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मुझे याद है कि मैं जेएनयू में मामा ढाबा के पास धूप में संतरे खा रही थी. मेरे साथ एक प्रोफेसर थीं जो लेक्चर देने के लिए पटना से आई थीं और एक जज की पत्नी थीं.
उन्होंने चिंता के साथ मुझे कहा था, “संतरे खाना बंद करो और उन्हें अपने चेहरे पर लगाओ, इससे तुम्हारी स्किन का रंग निखरेगा.”
चेहरे पर बड़ी मुस्कान के साथ मैंने उनकी तरफ देखा और वहां से चली गई. इस तरह का आत्मविश्वास मुझमें तब से आया जब मैं जेएनयू में थी.
लेकिन अगर यही मेरे घर पर हुआ होता, तो मुझमें वहां से जाने की हिम्मत नहीं होती और मैं बैठकर अपने चेहरे पर संतरे लगाती.
ये सिर्फ मेरी कहानी नहीं है, ये उन सभी लड़कियों और महिलाओं की कहानी है जो ज़िंदगी में किसी ना किसी असुरक्षा से घिरी हैं.
चाहे ये स्किन का कलर हो, या बात उनकी हाइट की हो या फिर मामला वज़न का हो. ये ऐसी लिस्ट है जिसकी कोई सीमा नहीं है. इन वजहों से महिलाओं को कम आंका जाता है और उन्हें महसूस कराया जाता है कि उनके सुंदर दिखने में कोई कमी रह गई है.
मैं ये नहीं समझ पाई हूं कि सुंदर कौन है? सुंदरता कैसे परिभाषित होती है? सुंदर होने के पैरामीटर किसने बनाए हैं? क्या सिर्फ गोरा होना ही सुंदर होना है? क्या हम ब्लैक और ब्राउन रंग वाले सुंदर नहीं हैं?
सुंदरता के सतही मापदंड
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जेन ज़ी भाषा में इसे ‘प्रिटि प्रिविलेज’ भी कहा जाता है, जिसका मतलब है कि सुंदर लोगों को अधिक विश्वसनीय माना जाता है लोग आप पर ज्यादा पॉजिटिविटी के साथ ध्यान देते हैं.
गोरेपन को हमेशा प्योर एंड डिवाइन माना जाता है. लेकिन मैं हमेशा सोचती हूं कि ब्लैक और ब्राउन महिलाओं के बारे में क्या? क्या हमारे अस्तित्व की कोई स्वीकृति नहीं है?
मैं हमेशा सोचती हूं कि एक दिन हमारी त्वचा का रंग नहीं बल्कि हमारी उपलब्धियां हमारे अस्तित्व के बारे में बताएंगी.
लेकिन केरल सरकार की मुख्य सचिव सारदा मुरलीधरन के साथ हाल ही में हुई घटना ने हमारी अंतरात्मा को झकझोर दिया है और बचपन के काले रंग के अनुभवों को वापस ला दिया है.
उन्होंने लिखा, “मुख्य सचिव के रूप में अपने कार्यकाल पर कल मैंने एक दिलचस्प टिप्पणी सुनी कि यह कार्यकाल उतना ही काला था जितना मेरे पति का सफ़ेद. हम्म्म! मुझे अपने कालेपन को स्वीकार करने की ज़रूरत है.”
“उन्होंने कहा कि इंटरव्यू में उनकी सारी उपलब्धियां त्वचा के रंग तक सीमित हो गईं और इन्हें ऐसा महसूस हुआ जैसे वो हैं ही नहीं.”
यह देखकर दिल बैठ जाता है कि उनके जैसी सफल महिला जिन्होंने हम जैसी युवा महिलाओं को प्रेरित किया है उन्हें केवल सुंदरता के सतही मापदंडों के आधार पर आंका जा रहा है.
रंगभेद की बहस सिर्फ़ गोरे और काले तक खत्म नहीं होती है. इसमें कई शेड्स हैं जैसे बहुत गोरा, ट्यूबलाइट जैसा गोरा, गेहुंआ रंग, रंग कम हैं पर चेहरे पर पानी बहुत हैं. उसके नैन नक्श तो सुंदर हैं पर रंग थोड़ा सा काला है.
इसी थोड़े से काले रंग की वजह से हर दिन महिलाएं अपनी कोमल त्वचा को रासानयिक उत्पादों के संपर्क में ला रही हैं, ताकि वो गोरेपन के दायरे में फिट हो पाएं.
जब भी आप कभी पार्लर में जाते हैं तो आपको ये कहा जाता है कि आपके चेहरे को सिर्फ ग्लो की जरूरत नहीं है बल्कि एक सांवली महिला को अपनी स्किन का कलर लाइट करने की जरूरत है.
फेयर एंड लवली और ब्लीचिंग एजेंट जैसी आम घरेलू क्रीम वो चीज हैं जो हमें लगातार एहसास कराती हैं कि हमारा अस्तित्व हमारी त्वचा के रंग से जुड़ा है.
गहरी हैं रंगभेद की जड़ें
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गोरे रंग से जुड़ी अभिमान की भावना के अलावा भी रंगभेद जाति व्यवस्था और अन्य सामाजिक बुराइयों से गहराई से जुड़ा हुआ है.
मैंने ऐसी घटनाएं सुनी हैं जिनमें शादी इसलिए रोक दी गई क्योंकि लड़की गोरी नहीं थी और अगर लड़की काली हुई तो संतान पर इसका असर पड़ेगा.
दहेज की मांग अपने आप ही स्कूटर से कार और 5 लाख कैश से 20 लाख कैश तक इसलिए हो जाएगी क्योंकि लड़की काली है.
त्वचा के रंग और जाति के बीच गहरा संबंध है. माना जाता है कि काली त्वचा कथित निचली जाति की होती है और गोरी त्वचा उच्च जाति की होती है.
सुंदरता का विचार सिर्फ त्वचा के कलर तक सीमित नहीं है. ये नैन नक्श के साथ भी जुड़ा हुआ है, जैसे नाक कितनी लंबी है या आंखों का साइज कितना है.
आपकी नाक को छोटा दिखाने और आपकी आंखों को बड़ा दिखाने के लिए खासतौर से बनाए गए मेकअप के प्रोडक्ट उपलब्ध हैं. ऐसा लगता है कि आपकी सभी इनसिक्योरिटिज का फायदा उठाकर आपको और ज्यादा इनसिक्योर महसूस करवाया गया है.
बचपम में हमेशा मुझे मे डे के सेलिब्रेशन, मजदूरों से जुड़े किरदार ही मिले. मुझे कभी भी स्टेज पर माइक थामने का मौका नहीं मिला. हमेशा मुझे पीछे ही रहना पड़ा.
रंगभेद ना सिर्फ जाति के विचार को मजबूत करता है बल्कि ये क्लास के भेदभाव को भी मजबूत करता है.
विविधता का सवाल कहां चला जाता है? हम सभी को विरासत में ये पूर्वाग्रह मिला है. ये इतना गहरा है कि हम अपनी किसी को उसके रंग से परे जाकर देख ही नहीं पाते.
बचपन से ही महिलाओं को सुंदरता के पैरामीटर्स के बारे में बताया जाता है. ये हमारे अंदर इतने गहरे समा जाते हैं कि एक महिला होने के नाते भी हम इन्हें अस्वीकार नहीं कर पाते और ये हमेशा कायम रहते हैं.
पीड़ित और हाशिए पर होने के बावजूद भी हम इन्हें कायम रखने के एजेंट बन जाते हैं.
अब दुनिया आगे बढ़ रही है और हम शायद ही रंगभेद के बारे में बात करते हैं.
लिबरल और मॉर्डन होने के मुखौटे के नीचे हम कहते हैं, “त्वचा के सभी रंग सुंदर है और ब्राउन स्किन तो बेहद आकर्षक होती है. ”
लेकिन फिर भी सवाल ये है कि क्या हम वास्तव में सुंदरता के मापदंडों को स्वीकार कर उसे और व्यापक बना रहे हैं? या फिर सवालों पर ध्यान दिए बिना सिर्फ आकर्षक होने की बात जोड़ रहे हैं.
रंगभेद हमारी संस्कृति और चेतना में इतनी गहराई तक है कि हम अक्सर इस बात को नजरअंदाज कर देते हैं कि ये किस प्रकार हमारे जीवन के अनुभवों को आकार देता है. ये कैसे अवसरों तक हमारी पहुंच को कठिन बनाता है और इसमें सामाजिक बहिष्कार तक शामिल है.
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.