दिल्ली के डॉ. बीआर आंबेडकर विश्वविद्यालय के दो वरिष्ठ प्रोफ़ेसरों को नौकरी से निकाले जाने पर विवाद पैदा हो गया है.
ये यूनिवर्सिटी दिल्ली सरकार के तहत काम करती है.
पाँच नवंबर 2024 को विश्वविद्यालय ने इतिहासकार प्रोफ़ेसर सलिल मिश्रा और मानवीय इकोलॉजी की प्रोफ़ेसर अस्मिता काबरा को कार्यमुक्त कर दिया था.
विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड का कहना है कि इन दोनों प्रोफ़ेसरों को गैर शिक्षण कर्मचारियों की भर्ती में कथित तौर पर प्रक्रियागत ख़ामियों के लिए नौकरी से निकाला गया है.
अध्यापकों और छात्रों के संगठनों ने विश्वविद्यालय के इस फ़ैसले का विरोध किया है.
विश्वविद्यालय के छात्र प्रोफेसरों को बहाल करने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं. बीते रविवार डेमोक्रेटिक टीचर इनिशिएटिव और छात्र संगठनों ने इन शिक्षकों के समर्थन में एक एकजुटता बैठक भी की.
आंबेडकर विश्वविद्यालय के अलावा दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संगठन भी इन अध्यापकों के समर्थन में आगे आए हैं.
क्या है मामला?
साल 2018 में, दोनों ही संबंधित प्रोफ़ेसर विश्वविद्यालय में प्रशासनिक पद पर थे.
प्रोफ़ेसर सलिल मिश्रा उस समय कुलपति के पीआरओ यानी जनसंपर्क अधिकारी थे.
इस दौरान विश्वविद्यालय में 38 अस्थायी कर्मचारियों को पक्की नौकरी दी गई थी.
ऐसा एकमुश्त समायोजन नीति के तहत किया गया था. हालाँकि दिल्ली सरकार ने साल 2021 में इस समायोजन नीति को वापस ले लिया था.
विश्वविद्यालय का क्या कहना है
विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी आदित्य प्रताप का कहना है, ”उस दौरान अस्थायी कर्मचारियों को पक्की नौकरी देने में जो कथित अनियमितताएँ हुईं, उसमें इन दोनों प्रोफ़ेसर के शामिल होने की बात सामने आई. इसलिए इन्हें नौकरी से हटाया गया है.”
”विश्वविद्यालय ने इस सिलसिले में एक बयान भी जारी किया है. दिल्ली सरकार के उच्च शिक्षा निदेशालय की जाँच में कई गड़बड़ियाँ पाई गई थीं.”
”इसके बाद विश्वविद्यालय के प्रबंधन बोर्ड (बीओएम) ने इस मामले की पड़ताल के लिए एक जाँच समिति का गठन किया.”
”इसने इन दो प्रोफ़ेसर को गड़बड़ी का ज़िम्मेदार पाया. इसके बाद केन्द्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम 1965 के तहत अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू की गई. इसके बाद इन्हें तत्काल नौकरी से हटाने का फ़ैसला किया गया.”
कब-कब क्या हुआ
वहीं इससे पहले इस भर्ती प्रकरण की जाँच के लिए तीन समितियाँ बन चुकी हैं. साल 2021 में बनी पहली समिति ने दोनों प्रोफ़ेसर को दोषमुक्त कर दिया था.
दूसरी समिति साल 2022 में बनी थी. इस समिति ने दोनों प्रोफ़ेसर को दोषी तो माना लेकिन उन्हें नौकरी से निकाले जाने की सिफ़ारिश नहीं की थी.
साल 2024 में तीसरी समिति की जाँच रिपोर्ट के आधार पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें कार्यमुक्त करने का फ़ैसला लिया.
हालाँकि समिति की रिपोर्ट को न तो सार्वजनिक किया गया और न ही किसी के साथ साझा किया गया.
क्यों कर रहे हैं विरोध
विश्वविद्यालय के विद्यार्थी दोनों प्रोफ़ेसरों को नौकरी पर वापस बहाल किए जाने की माँग कर रहे हैं. वे विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
विद्यार्थियों का कहना है कि अन्यायपूर्ण तरीक़े से दोनों प्रोफ़ेसरों को नौकरी से हटाया गया है.
बीबीसी से बात करते हुए विद्यार्थी संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन (आइसा) से जुड़ीं प्रेरणा ने कहा, ”हमने कुलपति से मिलकर प्रोफ़ेसरों को नौकरी से निकाले जाने की वजह जाननी चाही तो ये कहा गया कि इस सिलसिले में यहाँ से कोई रिपोर्ट नहीं दी जाएगी.”
विद्यार्थियों का दावा है कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने कहा है कि वह उनके प्रति जवाबदेह नहीं है.
अगर वे ये जानना चाहते हैं कि प्रोफ़ेसर को नौकरी से क्यों निकाला गया है तो इस सवाल को संबंधित प्रोफ़ेसर से ही पूछें.
शिक्षक क्या कहते हैं
वहीं बीबीसी से बात करते हुए शिक्षक संघ के एक सदस्य ने नाम न ज़ाहिर न करने की शर्त पर कहा, ”ये एक निंदनीय क़दम है. यूनिवर्सिटी का ये फ़ैसला अन्यायपूर्ण और प्रतिशोधात्मक है. हम सभी अध्यापकों ने इस टर्मिनेशन का बहुत कड़े शब्दों में विरोध किया है. बहुत से तथ्य अभी हमारे सामने नहीं आए हैं. जो जानकारियाँ हमारे पास हैं, हम उन्हीं के आधार पर इस निर्णय का विरोध कर रहे हैं.”
वहीं, रविवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई बैठक को संबोधित करते हुए प्रोफ़ेसर गोपाल जी प्रधान ने कहा था,”प्रोफ़ेसर सलिल के रिटायर होने में सिर्फ़ आठ महीने बचे थे. प्रोफ़ेसर अस्मिता काबरा ने अपना इस्तीफ़ा पहले ही दे दिया था. उसे यूनिवर्सिटी ने स्वीकार नहीं किया था. अब टर्मिनेट किये जाने के बाद उन्हें रिटायरमेंट के फायदे नहीं मिलेंगे. इन दोनों प्रोफ़ेसर का निलंबन एक उदाहरण बनाने के लिए किया गया है. ये दोनों ही प्रोफ़ेसर देश में सामाजिक न्याय के लिए आवाज़ उठा रहे थे.”
दिल्ली टीचर्स इनिशिएटिव की सदस्य प्रोफ़ेसर उमा राग का कहना है, ” इस तरह से प्रोफ़ेसर को निशाना बनाया जाना सिर्फ़ आंबेडकर विश्वविद्यालय तक ही सीमित नहीं है. दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया और अन्य कैंपस में भी ऐसा हो रहा है.”
प्रोफ़ेसर उमा राग ने बीबीसी से कहा, ”जो टीचर मुखर हैं और सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों पर बोल रहे हैं, उन्हें लगातार निशाना बनाया जा रहा है. प्रशासन ये चाहता है कि जो भी शिक्षक आवाज़ उठाए, उसे ख़ामोश कर दिया जाए.”
दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफ़ेसर और डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट (डीटीएफ़) की सदस्य आभा देव हबीब बताती हैं कि आंबेडकर विश्वविद्यालय के घटनाक्रम को अलग से नहीं देखना चाहिए. वह कहती हैं कि ये घटना शिक्षा की आज़ादी पर एक बड़ा सवाल उठाती है.
उनके मुताबिक,”अकादमिक संस्थानों के चलाने में सरकार की दख़लंदाज़ी काफ़ी बढ़ चुकी है. आंबेडकर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर सिर्फ़ उस फ़ैसले को लागू कर रहे थे, जो विश्वविद्यालय ने ख़ुद लिया था. एक ओर तो आम आदमी पार्टी, नियमतिकरण की बात करती है और अब उन शिक्षकों को हटा दिया गया जो इस नीति को लागू कर रहे थे.”
शिक्षकों और विद्यार्थियों में इस बात का ग़ुस्सा है कि ये प्रोफ़ेसर विश्वविद्यालय की स्थापना के समय से जुड़े थे. विश्वविद्यालय को पहचान दिलाने में इनका बड़ा हाथ रहा है.
आंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली फ़ैकल्टी एसोसिएशन (एयूडीएफ़ए) का कहना है कि समिति की जाँच में प्रक्रियागत लापरवाही तो सामने आई है लेकिन कोई वित्तीय अनियमितता सामने नहीं आई है.
हालाँकि, ये पहली बार नहीं है कि आंबेडकर विश्वविद्यालय से इस तरह की ख़बर सामने आई हो. पिछले दो सालों में लगभग बीस प्रोफ़ेसर इस्तीफ़ा दे चुके हैं. यहाँ जाति और लिंग भेदभाव के आरोप भी लगते रहे हैं.
आंबेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली सरकार के अधीन है .एयूडीएफ़ए ने इस मामले में दिल्ली सरकार की ख़ामोशी पर भी सवाल उठाए हैं.
इस पूरे मामले पर दोनों प्रोफ़ेसर से बात करने की बीबीसी हिंदी की कोशिश नाकाम रही.
बीबीसी ने इस मामले पर दिल्ली में सत्ताधारी आम आदमी पार्टी से भी सवाल पूछे हैं लेकिन पार्टी या सरकार की तरफ़ से अभी तक कोई जवाब नहीं मिल पाया है. जवाब मिलते ही उसे इस रिपोर्ट में शामिल कर लिया जाएगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित