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मशहूर पॉप सिंगर जस्टिन बीबर और जस्टिन टिम्बरलेक, दोनों ही किशोरावस्था में संगीत जगत के सुपरस्टार बन गए थे.
लेकिन इन दोनों के बीच सिर्फ़ नाम ही नहीं, एक और समानता भी है.
दोनों लंबे समय से लाइम रोग के असर से जूझ रहे हैं.
जुलाई में जस्टिन टिम्बरलेक ने एक सोशल मीडिया पोस्ट के ज़रिए इस बीमारी से जुड़े अपने लंबे अनुभव को साझा किया था.
करीब पाँच साल पहले जस्टिन बीबर ने भी ऐसा किया था, जिसके बाद अमेरिका में इस बीमारी के मामलों में बड़ी वृद्धि दर्ज की गई.
यह एक बैक्टीरियल संक्रमण है जो टिक नामक कीड़े के काटने से मनुष्यों में फैलता है.
यह एक जटिल बीमारी है जिसे पूरी तरह समझने में वैज्ञानिक अब तक सफल नहीं हो सके हैं.
इस हफ़्ते ‘दुनिया जहान’ में हम यही जानने की कोशिश करेंगे कि आख़िर दुनिया भर में इतने लोग लाइम रोग का शिकार क्यों हो रहे हैं.
लक्षण
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स्कॉटलैंड के रैगमोर हॉस्पिटल की वैज्ञानिक और टिक से होने वाले संक्रमणों की विशेषज्ञ डॉ. सैली मेविन कहती हैं कि जब भी कोई जानी-मानी हस्ती अपने लाइम रोग से पीड़ित होने की बात करती है, तो लैब में जांच के लिए आने वाले नमूनों की संख्या बढ़ जाती है.
साथ ही, गूगल पर इस बीमारी से जुड़ी जानकारी सर्च करने वालों की संख्या भी कई गुना बढ़ जाती है.
टिक जैसे कीड़े सदियों से मौजूद हैं, लेकिन 1970 के दशक के मध्य से लाइम रोग पर वैज्ञानिक ध्यान केंद्रित हुआ.
डॉ. सैली मेविन बताती हैं कि अमेरिका के कनेक्टिकट राज्य के समुद्र तटीय शहर ‘ओल्ड लाइम’ शहर में कई बच्चों में आर्थराइटिस जैसे मामले सामने आने के बाद, अमेरिकी स्वास्थ्य संस्था सेंटर फ़ॉर डिज़ीज़ कंट्रोल (सीडीसी) को जांच के निर्देश दिए गए.
जांच में पाया गया कि लगभग सभी बच्चों को टिक ने काटा था और उनके शरीर पर गोलाकार रैश उभर आए थे.
हालांकि उस समय इस बीमारी का कारण एक रहस्य था. कुछ साल बाद वैज्ञानिकों ने इस रोग के पीछे मौजूद गोलाकार बैक्टीरिया की पहचान की और इसका नाम उस वैज्ञानिक के नाम पर रखा जिसका नाम बरोलिया बेडोफ़राइट था.
डॉ. सैली मेविन कहती हैं कि आजकल लाइम रोग उत्तरी ध्रुवीय क्षेत्रों के कई देशों में फैल चुका है. अमेरिका और ब्रिटेन में यह एक आम बीमारी बन चुकी है.
अमेरिकी स्वास्थ्य संस्था के अनुसार, साल 2023 में अमेरिका में लाइम रोग के 23,000 मामले दर्ज किए गए, लेकिन सीडीसी का मानना है कि वास्तविक संख्या लगभग साढ़े चार लाख के करीब हो सकती है. यह संक्रमण अब एशिया और कनाडा में भी फैल रहा है. अनुमान है कि 20 यूरोपीय देशों में हर साल सवा लाख से अधिक लोग लाइम रोग का शिकार होते हैं.
डॉ. मेविन बताती हैं कि टिक दूसरे जीवों का ख़ून चूसकर जीवित रहता है. इसका जीवन चक्र चार चरणों का होता है – अंडा, लार्वा, निम्फ़ और वयस्क अवस्था.
वयस्क मादा टिक अपने भोजन के बाद अंडे देना शुरू कर देती है. हर चरण में टिक को पर्याप्त मात्रा में ख़ून की ज़रूरत होती है.
टिक पक्षियों, मवेशियों, सूअरों और दूसरे जानवरों के ख़ून पर पलता है.
डॉ. सैली मेविन के अनुसार, मनुष्य का रक्त टिक का स्वाभाविक आहार नहीं होता. लेकिन जब यह कीड़ा किसी संक्रमित जानवर का ख़ून पीता है, तो ख़ुद भी संक्रमित हो जाता है. इसके बाद जब यह मनुष्य को काटता है, तो संक्रमण फैल जाता है.
दुनिया में टिक की 900 से ज़्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं, लेकिन इनमें से केवल चार प्रजातियों में लाइम रोग फैलाने वाला बैक्टीरिया मौजूद होता है.
डॉ. सैली मेविन कहती हैं, “टिक एक काफ़ी रोचक जीव है.
जब वह किसी इंसान के शरीर पर चढ़ता है, तो वह ऐसी नस तक पहुंचता है जहां से आसानी से ख़ून चूस सके. जब वह काटता है, तो उसकी सूंड शरीर में घुस जाती है और उसमें से ऐसी लार बहती है, जिससे दर्द का एहसास नहीं होता.
इसीलिए कई बार उसके काटने का हमें पता ही नहीं चलता. उसकी लार में एक ऐसा रसायन होता है जिससे ख़ून जमता नहीं है.”
लाइम रोग की शुरुआत में इसके लक्षण तुरंत दिखाई नहीं देते. डॉ. मेविन बताती हैं कि संक्रमण फैलने के बाद जोड़ों में दर्द, बुखार या टिक के काटे स्थान पर गोलाकार रैश उभर सकता है. कई बार यह बैक्टीरिया हमारे ख़ून के ज़रिए शरीर के दूसरे अंगों तक फैल जाता है.
इस बीमारी के कई लक्षण दूसरी बीमारियों से मिलते-जुलते हैं.
कुछ मामलों में नसों में खिंचाव या चेहरे पर लकवे जैसे लक्षण देखे गए हैं. कई बार मरीज़ को तेज़ सिरदर्द या मेनिनजाइटिस जैसे लक्षण भी हो सकते हैं. यह बैक्टीरिया कई सालों तक शरीर में सक्रिय रह सकता है और हृदय पर भी असर डाल सकता है.
डॉ. सैली मेविन कहती हैं कि इससे बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि टिक को तुरंत शरीर से हटा दिया जाए.
इसे बड़ी आसानी से किसी हुक या चिमटे की मदद से त्वचा से निकाला जा सकता है.
इलाज की दिक्कतें
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टिक से फैलने वाली बीमारियों पर शोध करने वाली संस्था लाइम अलायंस के चीफ़ साइंटिफ़िक ऑफ़िसर डॉ. अर्मीन अलेदीन बताते हैं कि जैसे ही किसी मरीज़ में लाइम रोग की पुष्टि होती है, उसका इलाज एंटीबायोटिक दवाओं से शुरू किया जाता है.
उनके अनुसार, आमतौर पर लाइम रोग के इलाज के लिए मुंह के ज़रिए दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं उपयोग में लाई जाती हैं.
इनसे ज़्यादातर मामलों में लक्षण या तो समाप्त हो जाते हैं या कम समय में नियंत्रित हो जाते हैं. हालांकि इलाज के दिशा-निर्देशों में कुछ सुधार किए गए हैं, लेकिन मुख्य रूप से आज भी यही दवाएं उपचार का आधार हैं.
डॉ. अलेदीन कहते हैं, “एंटीबायोटिक दवाएं सिर्फ़ लाइम रोग के बैक्टीरिया को ही नहीं मारतीं, बल्कि हमारे पेट में मौजूद कुछ लाभदायक बैक्टीरिया को भी नष्ट कर सकती हैं. लंबे समय तक इनका इस्तेमाल हमारी सेहत पर बुरा असर डाल सकता है.”
दरअसल, टिक का काटना पहचानना भी कई बार मुश्किल होता है, क्योंकि यह कीड़ा बहुत छोटा होता है और पर्याप्त ख़ून पीने के बाद ख़ुद ही शरीर से गिर जाता है.
इसलिए कई लोगों को यह भी पता नहीं चलता कि उन्हें टिक ने काटा है.
डॉ. अलेदीन बताते हैं, “ऐसे में जब मरीज़ डॉक्टर के पास जाता है, तो वह यह नहीं बता पाता कि उसे टिक ने काटा हो सकता है.
नतीजतन डॉक्टर भी कई बार लाइम रोग की जांच करने पर ध्यान नहीं देते. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि लाइम रोग के शुरुआती लक्षण फ़्लू जैसे होते हैं, इसलिए डॉक्टर अक्सर मान लेते हैं कि यह सामान्य फ़्लू है.”
लाइम रोग की जांच प्रक्रिया भी जटिल है. यह दो चरणों में की जाती है, जिसमें सेरोलॉजी टेस्ट के ज़रिए ख़ून में एंटिजेन की मौजूदगी का पता लगाया जाता है.
इस जांच का उद्देश्य शरीर में बरोलिया बैक्टीरिया की पहचान करना होता है. दूसरे चरण में शरीर में उन एंटीबॉडीज़ की जांच की जाती है जो एंटिजेन से लड़ने के लिए बनती हैं. हालांकि कई बार इस टेस्ट के ज़रिए भी समय पर रोग की पहचान नहीं हो पाती.
डॉ. अलेदीन के अनुसार, अगर जांच शरीर में एंटीबॉडी बनने से पहले की जाए, तो रिपोर्ट नेगेटिव आती है.
यानी अगर टिक के काटने के तुरंत बाद टेस्ट किया जाए, तो रोग का पता नहीं चलता क्योंकि उस समय तक शरीर में एंटीबॉडीज़ नहीं बनी होतीं.
आमतौर पर यह बीमारी तब पकड़ी जाती है जब शरीर पर रैश दिखाई देने लगते हैं या टेस्ट दोबारा कराया जाता है.
डॉ. अलेदीन मानते हैं कि लाइम रोग की पहचान के तरीकों में अभी भी ख़ामियां हैं. मेडिकल कॉलेजों में छात्रों को इस रोग के बारे में और अधिक जागरूक करने की ज़रूरत है.
उन्हें यह समझाया जाना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन समेत कई कारणों से यह रोग अब उन इलाकों में भी फैल रहा है जहां पहले नहीं पाया जाता था.
टिक की निगरानी
हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ़ इवोल्यूशन के सेंटर फ़ॉर इकॉलॉजिकल रिसर्च में ग्रुप लीडर डॉ. गाबोर फोल्डवारी का मानना है कि टिक के फैलाव में जलवायु परिवर्तन की भूमिका को लेकर कोई आसान जवाब नहीं है, लेकिन मौजूदा आंकड़ों के आधार पर इसका अनुमान ज़रूर लगाया जा सकता है.
वो कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन से जिन क्षेत्रों में टिक के पनपने के लिए स्थितियां अधिक अनुकूल होती हैं, वहां इनका फैलाव तेज़ी से होता है. मिसाल के तौर पर स्कैंडिनेवियाई देशों में पहले कड़ाके की ठंड पड़ती थी, लेकिन पिछले 20–30 सालों में मौसम में आए बदलाव की वजह से ठंड कम और नमी ज़्यादा हो गई है, जो टिक के पनपने के लिए बेहद अनुकूल है.”
इतना ही नहीं, टिक अब कई नए इलाकों में भी फैलने लगे हैं.
डॉ. फोल्डवारी बताते हैं, “हमारी जानकारी के अनुसार, नॉर्वे के ध्रुवीय क्षेत्र में दो-तीन साल पहले तक टिक नहीं पाए जाते थे, लेकिन अब वहां बरोलिया बैक्टीरिया को फैलाने वाले टिक पनपने लगे हैं. स्लोवाकिया की टाट्रा पहाड़ियों में भी 20–30 साल पहले टिक केवल निचले इलाकों में पाए जाते थे, लेकिन अब वे धीरे-धीरे 1,200 मीटर की ऊंचाई तक पहुंच गए हैं.”
लाइम रोग के प्रसार पर इसका क्या असर हुआ है?
डॉ. फोल्डवारी का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण पक्षियों और स्तनधारियों की आयु बढ़ रही है, यानी टिक को अपने आहार का स्रोत अब ज़्यादा समय तक मिल रहा है.
हालांकि, लाइम रोग के फैलने में जलवायु परिवर्तन की सटीक भूमिका अभी स्पष्ट नहीं है. इस संक्रमण के बढ़ने के पीछे कोई एक कारण नहीं है, बल्कि कई आपस में जुड़े कारक हैं.
डॉ. फोल्डवारी बताते हैं, “टिक बहुत धीरे चलने वाला कीड़ा है, फिर भी यह दूर-दराज़ के इलाकों तक पहुंच सकता है. उदाहरण के लिए, अगर वह किसी पक्षी पर चढ़ जाए, तो सैकड़ों किलोमीटर दूर तक जा सकता है. हमने पाया है कि टिक भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से पक्षियों के ज़रिए मध्य यूरोप तक पहुँच गए हैं.”
वे कहते हैं कि लाइम रोग फैलने का एक और कारण इंसानों की जीवनशैली में बदलाव है. पिछले कुछ दशकों में लोग प्रकृति के नज़दीक रहने की चाह में शहरों से बाहर उपनगरीय इलाकों में बसने लगे हैं और पहाड़ों या जंगलों में घूमने जाने लगे हैं. इस वजह से लोग टिक के संपर्क में पहले से कहीं ज़्यादा आने लगे हैं, जिससे लाइम रोग के मामले भी बढ़े हैं.
चुनौतीपूर्ण समय
अमेरिका की जॉर्ज मेसन यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ सिस्टम्स बायोलॉजी की प्रोफ़ेसर डॉ. अलेस्सान्द्रा लूचिनी कहती हैं कि इस समय कई वैज्ञानिक लाइम रोग की समय पर पहचान के लिए एक भरोसेमंद टेस्ट विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें इसमें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
वह बताती हैं, “फ़िलहाल जो टेस्ट इस्तेमाल में है, उससे यह पता लगाने की कोशिश होती है कि कोई मरीज़ लाइम रोग के संपर्क में आया है या नहीं. लेकिन यह बहुत भरोसेमंद नहीं है. अभी ऐसा कोई डायरेक्ट टेस्ट उपलब्ध नहीं है जिससे यह निश्चित रूप से कहा जा सके कि मरीज़ को लाइम रोग है या नहीं. डायरेक्ट टेस्ट से हम बरोलिया बैक्टीरिया से निकलने वाले मॉलिक्यूल्स की पहचान कर पाएंगे.”
इस समय लाइम रोग की जांच में आमतौर पर ख़ून के नमूने का इस्तेमाल किया जाता है.
लेकिन बरोलिया बैक्टीरिया ख़ून में ज़्यादा देर तक नहीं ठहरता, बल्कि जोड़ों और अन्य अंगों में जाकर छिप जाता है, इसलिए इसका पता लगाना कठिन हो जाता है.
डॉ. लूचिनी बताती हैं, “अब हम टेस्ट के लिए मरीज़ के मूत्र का इस्तेमाल कर रहे हैं. इसकी वजह यह है कि बरोलिया बैक्टीरिया ख़ून में बहुत कम मात्रा में मॉलिक्यूल छोड़ता है, जो कुछ ही मिनटों में फ़िल्टर होकर निकल जाते हैं. जब ख़ून किडनी तक पहुंचता है और फ़िल्टर होता है, तो बैक्टीरिया के मॉलिक्यूल मूत्र में अधिक मात्रा में पाए जाते हैं.”
करीब दस साल पहले यह टेस्ट विकसित किया गया था.
तब से अब तक हज़ारों मरीज़ों के मूत्र की जांच की जा चुकी है ताकि यह पता लगाया जा सके कि यह बैक्टीरिया कौन-कौन से प्रोटीन छोड़ता है.
डॉ. लूचिनी बताती हैं कि विश्वभर में बरोलिया की सैकड़ों प्रजातियां मौजूद हैं, और इन सभी के प्रोटीन की पहचान के लिए शोध चल रहा है.
संभव है कि इनमें से 10 से 20 प्रजातियां ही लाइम रोग का कारण बनती हों, यही इस शोध की सबसे बड़ी चुनौती है.
डॉ. लूचिनी कहती हैं कि लाइम रोग की पहचान के लिए डायरेक्ट टेस्ट का विकास मरीज़ों के इलाज में बड़ा बदलाव ला सकता है.
1998 में इस बीमारी से बचाव के लिए एक वैक्सीन को मंज़ूरी मिली थी, लेकिन इसके गंभीर साइड इफ़ेक्ट सामने आए. कुछ लोगों में इससे आर्थराइटिस जैसे लक्षण विकसित हुए, जिसके बाद कुछ वर्षों में वैक्सीन बनाने वाली कंपनी ने इसका उत्पादन बंद कर दिया.
हालांकि अब दो दवा कंपनियां लाइम रोग के लिए नई वैक्सीन पर काम कर रही हैं, जिनमें फ़ाइज़र भी शामिल है.
डॉ. लूचिनी कहती हैं, “नई वैक्सीन भी पुरानी वैक्सीन के प्रोटीन पर आधारित है, लेकिन इसमें सुधार करके साइड इफ़ेक्ट पैदा करने वाले तत्वों को हटा दिया गया है. इस वैक्सीन के क्लिनिकल ट्रायल के दो चरण पूरे हो चुके हैं. इसे कई बार लेना पड़ सकता है, लेकिन यह लाइम रोग से बचाव में कारगर साबित हो सकती है.”
अब लौटते हैं अपने मुख्य सवाल की ओर, दुनिया में इतनी बड़ी संख्या में लोग लाइम रोग के शिकार क्यों हो रहे हैं?
इसका जवाब उतना ही जटिल है जितना यह रोग और इसे फैलाने वाला कीड़ा.
धरती का बढ़ता तापमान टिक को पहले से ज़्यादा समय तक जीवित रखता है, जिससे उन्हें मनुष्यों तक पहुंचने और काटने का अधिक समय मिल जाता है.
टिक पक्षियों और अन्य जानवरों पर चढ़कर दूर-दराज़ के इलाकों तक जा सकते हैं.
जानी-मानी हस्तियों द्वारा अपने अनुभव साझा करने से इस बीमारी को लेकर जागरूकता तो बढ़ी है, लेकिन क्योंकि इसके लक्षण कई अन्य बीमारियों से मिलते-जुलते हैं, इसलिए शुरुआती पहचान अब भी मुश्किल बनी हुई है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित