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नेपाल की राजधानी काठमांडू में सोशल मीडिया पर बैन के बाद प्रदर्शन कर रहे युवाओं और पुलिस के बीच झड़पों में कम से कम 17 लोगों की मौत हुई.
जबकि पूरे देश में यह संख्या 19 तक पहुँच गई.
नेपाल सरकार ने बीते सप्ताह 26 सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाया था.
इनमें फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सऐप जैसे चर्चित सोशल मीडिया और मैसेजिंग प्लेटफ़ॉर्म शामिल थे.
सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंध के बाद युवाओं ने प्रदर्शन का आह्वान किया था.
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सोमवार को नेपाल से आईं प्रदर्शन की तस्वीरों ने पिछले साल बांग्लादेश में हुए आंदोलन की याद दिला दी.
इससे पहले साल 2022 में श्रीलंका में भी लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ बड़ा विरोध प्रदर्शन किया था.
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हाल के वर्षों में भारत के पड़ोसी देशों में युवाओं ने आंदोलनों के ज़रिए काफ़ी कुछ हासिल किया है.
दक्षिण एशिया की भू-राजनीति के जानकार और साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफ़ेसर धनंजय त्रिपाठी कहते हैं, “दक्षिण एशिया का यह इलाक़ा युवाओं से भरा हुआ है और सरकारें इन युवाओं की उम्मीदों को पूरा नहीं कर पा रही हैं. तीनों ही देशों के आंदोलनों में यही समानता है.”
धनंजय त्रिपाठी के मुताबिक़, नेपाल में 15 से 24 साल की उम्र के बीच के युवाओं की संख्या काफ़ी ज़्यादा है और इस वर्ग के पास रोज़गार के अवसर बेहद कम हैं.
वो कहते हैं, “नेपाल में एक और संकट यह है कि राजशाही ख़त्म होने के बाद कोई भी सरकार पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई है. यानी देश में राजनीतिक अस्थिरता बनी हुई है और भ्रष्टाचार के मामले भी उठते रहते हैं. अब तो सरकार ने युवाओं के बीच लोकप्रिय ऐप ही बंद कर दिए.”
नेपाल से बड़ी संख्या में लोग भारत और समेत कई देशों का रुख़ करते रहे हैं.
नेपाल में युवाओं के पास रोज़गार के अवसरों की कमी है, लेकिन उनका आरोप है कि हालिया प्रतिबंधों के बाद वे आपस में जुड़ भी नहीं पा रहे हैं.
युवाओं की भूमिका
पिछले साल बांग्लादेश में हुए आंदोलन में युवाओं की भूमिका सबसे अहम रही थी. वहीं श्रीलंका के आंदोलन में आर्थिक मुद्दे सबसे ज़्यादा हावी थे.
दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, “श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल, इन तीनों देशों के आंदोलनों की वजहें भले ही अलग-अलग रही हों, लेकिन इनमें समानता यह है कि सरकारी मानदंड लोगों की अपेक्षाओं से मेल नहीं खा रहे हैं.”
उनके मुताबिक़, “इन तीनों आंदोलनों में ‘युवा’ सबसे बड़ा फ़ैक्टर हैं. सत्ता बदलने का सबसे बड़ा असर युवाओं पर ही पड़ता है. यही वर्ग सरकार से नाराज़ है.”
हर्ष पंत का मानना है कि अगर सरकार युवाओं के आक्रोश को शांत करने की कोशिश नहीं करती है, तो यह आंदोलन और बड़ा हो सकता है.
हालाँकि उनका कहना है कि नेपाल के आंदोलन में न तो कोई नेता है और न ही कोई संगठन.
धनंजय त्रिपाठी भी इस राय से सहमत दिखते हैं.
उनका कहना है, “सरकार अगर समझदारी और लचीलापन दिखाए, तो इस आंदोलन को शांत किया जा सकता है. जिन लोगों की इसमें मौत हुई है, उसकी जाँच के लिए उच्चस्तरीय समिति बननी चाहिए. सरकार को युवाओं के प्रति संवेदनशीलता दिखानी चाहिए, जो फ़िलहाल नज़र नहीं आ रही.”
इससे पहले बांग्लादेश में सरकार ने आंदोलनकारियों से सख़्ती से निपटने की कोशिश की थी, लेकिन इससे युवाओं का आक्रोश और बढ़ गया.
बांग्लादेश का छात्र आंदोलन
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पिछले साल अगस्त में छात्र आंदोलन, हिंसा और सैकड़ों मौतों के बीच बांग्लादेश की तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को अपना पद और देश दोनों छोड़ना पड़ा था.
सरकारी नौकरियों में आरक्षण के ख़िलाफ़ शुरू हुआ यह छात्र आंदोलन, देशव्यापी प्रदर्शन में बदल गया और आख़िर में शेख़ हसीना की सरकार गिर गई.
इससे उनका लगातार 15 साल से चला आ रहा शासन और पाँचवाँ कार्यकाल अचानक समाप्त हो गया.
पिछले साल एक जुलाई से चले छात्र आंदोलन के बाद, 21 जुलाई को बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण को लगभग ख़त्म कर दिया.
लेकिन इस फ़ैसले के बावजूद छात्रों और लोगों का आक्रोश शांत नहीं हुआ और शेख़ हसीना के इस्तीफ़े की मांग तेज़ हो गई.
यूनिवर्सिटी और कॉलेजों से शुरू हुआ आंदोलन देश के कोने-कोने में पहुँच गया और विपक्षी दल भी सड़कों पर उतर आए.
छात्र संगठनों ने चार अगस्त से पूर्ण असहयोग आंदोलन शुरू करने की घोषणा की थी.
सरकार ने इन प्रदर्शनों का सख़्ती से दमन करने का प्रयास किया. गोलियां चलीं, सेना सड़कों पर उतरी, लेकिन लोग नहीं थमे.
चार अगस्त को हुई हिंसा में कम से कम 94 लोग मारे गए.
छात्र आंदोलन की शुरुआत से मौतों का आँकड़ा 300 को पार कर गया और पाँच अगस्त को शेख़ हसीना ने अपना पद छोड़ दिया.
साल 2022 में श्रीलंका में हुआ आंदोलन
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साल 2022 की शुरुआत में श्रीलंका में महंगाई तेज़ी से बढ़ी.
विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली हो गया. देश में ईंधन, खाद्य सामग्री और दवाओं की क़िल्लत होने लगी.
आज़ादी के बाद के इस सबसे बड़े आर्थिक संकट में लोगों को दिन में 13 घंटे तक बिजली कटौती का सामना करना पड़ा.
बहुत से लोगों ने इन हालात के लिए राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे और उनके परिवार को ज़िम्मेदार ठहराया. उनकी ख़राब नीतियों को विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली होने की वजह माना गया.
राजपक्षे परिवार पर भ्रष्टाचार और जनता के पैसों को ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करने के आरोप भी लगे.
हालाँकि उन्होंने इन आरोपों को ख़ारिज किया और तर्क दिया कि कोविड महामारी के बाद पर्यटन में गिरावट और यूक्रेन युद्ध के चलते तेल की क़ीमतें बढ़ने से संकट पैदा हुआ.
उस दौरान प्रदर्शन दिन-रात जारी रहते थे और शाम को भीड़ बढ़ जाती थी. आम लोगों और छात्रों से लेकर पादरियों और बौद्ध भिक्षुओं तक सभी इन प्रदर्शनों में शामिल होते.
देशभर में “गोटा गो होम” का नारा गूँजने लगा.
प्रदर्शनों ने श्रीलंका के तीन मुख्य समुदायों, सिंहला, तमिल और मुसलमानों को एकजुट कर दिया.
कुछ हफ़्तों बाद जब प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति भवन में घुस गए, तो यह आंदोलन अपने अंजाम तक पहुँचा.
कुछ दिन बाद गोटबाया राजपक्षे देश से भाग गए और सिंगापुर से अपना इस्तीफ़ा भेजा.
इस घटना को “अरागलाया” या जन संघर्ष की जीत के रूप में देखा गया.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित