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- Author, दाऊद आज़मी
- पदनाम, बीबीसी न्यूज़
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पिछले राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों के उलट अब भारत की मोदी सरकार और अफ़ग़ानिस्तान की इस्लामी अफ़ग़ान तालिबान सरकार के बीच बढ़ते संबंध विरोधाभासी लगते हैं.
लेकिन दोनों देशों के बीच बढ़ती नज़दीकियां उनके नेताओं की व्यावहारिकता को दिखाती हैं.
हालिया बयानों से मालूम चलता है कि दोनों देश राजनीतिक, कूटनीतिक और व्यापारिक संबंधों को मज़बूत करना चाहते हैं.
तालिबान सरकार के विदेश मंत्री मौलवी अमीर ख़ान मुत्तक़ी का लगभग एक हफ़्ते का भारत दौरा इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी नीति में साफ़ बदलाव कर रहा है.
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9 से 14 अक्तूबर तक चली अपनी आधिकारिक यात्रा के दौरान, अमीर ख़ान मुत्तक़ी का भारत में गर्मजोशी से स्वागत किया गया.
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शीर्ष अधिकारी का भारत दौरा पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में हुई एक महत्वपूर्ण बैठक के 10 दिन बाद हो रहा है. ‘रीजनल डायलॉग’ नाम की यह दो दिवसीय बैठक इस्लामाबाद में आयोजित हुई थी और कथित तौर पर इसमें तालिबान विरोधी अफ़ग़ान हस्तियों ने भाग लिया था.
पूर्व ग़नी सरकार के कुछ नेता और अधिकारी भी इस बैठक में शामिल हुए थे.
ये सभी मामले और दौरे ऐसे समय में हो रहे हैं जब पाकिस्तान और अफ़ग़ान तालिबान के बीच सीमा पर झड़पें जारी हैं, जबकि इसी साल मई महीने में ही भारत और पाकिस्तान बीच सैन्य संघर्ष हुआ था.
एक नई शुरुआत
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तालिबान के विदेश मंत्री की भारत यात्रा दोनों देशों के बीच संबंधों में एक नए और महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है, जो स्पष्ट रूप से नई दिल्ली के रणनीतिक हितों के लिए प्राथमिकताओं को दर्शाता है.
दूसरी ओर, भारत और अफ़ग़ानिस्तान के बीच बढ़ता मेल-मिलाप, जिसके बारे में चार साल पहले सोचना नामुमकिन था, उसको तालिबान के पारंपरिक समर्थक पाकिस्तान के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है, जिसने काबुल पर तालिबान के क़ब्ज़े का स्वागत किया था.
भारत और अफ़ग़ान तालिबान के बीच ये मेल-मिलाप दोनों देशों के बीच दो दशकों के तल्ख़ रिश्तों के बाद हुआ है.
साल 1994 में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान के गठन के बाद से भारत इसे एक पाकिस्तानी छद्म समूह के रूप में देखता रहा है, जिसका उद्देश्य पाकिस्तान के लिए अफ़ग़ानिस्तान में भारत के असर को ख़त्म करना था.
इसी बुनियाद पर, भारत ने रूस और ईरान के साथ मिलकर तालिबान विरोधी अफ़ग़ान समूहों को सैन्य, राजनीतिक और वित्तीय सहायता दी. साल 2001 में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर तालिबान को सत्ता से बेदख़ल कर दिया.
भारत तब से लेकर अगले बीस सालों तक नई अमेरिका समर्थित और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त अफ़ग़ान सरकार का एक प्रमुख समर्थक बना रहा. लेकिन इन सालों के दौरान भारत और अफ़ग़ान तालिबान के बीच मतभेद बने रहे.
इस बीच, ज़्यादातर चरमपंथियों का ध्यान अफ़ग़ानिस्तान की ओर चला गया और अफ़ग़ानिस्तान अन्य समूहों का एक प्रमुख केंद्र बन गया, जिनमें भारत प्रशासित कश्मीर में सक्रिय चरमपंथी समूह भी शामिल थे.
लेकिन फ़रवरी 2020 में, जब क़तर में अमेरिका और तालिबान के बीच शांति समझौते ने 2021 के मध्य तक अफ़ग़ानिस्तान से सभी विदेशी सैनिकों की वापसी की समय-सीमा तय की, तो भारतीय नीति-निर्माताओं में असमंजस बढ़ गया.
और जब 15 अगस्त, 2021 को तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया, तो भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी में अपने दूतावास के साथ-साथ क़ंधार, हेरात, मज़ार-ए-शरीफ़ और जलालाबाद स्थित अपने चार वाणिज्य दूतावासों को औपचारिक रूप से बंद कर दिया.
भारत के इस क़दम से न केवल अफ़ग़ान छात्रों, मरीज़ों, व्यापारियों और पूर्व अफ़ग़ान सरकारी अधिकारियों और राजनेताओं के वीज़ा रुक गए, बल्कि कथित तौर पर भारत सरकार ने सुरक्षा कारणों से पहले जारी किए गए हज़ारों वीज़ा भी रद्द कर दिए.
भारत के इस क़दम को कई पूर्व अफ़ग़ान अधिकारियों और राजनेताओं ने ‘विश्वासघात’ बताया.
मगर इस सबके बावजूद, अफ़ग़ानिस्तान में नई राजनीतिक और सुरक्षा स्थिति को देखते हुए, भारत और तालिबान दोनों ही संबंध स्थापित करने के लिए उत्सुक थे क्योंकि इसमें दोनों को जीत नज़र आ रही थी.
पहले विरोध लेकिन अब दोस्त
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सत्ता में आने से पहले ही तालिबान लगभग सभी क्षेत्रीय देशों के साथ संबंध स्थापित कर चुका था और वह भारत के साथ भी अपने संबंधों को सामान्य बनाना चाहता था.
प्रेस रिलीज़ के अलावा, तालिबान ने अपने राजनीतिक कार्यालय से भेजे गए निजी संदेशों के ज़रिए से भारत को आश्वस्त किया कि उनकी विदेश नीति स्वतंत्र है और उनका राजनीतिक एजेंडा किसी तीसरे देश की मांगों और प्राथमिकताओं से बंधा नहीं है. ज़ाहिर है, उनका इशारा पाकिस्तान की ओर था.
जून 2012 में जारी एक बयान में, तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य भूमिका की अमेरिकी मांग को स्वीकार न करने के लिए भारत की सराहना की.
यह सब ऐसे समय में हो रहा था जब अमेरिका 2014 के आख़िर तक अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी और नेटो बलों की उपस्थिति और भूमिका को कम करने की योजना बना रहा था और चाहता था कि भारत अफ़ग़ान सुरक्षा मामलों में अधिक सक्रिय भूमिका निभाए.
इसी वजह से तालिबान ने अपने बयान में भारत को इस क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण देश बताया और कहा कि अमेरिका को ख़ुश करने के लिए भारत का किसी भी तबाही में शामिल होना अतार्किक है.
रणनीतिक बदलाव
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अगस्त 2021 में तालिबान की सत्ता में वापसी के बाद से, भारत ने इन संदेशों और संपर्कों के ज़रिए धीरे-धीरे तालिबान के साथ संबंध मज़बूत किए हैं.
यह अपने हितों की रक्षा के लिए भारत की विदेश नीति में एक साहसिक और बड़े बदलाव का प्रतीक है.
तालिबान की सत्ता में वापसी के एक साल के भीतर ही भारत ने अफ़ग़ानिस्तान में अपनी राजनयिक उपस्थिति को फिर से सक्रिय कर दिया.
जून 2022 की शुरुआत में जेपी सिंह के नेतृत्व में भारतीय विदेश मंत्रालय के एक प्रतिनिधिमंडल ने काबुल का दौरा किया.
यह भारत और तालिबान सरकारों के बीच पहली औपचारिक बैठक थी, जिसे तालिबान के विदेश मंत्रालय ने “दोनों देशों के बीच संबंधों की एक अच्छी शुरुआत” बताया.
उसी महीने के आख़िर में, भारत ने घोषणा की कि वह काबुल में एक “तकनीकी टीम” भेजेगा जो भारतीय दूतावास के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान को भोजन और दवा समेत मानवीय सहायता बांटने का काम करेगी.
इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान के अंदर और बाहर भारतीय और तालिबान अधिकारियों और राजनयिकों के बीच उच्च-स्तरीय वार्ता हुई.
इसमें जनवरी 2025 में दुबई में तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी और भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिसरी के बीच एक बैठक भी शामिल थी.
चार महीने बाद, मई में, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर और तालिबान के विदेश मंत्री अमीर ख़ान मुत्तक़ी ने फ़ोन पर बात की.
यह उस समय तक दोनों पक्षों के बीच पहला उच्च-स्तरीय संपर्क था.
इसी समय, भारत ने कुछ प्रमुख तालिबान सदस्यों, सरकारी अधिकारियों और उनके परिवार के सदस्यों को आधिकारिक बैठकों, प्रशिक्षण या चिकित्सा उपचार के लिए भारत आने के लिए वीज़ा जारी करना शुरू कर दिया.
हालांकि तालिबान सदस्यों की ऐसी यात्राओं की आधिकारिक घोषणा नहीं की गई थी, लेकिन इस प्रक्रिया ने दोनों पक्षों के बीच आपसी विश्वास को बढ़ाया.
एक और महत्वपूर्ण घटनाक्रम यह था कि भारत ने आख़िरकार तालिबान सरकार के भारत में अपने राजनयिकों की तैनाती के अनुरोध को स्वीकार कर लिया.
नवंबर 2024 में, भारत ने मुंबई स्थित अफ़ग़ान वाणिज्य दूतावास को तालिबान सरकार द्वारा नियुक्त एक राजनयिक को सौंप दिया, और कुछ महीने बाद उसने हैदराबाद स्थित अफ़ग़ान वाणिज्य दूतावास को तालिबान सरकार द्वारा नियुक्त एक और शख़्स को सौंप दिया.
इस हफ़्ते दोनों के बीच राजनयिक संबंधों का स्तर और भी बढ़ गया जब अमीर मुत्तक़ी की दिल्ली यात्रा की शुरुआत में, भारतीय विदेश मंत्री ने घोषणा की कि वह काबुल में अपने ‘तकनीकी मिशन’ को दूतावास स्तर का बना देंगे.
हालांकि भारत ने तालिबान सरकार को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी है, लेकिन वह दिल्ली स्थित अफ़ग़ान दूतावास में तालिबान सरकार द्वारा तैनात राजनयिकों को स्वीकार करने पर सहमत हो गया है.
तालिबान सरकार की नीतियां, उम्मीदें और मांगें
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तालिबान शासन के लिए भारत के साथ संबंधों को सामान्य बनाना कई मायनों में महत्वपूर्ण है. भारत एक प्रमुख क्षेत्रीय शक्ति है और अतीत में अफ़ग़ानिस्तान का पारंपरिक सहयोगी रहा है, और उसके साथ संबंध तालिबान शासन की घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्थिति और वैधता को मज़बूत करते हैं.
तालिबान शासन को उम्मीद है कि भारत के साथ संबंध उसकी राष्ट्रीय छवि को मज़बूत करेंगे और उसे किसी अन्य देश की कठपुतली के बजाय एक स्वतंत्र खिलाड़ी के रूप में पेश करेंगे. अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो उसके व्यवहार को पाकिस्तानी प्रभाव का परिणाम माना जाएगा, ख़ासकर उन अफ़ग़ान नागरिकों के ज़रिए जो उसका विरोध करते हैं.
तालिबान शासन मान्यता प्राप्त करने और राजनयिक संबंधों का विस्तार करने का इच्छुक है, और भारत जैसे देश के साथ संबंध स्थापित करके, वह यह संदेश देना चाहता है कि पश्चिमी देशों के दबाव और प्रतिबंधों के बावजूद, वह अकेला नहीं है और उसके मज़बूत दोस्त हैं.
भारत के साथ अच्छे संबंध विकसित करके, तालिबान शासन क्षेत्रीय विरोधियों को यह भी दिखाना चाहता है कि उसके पास विकल्प मौजूद हैं.
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ग़रीबी से त्रस्त अफ़ग़ानिस्तान को इस क्षेत्र और अन्य देशों के साथ आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को मज़बूत करने की सख़्त ज़रूरत है.
इस लिहाज़ से भारत बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि यह ऐतिहासिक रूप से अफ़ग़ानिस्तान के सूखे और ताज़ा फलों, सब्ज़ियों और जड़ी-बूटियों के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक रहा है.
अफ़ग़ानिस्तान के विभिन्न सरकारी अधिकारी दशकों से शिकायत करते रहे हैं कि अफ़ग़ानिस्तान या भारत के साथ तनाव की स्थिति में पाकिस्तान कराची बंदरगाह और वाघा सीमा पर रुकावटें खड़ी कर देता है, जो अफ़ग़ानिस्तान के लिए भारत के साथ व्यापार करने के सबसे छोटे और सस्ते रास्ते हैं.
इसलिए, भारत के साथ व्यापार अफ़ग़ानिस्तान के लिए एक आर्थिक ज़रूरत है.
अमेरिका और नेटो की सैन्य उपस्थिति के दौरान भारत इस क्षेत्र में अफ़ग़ानिस्तान का सबसे बड़ा दानदाता देश था, इसलिए तालिबान सरकार चाहती है कि भारत अपनी पुरानी विकास परियोजनाओं को पूरा करे और साथ ही अफ़ग़ानिस्तान में बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण के लिए नई परियोजनाएं शुरू करे. अफ़ग़ानिस्तान खनन सहित अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय निवेश चाहता है.
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तालिबान सरकार यह भी चाहती है कि भारत जल्द ही अफ़ग़ान नागरिकों, ख़ासकर व्यापारियों, छात्रों और मरीज़ों को वीज़ा जारी करना फिर से शुरू करे.
भारत के अतीत को देखते हुए, उन्हें यह भी उम्मीद है कि भारत उनके नागरिकों को कंप्यूटर की ट्रेनिंग और दूसरे व्यवसायों में प्रशिक्षण देगा, साथ ही प्रशासन और सुरक्षा के क्षेत्रों में सहयोग भी करेगा.
इसके अलावा, दोनों देश द्विपक्षीय व्यापार के लिए एक नियमित हवाई गलियारा स्थापित करने के लिए भी काम कर रहे हैं और दूसरी ओर भारत, अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशियाई देशों के बाज़ारों को जोड़ने के लिए चाबहार और बंदर अब्बास जैसे ईरानी बंदरगाहों का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के तरीक़े भी तलाश रहे हैं.
भारत और पाकिस्तान लंबे समय से अफ़ग़ानिस्तान में एक-दूसरे के प्रभाव को ख़त्म करने और उसके राजनीतिक मामलों पर अपना दबदबा बनाने या उसे प्रभावित करने की होड़ में लगे हुए हैं.
हालांकि 1994 से 2001 तक पहले तालिबान शासन के दौरान पाकिस्तान के साथ उनके संबंध बहुत अच्छे थे, लेकिन दूसरे शासन के शुरू होने के कुछ ही महीनों बाद ये संबंध बिगड़ गए.
अब दोनों के बीच तनाव इस हद तक पहुंच गया है कि सितंबर 2025 में कई वरिष्ठ पाकिस्तानी अधिकारियों ने अफ़ग़ान विरोधी बयान दिए. रक्षा मंत्री ख़्वाजा आसिफ़ ने तो अफ़ग़ानिस्तान को ‘शत्रु देश’ तक कह डाला, जबकि पिछले एक हफ़्ते से दोनों देशों के बीच नियमित रूप से झड़पें हो रही हैं.
पाकिस्तान का आरोप है कि तालिबान सरकार तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के सदस्यों को अफ़ग़ानिस्तान की धरती का इस्तेमाल पाकिस्तान के ख़िलाफ़ करने और वहां से हमले करने की अनुमति देता है.
पाकिस्तान यह भी आरोप लगाता है कि भारत न सिर्फ़ अफ़ग़ान धरती के ज़रिए पाकिस्तानी तालिबान के साथ सहयोग कर रहा है, बल्कि पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में बलूच चरमपंथियों का समर्थन भी कर रहा है.
हालांकि, तालिबान सरकार और भारत दोनों ने इन आरोपों का बार-बार खंडन किया है.
तालिबान के सत्ता में लौटने के बाद, पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में कई हवाई हमले किए हैं और दावा किया है कि इन हमलों में पाकिस्तानी तालिबान लड़ाकों और उनके ठिकानों को निशाना बनाया गया था.
हालाँकि, तालिबान सरकार के अधिकारियों ने बार-बार दावा किया है कि इन पाकिस्तानी हमलों में महिलाओं और बच्चों सहित नागरिक मारे गए हैं.
साथ ही, तालिबान सरकार ने पाकिस्तान में कुछ तत्वों पर अफ़ग़ानिस्तान और तालिबान सरकार को अस्थिर करने और अपने विरोधियों का समर्थन करने का आरोप लगाया है.
जैसे ही तालिबान सरकार के पाकिस्तान के साथ संबंध बिगड़े, भारत के साथ उनके संबंध अप्रत्याशित रूप से मज़बूत हुए हैं.
हैरानी की बात है कि न तो इस्लामाबाद, न ही दिल्ली, और न ही ख़ुद तालिबान यह अनुमान लगा सकता था कि सत्ता में आने के तुरंत बाद तालिबान सरकार के पाकिस्तान के साथ संबंध इतने बिगड़ जाएंगे, और दूसरी ओर, भारत नई तालिबान सरकार के साथ इतने व्यापक और बहुआयामी संबंध स्थापित करेगा.
क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रीय हित
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भारत की सबसे बड़ी चिंता सुरक्षा है, ख़ासकर आईएसआईएस और अल-क़ायदा को लेकर. इसके अलावा क्षेत्रीय चरमपंथी समूहों की गतिविधियां जो उसे निशाना बनाती हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की तालिबान सरकार ने भारत को आश्वासन दिया है कि वह अपने क्षेत्र का इस्तेमाल अपने ख़िलाफ़ हमलों के लिए नहीं होने देगी.
दोनों पक्ष सुरक्षा और ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने के मुद्दों पर भी सहयोग कर रहे हैं, क्योंकि तथाकथित इस्लामिक स्टेट (आईएस) भी तालिबान का एक प्रतिद्वंद्वी समूह है.
यह भारत के ‘सिद्धांतवादी रुख़’ का एक विस्तार है कि काबुल में सत्ता में जो भी सरकार हो, उसके साथ भारत के अच्छे संबंध होने चाहिए.
हालांकि, सबसे बढ़कर, तालिबान शासन के साथ संबंध भारत के राष्ट्रीय हित का विषय हैं.
तालिबान वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान पर शासन कर रहे हैं, जहां वे क्षेत्र को नियंत्रित करते हैं और सरकार चलाते हैं.
इसलिए, भारत को सुरक्षा, लोगों के बीच संपर्क, निवेश और व्यापार, और क्षेत्रीय संबंधों जैसे विभिन्न मुद्दों पर उनके साथ सहयोग करने की आवश्यकता है.
दूसरी ओर, एक उभरती हुई शक्ति के रूप में, भारत इस क्षेत्र और उसके बाहर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है.
चूंकि भारत के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी, जैसे पाकिस्तान और चीन, साथ ही रूस और ईरान जैसी अन्य शक्तियां भी अफ़ग़ानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने में व्यस्त हैं, इसलिए नई दिल्ली पीछे नहीं रहना चाहती.
हालांकि, पिछली घटनाओं की वजहों से अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन और भारत के बीच संबंध वर्तमान में सतर्क और रणनीतिक हैं.
इसी वजह से अपने संबंधों में सुधार के बावजूद दोनों पक्ष बेहद सावधानी के साथ आगे बढ़ रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.