जुलाई 2018 में तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर लोकसभा में शिक्षा का अधिनियम, 2009 के संशोधन पर अपनी बात रख रहे थे.
इस दौरान उन्होंने कहा कि कई सरकारी स्कूल अब मिड डे मील स्कूल बन गए थे क्योंकि इनमें शिक्षा और सीखना ग़ायब है.
उस समय केंद्र में नो डिटेंशन पॉलिसी थी जिसे अब केंद्र की मोदी सरकार ने पांचवीं और आठवीं कक्षा के लिए हटा दिया है.
मोदी सरकार के इस फ़ैसले के बाद अब पांचवीं और आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों को फ़ेल किया जा सकता है.
साल, 2010 में केंद्र की मनमोहन सरकार निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिकार, अधिनियम में संशोधन करके नो डिटेंशन पॉलिसी बनाई थी.
सोमवार को इस फ़ैसले के बारे में जानकारी देते हुए केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के सचिव संजय कुमार ने कहा कि केंद्र सरकार ने बच्चों में सीखने के परिणाम में सुधार लाने के इरादे से यह फै़सला लिया है.
संजय कुमार ने कहा, “हम लोगों ने यह निर्णय लिया है कि पांचवीं और आठवीं में हर प्रयास करने के पश्चात यदि डिटेंशन करने की आवश्यकता पड़े तो डिटेन किया जाए. लेकिन उसमें यह भी प्रावधान किया गया है कि किसी भी बच्चे को हमारे स्कूलों से निष्कासित नहीं किया जाए. हम एक्सेस तो चाहते हैं लेकिन राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत यह भी चाहते हैं कि हर बच्चे का लर्निंग आउटकम उम्दा हो.”
सरकार के इस फ़ैसले से केंद्र के अधीन चलने वाले लगभग 3000 स्कूल प्रभावित होंगे. इनमें केंद्रीय विद्यालय, जवाहर नवोदय विद्यालय और सैनिक स्कूल शामिल हैं.
तमिलनाडु सरकार ने केंद्र सरकार के इस फ़ैसले का विरोध किया है. तमिलनाडु के शिक्षा मंत्री अंबिल महेश पोय्यामोझी ने कहा है कि तमिलनाडु में आठवीं कक्षा तक नो-डिटेंशन पॉलिसी जारी रहेगी.
क्या है नो डिटेंशन पॉलिसी?
नो डिटेंशन पॉलिसी जब लाई गई थी तो उसका उद्देश्य स्कूलों में हो रहे ड्रॉपआउट को कम करना, सीखने की प्रक्रिया को आनंददायक बनाना और परीक्षा में फ़ेल होने के डर को दूर करना था.
शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 छह से 14 साल के बच्चे के लिए शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाता है और इसके सेक्शन 16 में नो डिटेंशन पॉलिसी का विस्तार से ज़िक्र है.
इसके मुताबिक़, “नो डिटेंशन का प्रावधान इसलिए बनाया गया है क्योंकि परीक्षाओं का इस्तेमाल अक्सर खराब अंक पाने वाले बच्चों को बाहर करने के लिए किया जाता है. एक बार ‘फेल’ घोषित होने के बाद, बच्चे या तो कक्षा दोहराते हैं या फिर स्कूल ही छोड़ देते हैं. बच्चे को एक कक्षा दोहराने के लिए मजबूर करना हतोत्साहित करने वाला होता है. आरटीई अधिनियम में ‘नो डिटेंशन’ प्रावधान का मतलब बच्चों की शिक्षा का आकलन करने वाली प्रक्रियाओं को छोड़ना नहीं है.”
नो डिटेंशन पॉलिसी के तहत किसी भी छात्र को तब तक फ़ेल नहीं किया जा सकता है, जब तक कि वह कक्षा एक से लेकर आठवीं तक प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर लेता है.
इसका मतलब है कि अगर कोई छात्र फ़ेल होता है तो उसे अगली क्लास में प्रमोट कर दिया जाएगा.
इस पॉलिसी के तहत छात्रों का मूल्यांकन पारंपरिक परीक्षा प्रणाली से अलग सतत और व्यापक मूल्यांकन (सीसीई) के तहत किया जाता है. इसमें पेपर-पेंसिल टेस्ट, चित्र बनाना, पढ़ना और मौखिक रूप से अभिव्यक्ति आदि शामिल है.
नए नियम में क्या है?
साल 2019 में शिक्षा के अधिकार अधिनियम में संशोधन किया गया था. इसके तहत राज्य सरकारों को यह अधिकार दिया गया था कि वो अपने राज्य में पांचवीं और आठवीं के बच्चों के लिए साल के अंत में वार्षिक परीक्षा आयोजित करवा सकती हैं.
अगर कोई छात्र इस परीक्षा में फ़ेल हो जाता है तो उसे उस कक्षा में रोक सकती हैं.
2018 में आरटीई अधिनियम में संशोधन का विधेयक लोकसभा में पेश किया गया था और तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने कहा था, “यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण बिल है और अधिकांश राज्य सरकारों ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया है. यह हमारी प्रारंभिक शिक्षा में जवाबदेही लाता है. कई सरकारी स्कूल केवल मिड डे मील स्कूल बन गए हैं, क्योंकि शिक्षा और सीखना गायब है.”
संशोधन के बाद से लेकर अब तक 15 से ज़्यादा राज्य नो डिटेंशन पॉलिसी को हटा चुके हैं. इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, बिहार, गुजरात, पंजाब और दिल्ली जैसे राज्य शामिल हैं.
वहीं आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, केरल और मणिपुर जैसे राज्यों में अभी नो डिटेंशन पॉलिसी लागू है.
नए नियमों में कहा गया है कि कक्षा पांच या आठ का कोई छात्र साल के अंत में होने वाली परीक्षा में फ़ेल होता है तो उसे एक और मौक़ा दिया जाएगा.
परीक्षा का परिणाम आने के बाद दो महीने के भीतर पुन: परीक्षा का मौक़ा दिया जाएगा. अगर छात्र इस परीक्षा में भी फ़ेल हो जाता है तो उसे रोका जा सकता है.
ऐसे मामले में क्लास टीचर बच्चे के साथ-साथ अगर ज़रूरत है तो माता-पिता को भी गाइड करेंगे.
नियम में यह भी कहा गया है कि स्कूल के प्रमुख उन पीछे रहने वाले बच्चों की लिस्ट बनाएंगे और इसके कारण का जानने का प्रयास करेंगे.
परीक्षा और पुनः परीक्षा बच्चे के समग्र विकास को हासिल करने के लिए योग्यता-आधारित परीक्षाएँ होंगी न कि याददाश्त आधारित.
नियमों में स्पष्ट किया गया है कि प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक किसी भी बच्चे को निष्कासित नहीं किया जाएगा.
क्या कहते हैं आंकड़ें?
शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 का असर स्कूली छात्रों के एडमिशन में और पढ़ने-लिखने की क्षमता पर देखा जा सकता है.
एन्युअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (एएसईआर) बच्चों के एडमिशन के साथ बुनियादी पढ़ने और गणित समझने की क्षमता से संबंधित सर्वे है. यह सर्वे देश के लगभग हर ज़िले में एक स्थानीय संस्था के वॉलिंटियर्स के द्वारा किया जाता है.
एएसईआर के आंकड़ों के अनुसार, स्कूलों में दाखिला लेने वाले 7 से 16 साल की आयु के बच्चों की संख्या में वृद्धि हुई है.
आंकड़ों के मुताबिक़, 2008 में 7 से 16 वर्ष की आयु के लगभग 5.7 प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं जाते थे, यह संख्या 2022 में घटकर 2.3% रह गई.
लेकिन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पढ़ने और अंकगणितीय क्षमता के आधार पर सीखने के स्तर में भी इस अवधि के दौरान गिरावट आई है.
2008 में कक्षा 5 के 56 प्रतिशत छात्र कक्षा दो की किताब पढ़ सकते थे और 2010 में 53.4 फ़ीसद छात्र ऐसा कर पाए लेकिन उसके बाद के सालों में इस आंकड़े तक दोबारा नहीं पहुंचा जा सका.
2022 में कक्षा 5 के सिर्फ़ 42.8 फ़ीसद छात्र ही कक्षा दो की किताब पढ़ सकते थे.
अगर कक्षा 8 के छात्रों के लिए सीखने के आंकड़े देखें तो इसमें और भी गिरावट देखने को मिलती है.
2008 में 84.8 फ़ीसद छात्र और 2010 में 82.9 फ़ीसद छात्र ऐसे थे जो कक्षा 2 की किताब पढ़ सकते थे लेकिन 2022 में यह आंकड़ा लगभग 70 प्रतिशत पर आ गया है.
समय के साथ बच्चों की गणितीय क्षमता पर भी असर पड़ा है.
सरकारी और निजी स्कूलों को मिलाकर बात करें तो 2008 में कक्षा 5 में पढ़ने वाले पांच में से दो छात्र भाग कर पाते थे लेकिन 2022 आते-आते यह संख्या चार में से सिर्फ़ एक रह गई.
नो डिटेंशन पॉलिसी की आलोचना
जब से नो डिटेंशन पॉलिसी लागू हुई थी तब से इस पर पुनर्विचार की बातें उठती रहती थीं. इसके प्रमुख कारण बताए जाते थे-
- पॉलिसी को सपोर्ट के करने के लिए शिक्षा प्रणाली की कमियां
- फ़ेल न करने की नीति बच्चों को कड़ी मेहनत करने से हतोत्साहित करती है
- शिक्षकों की जवाबदेही में कमी और बच्चों को सिखाने में कम गंभीरता
- सीसीई के उचित कार्यान्वयन और शिक्षक प्रशिक्षण के साथ इसके एकीकरण की कमी
2015 में सभी राज्यों से नो डिटेंशन पॉलिसी पर सुझाव मांगे गए थे. तब अधिकांश राज्यों ने नीति के मौजूदा स्वरूप में संशोधन का सुझाव दिया था.
साल 2023-24 से दिल्ली सरकार ने सरकारी स्कूलों में पांचवीं और आठवीं कक्षा में नो डिटेंशन पॉलिसी को लागू किया था. इसके बाद आठवीं कक्षा के जो परीक्षा परिणाम आये थे उनमें लगभग 20 प्रतिशत छात्रों को फ़ेल होने के कारण आगे की कक्षा में नहीं जाने दिया गया था. जबकि कक्षा पांच के लिए यह आंकड़ा लगभग एक प्रतिशत था.
एक आरटीआई के जवाब में दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय ने बताया था कि कुल 2.34 लाख छात्रों ने कक्षा आठ की परीक्षा दी थी और इनमें से 46,662 छात्रों को उसी क्लास में रोक दिया गया था.
हालांकि नो डिटेंशन पॉलिस के पक्ष में तर्क देते हुए कहा जाता है कि
- इससे फ़ेल होने के डर के बिना ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे स्कूल आएंगे
- बच्चे काम पर जाने की वजह स्कूल आते हैं.
- लड़कियों के स्कूल न छोड़ने की एक बड़ी वजह
बच्चों पर क्या असर पड़ेगा?
प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के निदेशक रहे हैं.
शिक्षा मंत्रालय के फ़ैसले पर कृष्ण कुमार कहते हैं, “मेरी समझ में यह शिक्षा के अधिकार क़ानून में थोड़ा सा विचलन है क्योंकि पुराने नियम के अनुसार हर साल हर बच्चे का सतत प्रक्रिया के तहत मूल्यांकन करना होता था. अब नए नियम के हिसाब से अगर किसी बच्चे को रोक लेते हैं तो उसका पूरा एक साल बर्बाद हो जाता है. आम तौर पर बच्चा एक या दो विषयों में कमजोर होता है तो उस विषय के चलते उसे रोक लिया जाता है.”
कृष्ण कुमार का कहना है, “पहले भी दिल्ली जैसे कई राज्य ऐसा कर चुके हैं. इस छोटी सी उम्र में परीक्षा लेना मेरी समझ में संसद से पारित हुए क़ानून में विचलन ही है और यह एक अच्छा संकेत नहीं है. अभी तक हर बच्चे का आठ वर्ष तक स्कूल में रहने का अधिकार होता था और यह मूलभूत अधिकार था.”
दिल्ली पेरेंट्स असोसिएशन की अध्यक्ष अपराजिता गौतम इस फ़ैसले को सही ठहराती हैं और उनका मानना है कि इससे पढ़ाई का स्तर सुधरेगा.
अपराजिता गौतम कहती हैं, “पिछले कुछ समय से बच्चे पढ़ाई को गंभीरता से नहीं ले रहे थे क्योंकि उन्हें पता है कि आठवीं तक उन्हें कोई फेल नहीं कर सकता है. दूसरी ओर शिक्षक भी गंभीर नहीं थे क्योंकि बच्चे तो पास हो ही जाएंगे. इन दोनों चीज़ों से बच्चों की शिक्षा पर सीधे असर पड़ रहा था. ज़्यादातर ऐसी समस्याएं सरकारी स्कूलों में देखी गई हैं और प्राइवेट की तुलना में सरकारी स्कूल की संख्या ज़्यादा है.”
हालांकि अपराजिता गौतम को इस बात की आशंका है कि प्राइवेट स्कूल इसे आपदा में अवसर की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं.
सरोज यादव एनसीईआरटी की पूर्व डीन रही हैं और उनका कहना है कि वो सीसीई प्रणाली के पक्ष में हैं.
सरोज यादव कहती हैं, “ये जो फ़ेल होने का डर होता है वो बच्चे के मन में बैठ जाता है अगर वो फ़ेल होता है. इसके बाद फ़ेल होने का एक साइन बच्चे के साथ पूरी ज़िंदगी भर चिपका रहता है. इसलिए ज़रूरत थी कि नियम को और मज़बूती से लागू किया जाता. ऐसा कोई भी बच्चा नहीं है जो सीख नहीं सकता है.”
सरोज यादव का मानना है कि सिस्टम को सुधारने की ज़रूरत है लेकिन हम उसे दोबारा मौक़े देने की बात को प्राथमिकता दे रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित