- Author, चंदन कुमार जजवाड़े
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली
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दिल्ली में लगातार छह बार चुनाव हारने के बाद सातवीं बार उसे जीतने के इरादे से बीजेपी मैदान में उतर रही है. पहले बीजेपी तीन बार कांग्रेस के हाथों हार का सामना कर चुकी है और फिर आम आदमी पार्टी ने उसे विजयी बढ़त नहीं लेने दी.
दिल्ली में बीजेपी क़रीब तीन दशक से सत्ता से ग़ायब है.
ये दिलचस्प है क्योंकि बीजेपी को बीते तीन लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सीटों पर जीत मिली है.
लेकिन इस दौरान विधानसभा चुनावों में पार्टी सफल नहीं हो पाई है.
बीजेपी ने इस दौरान राज्य में पार्टी के नेतृत्व में भी कई चेहरों को आज़माया है लेकिन चुनावी सफलता उससे दूर ही रही है.
इस बार के दिल्ली विधानसभा चुनावों की तारीख़ों के ऐलान से पहले ही पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह समेत बीजेपी के तमाम नेता चुनावी मैदान में दिख रहे हैं.
क्या इस बार दिल्ली में बीजेपी के लिए सत्ता का दरवाज़ा खुल पाएगा?
उन्होंने कहा है, “दिल्ली में एक ही आवाज़ गूंज रही है, आप-दा नहीं सहेंगे, बदलकर रहेंगे. अब दिल्ली विकास की धारा चाहती है.”
जबकि गृह मंत्री अमित शाह ने भी अरविंद केजरीवाल पर उनके मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास को ‘शीशमहल’ बनाने का आरोप लगाया है.
हालांकि आप सांसद संजय सिंह ने पटलवार करते हुए कहा है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को अपने वादों के ऊपर ध्यान देना चाहिए.
संजय सिंह ने कहा, “15 लाख देने के नाम पर झूठ बोला, काला धन लाने के नाम पर झूठ बोला, फसल के दाम दोगुना करने के नाम पर झूठ बोला, 15 अगस्त 2022 तक पक्का मकान देने के नाम पर झूठ बोला. क्या किया है प्रधानमंत्री जी और उनकी पार्टी ने. 37 लाख बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़े हैं एक साल के अंदर इसका कोई हिसाब किताब है. अकेले यूपी में 7 लाख से ज़्यादा बच्चों ने सरकारी स्कूल छोड़ा है.”
‘बीजेपी के पास स्थानीय नेता का अभाव’
साल 2020 के आधार पर देखें तो माना जा रहा है कि दिल्ली में अगले महीने यानी फ़रवरी में विधानसभा चुनाव हो सकते हैं.
इस दौरान राज्य की सत्ता पर काबिज़ आम आदमी पार्टी पर दिल्ली के बाक़ी दो प्रमुख दल लगातार निशाना साध रहे हैं. केजरीवाल सरकार के कथित भ्रष्टाचार से लेकर दिल्ली के विकास तक के आम आदमी पार्टी की सरकार के दावों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं.
वरिष्ठ पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल किया है, यहां के लोगों को आप की सरकार उसकी नीतियां.. जिनमें मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी शामिल है, वो अच्छी लगती हैं.
विनोद शर्मा का मानना है कि लोगों को लगता है कि आम आदमी पार्टी की सरकार जो वादा करती है, उसे पूरा करती है, इसलिए वो बीजेपी को वोट नहीं देते हैं.
इसके अलावा वो दिल्ली में बीजेपी के पास स्थानीय नेता का अभाव भी एक बड़ा कारण मानते हैं.
उनका कहना है, “बीजेपी के पास दिल्ली में मदनलाल खुराना या केदारनाथ साहनी जैसा कोई स्थानीय नेता नहीं है, इसलिए प्रधानमंत्री को चुनाव प्रचार में उतरना पड़ता है और फिर भी उसकी हार होती है.”
माना जाता है कि मौजूदा समय में बीजेपी के पास मदनलाल खुराना या साहिब सिंह वर्मा जैसे नेताओं का बड़ा अभाव है, जिनकी ज़मीनी पकड़ काफ़ी मज़बूत थी.
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, “केंद्र के स्तर पर जो मोदी की विश्वसनीयता है वो बीजेपी के पास दिल्ली में नहीं है और न पार्टी ने किसी को इस मामले में आगे बढ़ाया जिस पर जनता भरोसा कर सके और लगे कि वो केजरीवाल को चुनौती दे सके.”
उनका कहना है कि मोहल्ला क्लिनिक, बिजली, पानी, मुफ़्त यात्रा जैसी आप सरकार की स्पष्ट योजनाओं का सीधा लाभ जनता को मिलता है, और लोगों ने उन्हें आज़माया है, इसलिए वो कहीं और नहीं जाना चाहते हैं.
किसके पास कितनी ताक़त?
दिल्ली में बीजेपी ने पिछली बार साल 1993 में जीत हासिल की थी. उस वक़्त मदनलाल खुराना दिल्ली के मुख्यमंत्री बने थे.
इस जीत में दिल्ली में वोटों के बंटवारे की भूमिका भी अहम मानी जाती है. उस साल के चुनाव में वीपी सिंह के ‘मंडल’ की राजनीति का असर दिल्ली में भी स्पष्ट तौर पर दिखा था और जनता दल ने राज्य के 12% से ज़्यादा वोट हासिल किए थे. जबकि कांग्रेस को क़रीब 35% और बीजेपी को क़रीब 43% वोट मिले थे.
इसलिए कहा जाता है कि दिल्ली में बीजेपी की जीत के लिए वोटों का बंटवारा काफ़ी अहम है.
हालांकि साल 1993 में 49 सीटों पर मिली बड़ी जीत के बाद भी उस दौरान पांच साल में बीजेपी को तीन बार मुख्यमंत्री बदलने पड़े थे.
बीजेपी ने पहले मदनलाल खुराना, फिर साहिब सिंह वर्मा और अंत में सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया. कहा जाता है कि उस वक़्त प्याज़ की बढ़ी कीमतों के आंसू बीजेपी को लंबे वक़्त तक रुलाते रहे.
बीजेपी के लिए तीन मुख्यमंत्रियों का प्रयोग ऐसा रहा कि बीते क़रीब तीन दशक से उसे दिल्ली की सत्ता नहीं मिल पाई है.
उसके बाद जनता ने लगातार तीन चुनावों में कांग्रेस को जीत दिलाई और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री बनीं.
आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने के बाद दिल्ली में जनता ने आम आदमी पार्टी को पसंद कर लिया, लेकिन बीजेपी जैसी पुरानी पार्टी पर भरोसा नहीं जताया.
इस दौरान 70 सीटों की दिल्ली विधानसभा में बीजेपी को साल 2013 में 31 सीटों पर जीत मिली. उसके बाद साल 2015 के विधानसभा चुनावों में उसे महज़ 3 सीटें और साल 2020 में 8 सीटों से संतोष करना पड़ा.
जबकि बीते तीनों लोकसभा चुनावों यानी साल 2014, 2019 और 2024 में बीजेपी को दिल्ली की सभी सात सीटों पर जीत मिली.
चुनाव विश्लेषक और सीएसडीएस के प्रोफ़ेसर संजय कुमार बताते हैं, “जिस समय कांग्रेस के हाथों दिल्ली में बीजेपी को हार मिल रही थी, उस समय बीजेपी बहुत मज़बूत पार्टी नहीं थी, लेकिन मोदी जी के आने के बाद और पार्टी के मज़बूत होने के बाद भी दिल्ली में बीजेपी नहीं जीत पाती है.”
संजय कुमार मानते हैं कि दिल्ली के वोटरों ने स्पष्ट तौर पर अपना मन बना लिया है कि वो लोकसभा में बीजेपी को वोट देंगे और विधानसभा में आम आदमी पार्टी को, इसलिए दोनों चुनावों में वोटों के बंटवारे में बड़ा अंतर नज़र आता है.
दिल्ली में बीजेपी के प्रयोग
दिल्ली में साल 2020 में हुए विधानसभा चुनावों की बात करें तो आप को यहां क़रीब 54%वोट हासिल हुए थे, जबकि बीजेपी 40 फ़ीसदी के क़रीब वोट जुटा पाई थी. वहीं कांग्रेस को क़रीब 4% वोट मिले थे.
जबकि इससे पहले साल 2019 में हुए लोकसभा चुनावों में बीजेपी को 56% वोट मिले थे, आम आदमी पार्टी 18 फ़ीसदी और कांग्रेस क़रीब 23 फ़ीसदी वोट हासिल कर पाई थी.
माना जाता है कि दिल्ली की झुग्गी झोपड़ी, दलितों और मुस्लिमों के वोटों का बड़ा हिस्सा विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार का बड़ा कारण बनता है.
नीरजा चौधरी मानती हैं कि बीजेपी कभी किरण बेदी को आज़माती है, कभी कांग्रेस से अरविंदर सिंह लवली को ले आती है तो कभी हर्षवर्धन पर दांव लगाती है. बीजेपी ने दिल्ली में कई नेता बदले लेकिन किसी को प्रोजेक्ट नहीं कर पाई.
हर तबके के वोटरों को अपनी तरफ़ खींचने के लिए बीजेपी ने पिछले कुछ साल में दिल्ली में पूर्वांचली, पंजाबी जैसे हर समुदाय के नेता को राज्य की इकाई का अध्यक्ष बनाया है.
इनमें मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष वीरेंद्र सचदेवा और इससे पहले आदेश गुप्ता, मनोज तिवारी, सतीष उपाध्याय, विजेंदर गुप्ता, हर्षवर्धन और ओपी कोहली जैसे नेताओं का नाम शामिल है.
हालांकि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद बीजेपी ने कई राज्यों में जीत हासिल की है, लेकिन दिल्ली में नहीं जीत पाई है.
प्रोफ़ेसर संजय कुमार मानते हैं, “आप ध्यान देंगे तो देखेंगे कि मज़बूत होने के बाद भी आमतौर पर बीजेपी ने जहां भी जीत हासिल की है, वहां कांग्रेस को हराकर जीती है. दिल्ली में वो कांग्रेस को हरा पाती, इससे पहले लोगों को आम आदमी पार्टी के तौर पर बीजेपी से बेहतर विकल्प दिख गया.”
हालांकि दिल्ली में मौजूदा चुनावी माहौल में हर पार्टी अपनी पूरी ताक़त को आज़माती हुई दिख रही है. इन चुनावों में इंडिया ब्लॉक की दो अहम पार्टियां कांग्रेस और आप अलग-अलग चुनाव लड़ रहे हैं.
कांग्रेस ने अपनी रणनीति के तहत पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे संदीप दीक्षित को केजरीवाल के ख़िलाफ़ चुनावी मैदान में उतारा है, जो केजरीवाल के पुराने और मुखर विरोधी हैं.
कांग्रेस लगातार आंबेडकर और संविधान की बात कर रही है और दलित वोटरों पर उसका ख़ास ध्यान है.
अगर कांग्रेस अपनी रणनीति में राज्य में कामयाब रहती है और बेहतर वोट हासिल कर पाती है तो दिल्ली के चुनावों में किसी भी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित