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देश के 12 राज्यों में एसआईआर (स्पेशल इंटेंसिव रिविजन) की प्रक्रिया चल रही है.
चार नवंबर से शुरू हुई इस प्रक्रिया को पहले एक महीने के अंदर पूरा किया जाना था लेकिन अब इसे 11 दिसंबर तक के लिए बढ़ा दिया गया है.
इस दौरान विभिन्न राज्यों से अब तक कम से कम दो दर्जन बीएलओ की मौत की ख़बरें सामने आई हैं.
उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद ज़िले के बहेरी गांव में 46 वर्षीय बीएलओ सर्वेश सिंह की आत्महत्या ने ‘एसआईआर के दबाव’ को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया है.
वह भगतपुर टांडा गांव के एक स्कूल में सहायक शिक्षक के रूप में तैनात थे.
परिवार का कहना है कि एसआईआर के काम में लगातार फ़ील्ड विज़िट, देर रात तक डेटा फीडिंग और समय सीमा के दबाव के चलते रविवार 30 नवंबर को सर्वेश सिंह ने यह घातक क़दम उठा लिया.
मतदाता सूची को त्रुटिरहित बनाने के मक़सद से शुरू किए गए स्पेशल इंटेंसिव रिविजन के दौरान कई राज्यों में हुई बीएलओ की मौतों ने एसआईआर के अत्यधिक बोझ और इसे पूरा करने के लिए डाले जा रहे दबाव पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं.
बीएलओ बनकर मैदान में उतरे कर्मचारियों के साथ चलते हुए बीबीसी के कई संवाददाताओं ने देश के अलग अलग राज्यों में उनके काम को देखा.
हमने पाया कि मतदाता सूची ठीक करने का यह अभियान, सबसे कठिन उन्हीं के लिए है जो इसे पूरा कर रहे हैं.
दिल का दौरा पड़ा, अगले दिन फिर फ़ील्ड पर
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भोपाल के एक बीएलओ ने बताया कि एक दिन वह सुबह सात बजे से अपने मोहल्ले में एसआईआर के काम के लिए घर–घर घूम रहे थे.
करीब पौने दस बजे थे कि अचानक उनके बाएं हाथ में तेज़ दर्द उठा, जो कुछ ही सेकंड में सिर तक फैल गया.
उन्हें पता नहीं चला कि क्या हुआ. जिस घर के मतदाताओं की सूची देखने के लिए वह पहुंचे थे, उन लोगों ने एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित अस्पताल में उन्हें पहुंचाया. डॉक्टरों ने कहा कि यह दिल का दौरा था और वक़्त रहते इलाज के चलते उनका ख़तरा टल गया.
उस वक़्त को याद करते हुए 50 साल के बीएलओ ने बताया कि काम का दबाव इतना ज़्यादा है कि इलाज के अगले ही दिन वह फिर फ़ील्ड पर लौट आए क्योंकि ज़िले के अधिकारी की ओर से फ़ोन पर कहा गया था कि “काम तय समय पर पूरा करना होगा.”
घटना के 10 दिन बाद जब हम इस बीएलओ से मिले तो वहां पर लगभग 10 बीएलओ टेबल लगाकर एक समुदायिक भवन में बैठे थे. बाहर जलते टायर का धुआं अंदर तक महसूस हो रहा था.
इसी दुर्गंध और धुएं के बीच बैठे कई बीएलओ लगातार ऐप में फॉर्म अपलोड करने की जद्दोजेहद कर रहे थे.
मध्य प्रदेश की यह घटना अकेली नहीं है. देश के कई हिस्सों से बूथ लेवल अधिकारियों की थकावट, बीमारी और मौतों की ख़बरें सामने आ रही हैं.
हर दिन निलंबन की धमकी
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भोपाल अपनी आराम पसंद सुबहों के लिए जाना जाता है. जो शहर जागने में कोई जल्दबाज़ी नहीं करता वहां एक शिक्षिका अपने घर का दरवाज़ा खामोशी से बंद करती हैं.
हाथ में फ़ॉर्म का बंडल, कंधे पर थैला और मन में यह डर कि आज भी न जाने कितना लंबा दिन उनका इंतज़ार कर रहा है.
बीबीसी से बात करते हुए वह कहती हैं, “हम सुबह सात बजे निकलते हैं और रात 12 बजे लौटते हैं. हर घर में 6-7 बार जाना पड़ रहा है. लोग भी थक चुके हैं. समझ नहीं आता इतनी क्या जल्दी थी?”
उन्होंने बताया कि वह पिछले एक महीने से स्कूल में पढ़ा भी रही हैं और बीएलओ का काम भी कर रहीं हैं. दो घंटे में एक बार व्हाट्सऐप ग्रुप में तस्वीर भेजने की अनिवार्यता ने उन्हें और थका दिया है.
“हर दिन निलंबन की चेतावनी… इस हालत में कोई भी टूट जाए.” वह फ़ोन पर आया एक संदेश पढ़कर सुनाती हैं… “जो बीएलओ काम नहीं कर रहे हैं, उनके ख़िलाफ़ तत्काल निलंबन की कार्रवाई की जा रही है. अगर आप सभी ने 75% काम नहीं किया तो उस स्थिति में अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. इसलिए आप आज ही मेहनत कर लीजिए जिससे आपको कल किसी भी प्रकार की समस्या का सामना न करना पड़े.”
वह बेचैनी भरी आवाज़ में कहती हैं, “जब ऐसे मैसेज आएंगे तो कौन बीएलओ स्कूल और घर की सोचेगा? सब कुछ छोड़कर यही काम करेगा. दबाव इतना बढ़ गया है कि न शरीर संभल रहा है, न दिमाग.”
राज्य में कई जगह यही हालत है.
मध्य प्रदेश उन पहले राज्यों में से है, जहाँ एसआईआर अभियान के दौरान शुरुआती मौतें हुईं. मध्य प्रदेश में बीएलओ की मौत का पहला मामला दमोह में दर्ज हुआ, जहां छह नवंबर को श्याम सुंदर शर्मा की फ़ील्ड में काम करते समय एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई.
कुछ ही दिन बाद 16 नवंबर को दतिया में उदयभान सिहारे की आत्महत्या की ख़बर आई, जिसने कर्मचारियों में सदमा पैदा किया.
‘कोई साथी मरता है, तो डर बढ़ जाता है’
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अपने 4-5 फॉर्म ऐप में अपलोड करने के बाद हार्ट अटैक के शिकार होने वाले बीएलओ हमारी ओर देखते हैं और दतिया के मामले का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “जब कोई साथी मरता है, तो डर बढ़ जाता है… हममें से कौन अगला होगा?”
उन्होंने कहा, “इसी बीच जब मुझे दौरा पड़ा तो घर वालों ने कहा कि छुट्टी ले लो. लेकिन छुट्टी कहां है? काम अधूरा रह गया तो नौकरी जाएगी… घर कैसे चलेगा?”
बीएलओ का काम कर रहीं एक शिक्षिका के मुताबिक़ इस काम की तकनीकी प्रणाली भी तनाव बढ़ाती है. ऐप में तीन विकल्प हैं, दो को भरने में समय लगता है जबकि तीसरा तुरंत सबमिट हो जाता है पर अधूरा डेटा देता है.
बीबीसी ने बीएलओ के ऐप के इस्तेमाल को देखा. इसमें तीन विकल्प दिए गए हैं, जो काम को आसान बनाने के बजाय और उलझन पैदा करते हैं.
पहला विकल्प तब चुनना होता है, जब मतदाता का नाम 2003 की सूची में मिलता है, इसमें पूरा विवरण भरना पड़ता है और हर फ़ॉर्म में कई मिनट लग जाते हैं.
दूसरा विकल्प तब आता है, जब मतदाता का नाम तो नहीं, लेकिन उनके माता-पिता का नाम 2003 की सूची में हो. इसमें भी वही प्रक्रिया दोहराई जाती है और समय लगभग उतना ही लगता है.
तीसरा विकल्प सबसे तेज़ है, अगर मतदाता और उनके माता-पिता तीनों का नाम 2003 की सूची में नहीं है, तो फॉर्म तुरंत सबमिट हो जाता है लेकिन इसमें डेटा अधूरा जाता है.
शिक्षिका कहती हैं, “मौखिक दबाव रहता है कि जल्दी करो, तीसरा विकल्प चुन लो लेकिन इससे हमें और जनता दोनों को आगे दिक़्क़त होगी”.
बीएलओ बार-बार यही कहते हैं कि इस प्रक्रिया में जनता को वक़्त नहीं दिया गया, न दस्तावेज़ जुटाने के लिए, न समझने के लिए.
भोपाल के बीएलओ ने बताया, “अगर समय होता तो हममें से कोई बीमार नहीं पड़ता… और शायद दतिया और दमोह जैसे हादसे भी नहीं होते.”
उत्तर प्रदेश: ‘हेडमास्टर थे, बीएलओ नहीं… दबाव ने ले ली जान’
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उत्तर प्रदेश इस अभियान का सबसे बड़ा मैदान है. राज्य में 15 करोड़ से अधिक मतदाता हैं और एक लाख 60 हज़ार से अधिक बीएलओ चार नवंबर से बिना छुट्टी के लगातार फ़ील्ड में काम कर रहे हैं.
पुराने लखनऊ, बाराबंकी, बदायूं और मुरादाबाद सहित कई जिलों में बीएलओ एक ही बात दोहराते हैं कि काम का दबाव उनकी क्षमता से कहीं अधिक है.
बीएलओ की नई दिनचर्या सुबह आठ बजे घर–घर जाकर फ़ॉर्म बांटने से शुरू होती है. 11 बजे तक फ़ील्ड, फिर दोपहर दो बजे तक केंद्र पर बैठना और शाम को दोबारा फ़ील्ड में जाना. रात को डेटा फीड करना पड़ता है, जिसे ऐप की दिक़्क़तें और मुश्किल बनाती हैं. ऐप कई बार खुलता नहीं या डेटा अपलोड नहीं होता, जिससे काम घंटों अटक जाता है.
बीबीसी से बात करते हुए एक महिला बीएलओ बताती हैं, “रात दो बजे तक डेटा अपलोड करती हूं. सुबह पांच बजे फिर निकलना पड़ता है. मतदाता लगातार कॉल करते हैं. ऐप में दिक़्क़त अलग.”
मुरादाबाद में 46 वर्षीय बीएलओ सर्वेश सिंह की अचानक हुई मौत ने इस अभियान को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए हैं.
सर्वेश सिंह की मौत के बाद घटनास्थल से मिले कथित सुसाइड नोट में उन्होंने लिखा, “मैं जीना तो चाहता हूं पर क्या करूं मुझे बहुत बेचैनी… घुटन… डर महसूस हो रहा है. यह समय मेरे लिए पर्याप्त नहीं था क्योंकि मैं पहली बार बीएलओ नियुक्त किया गया था…”
घटना के पहले जारी किए गए एक वीडियो में सर्वेश सिंह रोते हुए कहते हैं कि, “मैं दिन रात काम कर रहा हूं लेकिन इसके बावजूद एसआईआर का टारगेट पूरा नहीं कर पा रहा हूं”.
उनकी पत्नी बबली ने पत्रकारों से कहा कि, “मेरे पति ने अधिकारियों के दबाव के कारण आत्महत्या की है. मैं खुद उनके साथ रात-रात भर बैठकर फॉर्म अपलोड करवाती थी. वह हेडमास्टर थे कोई बीएलओ नहीं. उन्हें कोई ट्रेनिंग नहीं दी गई, अरे ये काम करवाना था तो कम से कम ट्रेनिंग देते पहले.”
थाना मुरादाबाद के सर्किल ऑफिसर आशीष प्रताप सिंह ने बीबीसी संवाददाता सैयद मोज़िज़ इमाम को बताया, “बीएलओ सर्वेश सिंह ने आत्महत्या की है और सूसाइड नोट में ड्यूटी के बोझ को कारण बताया है. शव को पोस्टमॉर्टम के लिए भेज दिया गया है.”
सर्वेश सिंह की मौत ने उन चिंताओं को और गहरा कर दिया है, जिन्हें कई राज्यों के बीएलओ एसआईआर का काम शुरू होने के समय से उठाते आ रहे हैं.
पश्चिम बंगाल: नए बीएलओ और मतदाता सूची का विरोधाभास
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पश्चिम बंगाल में बूथ लेवल अधिकारियों के सामने चुनौतियां कई परतों में सामने आ रही हैं.
इस बार बीएलओ के रूप में बड़ी संख्या में शिक्षकों को तैनात किया गया है जबकि पहले यह ज़िम्मेदारी आशा कार्यकर्ताओं के पास थी.
मालदा ज़िले के गायेशबाड़ी गांव में सूरज ढलने ही वाला है. सड़क पर एक तरफ़ बच्चे स्कूल की कॉपियां लिए चले जा रहे हैं और उसी रास्ते पर एक प्राथमिक स्कूल के बाहर बीएलओ मोहम्मद सादिकुल इस्लाम खड़े हैं. दिन भर के काम के बाद भी हाथ में कागज़ों का एक ढेर पकड़े हुए. लोगों का आना अब भी जारी है.
वह मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहते हैं, “मैं नया हूं इसलिए पहले वाले बीएलओ ही मुझे सिखा रहे हैं. यह बहुत कठिन काम है… एक महीना तो कुछ भी नहीं, यह एक साल का काम है.”
उनकी बात में थकान भी है और गहरी उलझन भी.
बीबीसी संवाददाता इल्मा हसन बताती हैं कि मालदा जैसे जिलों में चुनौती कहीं बड़ी है. वह कहती हैं कि, “बीएलओ घर–घर जाकर फ़ॉर्म बांटते हुए अपने क्षेत्र के लोगों और उनके पारिवारिक रिकॉर्ड को पहली बार समझने की कोशिश कर रहे थे.”
किसी घर में बुजुर्ग यह पूछ रहे हैं कि कौन सा फ़ॉर्म भरना है, किसी घर में युवा यह जानना चाह रहे हैं कि “अगर 2002 से लिंक न मिला तो क्या होगा?”
और इसी बीच सादिकुल इस्लाम बताते हैं, “लोग फ़ॉर्म भरना नहीं जानते. मैं उनकी मदद करता हूं, साइन करवाता हूँ… दिन में, रात में लगातार काम है. बच्चों की पढ़ाई बंद है और हम लोग एसआईआर के काम में लगे हैं”.
मालदा के बंगीतोला में एक अलग ही चुनौती सामने आती है. यह वह इलाक़ा है, जहाँ गंगा ने कई साल पहले पूरा गांव अपने साथ बहा लिया था.
गांव तो फिर से बसा, लेकिन 2002 की मतदाता सूची में दर्ज वह पुराना गांव अब काग़ज़ पर ही रह गया है, ज़मीन पर उसका कोई अस्तित्व नहीं.
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लोग भीतर की तरफ़ बस गए, लेकिन 2002 की मतदाता सूची में दर्ज पुराने पते अब मौजूद नहीं हैं. निवासियों के पास पहचान और दस्तावेज़ तो हैं, पर 2002 से मेल खाते प्रमाण नहीं.
आयोग की प्रक्रिया 2002 को आधार मानती है पर बीएलओ को ऐसे मामलों से निपटने का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं मिला.
बीएलओ ख़िदिर बोक्स हाथ में फ़ॉर्म लिए बताते हैं, “सौ साल से यहां रहने वाले लोग भी अभी नाम ढूंढ रहे हैं. 2003 के पंचायत चुनाव में सबने वोट दिया था… पर इस सूची में उनका नाम नहीं है”.
इस पूरी प्रक्रिया के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की आवाज़ें भी सुनाई देती हैं.
कहीं यह आरोप कि “फ़ॉर्म भरने पर लोगों को डराया जा रहा है”, कहीं यह दावा कि “कुछ दल प्रक्रिया धीमी करने की कोशिश कर रहे हैं.”
बीबीसी इन दावों की स्वतंत्र पुष्टि नहीं कर पाया है, लेकिन इल्मा हसन के अनुसार, यह अविश्वास लोगों की चिंता को और बढ़ा देता है, ख़ासकर उन इलाक़ों में जहां लोग पहले ही एनआरसी और सीएए को लेकर असमंजस में हैं.
इसी ज़िले के ब्रह्मोत्तर में बीएलओ सतूल मोना कहती हैं, “लोग पूछते रहते हैं, कैसे भरें, आगे क्या होगा? मैं कोशिश करती हूं कि सबकी मदद हो जाए. पर एक महीना बहुत कम है. मेरे बूथ में 1098 फ़ॉर्म हैं… दिन भर काम, फिर रात में अपलोड. ऐप भी कई बार नहीं चलता.”
केरलः बीएलओ के परिवार वाले भी बँटा रहे हाथ
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दक्षिण भारत में भी एसआईआर का दबाव बूथ लेवल अधिकारियों की दिनचर्या और मानसिक स्वास्थ्य पर साफ़ दिखाई देता है.
जिन सरकारी कर्मचारियों को आमतौर पर तय समय में काम करते देखा जाता है, उन्हीं बीएलओ के चेहरे इन दिनों थकान, तनाव और नींद की कमी से भरे हुए हैं.
केरल के कोच्चि ज़िले के कक्कनाड़ क्षेत्र में बीएलओ बशीर से बीबीसी हिंदी के इमरान कुरैशी की बातचीत शुरू हुई, जब वे एक मतदाता का फ़ॉर्म भरवाने में पूरी तरह मशगूल थे.
उन्हें यह समझने में कुछ समय लगा कि सामने खड़ा व्यक्ति फ़ॉर्म देने नहीं, बल्कि बातचीत के लिए आया है.
बशीर ने बताया कि उनका दिन “सुबह चार बजे अपलोडिंग से शुरू होता है. उसके बाद वे बूथ पर पहुंचकर लोगों की मदद करते हैं. शाम होते-होते वे आसपास की अपार्टमेंट कॉलोनियों में जाकर फ़ॉर्म इकट्ठा करते हैं और घर लौटने के बाद रात में फिर अपलोडिंग करते हैं.”
कोच्चि के ही तिरुक्काकरा विधानसभा क्षेत्र में बीएलओ नीनी पीएन को उनके पति और एक रिश्तेदार मिलकर सहायता कर रहे थे. फ़ॉर्म छांटना, सुधार करना और दस्तावेज़ व्यवस्थित करना. अब यह काम इतना अधिक बढ़ गया है कि परिवार के सदस्य भी अनौपचारिक रूप से इस प्रक्रिया में शामिल हो रहे हैं. उनके सामने एक पूर्व पार्षद भी कागज़ों के साथ खड़े थे, ताकि काम तेज़ी से आगे बढ़ सके.
लेकिन सिर्फ़ काम का बोझ ही चिंता का कारण नहीं है. कनूर ज़िले में 41 वर्षीय बीएलओ अनीश जॉर्ज की 16 नवंबर को कथित आत्महत्या ने इस अभियान पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए थे.
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जॉर्ज की मौत के बाद ज़िले के बीएलओ ने काम का बहिष्कार किया था. इस मामले पर ज़िला कलेक्टर का कहना है कि प्रारंभिक जांच में जॉर्ज की मौत के पीछे काम के बोझ को कारण नहीं पाया गया, लेकिन कर्मचारियों की आशंका यथावत बनी हुई है.
इसी दौरान एक और बीएलओ का ऑडियो मैसेज सोशल मीडिया पर सामने आया. इस वायरल ऑडियो में उन्होंने मानसिक तनाव के चलते ख़ुद को नुकसान पहुंचाने की बात कही थी. मुख्य चुनाव अधिकारी डॉक्टर रथन यू केलकर ने तुरंत संपर्क कर स्थिति संभाली. एंथनी वर्गीस नाम के इस बीएलओ ने बाद में कहा कि उन्होंने यह संदेश मानसिक और भावनात्मक तनाव में लिखा था.
दोनों ही मामलों में दिलचस्प बात यह है कि अनीश जॉर्ज और एंथनी वर्गीस दोनों का काम अब तक बेहद अच्छा माना जाता रहा है, जिससे यह तो साफ़ है कि समस्या क्षमता की नहीं, बल्कि बोझ और काम के दौरान माहौल और दबाव की है.
कोच्चि के एक बूथ लेवल सहायक ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि सरकारी कर्मचारी आमतौर पर दफ़्तर की तय समयसीमा के अनुरूप काम करते हैं. “एक-दो घंटे ज़्यादा भी लग जाएं, तो भी काम दफ़्तर के अंदर होता है. मगर एसआईआर में बीएलओ अस्थायी शिविरों, स्कूलों, पंचायत भवनों और यहां तक कि खुले स्थानों से भी काम कर रहे हैं. यह दर-दर भटक कर और लगातार लंबे घंटों की ड्यूटी सबसे ज़्यादा तनाव देती है.”
गुजरातः दो मौतों के बाद बीएलओ पर दबाव की चर्चा
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गुजरात के गिर सोमनाथ ज़िले से भी एसआईआर के दबाव से जुड़े गंभीर मामले सामने आए हैं. 21 नवंबर को कोडिनार तालुका के देवली गांव में प्राथमिक शिक्षक और बीएलओ अरविंद वाधेर की मौत के बाद उनके परिवार ने दावा किया कि उन्होंने पीछे छोड़े गए एक नोट में “मानसिक तनाव और अत्यधिक थकान” को कारण बताया था.
नोट में वाधेर ने लिखा था, “मैं एसआईआर का काम बिल्कुल नहीं कर पा रहा हूं और कई दिनों से लगातार थकान और मानसिक दबाव महसूस कर रहा हूं… अपने और हमारे बेटे का ख़्याल रखना. मैं आप दोनों से बहुत प्यार करता हूं. लेकिन अब मैं पूरी तरह असहाय महसूस कर रहा हूं… मेरे पास बस यही एकमात्र रास्ता है बचा है”.
हालांकि गिर सोमनाथ के कलेक्टर और ज़िला निर्वाचन अधिकारी एनवी उपाध्याय ने पीटीआई से कहा कि “पुलिस इस मौत की सभी पहलुओं से जांच कर रही है.”
उन्होंने यह भी बताया कि अरविंद वाधेर “ज़िले के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले बीएलओ में से एक थे” और “उन्होंने अपना 40 प्रतिशत से अधिक काम पूरा कर लिया था.”
बीबीसी संवाददाता विष्णुकांत तिवारी से बात करते हुए अरविंद के पिता मुलजीभाई ने कहा, “हमारे बेटे की 2010 में नौकरी लगी थी. अभी तो लंबी नौकरी बची थी. घर पर सब अच्छा था. इस बीएलओ वाले काम का बहुत ज़्यादा दबाव था इसी के चलते मेरे बेटे ने ऐसा कदम उठा लिया. हम तो अनाथ हो गए”
गुजरात में ही खेड़ा ज़िले में एक अन्य बीएलओ रमेशभाई परमार (50) की भी गुरुवार 20 नवम्बर को दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई. उनके परिवार ने भी इसकी वजह “एसआईआर के काम का दबाव” होना बताया है.
गुजरात में लगातार दो मौतों के बाद शिक्षकों और बीएलओ के बीच चिंता बढ़ी है और एसआईआर की मौजूदा कार्यप्रणाली को लेकर देशभर से मिलते-जुलते प्रश्न उठ रहे हैं.
बीएलओ के साथ रहकर बीबीसी ने देखा कि मतदाता सूची को दुरुस्त करने की इस कवायद का बोझ सबसे ज़्यादा उन्हीं पर पड़ा है जो रोज़ धूल, धुएं, तकनीकी खराबी और समय सीमा के बीच इसे संभाल रहे हैं. उनकी चुनौतियों को देखते हुए ही चार दिसंबर को समाप्त हो रही समय सीमा को 11 दिसंबर, 2025 तक बढ़ाया गया है.
(केरल से इमरान कुरैशी, लखनऊ से सैय्यज मोज़िज़ इमाम और कोलकाता से इल्मा हसन, अहमदाबाद से रॉक्सी गागडेकर छारा की अतिरिक्त रिपोर्टिंग के साथ)
(आत्महत्या एक गंभीर मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समस्या है.
अगर आप भी तनाव से गुजर रहे हैं तो भारत सरकार की जीवनसाथी हेल्पलाइन 18002333330 से मदद ले सकते हैं.
आपको अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से भी बात करनी चाहिए.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.