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”ऑपरेशन सिंदूर के दौरान बीते 9 मई को, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान को बेलआउट पैकेज के रूप में एक अरब डॉलर की किश्त की मंज़ूरी दे दी. ऑपरेशन सिंदूर के ठीक बाद वर्ल्ड बैंक ने पाकिस्तान को 40 बिलियन डॉलर देने का निर्णय लिया.”
“फिर एशियन डेवलपमेंट बैंक ने पाकिस्तान को 800 मिलियन डॉलर दिए. और दो दिन पहले 4 जून को पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष और आतंकवाद-रोधी समिति का उपाध्यक्ष चुना गया.”
पाकिस्तान के संदर्भ में हुई इन सभी डेवलपमेंट्स को कांग्रेस नेता पवन खेड़ा ने सामने रखा है और भारत की विदेश नीति के पतन से जोड़कर देखा है. साथ ही उन्होंने वैश्विक समुदाय पर भी सवाल खड़े किए हैं.
वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी इस विषय पर अपनी चिंताएं ज़ाहिर की हैं.उन्होंने कहा है कि पाकिस्तान को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 15 सदस्यीय आंतकवाद-रोधी समिति का उपाध्यक्ष नियुक्त करना और तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष बनाना दुर्भाग्यपूर्ण, ग़लत सूचना पर आधारित और अस्वीकार्य है.
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दरअसल, पाकिस्तान फ़िलहाल दो सालों के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा समिति का अस्थायी सदस्य है. अब उसे इसकी दो समितियों में जगह मिली है. पाकिस्तान को यूएनएससी की तालिबान प्रतिबंध समिति का अध्यक्ष और आतंकवाद-रोधी समिति का उपाध्यक्ष चुना गया है.
पाकिस्तान ने बताई बड़ी जीत
पाकिस्तान इन नियुक्तियों को एक बड़ी जीत के रूप में पेश कर रहा है.
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने कहा है कि ये उनके देश के लिए बहुत गर्व की बात है. उन्होंने एक्स पर किए एक पोस्ट में लिखा है,”संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में महत्वपूर्ण नियुक्तियां प्रमाणित करती हैं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान की आतंकवाद-रोधी कोशिशों पर पूरा भरोसा है. वो इस बात को स्वीकारते हैं कि हम इस वैश्विक ख़तरे को मिटाने के लिए मज़बूती और अटूट प्रतिबद्धता के साथ काम कर रहे हैं.”
शरीफ़ ने कहा कि पाकिस्तान उन देशों में से एक है जो आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित हैं. आतंकवाद के कारण अब तक देश में 90,000 हज़ार लोगों की जान जा चुकी है, देश को 150 बिलियन डॉलर से ज़्यादा का आर्थिक नुकसान हो चुका है. इस संकट से लड़ने में पाकिस्तान का बलिदान अद्वितीय रहा है.
क्यों आपत्ति जता रहा है भारत?
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जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में बीते 22 अप्रैल को पर्यटकों पर हुए हमले के लिए भारत पाकिस्तान को ज़िम्मेदार ठहराता है.
इससे पहले भी अलग-अलग मौक़ों पर, मसलन साल 2016 में उरी में भारतीय सैनिकों पर हमला, साल 2019 में पुलवामा में हुआ विस्फ़ोट या फिर साल 2008 में मुंबई के होटलों पर हुए हमले के बाद भी भारत ने पाकिस्तान को कटघरे में खड़ा किया था. जबकि पाकिस्तान इससे इनकार करता रहा है.
भारत लंबे समय से खुद को ‘आतंकवाद से पीड़ित’ देश बताता रहा है और पाकिस्तान पर ‘सीमा पार आतंकवाद’ फैलाने का आरोप लगाता रहा है.
हाल ही में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए संघर्ष के बाद भारतीय सांसदों के सात अलग-अलग शिष्टमंडलों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों का दौरा किया.
जहां एक तरफ़ भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों के समक्ष सीमापार आतंकवाद का मुद्दा उठाकर पाकिस्तान को घेरने की कोशिश में जुटा था, वहीं दूसरी तरफ़ पाकिस्तान को इसी यूएनएससी के आतंकवाद-रोधी समिति का उपाध्यक्ष चुन लिया गया.
क्या भारत के लिए चिंता की बात?
कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने विदेश गए सात शिष्टमंडलों में से एक की अगुवाई की.
उनसे पाकिस्तान को मिली इन ज़िम्मेदारियों के संदर्भ में जब सवाल पूछा गया तो उनका कहना था, ”यूएनएससी की आधा दर्जन आतंकवाद-रोधी समितियां हैं. परिषद के सदस्य बारी-बारी से ऐसी समितियों की अध्यक्षता करते हैं. जब तक पाकिस्तान सुरक्षा परिषद में है, तब तक इस तरह का विशेषाधिकार उन्हें मिल सकता है. लेकिन यूएन में भारत के स्थायी मिशन की नज़र पाकिस्तान की गतिविधियों पर बनी रहेगी.”
राजस्थान में सरदार पटेल यूनिवर्सिटी ऑफ़ पुलिस, सिक्योरिटी एंड क्रिमिनल जस्टिस के इंटरनेशनल अफ़ेयर्स एंड सिक्योरिटी स्टडीज़ में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर विनय कौड़ा अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान, काउंटर-टेररिज़्म और काउंटर इंसरजेंसी जैसे विषयों पर रिसर्च कर रहे हैं.
उनका कहना है कि पाकिस्तान जैसे देश को यूएनएससी जैसी संस्था में कोई भी ज़िम्मेदारी देना केवल कूटनीतिक संवेदनहीनता नहीं बल्कि इस पूरे ढांचे की खामी को उजागर करता है.
उन्होंने कहा, ”पाकिस्तान को इन समितियों का हिस्सा बनाना उसी देश को आतंकवाद पर निगरानी की ज़िम्मेदारी सौंपने जैसा है, जिस पर स्वयं आतंकवाद को पनाह देने और उसे विदेश नीति के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने के गंभीर आरोप हैं. ये भारत के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक आतंकवाद-रोधी ढांचे की विश्वसनीयता के लिए भी एक चिंता का विषय है. पाकिस्तान की आतंकवाद पर दोहरी नीति कोई नया मुद्दा नहीं है, यह ऐतिहासिक तथ्यों और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज़ों में स्पष्ट रूप से दर्ज है.”
उनका कहना है, “चाहे वह संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकवादियों को शरण देना हो, जैसे ओसामा बिन लादेन या हाफ़िज़ सईद, या फिर लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे संगठनों को खुला समर्थन देना पाकिस्तान ने लगातार आतंकवाद को अपनी राज्य-नीति का उपकरण बनाया है, विशेष रूप से भारत के विरुद्ध.”
तो भारत के लिए क्या ये किसी तरह का झटका है, विनय कौड़ ऐसा नहीं मानते.
उनके मुताबिक़ भारत अपनी सुरक्षा और रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए किसी बाहरी समर्थन या मान्यता पर निर्भर नहीं करता. उनके मुताबिक़ वैश्विक मंचों पर आतंकवाद के विरुद्ध भारत का स्पष्ट और सशक्त रुख़ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सामने लगातार प्रभाव डाल रहा है.
‘पाकिस्तान की बड़ी कूटनीतिक जीत’
लेकिन जेएनयू में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर विनीत प्रकाश का मानना है कि ये ख़बर भारत के लिए चिंता पैदा करने वाली है.
वो कहते हैं कि ऐसी नियुक्तियां संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य देशों की तरफ़ से हरी झंडी मिलने के बाद ही होती हैं और हरी झंडी देने का मतलब है ये स्वीकारना की पाकिस्तान का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है.
वो कहते हैं,” भारत की कोशिश रही है कि आतंकवाद फैलाने में पाकिस्तान की भूमिका के बारे में पूरी दुनिया को पता चले. लेकिन इस नियुक्ति से ऐसा लगता है कि दूसरे देश या तो इसे महत्वपूर्ण नहीं मानते या तो भारत के दावे में कोई सच्चाई नहीं देखते. साथ ही पाकिस्तान की नियुक्ति ये संदेश भी देती है कि पाकिस्तान विश्व पटल पर अपनी छवि सुधारने में सफल रहा है.”
इंडियन काउंसिल ऑफ़ वर्ल्ड अफ़ेयर्स में सीनियर फ़ेलो फ़ज्ज़ुर रहमान इस नियुक्ति की टाइमिंग पर भी सवाल खड़े करते हैं.
उनके मुताबिक़ अगर ये नियुक्ति पांच-छह महीने पहले हुई होती तो शायद नज़रअंदाज़ किया जा सकता था और इसे एक रूटीन अपडेट की तरह देखा जा सकता था. लेकिन ऐसे वक़्त में जब अभी दो महीने पहले ही भारत में पहलगाम हमला हुआ, फिर पाकिस्तान के साथ सेमी वॉर जैसी स्थिति खड़ी हो गई और अभी भारत की प्रतिनिधिमंडल यूएनएससी के अस्थायी सदस्य देशों के दौरे पर थी, तो इसे यूं ही दरकिनार नहीं किया जा सकता.
वो मानते हैं कि ये पाकिस्तान की बड़ी कूटनीतिक जीत है.
फ़ज्जुर रहमान के मुताबिक़, ”इस नियुक्ति से ऐसा लगता है कि पाकिस्तान ने ग्लोबल ओपिनियन को अपने पक्ष में कर रखा है. बीते बीस सालों में भारत की तरफ़ से पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करने की ओर उठाया गया ये अब तक का सबसे बड़ा कदम था. सात डेलिगेशन 33 देशों दौरे पर थे, लेकिन ऐसा लगता है मानो ये बिल्कुल बेनतीजा रहा.”
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यूएनएससी की आतंक-विरोधी समिति का क्या महत्व है?
सुरक्षा परिषद संयुक्त राष्ट्र के छह अहम अंगों में से एक है. इस परिषद की प्राथमिक ज़िम्मेदारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति और सुरक्षा बनाए रखना है. इसके कुल पांच स्थायी और दस अस्थायी सदस्य हैं.
स्थायी देशों की सूची में अमेरिका, रूस, फ़्रांस, ब्रिटेन और चीन का नाम शामिल है. बाकी के दस अस्थायी सदस्यों का चुनाव संयुक्त राष्ट्र महासभा करती है. ये चुनाव दुनिया के अलग-अलग हिस्सों को प्रतिनिधित्व देने के हिसाब से तय किया गया है. जैसे- अफ़्रीकी और एशियाई देशों के लिए पांच सीटें तय हैं और एक सीट पूर्वी यूरोपीय देश के लिए, दो सीटें लातिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों के लिए रिज़र्व हैं. वहीं एक- एक सीट पश्चिमी यूरोपीय और किसी दूसरे क्षेत्र के देश को दी जाती है.
बात आतंक-विरोधी समिति की करें तो ये समिति सीधे तौर पर वैश्विक आतंकवाद, चरमपंथ और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हैं.
हालांकि, इन समितियों में पाकिस्तान क्या कर सकता है? इस सवाल पर विनीत प्रकाश कहते हैं कि पाकिस्तान बहुत सीमित स्तर तक ही कुछ कर पाएगा क्योंकि सभी फ़ैसले सर्वसम्मति से लिए जाते हैं. समिति का अध्यक्ष या उपाध्यक्ष अकेले कोई भी फ़ैसला नहीं ले सकता.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित