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पेड़ों के पतझड़ वाले रंगों की रासायनिक प्रक्रिया तो वैज्ञानिक समझ चुके हैं, लेकिन अब भी इस बात पर बहस जारी है कि पेड़ों ने इतने चमकीले रंग क्यों विकसित किए.
अक्तूबर के महीने में जब मैं न्यूयॉर्क के डचेस काउंटी से गुज़र रहा था, तो सड़क के दोनों ओर सुनहरे और लाल पत्तों की झिलमिलाहट दिखाई दी. धूप पड़ते ही ये रंग आतिशबाज़ी की तरह चमक उठते थे. ये नज़ारा आने वाली ठंड की आहट दे रहा था.
थोड़ा आगे जाकर रंग उतने चमकीले नहीं थे. कोल्बी कॉलेज की इकोलॉजिस्ट अमांडा गैलीनेट कहती हैं, “इस बार कुछ पौधे बहुत जल्दी रंग बदल रहे हैं और सूख रहे हैं क्योंकि वे सूखे से प्रभावित हैं.”
वो बताती हैं कि उनकी खिड़की से दिखने वाले कई पेड़ों के पत्ते पहले ही भूरे रंग के हो चुके हैं.
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अटलांटिक के पार, ब्रिटेन में भी हर साल पतझड़ के मौसम में पेड़ों के पत्तों का रंग बदलता है, लेकिन वहाँ पत्तों का रंग लाल के मुक़ाबले पीला ज़्यादा दिखता है.
यूनिवर्सिटी ऑफ़ लिंकन में इकोलॉजिस्ट डेविड विल्किन्सन बताते हैं, “ब्रिटेन में ज़्यादातर रंगीन पेड़ बाहरी प्रजातियों के हैं.”
उदाहरण के तौर पर सुमैक पेड़ चमकीला लाल रंग देता है, लेकिन यह भूमध्यसागर, एशिया और उत्तरी अमेरिका से आया हुआ है.
वहीं, जापान में मेपल के लाल, पीले और बैंगनी रंग पूरे नज़ारे को बदल देते हैं. पतझड़ के इन रंगों को देखने के लिए हर साल हज़ारों सैलानी जापान पहुँचते हैं.
दुनिया के कई हिस्सों में अब “लीफ़ पीपिंग” यानी पत्तों के रंग बदलने का नज़ारा देखना एक लोकप्रिय आकर्षण बन गया है.
पेड़ों में ये बदलाव क्यों आता है?
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हम भले ही हर साल पतझड़ के इन ख़ूबसूरत रंगों को देखकर मोहित हो जाते हैं, लेकिन अब तक वैज्ञानिक पूरी तरह यह नहीं समझ पाए हैं कि पेड़ों में आख़िर यह बदलाव क्यों आता है.
जीव विज्ञानियों को इस बात की पूरी समझ है कि मौसम बदलने पर पत्तों से हरा रंग यानी क्लोरोफ़िल कैसे ख़त्म होता है और उसकी जगह लाल, पीले या नारंगी रंग उभर आते हैं.
लेकिन यह रहस्य अब भी बना हुआ है कि इन पेड़ों ने ये रंग विकसित ही क्यों किए.
इस विषय पर वैज्ञानिकों के बीच दशकों से बहस चल रही है. लेकिन इससे पहले कि हम उन सिद्धांतों को समझें, यह जानना ज़रूरी है कि पत्तों में यह प्रक्रिया होती कैसे है.
जो पत्ते पीले हो जाते हैं, वे वास्तव में हमेशा से ही पीले होते हैं. बस उनके हरे क्लोरोफ़िल के नुक़सान के बाद उनका असली रंग दिखाई देने लगता है.
यह रंग कैरोटिनॉइड नाम के बायोकेमिकल पिगमेंट से आता है. जब पेड़ सर्दियों की तैयारी करते हैं, तो पत्तों का पोषक तत्व वापस पौधों में चला जाता है और हरा रंग मिट जाता है.
जो पत्ते लाल या बैंगनी रंग के होते हैं, उनमें एक अलग प्रक्रिया होती है. उनका रंग क्लोरोफ़िल के नुक़सान और एंथोसाइनिन नामक यौगिक बनने से आता है. यह पदार्थ कई फलों और सब्ज़ियों में भी पाया जाता है.
इवॉल्युशनरी बायोलॉजी के अनुसार, चूंकि ये बदलाव हज़ारों सालों से दुनिया के तमाम पेड़ों में बने हुए हैं, इसलिए माना जाता है कि इन रंगों से पेड़ों को किसी न किसी तरह का फ़ायदा ज़रूर होता होगा.
जेनेटिक रिसर्च बताता है कि पेड़ों ने पतझड़ी रंगों वाले पिगमेंट काफ़ी बाद में विकसित किए, जब वे पहले से ही क्लोरोफ़िल को दोबारा अवशोषित करना सीख चुके थे.
एक प्रमुख सिद्धांत यह कहता है कि लाल पत्तों का रंग असल में कीटों से बचाव का एक संकेत हो सकता है, यानी पेड़ों ने यह रंग इसलिए विकसित किया कि कीड़े-मकोड़े उनसे दूर रहें.
पत्तों के रंग बदलने का संभावित कारण
एक प्रमुख सिद्धांत के मुताबिक़, पतझड़ में पत्तों का रंग बदलना फ़ोटोप्रोटेक्शन थ्योरी यानी सूरज की रोशनी से सुरक्षा की प्रक्रिया का हिस्सा है.
इसके मुताबिक़, पत्तों में बनने वाले पिगमेंट्स एक तरह का सनस्क्रीन बनाते हैं, जो पत्तों को उस समय बचाते हैं जब वे सूखने लगते हैं.
इन पिगमेंट्स में शामिल एंथोसाइनिन शक्तिशाली एंटी–ऑक्सिडेंट होते हैं, जो सूरज की रोशनी से होने वाले नुक़सान से पेड़ की रक्षा करते हैं.
वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी की जीव विज्ञानी सुसान रेनर कहती हैं, “रंग बदलना ज़्यादातर उत्तरी गोलार्ध की प्रजातियों में देखा जाता है और यहां भी बहुत कम पेड़ वास्तव में रंग बदलते हैं.”
एक स्टडी में पाया गया कि दुनिया की 2,368 पत्ते गिराने वाली प्रजातियों में से 290 लाल और 378 पीली हो जाती हैं. इससे पता चलता है कि लाल और पीले रंग का विकास कई बार स्वतंत्र रूप से हुआ है.
लाल पत्तों वाली ज़्यादातर प्रजातियां पूर्वी उत्तर अमेरिका और पूर्वी एशिया में पाई जाती हैं. अनुमान के मुताबिक़, उत्तर अमेरिका में 89, जबकि पूर्वी एशिया में 152 पेड़ लाल रंग लेते हैं.
इसके उलट, उत्तरी यूरोप में केवल 24 प्रजातियां ऐसी हैं जिनके पत्ते पतझड़ में लाल रंग दिखाते हैं.
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यह मान लेना आसान होगा कि लाल पत्तियों की उपस्थिति का पैटर्न शायद तापमान में साधारण अंतर के कारण होता है. हालांकि, कुछ रिसर्च के मुताबिक़ उत्तरी अमेरिका और पूर्वी एशिया में यूरोप की तुलना में सोलर रेडिएशन अधिक होता है.
रेनर के रिसर्च से पता चलता है कि ज़्यादा रेडिएशन, तापमान में अचानक उतार-चढ़ाव और पौधों के बढ़ने का छोटा सीज़न ये सारी वजहें पूर्वी उत्तरी अमेरिका में पतझड़ के मौसम की पत्तियां ख़ास तौर पर अधिक चमकीली क्यों होती हैं.
यह वहाँ के पेड़ों को अपनी पत्तियों के गिरने से पहले उनसे पोषक तत्वों को दोबारा अवशोषित करने का अधिक समय देता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि क्लोरोफ़िल के बिना, प्रकाश पत्तियों में ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस पैदा कर सकता है जिससे उनकी कोशिकाएँ मर सकती हैं.
रेनर कहती हैं, “इसे रिएक्टिव ऑक्सीजन डैमेज कहते हैं. सितंबर और अक्तूबर में पूर्वी उत्तरी अमेरिका में बहुत अधिक प्रकाश आता है.”
एंथोसाइनिन इस हानिकारक सूर्य के प्रकाश को रोकने और अपवर्तित करने में मदद करते हैं, जिससे उन्हें बनाने वाले पेड़ों को सर्दियों से पहले के अंतिम महीनों में महत्वपूर्ण सुरक्षा मिलती है. पीली पत्तियों में मौजूद कैरोटिनॉइड भी यह फ़ायदा देते हैं, हालांकि लाल पत्तियों जितना नहीं.
लेकिन इस पर अभी बहस जारी है.
विल्किन्सन कहते हैं, “ऐसी कोई फ़ोटो प्रोटेक्शन स्टडी नहीं है, जो इस जवाब को साफ़ तौर पर दिखाए. हमारी समझ कई स्टडीज़ पर आधारित है, जो एक ही बात सुझाती हैं.”
2004 की एक स्टडी से यह भी पता चलता है कि एक पेड़ कम तापमान पर या पतझड़ के मौसम में बार-बार पड़ने वाली ठंड के दौरान अधिक एंथोसाइनिन बना सकता है. इससे यह लगता है कि एंथोसाइनिन पत्तियों को ठंड से बचाने में भी मदद करता है.
वहीं इंंसेक्ट को-इवॉल्यूशन थ्योरी बताती है कि पेड़ों ने अपने पत्तों के रंग बदलने के लिए विकास किया है ताकि वे पत्ती खाने वाले कीड़ों, जैसे एफिड्स, को चेतावनी दे सकें.
एफिड्स नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े हैं, और ये पेड़ों को काफ़ी नुकसान पहुँचा सकता है, इसलिए इन कीड़ों को दूर भगाने के लिए रंगों का इस्तेमाल सही लगता है. लेकिन पिछले कुछ सालों में कई एकेडमिक पेपर्स में इस थ्योरी पर सवाल उठाए गए हैं.
इसमें एक सवाल यह है कि एफिड्स रंगों को कैसे देखते हैं और उन पर कैसे प्रतिक्रिया करते हैं. एफिड्स, टिड्डियों और कैटरपिलर जैसे दूसरे पत्ती खाने वाले कीड़ों की आँखों में ऐसे रिसेप्टर्स नहीं होते जो उन्हें इंसानों की तरह लाल रंग को देखने में सक्षम बनाते हैं. उन्हें यह रंग धुंधला, ग्रे या काला लगता है.
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कुछ लोगों का मानना है कि एफिड्स लाल पत्तियों से सिर्फ़ इसलिए बचते हैं क्योंकि वे मृत या मरती हुई दिखाई देती हैं, और इसलिए ये खाने का एक खराब स्रोत या अंडे देने के लिए उपयुक्त जगह नहीं होतीं.
विशेषज्ञ इसे कैमोफ़्लाज़ थ्योरी कहते हैं. यह एक संकेत माना जाता है, लेकिन ऊर्जा और संसाधनों के लिहाज़ से लाल पिगमेंट बनाना पेड़ के लिए आसान नहीं होता है.
पीला रंग एफिड्स जैसे कीड़ों के लिए भी आकर्षण का एक कारक साबित हुआ है. यह उनकी आँखों में उन्हीं रिसेप्टर्स को सक्रिय करता है जो हरा रंग देखते हैं. दिलचस्प बात यह है कि को-इवॉल्यूशन थ्योरी पर ओरिजनल पेपर पब्लिश करने वाले वैज्ञानिक डब्ल्यूडी हैमिल्टन ने पत्तियों के पीलेपन को एफिड्स के पलने-बढ़ने से सकारात्मक रूप से जुड़ा पाया.
इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, रेनर को नहीं लगता कि को-इवॉल्यूशन थ्योरी सही है. हालांकि, अमांडा गैलीनेट इतनी आश्वस्त नहीं हैं.
“मुझे लगता है कि इस परिकल्पना का समर्थन करने वाले कुछ निष्कर्ष अभी भी काफ़ी सही हैं.”
विल्किन्सन का मानना है कि दोनों थ्योरीज़ अपने आप में सही हो सकती हैं.
“यह मानने का कोई ठोस कारण नहीं है कि यह फ़ोटोप्रोटेक्शन या संकेतन ही होना चाहिए. यह संभव है कि दोनों ही इसमें शामिल हों.”
पत्तों के रंग बदलने पर इंसान और मौसम का असर
पत्तों के रंग बदलने को लेकर कुछ और थ्योरी भी हैं. कुछ रिसर्चर्स का मानना है कि लाल रंग के एंथोसाइनिन पिगमेंट असल में सूरज की रोशनी से बचाव के लिए नहीं, बल्कि पत्तों में मौजूद कार्बोहाइड्रेट को अलग करने के लिए बनते हैं.
एक और फ़ैक्टर है- इंसान. हज़ारों सालों से इंसानों ने अपने आस-पास के पेड़ों की प्रजातियों को बदलने में अहम भूमिका निभाई है.
शायद हमने कम रंगीन पेड़ों को काट दिया और उन पेड़ों के बीज लगाए जिनके पत्ते पतझड़ में ज़्यादा चमकीले रंग लेते हैं.
इस तरह हमने अपने बगीचों और जंगलों में अनजाने में ही पत्तों के रंग पर ‘सिलेक्टिव प्रेशर’ बनाया. वैज्ञानिकों का मानना है कि यह पेड़ों के रंग विकसित होने की प्रक्रिया में हाल ही का बदलाव हो सकता है.
कुछ सबूत यह भी बताते हैं कि पौधे अब शहरी इलाकों की गर्मी जैसी नई परिस्थितियों के हिसाब से ख़ुद को ढाल रहे हैं, जिससे उनके पत्तों में लाल रंग और भी गहरा दिखने लगा है. संभव है कि पेड़ों में भी यही प्रक्रिया चल रही हो.
हालांकि इसका जवाब अभी रिसर्च को देना बाकी है, लेकिन एक बात पर सभी वैज्ञानिक सहमत हैं कि जलवायु परिवर्तन पत्तों और उनके रंग बदलने के समय को प्रभावित कर रहा है.
मेन की इकोलॉजिस्ट अमांडा गैलीनेट ने बताया कि इस बार गर्म पतझड़ और सूखे (दोनों ही जलवायु परिवर्तन से जुड़े हैं) की वजह से पेड़ों में रंग का बदलना फीका और असमान दिखा.
वह कहती हैं, “जिन पौधों की जड़ें ज़मीन में कम गहराई तक जाती हैं, वे सूखे से ज़्यादा प्रभावित होते हैं. अफ़सोस की बात है कि यही पौधे पतझड़ में सबसे सुंदर रंग दिखाते हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित