों को नक्शा तैयार करने दिया.
लेकिन जब 1953 में कंबोडिया स्वतंत्र देश बना, तब थाई सेना ने प्रिय विहार मंदिर (थाई में खाओ फ्रा विहार) पर कब्ज़ा कर लिया. यह शानदार खमेर मंदिर एक पर्वत की चोटी पर बना है, जिसे सीमा रेखा के तौर पर माना गया था.
थाईलैंड ने तर्क दिया कि फ्रांसीसी सर्वेक्षकों ने ग़लती की थी और सीमा को बांटने वाली जल सीमा से हटा दिया था, जिसकी वजह से मंदिर कंबोडिया के हिस्से में चला गया.
कंबोडिया यह मामला आईसीजे में ले गया और जीत गया. अदालत ने फै़सला सुनाया कि चाहे नक्शे में खामियां रही हों, लेकिन थाईलैंड ने पिछली आधी सदी में कभी इसपर आपत्ति नहीं जताई थी.
उस समय के थाई सैन्य शासक इस नतीजे से आश्चर्यचकित रह गए. वो कंबोडिया पर हमला करना चाहते थे, लेकिन उनके राजनयिकों ने उन्हें फै़सला मानने के लिए मना लिया.
1962 में हुई इस हार के बाद थाईलैंड की संवेदनशीलता अब इस बात को राजनीतिक रूप से असंभव बना देती है कि वह बाकी सीमा विवादों के हल के लिए आईसीजे की भूमिका स्वीकार करे.
इससे कंबोडियाई नेता हुन सेन को मौक़ा मिल गया है कि वह थाईलैंड को अंतरराष्ट्रीय क़ानून की परवाह न करने वाले देश के तौर पर दिखा सकें.
बारूदी सुरंगें जिसे थाईलैंड सबूत बता रहा
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कंबोडिया की कहानी का जवाब अब थाईलैंड अपनी एक और प्रभावी दलील से दे रहा है, और ये दलील है बारूदी सुरंगों के इस्तेमाल की.
दोनों देशों ने ओटावा कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके तहत एंटी-पर्सनल माइन (बारूदी सुरंगों) के उपयोग पर प्रतिबंध है.
कंबोडिया का अतीत इस मामले में बेहद त्रासदीपूर्ण रहा है, क्योंकि यह दुनिया के सबसे ज़्यादा बारूदी सुरंगों से प्रभावित देशों में से एक रहा है. इसी वजह से उसे भारी अंतरराष्ट्रीय मदद भी मिली है.
थाईलैंड का आरोप है कि कंबोडियाई सैनिकों ने सीमा पर नई बारूदी सुरंगें बिछाई हैं, जिस कारण कई थाई सैनिक घायल हुए हैं. कंबोडियाई सरकार के लिए ये बेहद असहज स्थिति है.
शुरुआत में कंबोडिया ने इस आरोप को खारिज कर दिया और कहा कि यह 1980 के दशक के गृहयुद्ध के दौरान बिछाई गई पुरानी सुरंगें हैं. इसके बाद थाई सरकार कूटनीतिज्ञों और पत्रकारों को सीमा पर ले गए ताकि उन्हें ये दिखा सकें कि उन्हें क्या मिला है.
सीमा से कुछ सौ मीटर दूर जंगल में एक मेज़ पर बड़ी संख्या में हथियार रखे गए थे. थाईलैंड के बारूदी सुरंग रोधी दस्ते का दावा है कि उन्होंने ये हथियार उन इलाक़ों से बरामद किया, जहां पहले कंबोडियाई सैनिक तैनात थे.
बीबीसी की टीम को एक छोटे से खुले हिस्से तक ही सीमित रखा गया था, जिसे लाल और सफेद टेप से चिह्नित किया गया था. सैनिकों का कहना था कि उसके आगे जाना असुरक्षित है. कीचड़ भरे रास्ते से आते वक्त हमने पेड़ों में छिपे कैमोफ्लाज बंकरों में तैनात थाई सैनिकों को देखा.
बरामद हथियारों में दर्जनों मोटे, हरे रंग के प्लास्टिक के डिस्क थे, जिनका आकार एक तश्तरी जितना था.
ये रूसी-निर्मित पीएमएन-2 लैंड माइन थीं. इनमें विस्फोटक की बड़ी मात्रा होती है, इतनी कि इससे संपर्क में आने पर शरीर को बड़ा नुक़सान हो सकता है. इन्हें निष्क्रिय करना बेहद कठिन होता है. इनमें से कुछ बिल्कुल नई लग रही थीं और अब तक बिछाई नहीं गई थीं.
बारूदी सुरंगें कब लगाई गईं?
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शुरुआती तस्वीरों को देखकर कंबोडिया ने थाईलैंड के दावों को बेबुनियाद बताते हुए खारिज कर दिया. उसका कहना था कि इन विस्फोटकों के आर्मिंग पिन अब तक हटाए ही नहीं गए थे.
हालांकि, हमें ऐसी दूसरी बारूदी सुरंगें भी दिखाईं गईं जो सक्रिय की जा चुकी थीं और हाल ही में जमीन में दबाई गई थीं. स्पष्ट तौर पर ये 1980 के दशक की नहीं थीं.
थाईलैंड अब ओटावा कन्वेंशन के अन्य हस्ताक्षरकर्ताओं से कंबोडिया के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग कर रहा है. जिन देशों ने बारूदी सुरंगों को हटाने के कंबोडिया के कार्यक्रम को फंड किया है, वो उनसे इस फंडिंग को रोकने की अपील कर रहा है.
उसका तर्क है कि कंबोडिया का नई सुरंगें बिछाने से इनकार करना या उन्हें हटाने की किसी योजना पर सहमत न होना, सीमा विवाद को हल करने की उसकी इच्छा की कमी को दर्शाता है.
इसके जवाब में कंबोडिया ने थाईलैंड पर क्लस्टर बम और व्हाइट फ़ॉस्फ़ोरस शेल इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है. ये हथियार प्रतिबंधित तो नहीं हैं, लेकिन गै़र-लड़ाकों के लिए भी ख़तरनाक हो सकते हैं.
थाई सेना ने इनके इस्तेमाल की बात स्वीकार की है, लेकिन यह भी कहा है कि इन्हें सिर्फ सैन्य ठिकानों पर ही इस्तेमाल किया गया है.
कंबोडिया ने थाईलैंड की तरफ से हुई गोलाबारी में विश्व धरोहर स्थल प्रिय विहार मंदिर को हुए कथित नुक़सान की तस्वीरें भी प्रकाशित की हैं. थाई सेना ने इन आरोपों को ख़ारिज कर दिया है.
दोनों देशों की तरफ़ से लगातार हो रहे आरोप-प्रत्यारोप सीमा विवाद को सुलझाना लगभग नामुमकिन बना रहे हैं.
हुन सेन और उनके बेटे को राजनीतिक फायदा ज़रूर हुआ है, क्योंकि वे खुद को कंबोडियाई भूमि के रक्षक के रूप में प्रस्तुत कर पाए हैं.
लेकिन इस संघर्ष ने थाई सरकार की राजनीतिक मुश्किलें और गहरी कर दी हैं. इसने थाईलैंड और कंबोडिया के राष्ट्रवादियों के बीच गहरी दुश्मनी भी पैदा कर दी है.
सैकड़ों हज़ारों कंबोडियाई प्रवासी मज़दूर थाईलैंड छोड़ चुके हैं. इससे पहले से जूझ रही कंबोडिया की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगेगा.
सेबेस्टियन स्ट्रांजियो कहते हैं, “दोनों पक्ष सीमा को अपने देशों के बीच एक पवित्र विभाजन रेखा के रूप में बता रहे हैं. इसका बहुत बड़ा प्रतीकात्मक महत्व है. यह राष्ट्रीय पहचान के बेहद गहरे सवालों से जुड़ा है.”
हालांकि वो ये भी कहते हैं कि, “ये एक ऐसा मुद्दा है जिससे पीछे हटने का जोखिम कोई भी पक्ष इस समय नहीं लेना चाहेगा.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित