नालंदा की इमारतें अब खंडहर में तब्दील हो गई हैं. इतिहास के इस महान विहार (मॉनेस्ट्री) ने 14वीं सदी की शुरुआत में ही काम करना बंद कर दिया था. लेकिन इसकी विरासत आज भी अध्ययन के विभिन्न क्षेत्रों को आगे बढ़ा रही है.
विज्ञान, चिकित्सा, गणित, खगोलशास्त्र, दर्शनशास्त्र, तर्क, व्याकरण, लिपि, पुस्तक संस्कृति, अनुवाद, साहित्य, कला और वास्तुकला के विकास में इस विहार का अहम योगदान रहा है.
नालंदा में पहले विहार की स्थापना ईसा पूर्व तीसरी सदी की गई थी. सम्राट अशोक ने इसकी स्थापना की थी.
मौर्य काल के दौरान जब नालंदा विहार बनाया गया, तो इसकी योजना एक ऐसे शिक्षण संस्थान के रूप में की गई जहां छात्र रह सकें और अपनी पढ़ाई कर सकें. यहां इसी व्यवस्था ने नियमित स्वरूप हासिल किया. इसे आजकल की भाषा में रेज़िडेन्शियल व्यवस्था कहा जाता है.
माना जाता है कि यूरोप के कई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के कैंपस की संरचनाओं की प्रेरणा इसी से ली गई थी. इनमें ऑक्सफ़ोर्ड और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के चौकोर परिसर शामिल हैं.
ईसा पूर्व तीसरी सदी में एक विहार के रूप में स्थापना के बाद से एक महाविहार के रूप में नालंदा का विकास एक व्यवस्थित योजना के साथ हुआ.
इसमें कई मठों, एक विकसित बुनियादी ढांचे, एक चारदीवारी वाले आवासीय परिसर, कई चौकोर विहार और साथ ही अंतरराष्ट्रीय छात्रों को ध्यान में रखकर हुआ, जहां धर्मनिरपेक्ष विषयों समेत अनेक प्रकार के विषयों को पढ़ाने और इसके लिए उस वक्त के बेहतरीन शिक्षकों की व्यवस्था की गई थी.
यह इस बात का उदाहरण है कि कैसे कई सदियों में विश्वविद्यालय का विचार अपने सही अर्थों में विकसित हुआ और मध्य एशिया, यूरोप और बाकी की दुनिया में फैला.
नालंदा महाविहार में नागार्जुन, वासुबंधु, संतरक्षिता और कमलसिला जैसे महान विद्वानों ने पुनरावर्ती तर्क प्राणाली (तर्क के बाद उप-तर्क) को आगे बढ़ाने में अहम योगदान दिया, जिससे मध्ययुगीन वैज्ञानिक पद्धति का विकास हुआ.
यह दृष्टिकोण, मध्य एशिया और आख़िरकार अरब जगत और यूरोप समेत दुनिया के विभिन्न हिस्से तक पहुंचा.
भारतीय गणित के पितामह कहे जाने वाले आर्यभट्ट, छठीं शताब्दी में नालंदा महाविहार में सबसे प्रमुख गणितज्ञ थे. उन्होंने मौलिक पुस्तक लिखी ‘आर्यभटीय’.
वह पहले गणितज्ञ थे जिन्होंने शून्य को एक अंक के रूप में मान्यता दी. इस क्रांतिकारी अवधारणा ने गणनाओं को सरल बनाया और ऐसी अवधारणाओं को जन्म दिया जो आगे चलकर बीजगणित (अल्ज़ेब्रा) और कैल्कुलस के रूप में जानी गईं.
बाद में आर्यभट्ट के काम को आगे बढ़ाया ब्रह्मगुप्त ने. उन्होंने ‘ब्रह्मस्फुटसिद्धांत’ लिखा, जिसका आठवीं शताब्दी में अरबी में अनुवाद हुआ, जो ‘सिंदहिंद’ के रूप में प्रसिद्ध हुआ और जिसने भारतीय संख्याओं, अल्ज़ेब्रा, कैलकुलस, एलगॉरिद्म और भारतीय खगोलशास्त्र से यूरोप का परिचय कराया.
गणित और खगोलशास्त्र के क्षेत्र में नालंदा का प्रभाव, ख़ासकर चीन में बहुत अहम था.
665 से 698 ईस्वी के बीच ब्यूरो ऑफ़ एस्ट्रोनॉमी ऑफ़ चाइना के प्रमुख थे गौतम सिद्धार्थ, जिन्होंने उस समय भारतीयों की श्रेष्ठता की अगुवाई की.
‘सरकार में इस्तेमाल होने वाले आधिकारिक कैलेंडर को बनाने और महारानी वु ज़ेतियन के लिए ज्योतिष और अलौकिक संकेतों की खगोलीय व्याख्या करने की ज़िम्मेदारी उनकी थी. गौतम अपने परिवार की तीन पीढ़ियों में पहले थे जिन्होंने लगातार इस पद को संभाला.’
नालंदा में विकसित हुआ तांत्रिक बुद्धिज़्म, सातवीं और आठवीं सदी में चीन में एक बड़ी ताक़त बन गया था. शीर्ष स्तर के चीनी बुद्धिजीवियों में कई इसके अनुयायी थे.
चूंकि अधिकांश तांत्रिक विद्वानों की गणित में गहरी दिलचस्पी थी, इसलिए तांत्रिक गणितज्ञों का चीनी गणितज्ञों पर भी गहरा प्रभाव था. इस दिलचस्पी का कारण शायद, कम से कम शुरुआत में, संख्या का तांत्रिक आकर्षण था.
चीन के तांत्रिक बौद्ध भिक्षु आई-सिंग या यी शिंग (672 से 717 ईस्वी), अपने समय के महान चीनी खगोलशास्त्री और गणितज्ञ थे. उन्होंने नालंदा में विकसित गणित और खगोलशास्त्र पर भारतीय कामों पर विशेषज्ञता हासिल कर ली थी.
दो बड़े महायान बौद्ध दर्शनों, माध्यमिक और योगाचार के विकास और इवोल्यूशन में नालंदा का बड़ा योगदान था.
महाविहार में सदियों तक योगाचार के साथ लगातार जुड़ाव ने एक विशेष शाखा को जन्म दिया जिसे वज्रयान या तंत्रयान के नाम से जाना जाता है, जो योगाचार दर्शन के सिद्धातों पर आधारित है.
नालंदा में संतरक्षिता ने माध्यमिक और योगाचार को मिलाकर एक नया दर्शन विकसित किया, जिसे योगाचार-माध्यमिक के नाम से जाना जाता है.
नालंदा में विकसित दर्शनों को दक्षिण, मध्य एशिया, वूर्व एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में फैलाने और इन देशों के लोगों के सांस्कृतिक और धार्मिक स्वरूप को आकार देने में नालंदा महाविहार ने अहम भूमिका निभाई.
पांचवीं शताब्दी तक नालंदा कला का एक प्रमुख केंद्र बन चुका था.
नालंदा में बनाई गई कलाकृतियों में स्थानीय पुट के साथ मथुरा और सारनाथ दोनों की विशेषताएं थीं, जो आठवीं शताब्दी में पाला काल के दौरान एक अलग शाखा, नालंदा स्कूल ऑफ़ आर्ट के रूप में विकसित हुई.
इसका पूर्वी और दक्षिण पूर्वी देशों की कला पर गहरा प्रभाव था.
वज्रयान दर्शन के एक हिस्से के तौर पर, तांत्रिक बौद्ध सिद्धांतों के साथ त्रि-आयामी मंडल बनाने का विचार नालंदा महाविहार में विकसित हुआ.
इस विधि का इस्तेमाल बिहार में केसरिया बौद्ध स्तूपों और जावा में दुनिया के सबसे बड़े बौद्ध स्मारक बोरोबुदुर के निर्माण में किया गया था.
नालंदा के आचार्यों ने संस्कृत में रचना कर संस्कृत भाषा को भी समृद्ध किया.
इन रचनाओं में दार्शनिक ग्रंथ, शुद्ध और पाणिनी संस्कृत में बौद्ध तर्क और नैतिक व्यवस्था पर रचनाएं और मिश्रित संस्कृत में स्तोत्र, महात्मय, तंत्र और साधना शामिल हैं.
नालंदा महाविहार में सूत्रों की नकल लिखने और उन्हें विभिन्न भाषाओं में अनुवाद करने की महान परंपरा ने सदियों के दौरान कई देशों की भाषा, साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया.
तिब्बत की संस्कृति और भाषा इस परंपरा का जीता जागता प्रमाण है.
तिब्बती विद्वान थोन्मी सम्भोटा ने नालंदा महाविहार में पढ़ाई की थी. उन्होंने देवनागरी और कश्मीरी लिपियों के आधार पर तिब्बती भाषा के लिए लिपियां तैयार की थीं.
नालंदा महाविहार के चौरासी सिद्धों ने, 8वीं से 13वीं शताब्दी के बीच, जैन संतों के साथ मिलकर अपभ्रंश कविता के विकास में अहम भूमिका निभाई और दोहा, चौपाई और पदधारी जैसे नए काव्य रूपों में योगदान किया.
पांडुलिपि लेखन, रेखाचित्र, संरक्षण और नकल लेखन की कला को विकसित करने में नालंदा ने केंद्रीय भूमिका निभाई.
इस तरह नालंदा में पांडुलिपि लेखन, नकल लेखन और संरक्षण की संस्कृति ने दुनिया भर में मौखिक परंपरा से लेखन परंपरा को तेज़ी से बढ़ावा दिया.
दुनिया की पहली प्रकाशित पुस्तक ‘द डायमंड सूत्रा’ है जो ‘प्रज्ञापारमिता सूत्र’ का एक हिस्सा है. इसके बारे में माना जाता है कि इसे नागार्जुन ने नालंदा में लिखा था. धम्म चक्र, जिसमें पवित्र ग्रंथों को यंत्रवत घुमाया जाता है, इसकी खोज नालंदा में हुई थी.
नलंदा में चिकित्सा विज्ञान ने पूर्वी एशिया, ख़ासकर चीन की चिकित्सकीय परंपरा को गहरे तौर पर प्रभावित किया, जिसमें नालंदा में इस्तेमाल किया जाने वाला अत्याधुनिक नेत्र विज्ञान भी शामिल है, जो तांग चीन (तांग सम्राज्य के दौर में चीन) तक पहुंचा.
शुरुआती सदी में नागार्जुन की रचित ‘रसरत्नाकर’ को भारतीय रसायन विद्या पर पहला ग्रंथ माना जाता है.
चिकित्सा, नेत्र विज्ञान, रसायन विज्ञान और स्वास्थ्य से जुड़े अन्य विज्ञानों में नालंदा की उत्कृष्टता और सर्वोत्तम परंपराओं को तिब्बत, नेपाल, चीन, कोरिया, जापान, मंगोलिया और दुनिया के कई हिस्सों में अपनाया गया.
हठ योग का शुरुआती विवरण वज्रयान शाखा के बौद्ध तांत्रिक ग्रंथों में पाया गया है, जिसे नालंदा महाविहार में आठवीं सदी के बाद विकसित किया गया था.
सदियों से हठ योग के विकास ने ही योग का लोकतांत्रिकरण किया और इसे धार्मिक और रस्मी पहलुओं से मुक्त कराया. पूरी दुनिया में ये इसकी स्वीकार्यता और लोकप्रियता का कारण बना.
ईसा मसीह के जीवन और सिद्धांत और जातक कथाओं में बुद्ध के बोधिसत्व के रूप में जन्म लेने और दूसरों के लिए अपने जीवन का बलिदान करने में बहुत समानता है.
नागार्जुन की विकसित नालंदा की शैक्षिक परंपरा ने इस दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाया कि ये बोधिसत्व खुद ऐतिहासिक बुद्ध के समकक्ष थे.
कई इतिहासकारों का मानना है कि इसकी वास्तविक संभावना है कि बौद्ध धर्म ने ईसाई धर्म के शुरुआती विकास को प्रभावित किया था.
हालांकि नालंदा महाविहार ने 14वीं सदी की शुरुआत में ही काम करना बंद कर दिया था, लेकिन इसकी प्रसिद्धि ज़िंदा रही और इसके नाम पर बने शैक्षणिक संस्थाओं और मठों की स्थापना को प्रेरित करना जारी रखा. नालंदा की किंवदंती जीवित है और हाल के सालों में इसमें गति आई है.
1951 में नव नालंदा महाविहार की स्थापना बिहार में की गई. यहां महान चीनी यात्री ह्वेन सांग को समर्पित एक मेमोरियल हाल 1984 में बनकर तैयार हुआ.
सिक्किम में 1981 में कर्म श्री नालंदा संस्थान और 1987 में बिहार के नालंदा में नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई. 2010 में राजगीर में नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई.
नालंदा की प्रतिष्ठा ही वह कारण था, जिसके चलते विदेशों में इसके नाम पर कई संस्थानों की स्थापना हुई.
श्रीलंका का नालंदा गेडिगे आठवीं शताब्दी का है, जब नालंदा महाविहार चल रहा था.
फेनपो नालेंद्र नाम के एक तिब्बती नालंदा मठ की स्थापना 1435 में ल्हासा के उत्तर-पूर्व में फेन-यूल घाटी में भिक्षु और विद्वान रोंगटन शेजा कुनरिग (1347-1449) ने की थी.
इसमें 700 भिक्षु रहते थे. साथ ही हज़ारों भिक्षु यहां आया करते थे. तिब्बत के विभिन्न हिस्सों में इसकी शाखाएं हैं.
यूरोप से लेकर अमेरिका तक…
यूरोप में, फ़्रांस के टोलूज़ से चालीस किलोमीटर दूर लावूर में नालंदा मठ की स्थापना लामा ज़ोपा रिनपोचे और लामा थुबटेन येशे ने 1981 में की.
नालंदा महाविहार की याद में 1989 में ब्राज़ील में नालंदा बौद्धिस्ट सेंटर की स्थापना की गई. यहां मूल मठ की परंपराओं के अनुसरण की कोशिश की गई थी.
1999 में ब्राज़ील में नालंदाराम रिट्रीट सेंटर की स्थापनी की गई जो दक्षिण अमेरिका में जंगल में ध्यान कराने वाला पहला थेरवाद (बौद्धों की दो बड़ी परंपराओं में से एक) सेंटर बना.
कनाडा के टोरंटो में नालंदा कॉलेज ऑफ़ बौद्धिस्ट स्टडीज़ की स्थापना साल 2000 में सुवांडा एचजे सुगुणाश्री ने की थी.
दक्षिणी थाईलैंड के सबसे बड़े शहर हात्याई में साल 2000 में स्थापित इंटरनेशनल बौद्धिस्ट कॉलेज (आईबीसी) को विभिन्न बौद्ध परंपराओं को एक साथ लाने और एकदूसरे की बेहतर समझ को बढ़ावा देने के लिए नालंदा की तरह बनाया गया है.
मलेशिया के कुआलालंपुर के दक्षिणी बाहरी इलाके़ में 2007 में स्थापित नालंदा इंस्टीट्यूट को देश में बौद्ध अध्ययन को बढ़ावा देने के लिए नालंदा महाविहार के मॉडल पर तैयार किया गया था.
2007 में अमेरिका में मनोचिकित्सक जो लोइज़ो द्वारा ‘नालंदा इंस्टीट्यूट फ़ॉर कंटेम्पलेटिव साइंस’ की स्थापना की गई थी, जो प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय से प्रेरित था.
1996 में कोलंबिया विश्वविद्यालय और वेइल कॉर्नेल मेडिकल कॉलेज में चिंतन विज्ञान (कंटेम्पलेटिव साइंस) में शोध के दौरान उन्होंने इसकी परिकल्पना की थी.
एशिया, यूरोप, उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में नालंदा के बढ़ते पदचिह्नों के इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि आने वाले समय में नालंदा की ख्याति और बढ़ेगी.
ज्ञान, बुद्धि और करुणा के प्रसार की नालंदा की प्राचीन परंपरा इंसानियत को नफ़रत, ग़ुस्से, हताशा, लालच से दूर करने और अपने अंदर और बाहर शांति हासिल करने में मदद कर सकती है.
(अभय के. हाल ही में आई किताब ‘नालंदाः हाउ इट चेंज्ड द वर्ल्ड’ के लेखक हैं.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित