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वर्षों से बिहार की राजनीति की धुरी रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर अब सवाल उठने लगे हैं.
बिहार में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने हैं.
लेकिन बीजेपी और जेडीयू के नेताओं को अभी इसका अंदाज़ा नहीं है कि वो नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ पाएँगे या नहीं.
इसकी प्रमुख वजह है नीतीश कुमार की ख़राब सेहत पर उठते सवाल और जेडीयू में उनके उत्तराधिकारी का संकट.
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भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) बिहार में कभी भी अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई है.
जितने भी समय बीजेपी बिहार की सत्ता में रही है, वो जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के सहारे और नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही रही है.
इस पर भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या इन सबके बीच बीजेपी के लिए राज्य में कोई बड़ा मौक़ा है या नहीं?
सवाल ये भी है कि क्या बिहार की मौजूदा स्थिति में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) का पलड़ा भारी हो रहा है?
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बिहार की राजधानी पटना के वीरचंद पटेल स्थित जेडीयू दफ़्तर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पोस्टर से पटा पड़ा है.
इनमें से एक पोस्टर पर लिखा है- ‘2025 से 30, फिर से नीतीश’.
इस दफ़्तर में ऊपरी तौर पर सब कुछ ठीक लगता है. लेकिन थोड़ा सा कुरेदने पर पार्टी के भीतर बढ़ती निराशा सतह पर आ जाती है.
जैसा कि जेडीयू के एक नेता बीबीसी से कहते हैं, “बहुत कुछ छोड़कर हम लोग नेता (नीतीश कुमार) के चेहरे पर पार्टी में आए थे. लेकिन नीतीश जी के बाद पार्टी कौन संभालेगा? नेतृत्व को लेकर एकदम वैक्यूम है. हम अपने और पार्टी दोनों के भविष्य को लेकर आशंकित हैं.”
नीतीश के बाद कौन? ये एक ऐसा सवाल है, जिससे जेडीयू ही नहीं, बल्कि अन्य पार्टियाँ भी जूझ रही हैं.
ये सवाल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की बिगड़ती सेहत के आईने में महत्वपूर्ण होता जा रहा है.
पूर्व उपमुख्यमंत्री और आरजेडी के नेता तेजस्वी यादव और जनसुराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर कई बार नीतीश कुमार के स्वास्थ्य पर सवाल उठा चुके हैं.
तेजस्वी यादव ने तो यहाँ तक कहा था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार होश में नहीं हैं और वो थक चुके हैं. तेजस्वी यादव का कहना है कि अब नीतीश कुमार किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर बोलते तक नहीं.
प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार के मानसिक स्वास्थ्य पर सवाल उठाए थे.
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बिहार की राजनीति में प्रासंगिक होने के बावजूद अब नीतीश कुमार की पारी पर सवाल उठने लगे हैं.
इसकी सबसे बड़ी वजह है 74 साल के नीतीश की ख़राब सेहत की ख़बरें.
जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक इन ख़बरों को ख़ारिज करते हैं.
वो कहते हैं, “इस उम्र में जो समस्याएँ सबको होती हैं, वही नीतीश कुमार को भी हो रही है. बाक़ी सब ठीक है. अगर वो ठीक नहीं होते, तो पूरे राज्य भर में घूम-घूम कर प्रगति यात्रा कैसे कर रहे होते?”
हालाँकि ख़राब स्वास्थ्य के कारण नीतीश कुमार की प्रगति यात्रा भी स्थगित की गई थी.
बीजेपी नेता संजय पासवान कहते हैं, “उनकी तबीयत संबंधी ख़बरों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है जबकि वो सारा कामकाज अच्छे से संभाल रहे हैं.”
लेकिन बातें इतनी सरल नहीं जितना जेडीयू और बीजेपी कह रही है.
हाल के दिनों में नीतीश कुमार की बातचीत को उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी बहुत ‘गार्डेड’ रखते हैं. उनके सार्वजनिक भाषण अब न के बराबर हो गए हैं.
ये वही नीतीश कुमार हैं, जिन्होंने जब 2005 में सत्ता संभाली तो जानकारों ने कहा कि बिहार की सत्ता ‘मैन ऑफ़ डीसेंट वर्ड्स’ के पास शिफ़्ट हुई है.
राजद की राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रियंका भारती कहती हैं, “नीतीश जी का स्वास्थ्य बहुत ख़राब हो रहा है. पार्टी में लीडरशिप के अभाव में जेडीयू के नेता ही पार्टी का विलय बीजेपी में कर देंगे.”
हालांकि, शुक्रवार को जब पत्रकारों ने नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार से उनकी सेहत को लेकर सवाल किया, तो उन्होंने ऐसी किसी भी बात को पूरी तरह खारिज कर दिया. उनका कहना था कि नीतीश कुमार ‘शत-प्रतिशत’ स्वस्थ हैं.
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नीतीश कुमार की सेहत ने जेडीयू में नेतृत्व के सवाल को भी केंद्र में ला दिया हैं. जेडीयू साल 2003 में अस्तित्व में आई थी.
नीतीश कुमार के नेतृत्व में पार्टी बिहार में सत्तासीन रही, तो झारखंड, अरुणाचल और मणिपुर में पैर जमाने की कोशिश की.
लेकिन समाजवाद को मूलमंत्र मानने वाली जेडीयू अपने 22 साल के इतिहास में नीतीश की छत्रछाया में ही रही.
यानी जेडीयू में ‘नीतीश नाम केवलम्’ ही रहा. हालांकि पार्टी में कुछ नेताओं का उभार समय-समय पर होता रहा.
इनमें सबसे प्रमुख नाम आरसीपी सिंह (रामचंद्र प्रसाद सिंह) का था. यूपी कैडर के आईएएस अफ़सर आरसीपी सिंह ने साल 2010 में वीआरएस लेकर जेडीयू महासचिव (संगठन) का पद संभाला था.
आरसीपी सिंह का प्रभाव इस कदर था कि विपक्ष ये आरोप लगाता था कि बिहार में ‘आरसीपी टैक्स’ चलता है.
बीबीसी से बातचीत में आरसीपी सिंह बताते हैं, “नीतीश कुमार के कान लोगों ने मेरे ख़िलाफ़ भरे जिसके बाद दरार आई. मैंने बीजेपी जॉइन की और अब मैंने अपनी पार्टी ‘आप सबकी आवाज़’ बना ली. मेरी पार्टी में भी 90 फ़ीसदी कार्यकर्ता जेडीयू के हैं.”
अलग-अलग वक़्त में प्रशांत किशोर, ललन सिंह और उपेंद्र कुशवाहा का भी उभार पार्टी में हुआ, लेकिन ये सब किनारे होते गए.
प्रशांत किशोर अलग पार्टी बना चुके हैं. ललन सिंह केंद्र में मंत्री हैं लेकिन संगठन में उनका कोई ख़ास प्रभाव नहीं.
उपेंद्र कुशवाहा भले ही एनडीए गठबंधन में हैं, लेकिन वो भी जेडीयू से अलग होकर अपनी पार्टी बना चुके हैं.
साल 2024 में पूर्व आईएएस मनीष वर्मा का नाम उत्तराधिकारी के तौर पर उभरा था. नालंदा के रहने वाले मनीष वर्मा को पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिव बनाया और राज्य भर में कार्यकर्ता समागम करने की ज़िम्मेदारी सितंबर 2024 में दी.
लेकिन दिसंबर 2024 में पार्टी ने कार्यकर्ता समागम यात्राओं पर रोक लगा दी.
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फ़िलहाल नीतीश कुमार के क़रीबी नेताओं में तीन नाम आते हैं. राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा, विजय कुमार चौधरी और अशोक चौधरी.
ये तीनों ही दूसरे दलों से जेडीयू में आए है. संजय झा बीजेपी से तो वहीं अशोक चौधरी और विजय कुमार चौधरी कांग्रेस से जेडीयू में आए हैं.
इनमें नीतीश कुमार का सबसे क़रीबी संजय झा को माना जाता है. हालाँकि उनके बारे में ये भी कहा जाता है कि वो गृह मंत्री अमित शाह के भी क़रीब हैं.
क्या इनमें से कोई नीतीश कुमार का उत्तराधिकारी हो सकता है?
इस सवाल पर जेडीयू के राष्ट्रीय महासचिव श्याम रजक कहते हैं, “क़रीबी होना एक चीज़ है और लीडरशिप अलग चीज़ है. वैसे भी अभी नीतीश कुमार जी का सक्षम नेतृत्व हमारे साथ है. जेडीयू में सभी समाज के लोग हैं. जब वक़्त आएगा, तो जेडीयू सर्वसम्मति से कोई फ़ैसला लेगा.”
दरअसल जेडीयू का कोर वोटर कुर्मी-कोइरी और अति पिछड़े हैं. जातिगत सर्वे के मुताबिक़ राज्य में अति पिछड़ों की आबादी 36 फ़ीसदी है, जो सबसे ज़्यादा है. ये तीनों ही नेता कुर्मी-कोइरी और अति पिछड़ा फ़्रेम में फ़िट नहीं बैठते हैं.
दैनिक जागरण के सहायक संपादक अरविंद शर्मा जेडीयू में लीडरशिप की मुश्किलों को डिकोड करते हुए कहते हैं, “बिहार में राजनीतिक परिस्थितयाँ ऐसी हैं, जिनमें बीजेपी और कांग्रेस को छोड़कर किसी अन्य पार्टी को सवर्ण जाति से आने वाला कोई नेता लीड नहीं कर सकता. इनमें से अशोक चौधरी दलित समुदाय से हैं, लेकिन उनका नेतृत्व स्वीकार नहीं होगा. अगर किसी परिस्थिति में सवर्ण नेता को नेतृत्व सौंप भी दिया गया, तो लालू यादव की पॉलिटिक्स हावी हो जाएगी. पूरा मामला बैकवर्ड बनाम फॉरवर्ड हो जाएगा.”
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नेतृत्व की इसी गुत्थी को सुलझाने के लिए नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार का नाम भी चर्चा में है.
जेडीयू नेता और बिहार सरकार में मंत्री श्रवण कुमार ने हाल ही में कहा था, “निशांत का राजनीति में आना अच्छी बात है.”
इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुके निशांत के जेडीयू ज्वाइन करने और पार्टी के गढ़ हरनौत विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने की चर्चा है.
लेकिन 49 साल के निशांत ख़ुद भी कई मौक़ों पर इससे इनकार करते रहे हैं.
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने भी हाल ही में बयान दिया था, “पिता (नीतीश कुमार) का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, तो निशांत को आना चाहिए. दूसरी विचारधारा के लोग पार्टी हाईजैक कर लें उससे अच्छा है निशांत आएँ.”
लेकिन नीतीश की पॉलिटिक्स को समझने वाले इस संभावना को ख़ारिज करते हैं.
निशांत भी शुक्रवार को पत्रकारों से बातचीत करते दिखे जब उनसे राजीति में सक्रिय होने पर सवाल पूछा गया तो वो टालते नज़र आए.
इससे पहले उन्होंने कहा, ”मैंने पहले भी बोला है, अभी भी कह रहा हूं, फिर से एनडीए को सरकार में लाएं, पिताजी को हो सके तो फिर से सीएम बनाएं, पिताजी अपने विकास का क्रम जारी रखें.”
नीतीश कुमार के क़रीबी बताते हैं, “निशांत को पॉलिटिक्स में लाने की कोशिशें एक दशक से हो रही हैं, लेकिन उनका मन अध्यात्म में रमता है. फिर नीतीश कर्पूरी जी की लकीर पर चलना चाहते हैं. उन्होंने (कर्पूरी ठाकुर) भी जीवित रहते अपने बेटे रामनाथ ठाकुर को राजनीति में नहीं आने दिया था.”
जेडीयू नेता श्याम रजक भी कहते हैं, “नीतीश कुमार परिवारवाद के सख़्त ख़िलाफ़ हैं. ये कोई इश्यू ही नहीं है.”
पत्रकार अरविंद शर्मा भी इस संभावना से इनकार करते हुए कहते हैं, “अगर नीतीश कुमार को अपने बेटे को पॉलिटिक्स में लाना होता, तो वो अपने मज़बूत दिनों में ऐसा कर चुके होते. जैसा लालू प्रसाद यादव ने तेजस्वी को सलीके और सुनियोजित तरीक़े से लांच करके किया.”
‘इन फ़्यूडल बिहार’ सहित बिहार पर कई किताबों के लेखक और पत्रकार अरुण श्रीवास्तव इसे सिर्फ़ नीतीश और निशांत की ‘मर्ज़ी’ के तौर पर नहीं देखते, बल्कि वो इसे ‘पावर गेम’ के नज़रिए से भी देखते हैं.
वो कहते हैं, “किसी भी जाति को पावर चाहिए. इसमें निशांत फ़िट नहीं बैठते, क्योंकि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का अब तक कोई सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया है. ऐसे में जाति या जेडीयू का वोट बैंक उनके पीछे लामबंद नहीं होगा. यानी वो नीतीश की जगह लेने और विधानसभा चुनाव में चेहरा बनने की स्थिति में नहीं हैं.”
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ऐसे में ये अहम सवाल है कि जेडीयू का क्या होगा? इस पार्टी को बिहार के तीन प्रमुख दलों (जेडीयू, राजद, बीजेपी) में एक मध्यमार्गी पार्टी के तौर पर देखा जा सकता है.
राजनीतिक विश्लेषक और टाटा इंस्टीटयूट ऑफ़ सोशल साइंस के पूर्व प्रोफ़़ेसर पुष्पेन्द्र कहते हैं, “नीतीश कुमार अगर नहीं रहेंगे, तो पार्टी का एक छोटा हिस्सा ही जेडीयू के तौर पर रह जाएगा. पार्टी का बड़ा हिस्सा बीजेपी और अनकम्फ़र्टेबल हिस्सा राजद में जाएगा.”
लेकिन जेडीयू में ये संकट क्यों है, जबकि राजद, लोजपा, सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियों के अस्तित्व पर संकट नहीं है.
इसका जवाब पॉलिटिकल साइंस की वेबर थ्योरी में मिलता है. इस थ्योरी के मुताबिक़ लीडरशिप तीन तरह की होती है- अथॉरिटेटिव, डेमोक्रेटिक और कैरिस्मैटिक. भारत में क्षेत्रीय दलों का उभार कैरिस्मैटिक लीडरशिप के उभार के साथ जुड़ा है.
प्रो पुष्पेन्द्र कहते है, “इस कैरिस्मैटिक लीडरशिप में जब नेतृत्व का ट्रांसफ़र परिवार में होता है, तो विवाद नहीं होते. जैसे लालू ने तेजस्वी को लीडरशिप ट्रांसफ़र की. अगर पार्टी की सेकेंड लाइन ऑफ़ लीडरशिप में नेतृत्व का ट्रांसफ़र होता है, तो विवाद की स्थिति बनती है.”
पत्रकार अरविंद शर्मा भी कहते हैं, “जेडीयू में नीतीश कुमार के क़रीबी नेताओं में आपसी सामंजस्य नहीं है, जिसके चलते किसी भी स्थिति में नेतृत्व को लेकर विवाद रहेगा. ऐसे में नीतीश के बाद पार्टी का भविष्य ख़तरे में है.”
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जेडीयू के अस्तित्व पर संकट की आहट के बाद से ही ये कयास भी लगने शुरू हो गए हैं कि जेडीयू का कोर वोटर ख़ास तौर पर अति पिछड़ा वोटर कहाँ जाएगा?
लेखक और पत्रकार अरुण श्रीवास्तव कहते हैं, “अति पिछड़ों में जो मिडिल क्लास है, वो कांग्रेस के साथ, जो आर्थिक तौर पर पिछड़ा है, वो माले के साथ और मुसलमान राजद के साथ जाएँगे. बीजेपी को जेडीयू के न रहने से फ़ायदा नहीं होगा.”
वहीं राजद की प्रियंका भारती कहती हैं, “जेडीयू का वोटर तो हमारी तरफ़ आएगा, लेकिन दूसरी तरफ़ बीजेपी भी मज़बूत होगी. क्योंकि जेडीयू के बैलेंसिंग एक्ट के एबसेंस में दलित, मुसलमान और पिछड़ों में उसका डर ज़्यादा होगा.”
वहीं बीजेपी नेता संजय पासवान कहते हैं, “जेडीयू को संजय झा या केसी त्यागी जैसे अनुभवी नेता संभाल लेंगे. पार्टी चलेगी, ख़त्म होने का सवाल नहीं है.”
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इस समय केंद्र की एनडीए की सरकार में जनता दल (यूनाइटेड) की अहम भूमिका है.
पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई थी. बीजेपी को सिर्फ़ 240 सीटें मिली थी.
इसलिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार को जनता दल (यू) के समर्थन की आवश्यकता है. जनता दल (यू) ने लोकसभा चुनाव में 12 सीटें जीती थी.
नीतीश कुमार की पार्टी के अलावा केंद्र सरकार में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगुदेशम की भी भूमिका बहुत ख़ास है. नायडू की पार्टी को 16 सीटें मिली थी.
मोदी सरकार के लिए जनता दल (यू) की बड़ी भूमिका के बावजूद नीतीश कुमार को लेकर सवाल उठते रहे हैं.
हिंदी पट्टी में बिहार अकेला ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी अपने बलबूते आज तक सरकार नहीं बना पाई है.
साल 2015 में जब बीजेपी ने जेडीयू से अलग होकर चुनाव लड़ा, तो पार्टी सिर्फ़ 53 सीटों पर सिमट गई थी.
वहीं 2020 में पार्टी ने जेडीयू के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा, तो बीजेपी को 74 और जेडीयू को सिर्फ़ 43 सीट मिली थी.
पत्रकार अरुण श्रीवास्तव कहते हैं, “बीजेपी 2020 में जेडीयू से बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन उसने अपना मुख्यमंत्री नहीं बनाया. पार्टी को बिहार की जातीय संरचना के चलते नीतीश का साथ किसी भी क़ीमत पर चाहिए. नीतीश के साथ नहीं रहने पर उसकी स्थिति 2015 जैसी हो जाती है. इसलिए पार्टी किसी भी तरह का रिस्क लेने के बजाए वेट एंड वॉच कर रही है.”
बिहार में चुनाव में मिली जीत से इतर जेडीयू ‘बड़े’ और बीजेपी ‘छोटे’ भाई की भूमिका में रहती है.
बीजेपी अभी तक ख़ुद को मिली ‘छोटे भाई’ की भूमिका से निकलने की तमाम कोशिशों में अब तक असफल ही साबित हुई है.
आलम ये है कि बिहार में बीजेपी का कोई सर्वमान्य नेता नहीं बन पाया है.
बीजेपी नेता संजय पासवान लीडरशिप के सवाल को खारिज़ करते है. वो कहते हैं, “हमारी पार्टी में लीडरशिप का टोटा नहीं है. जब ज़रूरत होगी, तो मध्य प्रदेश और ओडिशा की तरह ही लीडरशिप का चयन भी हो जाएगा. मैं किसी का नाम नहीं लूँगा, लेकिन बहुत सारे नौजवान नेता हमारे यहाँ हैं, जो किसी भी ज़िम्मेदारी को अच्छे से संभाल सकते हैं.”
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बीते दो दशकों से नीतीश कुमार बिहार की राजनीति और सत्ता का केंद्र बने हुए हैं.
कुछ समय को छोड़ दें, तो साल 2005 से ही नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए है. फिर चाहे उनकी पार्टी जेडीयू का गठबंधन राजद या बीजेपी के साथ हो.
नीतीश कुमार ने अपनी राजनीति का सफ़र लालू यादव और जॉर्ज फ़र्नांडिस के साथ में शुरू किया था. इसकी शुरुआत 1974 के छात्र आंदोलन से शुरू हुई थी.
1990 में लालू प्रसाद यादव जब बिहार के मुख्यमंत्री बने तब नीतीश कुमार उनके अहम सहयोगी थे. लेकिन जॉर्ज फर्नांडिस के साथ उन्होंने 1994 में समता पार्टी बना ली.
पहली बार 1995 में नीतीश कुमार की समता पार्टी ने लालू प्रसाद यादव के कार्यकाल को ‘जंगलराज’ कहकर इसका मुद्दा बनाया था.
इसी मुद्दे पर विपक्ष ने 2000 और 2005 का चुनाव लड़ा, 2005 में नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी.
शुरुआती सालों में ‘ईमानदार’ और ‘सुशासन बाबू’ की छवि वाले नीतीश कुमार खुद को लालू यादव के ख़िलाफ़ एक ठोस विकल्प बनाने में कामयाब रहे.
लंबे समय तक बीजेपी के साथ सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी गठबंधन से अलग हो गए और बाद में उन्होंने 2015 में राजद के साथ मिलकर सरकार चलाई.
इसके बाद वो कभी राजद के साथ तो कभी बीजेपी के साथ सरकार में रहे. फ़िलहाल वे बीजेपी गठबंधन में हैं.
पटना के एएन सिन्हा संस्थान के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, “सेक्यूलर वोटर्स को डिवाइड करने की ताक़त नीतीश के पास ही है, इसलिए बीजेपी के पास उनका कोई विकल्प नहीं है. दूसरी मजबूरी ये भी है कि नीतीश ने जेडीयू के साथ साथ बीजेपी में भी कोई सर्वमान्य नेता उभरने नहीं दिया.”
वो आगे कहते हैं, “वहीं राजद की स्थिति देखें, तो उसे जेडीयू के साथ आने पर नीतीश के पब्लिक परसेप्शन में बने सुशासन छवि का फ़ायदा मिलता है. सेक्यूलर वोटर्स भी राजद के पीछे लामबंद होते हैं जो राजद के सत्ता में निरंतरता की गारंटी होती है. इसलिए नीतीश कम संख्या में सीट लाकर भी मुख्यमंत्री बनते हैं.”
दूसरी ओर बीजेपी के राष्ट्रीय अनुसूचित जाति मोर्चा के पूर्व अध्यक्ष संजय पासवान कहते हैं, “नीतीश जी हमारी मजबूरी नहीं हैं. बल्कि उनका बहुत सम्मान बीजेपी में है. केंद्रीय नेतृत्व के साथ भी उनके संबंध बहुत अच्छे हैं और हम उन्हें अपना ही हिस्सा मानते हैं. ये भी सच है कि उनके पास 14 फ़ीसदी कमिटेड वोटर्स हैं और वो जिस तरफ़ जाएँगे, वोट वहीं शिफ़्ट होगा.”
राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने भी हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था कि “नीतीश कुमार के लिए पार्टी के दरवाज़े खुले हैं.”
हालाँकि बाद में तेजस्वी यादव ने इससे इनकार किया था.
नीतीश कुमार का अब तक जो सियासी सफ़र रहा है, उन्होंने कई बार लोगों को अपनी रणनीति से चौंकाया है.
लेकिन ख़राब स्वास्थ्य के बीच वे इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में कोई अहम भूमिका निभा पाएँगे या नहीं, राजनीतिक गलियारों में ये चर्चा लगातार चल रही है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित