लाल किले से पीएम मोदी के संदेश में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दिशा तय करने वाला रोडमैप भी दिखा। आत्मनिर्भर भारत के व्यापक विजन में उन्होंने उर्वरक उत्पादन को तरजीह देते हुए स्पष्ट किया कि देश अब पराश्रित रहने की स्थिति से बाहर निकलना चाहता है। रक्षा एवं ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबन के प्रयासों की तरह खाद्य सुरक्षा के लिए उर्वरक में भी आत्मनिर्भर होना जरूरी है।
अरविंद शर्मा, जागरण नई दिल्ली। लाल किले से पीएम मोदी के संदेश में कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दिशा तय करने वाला रोडमैप भी दिखा। आत्मनिर्भर भारत के व्यापक विजन में उन्होंने उर्वरक उत्पादन को तरजीह देते हुए स्पष्ट किया कि देश अब पराश्रित रहने की स्थिति से बाहर निकलना चाहता है।
खाद्य सुरक्षा के लिए उर्वरक में भी आत्मनिर्भर होना जरूरी
रक्षा एवं ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबन के प्रयासों की तरह खाद्य सुरक्षा के लिए उर्वरक में भी आत्मनिर्भर होना जरूरी है, ताकि विदेशी दबाव से किसानों को मुक्त किया जा सके। उन्होंने यह भी साफ किया कि खेती की लागत घटाना ही सिर्फ लक्ष्य नहीं है, बल्कि किसानों की आय बढ़ाने के लिए सस्ती खाद भी उपलब्ध कराना है।
यूरिया उत्पादन में देश लगभग 87 प्रतिशत आत्मनिर्भर हो गया है
भारत में प्रत्येक साल लगभग 601 लाख टन से ज्यादा उर्वरक की खपत होती है, जबकि घरेलू उत्पादन करीब 500 लाख टन है। जाहिर है, लगभग सौ लाख टन से ज्यादा आयात करना पड़ता है। हालांकि यूरिया उत्पादन में देश लगभग 87 प्रतिशत आत्मनिर्भर हो गया है और एनपीके का 90 प्रतिशत उत्पादन घरेलू है, लेकिन डीएपी में यह हिस्सा केवल 40 प्रतिशत है।
पोटाश (एमओपी) का पूरा उत्पादन विदेशों से आता है। फॉस्फेटिक उर्वरकों के कच्चे माल का 90 प्रतिशत और पोटाश का लगभग सौ प्रतिशत आयात मोरक्को, रूस, जार्डन और कनाडा जैसे देशों से होता है। हालांकि पिछले 11 वर्षों में बंद पड़े कई संयंत्रों को चालू किया गया है। सिंदरी, बरौनी, गोरखपुर और रामागुंडम में उत्पादन शुरू हो चुका है।
फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश
ओडिशा में तालचर परियोजना भी शुरू होने वाली है, जहां कोयले से यूरिया बनाने का पहला बड़ा प्रयास होगा। साथ ही नैनो-यूरिया और नीम-लेपित यूरिया का उत्पादन भी बढ़ाया जा रहा है, जिससे प्रति एकड़ खपत कम करने के साथ फसलों की उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश हो रही है।
हरित अमोनिया और नवीकरणीय ऊर्जा आधारित उर्वरक उत्पादन पर भी काम आगे बढ़ रहा है, हालांकि किसानों के बीच उर्वरकों के नैनो संस्करण की स्वीकार्यता बढ़ने में अभी समय लग सकता है। हालांकि उर्वरकों के मामले में आत्मनिर्भरता की राह आसान नहीं है।
सबसे बड़ी चुनौती कच्चे माल की कमी
सबसे बड़ी चुनौती कच्चे माल की कमी है, क्योंकि देश में फास्फोरिक एसिड, सल्फर और पोटाश के खनिज भंडार सीमित हैं। गैस और बिजली की ऊंची कीमतें उर्वरकों की उत्पादन लागत बढ़ाती हैं और तकनीकी व पर्यावरण संबंधी अड़चनें भी बनी हुई हैं।
इसके बावजूद यदि देश में जरूरत भर डीएपी और एमओपी का उत्पादन होने लगेगा तो किसानों को समय पर पर्याप्त खाद मिलने के साथ वैश्विक बाजार की कीमतों के उतार-चढ़ाव से भी बचाया जा सकेगा।
खाद देने के लिए सरकार हर साल भारी भरकम सब्सिडी देती है
किसानों को कम कीमत पर खाद देने के लिए सरकार हर साल भारी भरकम सब्सिडी देती है। 2023-24 में उर्वरक सब्सिडी करीब 1.88 लाख करोड़ रुपये रही, जो 2024-25 में 1.91 लाख करोड़ रुपये हो गई।
2025-26 के बजटीय प्रविधान में 1.67 लाख करोड़ रुपये सब्सिडी के लिए रखा गया है, जो आगे बढ़ सकता है। सरकार इस बोझ को कम करने के लिए तकनीकी दक्षता, उत्पादन विस्तार, आयात पर निर्भरता में कमी और वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने की दिशा में काम कर रही है।
उर्वरकों में आत्मनिर्भर भारत
प्रधानमंत्री के संदेश में साफ है कि यह केवल किसानों की भलाई का मुद्दा नहीं, बल्कि देश की सामरिक और आर्थिक सुरक्षा से भी जुड़ा है। उर्वरकों में आत्मनिर्भर भारत का मतलब होगा—किसानों की आय में स्थिरता, खेती में लागत का नियंत्रण और वैश्विक दबाव से मुक्ति।