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देश की प्रमुख कर्मशियल ट्रिब्युनलों की हालत की समीक्षा करने वाली रिपोर्ट में बड़ा खुलासा, किन समस्याओं का कर रही सामना?

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Oct 14, 2025


माला दीक्षित, नई दिल्ली। अदालतों का बोझ कम करने, भारत के आर्थिक प्रशासन में निवेशकों का भरोसा पक्का करने के लिए विशेष दक्षता के साथ विवादों का समाधान करने के उद्देश्य से स्थापित की गई कामर्शियल ट्रिब्युनल्स अपने उद्देश्य में खरी नहीं उतर रही हैं।

देश की प्रमुख कामर्शियल ट्रिब्युनलों (वाणिज्यिक न्यायाधिकरणों) जैसे एनसीएलटी, एनसीएलएटी, डीआरटी, आइटीएटी, टीडीसैट, सैट आदि में कुल करीब 3.56 लाख विवाद लंबित हैं जिनमें 24.72 लाख करोड़ रुपये फंसे हैं जो कि भारत की 2024-2025 की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 7.48 प्रतिशत है।

किन सुधारों की है जरूरत

जिन समस्याओं के समाधान के लिए कार्मशियल ट्रिब्युनलों की स्थापना हुई थी आज वे उन्हीं समस्याओं का सामना कर रही हैं। कामर्शियल ट्रिब्युनलों की खामियां दूर करने और उन्हें प्रभावी बनाने के लिए स्टेमेटिक सुधारों की जरूरत है। कार्मशियल ट्रिब्युनल्स की स्थिति का ताजा हाल कानूनी मामलों के थिंक टैंक दक्ष की ताजा रिपोर्ट में सामने आता है।

विभिन्न कामर्शियल ट्रिब्युनलों में दबाव के कारण अलग अलग हैं लेकिन रिपोर्ट प्रणालीगत (सिस्टेमेटिक) कमजोरी की एक जैसी कहानी की ओर संकेत करती है। जैसे उदाहरण के लिए नेशनल कंपनी ला ट्रिब्युनल (एनसीएलटी) में किसी विवाद को निपटाने की विधायी समय सीमा 330दिन की है जबकि एक केस निबटने में औसतन 752 दिन लगते हैं।

कितने लाख मामले हैं लंबित?

एनसीएलटी और एनसीएलएटी (नेशनल कंपनी ला अपीलीय ट्रिब्युनल) दोनों ही संविदा कर्मचारियों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। एनसीएलटी में कुल कर्मचारियों में 88 प्रतिशत और एनसीएलएटी में कुल कर्मचारियों के 84.9 प्रतिशत संविदा कर्मचारी हैं जबकि कंपटीशन ला और दिवालिया कानून में विशेषज्ञता की कमी बनी हुई है।

डेब्ट रिकवरी ट्रिब्युनल (डीआरटी) यानी ऋण वसूली न्यायाधिकरणों में खुद 2.15 लाख मामले लंबित हैं। 18 राज्यों में स्थानीय स्तर पर एक भी डीआरटी नहीं है जिसके कारण वादियों को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है, फैसलों में भी देरी होती है। डीआरटी वसूली प्रक्रिया के लिए होती है और इसमें कोई मामला निपटाने के लिए 180 दिन की अवधि तय है लेकिन 85 प्रतिशत से ज्यादा मामलों में तय 180 दिन से ज्यादा लगते हैं जिससे वसूली प्रक्रिया में भरोसा कम हो रहा है।

रिपोर्ट बताती है कि टैक्स ट्रिब्युनल्स (कर न्यायाधिकरणों) को भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।अकेले आयकर अपीलीय ट्रिब्युनल (आइटीएटी) में लंबित विवादों में शामिल रकम को देखा जाए तो वह जीडीपी का 2.11 प्रतिशत है। हालांकि सीमा शुल्क (कस्टम), उत्पाद शुल्क (एक्साइस) और सेवा कर अपीलीय ट्रिब्युनल (सीइएसटीएटी) में लंबित मामलों में 2019 के बाद थोड़ी कमी देखी गई है।

दूरसंचार निबटान और अपीलीय न्यायाधिकरण (टीडीसैट), प्रतिभूति अपीलीय न्यायाधिकरण (सैट) और विद्युत अपीलीय न्यायाधिकरण जैसे क्षेत्रीय न्यायाधिकरण तेजी से बढ़ते हुए अधिकारों से जूझ रहे हैं, इनमें डेटा सुरक्षा और ऊर्जा जैसे क्षेत्र शामिल हैं और क्षमता में पर्याप्त निवेश नहीं हो पा रहा है।

रिपोर्ट बताती है कि इन सैक्टोरियल दबावों के पीछे गहरी परस्पर विरोधी कमियां छिपी हैं। जैसे कि पद खाली पड़े हैं। ट्रिब्युनल्स की पीठें अक्सर एक ही सदस्य से काम करती हैं और कुछ न्यायाधिकरणों में 80 प्रतिशत से ज्यादा कर्मचारी अस्थआई कांट्रेक्ट पर हैं। इसके अलावा विभिन्न ट्रिब्युनलों की देखरेख विभिन्न मंत्रालयों द्वारा की जाती है, जो अक्सर स्वयं मुकदमेबाज होते हैं, जिससे हितों का टकराव उत्पन्न होता है।

विभिन्न ट्रिब्युनल्स में अपील के तरीके भी अलग अलग हैं जिससे वादियों के लिए अनिश्चितता पैदा होती है। दीवानी अदालतों के साथ विवादों की ओवरलै¨पग भी होती है। ट्रिब्युनलों में बुनियादी ढांचे की खामियां महत्वपूर्ण हैं। रिपोर्ट कहती है कि नान फंक्शनल पीठों और अपर्याप्त सुविधाएं ट्रिब्युनल्स की प्रभावशीलता में बड़ीबाधा है।

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