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पाकिस्तान में पिछले साल अक्तूबर में 26वें संविधान संशोधन को मंजू़री मिलने के बाद अब सरकार 27वां संविधान संशोधन लाने पर विचार कर रही है.
इसमें शामिल जिन अहम बातों पर चर्चा चल रही है, उनमें देश में संवैधानिक अदालत बनाने, राष्ट्रीय वित्त आयोग के तहत प्रांतीय हिस्सेदारी कम करने पर प्रतिबंध हटाने और सशस्त्र बलों से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 243 में बदलाव शामिल हैं.
पाकिस्तान की सीनेट में 27वें संशोधन का मसौदा पेश किया गया था, जिसके बाद सीनेट के अध्यक्ष ने इसे विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति को भेज दिया है.
शनिवार को सीनेट के अध्यक्ष यूसुफ रज़ा गिलानी की अध्यक्षता में हुई बैठक में संघीय क़ानून मंत्री आज़म नज़ीर तारड़ ने सदन में 27वें संविधान संशोधन का मसौदा पेश किया था.
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वहीं सत्ताधारी गठबंधन में अहम सहयोगी, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की केंद्रीय कार्यकारी समिति (सीईसी) की गुरुवार को बैठक हुई जिसमें पार्टी ने कुछ मुद्दों पर सहमति जताई.
इसमें पार्टी ने सेना से संबंधित अनुच्छेद 243 में प्रस्तावित संशोधनों का समर्थन करने की बात की है.
हालांकि पार्टी ने प्रांतों की हिस्सेदारी के संबंध में एनएफ़सी फ़ॉर्मूले में बदलाव के सरकार के प्रस्तावों को ख़ारिज कर दिया है.
पाकिस्तान में नेशनल फ़ाइनेंस कमिशन (एनएफ़सी) संघ और चारों प्रांतों (पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर पख़्तूनख़्वा) के बीच राजस्व वितरित करने के एक मैकेनिज़्म की सिफ़ारिश करता है.
संविधान के अनुसार हर पांच साल में राष्ट्रपति इसका गठन करते हैं. इसमें वित्त मंत्री, प्रांतीय सरकारों के वित्त मंत्री और प्रांतों के गवर्नरों के साथ परामर्श के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए गए प्रतिनिधि शामिल होते हैं.
किन बातों पर पीपीपी सहमत है?

पीपीपी के चेयरमैन बिलावल भुट्टो ज़रदारी ने शुक्रवार शाम को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें उन्होंने कहा कि प्रस्तावित संविधान संशोधन के तीन बिंदुओं पर पार्टी के नेताओं की सहमति बनी है.
उन्होंने कहा, “अनुच्छेद 243 में संशोधन का पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी समर्थन करेगी और इसके पक्ष में वोट करेगी.”
बिलावल भुट्टो ने कहा, “जहां तक संवैधानिक अदालत की स्थापना की बात है तो यह हमारी पार्टी के घोषणापत्र का हिस्सा रहा है और ‘चार्टर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ का भी हिस्सा है. पार्टी सैद्धांतिक रूप से इसका समर्थन करती है. इस पर अभी हम सरकार से बातचीत करेंगे ताकि हम मिलकर संवैधानिक अदालतों के साथ-साथ ‘चार्टर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ के बाक़ी बिंदुओं पर भी आम सहमति बना सकें. “
बिलावल भुट्टो ने कहा, “इसके अलावा, जजों के तबादले के मामले पर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की राय यह है कि जिस अदालत से तबादला हो रहा है और जिस अदालत में तबादला हो रहा है, उन अदालतों के मुख्य जजों (चीफ़ जस्टिस) को ट्रांसफ़र कमिशन का सदस्य (वोटिंग मेंबर) बनाया जाना चाहिए.”

साथ ही बिलावल भुट्टो ने कहा कि संवैधानिक संशोधन के प्रस्ताव में शामिल बाकी बिंदुओं पर पार्टी की आम सहमति नहीं बनी है. इनमें दोहरी नागरिकता और चुनाव आयोग से संबंधित संशोधन हैं.
उन्होंने कहा कि पार्टी चाहती है कि 27वें संविधान संशोधन की प्रक्रिया के दौरान ‘चार्टर ऑफ़ डेमोक्रेसी’ के अन्य प्रावधानों को भी आगे बढ़ाया जाए और उन पर भी काम किया जाए.
प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि अगर अनुच्छेद 243 में संशोधन से नागरिकों के अधिकारों को नुक़सान पहुंचता तो वो खुद इसका विरोध करते.
उन्होंने कहा, “मैं इसका समर्थन इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि यह इन चीज़ों को नुक़सान नहीं पहुंचाता.”
उन्होंने भारत के साथ हुए पाकिस्तान के सशस्त्र संघर्ष का ज़िक्र किया और कहा, “सरकार ने जो फ़ैसले लिए, पाकिस्तान को जो सम्मान मिला, उसे अब संवैधानिक और क़ानूनी जामा पहनाया जा रहा है. पीपीपी इसका खुलकर समर्थन कर रही है.”
एक सवाल के जवाब में उन्होंने दावा किया कि स्थानीय शासन प्रणाली में सिंध को सबसे अधिक वित्तीय स्वायत्तता दी गई है. उन्होंने कहा कि पीपीपी इसके लिए प्रतिबद्ध है कि एनएफ़सी के तहत प्रांतों का हिस्सा बढ़ सकता है लेकिन घट नहीं सकता.
27वां संविधान संशोधन क्यों लाना चाहती है सरकार?
तीन नवंबर को बिलावल भुट्टो ने सोशल मीडिया एक्स पर एक पोस्ट में कहा था कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने पीएमएल-एन के एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मुलाक़ात की और इस बैठक में 27वें संविधान संशोधन पर चर्चा हुई.
उनके अनुसार शरीफ़ ने इन प्रस्तावों के लिए पीपीपी का समर्थन मांगा था.
अपने पोस्ट में बिलावल भुट्टो ने संविधान संशोधन प्रस्ताव में जिन मामलों में बदलाव की बात की गई थी उसके बारे में जानकारी दी.
उन्होंने लिखा था कि संवैधानिक न्यायालय की स्थापना, मजिस्ट्रेटों की बहाली, उनके ट्रांसफ़र, एनएफ़सी फ़ॉर्मूले में बदलाव, अनुच्छेद 243 में संशोधन, शिक्षा और जनसंख्या नियोजन से जुड़ी शक्तियों को संघ को वापस करने और चुनाव आयोग की नियुक्तियों में गतिरोध को ख़त्म करना शामिल है.
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इससे पहले पाकिस्तान के इन्फॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर अताउल्लाह तारड़ ने कहा था कि सभी पक्षों के साथ चर्चाएं हो रही हैं और 27वें संशोधन के रास्ते में कोई रुकावट नहीं है.
जियो न्यूज़ के एक कार्यक्रम में अताउल्लाह तारड़ ने कहा, “संविधान में समय और परिस्थितियों के अनुसार संशोधन होता रहता है. वहीं संवैधानिक अदालत की बात देश में वर्षों से चल रही है.”
उन्होंने कहा, “मैंने और कई और मंत्रियों ने ये स्पष्ट कर दिया है कि 18वें संशोधन को वापस नहीं लिया जा रहा है. कोई भी 18वें संशोधन के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं कर रहा है.”
जियो न्यूज़ से बात करते हुए उन्होंने कहा कि संवैधानिक अदालत की स्थापना 26वें संविधान संशोधन के एजेंडे का हिस्सा है, जबकि सशस्त्र बलों से संबंधित अनुच्छेद 243 में बदलाव पर विचार किया जा रहा है, क्योंकि सेना प्रमुख आसिम मुनीर को दी गई फ़ील्ड मार्शल की उपाधि को ‘संवैधानिक कवर’ दिए जाने की आवश्यकता है.
उन्होंने कहा कि बिलावल भुट्टो ने जिन मुद्दों को उठाया है, उन पर चर्चा चल रही है.
अकील मलिक ने जियो न्यूज़ से बात करते हुए कहा, “सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा संवैधानिक न्यायालय का गठन है क्योंकि इस बात की आलोचना हो रही है कि एक अदालत के भीतर एक अदालत है, वहां एक संवैधानिक पीठ नहीं होनी चाहिए.”
उन्होंने कहा, “यह एक अनसुलझा एजेंडा है. 26वें संविधान संशोधन के समय भी संवैधानिक अदालत की स्थापना पर विचार किया जा रहा था.”

पाकिस्तान में संवैधानिक और संसदीय मामलों के विशेषज्ञ और पाकिस्तान इंस्टीट्यूट ऑफ़ लेजिस्लेटिव डेवेलपमेंट एंड ट्रांसपेरेंसी के प्रमुख अहमद बिलाल महबूब का मानना है, “ऐसा लगता है कि 26वें संविधान संशोधन के ‘अधूरे एजेंडे’ को अब 27वें संविधान संशोधन के ज़रिए पूरा करने की कोशिश की जा रही है.”
उन्होंने कहा कि “26वें संविधान संशोधन के पहले मसौदे में संवैधानिक अदालत बनाने को लेकर कई बातें थीं जिन्हें बाद में हटा दिया गया था.”
वो समझाते हैं, “उस समय, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम (जेयूआई) के बिना सरकार के पास पर्याप्त संख्याबल नहीं था, इसलिए उन्हें जेयूआई की आपत्ति स्वीकार करनी पड़ी, ख़ासकर संवैधानिक अदालत बनाने को लेकर.”
अहमद बिलाल का कहना है कि अब पीपीपी के समर्थन से सरकार के पास संवैधानिक अदालत की स्थापना को लेकर ज़रूरी संख्याबल होगा.
वो कहते हैं, “संवैधानिक पीठ आधी-अधूरी चीज़ होती है. वो इसे संवैधानिक अदालत के अंतरराष्ट्रीय मॉडल के तहत करना चाहेंगे जो अच्छी बात है.”
वहीं क़ानून विशेषज्ञ फै़सल सिद्दीक़ी का मानना है कि सरकार न्यायिक सुधार लाना चाहती है क्योंकि अभी भी “स्वतंत्र जज हैं जो कभी-कभी मुद्दे भी उठाते हैं.”
उनका कहना है कि संवैधानिक अदालत और जजों के ट्रांसफ़र का अधिकार अहम मुद्दा होगा. हालांकि उन्होंने चिंता जताई कि 27वें संविधान संशोधन के ज़रिए असहमति जताने वाले जजों को ट्रांसफ़र किया जा सकता है.
वहीं अकील मलिक का कहना है कि कार्यपालिका की प्रशासनिक शक्तियों को ज़िला और स्थानीय स्तर तक बढ़ाया जाना चाहिए ताकि बाज़ार में मूल्य नियंत्रण और दो साल से कम की सज़ा जैसे छोटे अपराधों के मामले में अदालतों पर कम बोझ पड़े.
एनएफ़सी को लेकर क्यों है बदलाव की ज़रूरत
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अहमद बिलाल महबूब कहते हैं कि फ़िलहाल एनएफ़सी में प्रांतों की हिस्सेदारी कम करने पर रोक है. उनका कहना है कि चाहे मौजूदा सरकार हो, पाकिस्तान डेमोक्रेटिट मूवमेंट सरकार हो या तहरीक-ए-इंसाफ़ की, सभी इसमें संशोधन चाहते थे लेकिन उनके पास ज़रूरी संख्याबल नहीं था.
उनका कहना है कि सरकार चाहती है कि एनएफ़सी स्वतंत्र हो ताकि वह परिस्थितियों के अनुसार प्रांतों के हिस्से को बढ़ा, घटा या बनाए रख सके.
उनका कहना है कि 18वें संशोधन में यह प्रावधान था कि सातवें राष्ट्रीय वित्त आयोग के निर्णय में प्रांतों का हिस्सा कम नहीं किया जा सकता.
अहमद बिलाल कहते हैं, “उस समय राष्ट्रीय वित्त आयोग ने प्रांतों का हिस्सा 52.5 प्रतिशत तय किया था. इसे संविधान संशोधन के बिना कम नहीं किया जा सकता. लेकिन अब वित्तीय स्थिति ख़राब हो गई है. सेंटर की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं और ज़्यादा पैसा प्रांतों को जा रहा है.”
हालांकि वो कहते हैं कि पीपीपी जो 18वां संशोधन लाई थी उसके तहत प्रांतों की शक्तियाँ बढ़ा दी गई थीं इसलिए उनके लिए अधिक वित्तीय प्रावधान की ज़रूरत थी.
वो कहते हैं, “लेकिन अब संघ को भी इसकी आवश्यकता है. संघ के अधीन रक्षा जैसी महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियां हैं. लेकिन हो सकता है कि पीपीपी इसका समर्थन न करे.”
वो कहते हैं कि मई में भारत के साथ पाकिस्तान के सैन्य संघर्ष और हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान के साथ सीमा पर जारी तनाव के कारण “रक्षा का महत्व बढ़ा है, साथ ही ख़र्च की ज़रूरत भी बढ़ गई है.”
क़ानूनी विशेषज्ञ फ़ैसल सिद्दीकी भी इस बात से सहमत हैं कि पीपीपी एनएफ़सी संबंधी प्रस्ताव से असहमत हो सकती है. उनका कहना है कि 18वें संशोधन के ज़रिए जो अधिकार संघ के बजाय प्रांतों के पास चले गए हैं, सरकार चाहती है कि वो अधिकार संघ के पास वापस आ जाएं.
चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का सवाल
क़ानून राज्य मंत्री अकील मलिक का कहना है कि शहबाज़ शरीफ़ सरकार नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर गतिरोध को ख़त्म करना चाहती है.
वो कहते हैं कि संविधान के अनुसार इस पद पर नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री नेशनल असेंबली में विपक्ष के नेता से परामर्श करते हैं. इसके बाद संसदीय समिति को अनुमोदन के लिए तीन नाम भेजे जाते हैं जो उनमें से किसी एक नाम को मंज़ूरी देती है.
अकील मलिक कहते हैं, “अगर गतिरोध जारी रहता है, तो इसका समाधान करना भी ज़रूरी है. अब अगर कोई विपक्षी नेता नहीं है और मामले में देरी हो रही है, तो कम से कम इन स्थितियों में आपको कोई रास्ता निकालना होगा.”
मौजूदा मुख्य चुनाव आयुक्त सिकंदर सुल्तान राजा का पांच साल का कार्यकाल 2025 में ख़त्म होना था, लेकिन अब तक नए मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है.
26वें संविधान संशोधन के बाद, मुख्य चुनाव आयुक्त और आयोग के सदस्य सेवानिवृत्ति के बाद भी अगली नियुक्ति तक अपने पदों पर बने रह सकते हैं.
नेशनल असेंबली में विपक्ष के नेता उमर अयूब को फै़सलाबाद की एक आतंकरोधी अदालत ने 10 साल जेल की सज़ा सुनाई थी. इसके बाद अगस्त 2025 में चुनाव आयोग ने एक बयान जारी कर उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया.
इसके बाद से अब तक नेशनल असेंबली में विपक्ष के नए नेता की नियुक्ति नहीं हुई है.
सेना को लेकर प्रस्तावित संशोधन क्या है?

अकील मलिक का कहना है कि अनुच्छेद 243 में प्रस्तावित संशोधन को अंतिम रूप नहीं दिया गया है, लेकिन यह स्पष्ट है कि फ़ील्ड मार्शल का पद “संविधान में लाया जाना चाहिए.”
अनुच्छेद 243 सशस्त्र बलों से संबंधित है. इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति सशस्त्र बलों का सर्वोच्च कमांडर होता है, जो प्रधानमंत्री के परामर्श से सशस्त्र बलों के प्रमुखों की नियुक्ति करता है और उनके वेतन-भत्ते निर्धारित करता है.
अनुच्छेद 243 में प्रस्तावित संशोधन के बारे में अकील मलिक ने कहा कि 1973 के बाद पहली बार पीएम ने सेना प्रमुख आसिम मुनीर को फ़ील्ड मार्शल बनाया है और अब उन्हें ‘संवैधानिक सुरक्षा’ देना ज़रूरी है. इस पद को संविधान में मान्यता मिलनी चाहिए.
अहमद बिलाल महबूब भी क़ानून राज्य मंत्री अकील के दिए तर्क को दोहराते हैं. वो कहते हैं “चूंकि सेना प्रमुख को फ़ील्ड मार्शल बना दिया गया है, इसलिए उन्हें संवैधानिक सुरक्षा दी जानी चाहिए.”
हालांकि उनका कहना है कि अनुच्छेद 243 में प्रस्तावित संशोधन यहीं तक सीमित रहेगा या नहीं, यह पूरा मसौदा सामने आने के बाद ही पता चलेगा.
वहीं क़ानून विशेषज्ञ फै़सल सिद्दीक़ी ने कहा कि 27वें संविधान संशोधन के अन्य प्रस्ताव केवल ‘धोखा’ हैं, इसका मुख्य उद्देश्य अनुच्छेद 243 में संशोधन करना है.
उन्होंने कहा, “पीएमएल-एन और पीपीपी दोनों के बीच इस पर कोई असहमति नहीं होगी कि सेना प्रमुख के कार्यकाल को संवैधानिक संरक्षण दिया जाए.”
वो कहते हैं, “प्रस्तावित संशोधन का फ़ील्ड मार्शल के पद से सीधा संबंध नहीं है क्योंकि यह एक मानद पद है. वास्तविक पद सेना प्रमुख का है जिसके कार्यकाल के बारे में सेना अधिनियम में बताया गया है.”
अतीत के उदाहरण देते हुए फै़सल सिद्दीक़ी कहते हैं, “जनरल जिया-उल-हक़ ने आठवें संविधान संशोधन के माध्यम से अपने कार्यकाल को संवैधानिक संरक्षण दिया और उसमें अपना नाम भी शामिल किया. परवेज़ मुशर्रफ़ ने 17वें संशोधन के ज़रिए खुद को संवैधानिक संरक्षण दिया था.”
फै़सल सिद्दीक़ी का कहना है कि पिछले साल पाकिस्तान आर्मी एक्ट में संशोधन के ज़रिए सेना प्रमुख का कार्यकाल बढ़ा दिया गया था, लेकिन उनकी नियुक्ति के समय सेना प्रमुख आसिम मुनीर के लिए तीन साल की अधिसूचना जारी की गई थी.
वो कहते हैं, “उन्हें एक नई अधिसूचना जारी करने की ज़रूरत पड़ सकती है, जिसमें बताया जाए कि उनका कार्यकाल दो साल के लिए बढ़ाया गया है या उन्हें पांच साल के लिए इस पद पर दोबारा नियुक्त किया जा रहा है.”
नवंबर 2024 में पाकिस्तानी संसद के दोनों सदनों, नेशनल असेंबली और सीनेट ने सशस्त्र बलों के प्रमुखों का कार्यकाल तीन साल से बढ़ाकर पांच साल करने को मंजू़री दी थी.
उस समय, रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने कहा था कि पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर नवंबर 2027 तक पद पर बने रहेंगे.
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