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- Author, रजनीश कुमार
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
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एस जयशंकर 2019 में जब भारत के विदेश मंत्री बने तो एक स्पष्ट संदेश गया कि नरेंद्र मोदी उन्हें काफ़ी अहमियत देते हैं.
पिछले क़रीब सात सालों से भारत की विदेश नीति में जयशंकर फ्रंटफुट पर रहे हैं. कहा जाता है कि देश से बाहर नरेंद्र मोदी की ब्रैंडिंग की ज़िम्मेदारी जयशंकर के पास ही थी.
ऐसा विरले ही हुआ है कि नरेंद्र मोदी विदेश दौरे पर हैं और उनके साथ जयशंकर ना हों. लेकिन इस बार ऐसा ही हुआ. नरेंद्र मोदी 29 अगस्त से एक सितंबर तक जापान और चीन के दौरे पर थे और उनके साथ विदेश मंत्री एस जयशंकर नहीं थे.
ऐसा तब है, जब जयशंकर जापान और चीन दोनों जगह राजनयिक के तौर पर काम कर चुके हैं. 2009 से 2013 तक जयशंकर चीन में भारत के राजदूत रहे थे और 1996 में जापान में उपराजदूत बने थे.
सोशल मीडिया पर लोग सवाल पूछने लगे कि आख़िर जयशंकर पीएम मोदी के साथ शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) समिट में क्यों नहीं गए?
इंडिया टुडे की एग्जिक्यूटिव एडिटर गीता मोहन ने 31 अगस्त को एक्स पर लिखा, ”पीएम मोदी के चीन दौरे पर विदेश मंत्री जयशंकर साथ में नहीं होंगे. मुझे बताया गया कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है. यह पहली बार है, जब जयशंकर पीएम मोदी के साथ विदेश दौरे पर नहीं होंगे.”
हालांकि विदेश मंत्रालय की तरफ़ से आधिकारिक रूप से जयशंकर की सेहत ख़राब होने के संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया था. इस दौरान जयशंकर के एक्स अकाउंट से लोगों से मिलने की तस्वीरें और फिनलैंड की विदेश मंत्री से बातचीत के अपडेट पोस्ट होते रहे.
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जयशंकर के नहीं होने पर सवाल
थिंक टैंक अनंता सेंटर की सीईओ इंद्राणी बागची कहती हैं कि जयशंकर के प्रधानमंत्री के साथ एससीओ समिट में नहीं होने से कई लोगों के मन में सवाल उठ सकता है लेकिन मेरा मानना है कि इसका बहुत अर्थ नहीं निकालना चाहिए.
इंद्राणी बागची कहती हैं, ”कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि उनकी तबीयत ठीक नहीं है लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है. अच्छा होता कि विदेश मंत्रालय इस पर एक बयान जारी कर देता. ये लोकतंत्र है और सबको जानने का अधिकार है कि विदेश मंत्री पीएम मोदी के साथ जापान और चीन दौरे में क्यों नहीं थे. जहाँ तक चीन को लेकर जयशंकर के रुख़ का सवाल है तो वह भारत की लाइन से अलग नहीं है.”
14 जुलाई को जयशंकर चीन भी गए थे और उनकी मुलाक़ात चीन के विदेश मंत्री वांग यी से हुई थी. 18 अगस्त को चीनी विदेश मंत्री वांग यी नई दिल्ली में थे और चीनी विदेश मंत्री के साथ बातचीत में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व विदेश मंत्री एस जयशंकर ही कर रहे थे.
चीनी विदेश मंत्री के साथ इसी बैठक में जयशंकर ने कहा था कि भारत न केवल बहुपक्षीय दुनिया की वकालत करता है बल्कि बहुपक्षीय एशिया भी चाहता है.
यानी जयशंकर कह रहे थे कि भारत न तो दुनिया में किसी एक देश का दबदबा चाहता है और न ही एशिया में. जब जयशंकर मल्टीपोलर एशिया की बात कर रहे थे तो वांग यी के सामने ही वह चीनी दबदबे वाले एशिया को ख़ारिज कर रहे थे.
जयशंकर ने पिछले साल 31 अगस्त को ईटी वर्ल्ड लीडर्स फोरम में कहा था, ”चीन एक आम समस्या है. हम दुनिया में इकलौते देश नहीं हैं, जो चीन के बारे में बहस कर रहे हैं. आप यूरोप जाइए और उनसे पूछिए कि उनके यहाँ आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी बड़ी बहसों में क्या मुद्दा है. मुद्दा चीन है. आप अमेरिका में देखिए तो यहाँ भी चीन बहस में है. यह कई मायनों में सही भी है. यह सच्चाई है कि केवल भारत को चीन से समस्या नहीं है. भारत के लिए चीन समस्या है, जो कई मायनों में स्पेशल है और यह दुनिया की आम समस्या से ऊपर है.”
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ग्लोबल टाइम्स में छपी थी तीखी प्रतिक्रिया
जयशंकर की इस टिप्पणी पर चीन के मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली थी. ग्लोबल टाइम्स को चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र माना जाता है.
ग्लोबल टाइम्स ने पिछले साल नौ सितंबर को ‘इंडियाज डिप्लोमैसी हैज अ एस जयशंकर प्रॉब्लम’ शीर्षक से एक लेख लिखा था. इसमें जयशंकर की तीखी आलोचना की गई थी. इस लेख को लेकर भारत में सोशल मीडिया पर काफ़ी विवाद हुआ था. ग्लोबल टाइम्स ने उसी दिन लेख को अर्काइव में डाल दिया था.
ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था, ”चीन और भारत के संबंधों में सुधार से जयशंकर भयभीत होंगे. एक तरफ़ यह बताता है कि पिछले चार सालों में उनकी कूटनीतिक रणनीति शायद समस्याग्रस्त रही होगी और इसे संभालने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ उन्हें अमेरिका को ख़ुश करने की चिंता है क्योंकि उन्हें पता है कि अमेरिका का पूरा ध्यान चीन पर है, ऐसे में भारत और चीन के बीच ठीक होते संबंध से अमेरिका नाराज़ हो सकता है.”
”इससे पहले मोदी के रूस दौरे से भारत-अमेरिका के संबंधों पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने के लिए जयशंकर ने भारतीय प्रधानमंत्री के यूक्रेन दौरे में जल्दबाज़ी की थी. हालांकि इससे रूस और यूक्रेन दोनों में असंतोष हुआ. ज़ाहिर है कि इससे अमेरिका को राहत मिली होगी.”
ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था, ”भारत में जयशंकर की तरह कई चीनी एक्सपर्ट्स हैं. इन्हें भारत और चीन के संबंधों का इसलिए विशेषज्ञ माना जाता है कि इन्होंने चीन या पूर्वी एशिया में काम किया है. लेकिन सच्चाई यह है कि इनमें अक्सर चीन को लेकर सही समझ का अभाव होता है. यहाँ तक कि ये भारत की राष्ट्रीय परिस्थितियों और हितों को भी नहीं समझ पाते हैं.”
”मिसाल के तौर पर जयशंकर चीन को समस्या बता रहे हैं और कह रहे हैं कि चीन अलग तरीके से काम करता है. लेकिन कई देशों का मानना है कि भारत असली समस्या है क्योंकि वह बहुत अलग तरह से काम करता है और ऐसे में उससे निपटना मुश्किल हो जाता है. जयशंकर दलील देते हैं कि चीन की टेलीकॉम तकनीक को सुरक्षा के लिए बैन करना अनिवार्य है. क्या अमेरिकी तकनीक वाक़ई सुरक्षित है?”
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जयशंकर से असहजता?
ग्लोबल टाइम्स के इस लेख को जयशंकर से चीन की असहजता के रूप में पेश किया गया था. वाक़ई जयशंकर को लेकर भारत के मामले में चीन की असहजता है?
इंद्राणी बागची कहती हैं, ”मुझे ऐसा नहीं लगता है. जयशंकर वही कहते या बोलते हैं, जो मौजूदा सरकार की नीति है. जयशंकर ने वांग यी के सामने कहा कि भारत बहुपक्षीय एशिया चाहता है तो यह जयशंकर की लाइन नहीं है. भारत सरकार की भी यही नीति है.”
दिल्ली स्थित एक यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्रोफ़ेसर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि जयशंकर के चीन नहीं जाने का कारण कुछ और है. उन्होंने कहा, ”पिछले कुछ सालों में जयशंकर ने भारत की विदेश नीति को पूरी तरह से अमेरिका केंद्रित कर दिया था. इसके बावजूद भारत को ट्रंप ने झटका दिया. यह ऐसा ही है, जैसे सारे अंडे एक ही टोकरी में रख दिए गए थे. टोकरी गिरी तो सारे अंडे फूट गए. भारत की गुटनिरपेक्ष नीति को पीछे छोड़ दिया गया था.”
उन्होंने कहा, ”ऐसे में भारत जब इस विदेश नीति को शिफ्ट करने की कोशिश कर रहा है तो जयशंकर को इस प्रोसेस से अलग रखा गया है. भारत की विदेश नीति को अमेरिका केंद्रित करने में थिंक टैंक ओआरएफ़ का भी नाम लिया जा रहा है. यह भी पूछा जा रहा है कि विदेश नीति अमेरिका केंद्रित होने के बावजूद भारत 50 फ़ीसदी टैरिफ़ का सामना कर रहा है.”
भारत के पूर्व विदेश मंत्री सलमान ख़ुर्शीद से पूछा कि क्या वह इस बात से सहमत हैं कि जयशंकर ने भारत की विदेश नीति को अमेरिका केंद्रित कर दिया था?
सलमान ख़ुर्शीद कहते हैं, ”मोदी सरकार ने गुटनिरपेक्ष नीति की उपेक्षा की जबकि भारत की विदेश नीति की यह बुनियाद रही है. अमेरिका के पाले में हम पूरी तरह से चले गए थे लेकिन ट्रंप ने 50 फ़ीसदी टैरिफ़ लगा दिया. भारत की विदेश नीति पूरी तरह से लेन-देन वाली हो गई. जब भी कुछ विषय उठा तो उस विषय पर उस वक़्त क्या करना है, वो किया गया. अब हम फिर से वहीं लौटकर जा रहे हैं.”
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भारत की विदेश नीति पर सवाल
सलमान ख़ुर्शीद से पूछा कि जयशंकर को एससीओ समिट में पीएम मोदी के साथ नहीं होने को कैसे देखते हैं?
ख़ुर्शीद ने कहा, ”ऐसे बड़े इवेंट में तो सामान्य रूप से प्रधानमंत्री के साथ विदेश मंत्री साथ में होता ही है. लेकिन जयशंकर साथ में क्यों नहीं थे, मुझे इसकी जानकारी नहीं है. मेरे लिए भी यह थोड़ा आश्चर्यजनक रहा कि जयशंकर साथ में क्यों नहीं हैं. ग्लोबल टाइम्स के लेख से भी एक संकेत मिला था लेकिन मैं स्पष्ट रूप से कुछ कह नहीं सकता हूँ. लेकिन लोकतंत्र में लोगों को यह जानने का हक़ है कि विदेश मंत्री साथ में क्यों नहीं थे.”
ओआरफ़ (ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन) में स्टडीज एंड फॉरेन पॉलिसी के वाइस प्रेसिडेंट प्रोफ़ेसर हर्ष पंत से पूछा कि वाक़ई जयशंकर अमेरिका से चीज़ों को संभालने में सफल नहीं रहे हैं और पीएम मोदी के साथ चीन दौरे में विदेश मंत्री के नहीं होने को कैसे देखते हैं?
प्रोफ़ेसर हर्ष पंत कहते हैं, ”ऐसे में तो दुनिया के हर विदेश मंत्री को नकारा कह देना चाहिए. भारत अगर ट्रंप के सामने गिड़गिड़ाता है तो 50 फ़ीसदी टैरिफ़ नहीं लगता. जैसा कि यूरोप ने किया.”
”भारत ने चुना कि वह अमेरिका के सामने झुकेगा नहीं. भारत ने चुना कि वह किसी और के कहने से रूस से व्यापार बंद नहीं करेगा. अगर भारत ऐसा करता तो संप्रभु्ता का क्या होता? मैं यह भी नहीं मानता कि जयशंकर ने भारत की विदेश नीति को अमेरिका केंद्रित कर दिया और भारत सरकार कुछ और चाहती थी. मुझे नहीं लगता है कि जयशंकर के पीएम मोदी के साथ चीन में नहीं होने का बहुत अर्थ निकालना चाहिए.”
भारत को कैसा होना चाहिए और क्या नहीं होना चाहिए पर जयशंकर खुलकर बोलते रहे हैं.
सितंबर 2020 में जयशंकर की किताब ‘द इंडिया वे’ आई थी. इस किताब में जयशंकर ने लिखा है कि तीन चीज़ों ने भारत की विदेश नीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.
पहला देश का विभाजन. जयशंकर की किताब के अनुसार, विभाजन के कारण भारत का आकार छोटा हुआ और चीन की अहमियत पहले से ज़्यादा बढ़ गई. दूसरा यह कि 1991 से पहले आर्थिक सुधार हो जाना चाहिए था.
जयशंकर ने लिखा है कि अगर ये आर्थिक सुधार पहले हो गए होते तो भारत पहले अमीर राष्ट्र बन जाता. तीसरी बात यह कही है कि भारत ने परमाणु हथियार चुनने के मामले में देरी की. जयशंकर ने इन तीनों को भारत के लिए बोझ बताया है.
भारत के पूर्व विदेश सचिव और रूस में भारत के राजदूत रहे कंवल सिब्बल से पूछा कि वह चीन दौरे में पीएम मोदी के साथ जयशंकर के नहीं रहने को कैसे देखते हैं?
कंवल सिब्बल कहते हैं, ”ये बिल्कुल ग़लत बात है कि जयशंकर ने भारत की विदेश नीति को अमेरिका केंद्रित बना दिया था इसलिए पीएम मोदी के साथ चीन नहीं गए. मेरा मानना है कि जयशंकर निजी कारणों से इस ट्रिप में साथ नहीं थे. मुझे नहीं लगता है कि इसका कोई लंबा-चौड़ा अर्थ निकालना चाहिए. जयशंकर विदेश नीति कोई अपने मन से नहीं चला रहे हैं. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ही आगे बढ़ा रहे हैं.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित