
“वह बहुत तेज़-तर्रार और सख़्त जवान थे. एक तस्वीर में वह सुभाष चंद्र बोस जैसा लिबास पहने हुए दिखते हैं और दूसरी तस्वीर में वह चुस्त पतलून और बूट पहने हुए थे.”
पंजाब के होशियारपुर ज़िले के ऐतिहासिक गाँव ‘ढोलबाहा’ के रहने वाले निर्मल सिंह अपने दादा की शारीरिक बनावट और व्यक्तित्व के बारे में बता रहे थे.
निर्मल सिंह के दादा, हवलदार धीरज सिंह, ढोलबाहा गाँव के उन 73 युवाओं में से एक थे, जिन्होंने पहले विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से जंग में हिस्सा लिया था.
हवलदार धीरज सिंह सहित ढोलबाहा गाँव के इन 73 युवाओं में से आठ ज़िंदा वापस नहीं आ पाए थे.
युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़ना इस गाँव के युवाओं की दशकों से ख़ास पहचान रही है.
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आज भी ख़ूबसूरत और प्राचीन ‘ढोलबाहा’ गाँव का हर सदस्य प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लेने वाले अपने वीरों की बहादुरी की विरासत को संजोए हुए है.
1947 में भारत की आज़ादी के बाद भी इस गाँव के युवाओं ने सशस्त्र बलों में शामिल होने की परंपरा को जारी रखा है.

गाँव वालों के अनुसार इस पुराने गाँव में शायद ही कोई ऐसा घर हो जिसमें कोई पूर्व या वर्तमान सैनिक न हो. यही वजह है कि ‘ढोलबाहा’ को ‘फ़ौजियों का गांव’ भी कहा जाता है.
पंजाब सरकार के पुरातत्व विभाग के अनुसार ‘ढोलबाहा’ एक प्राचीन गाँव है और इस गाँव में अतीत में हुई खुदाई के दौरान सैकड़ों वर्ष पुरानी मूर्तियां और पुरातात्विक अवशेष मिले हैं.
पुरातत्व विभाग के अनुसार सदियों पहले भी यहां आबादी थी और इस गाँव से मिले कुछ भग्नावशेषों के बारे में दावा किया गया है कि उनका संबंध हज़ारों वर्ष पुराने प्लाइस्टोसीन युग से है.
गाँव में एक म्यूज़ियम भी है जहां गांव से मिली चीज़ों और मूर्तियों को रखा गया है.
गाँव वालों के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लेने वाले इस गाँव के कुछ सैनिकों के परिवार 1947 के विभाजन के बाद पाकिस्तान भी चले गए थे.
पहले विश्व युद्ध के फ़ौजियों का स्मारक

हवलदार धीरज सिंह की तीसरी पीढ़ी अब भी गाँव में बसी हुई है.
धीरज सिंह के पोते निर्मल सिंह का कहना है कि उन्होंने अपने दादा की ब्रिटिश इंडियन आर्मी की वर्दी में एक तस्वीर देखी थी जिसमें वह बिल्कुल सुभाष चंद्र बोस की तरह लग रहे थे.
निर्मल के अनुसार यही तस्वीर उनके दादा की आख़िरी निशानी थी.
उन्होंने बताया, “दादा की यह तस्वीर फ़्रेम में हमारे कमरे की दीवार पर टंगी होती थी. कई साल पहले हमारे घर में आग लग गई जिसमें बहुत सारा सामान जल गया और दादा की तस्वीर भी उसी आग में जलकर राख हो गई.”
‘ढोलबाहा’ में प्रथम विश्व युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों का एक स्मारक भी मौजूद है. इस स्मारक के स्तंभों पर मारे गए सैनिकों के नाम दर्ज हैं.
इस स्मारक की देखभाल के लिए एक समिति बनाई है जो पिछले कई वर्षों से इसकी देखरेख कर रही है. रिटायर्ड सूबेदार मेजर शक्ति सिंह इस समिति के अध्यक्ष हैं.
सैन्य इतिहास के विशेषज्ञ मंदीप बाजवा का कहना है, “यह गाँव बहुत मशहूर है. गाँव में बनाए गए युद्ध स्मारक में लगी तख़्तियां इसका जीता-जागता सबूत हैं.”
“प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने उन सभी गाँवों को सम्मान देने का फ़ैसला किया जिनके युवा ब्रिटिश इंडियन आर्मी की तरफ़ से युद्ध के मोर्चों का हिस्सा बने. इन सभी गाँवों में यादगार की तख़्तियां लगाई गईं. इन तख़्तियों पर गाँवों के योगदान के बारे में लिखा गया.”
हिम्मत और जज़्बा
हिम्मत और जज़्बे की कहानी ‘ढोलबाहा’ गाँव के किसी एक परिवार तक सीमित नहीं बल्कि यहां के घर-घर की यही कहानी है.
गाँव के सरपंच मंगत राम के पिता भी फ़ौज में थे और उनकी मौत ड्यूटी के दौरान ही हुई थी.
मंगत राम का कहना है कि इस गाँव में 623 घर हैं और यहां 317 रिटायर्ड फ़ौजी हैं. यहां के लगभग 306 युवा इस समय भी सेना में सेवाएं दे रहे हैं.
वह कहते हैं, “लगभग हर घर में एक रिटायर्ड या कार्यरत सैनिक मौजूद है. मेरे पिता भी सेना में थे. जब हमारे गाँव का नाम फ़ौजियों के गाँव के तौर पर लिया जाता है तो हमें फ़ख़्र महसूस होता है. यह बहुत गर्व की बात है कि एक गाँव के इतने लोग युद्ध के मोर्चे पर जा चुके हैं. यह इस गाँव का शानदार इतिहास है.”
मंगत राम कहते हैं, “हमें इस सब पर बहुत गर्व है. लेकिन अगर किसी परिवार का कोई सदस्य शहीद हो जाता है तो उसका दर्द केवल वही जानता है जिस पर यह बीतता है.”
हवलदार धीरज सिंह की तीसरी और चौथी पीढ़ी के युवा भी भारतीय सेना और सुरक्षा बलों में अपना योगदान दे रहे हैं.
निर्मल सिंह ने बताया, “मेरा बड़ा भाई फ़ौज में लांस नायक है और मेरा भतीजा सेना से सूबेदार के पद से रिटायर हुआ है. मेरा एक और भतीजा बीएसएफ़ में हवलदार के पद पर तैनात है.”
सशस्त्र बलों को चुनने की वजह क्या है?
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वॉर मेमोरियल कमेटी के अध्यक्ष रिटायर्ड सूबेदार मेजर शक्ति सिंह का कहना है कि गाँव वालों के सशस्त्र बलों को चुनने के पीछे रोज़गार और देशप्रेम का जज़्बा मूल कारण हैं.
वे कहते हैं, “गाँव में रोज़गार के ज़्यादा साधन नहीं हैं. एक दूरदराज़ इलाक़ा होने की वजह से यहां खेती के मौक़े भी बहुत कम हैं.”
“फ़ौज की नौकरियां रोज़गार का मुख्य साधन हैं. देशभक्ति और देश की सेवा के जज़्बे ने भी युवाओं को सशस्त्र बलों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और धीरे-धीरे यह एक रुझान बन गया.”
उनका कहना है कि गाँव वालों को उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं मिली है. कॉलेज भी गांव से काफ़ी दूरी पर हैं.
उन्होंने कहा, “इसी वजह से लोग दसवीं क्लास पास करने के बाद फ़ौज में भर्ती होना पसंद करते हैं. सेना में जीवन आर्थिक रूप से सुरक्षित रहता है और समाज में इज़्ज़त भी बढ़ती है, इसलिए वह सेना को चुनते हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित