फ़ातिमा शेख. सोशल मीडिया पर गुरुवार से इस नाम की बहुत चर्चा हो रही है.
इस नाम की महिला सावित्री बाई फुले की साथी थीं या नहीं, इस पर दावे प्रति दावे किए जा रहे हैं.
ये सोशल मीडिया पर बहस का मुद्दा तब बन गया, जब नौ जनवरी को लोग फ़ातिम शेख़ को याद कर रहे थे.
कई लोगों का मानना है कि नौ जनवरी उनकी जन्म तिथि है.
वैसे इस बहस से काफ़ी पहले सितंबर, 2020 में बीबीसी हिंदी ने हमारी पुरखिन नाम से एक सिरीज़ की थी, जिनमें उन महिलाओं के काम को याद किया गया था, जिन्हें बहुत याद नहीं किया जाता.
बीबीसी हिंदी के लिए नासिरुद्दीन की लिखी फ़ातिमा शेख़ को याद करने वाली रिपोर्ट को हमलोग मौजूदा बहस को देखते हुए पाठकों के लिए फिर से प्रस्तुत कर रहे हैं. आप भी जानिए फ़ातिम शेख के होने, ना होने की कहानी.
आमतौर पर हम अपने पुरखों यानी मर्दों के काम और समाजी योगदान के बारे में ख़ूब जानते हैं. चाहे घर हो या समाज या फिर देश…
सदियों से मर्दों के किए गए को ही असली काम और योगदान माना गया. घर में संकटों से बेड़ा पार लगाने वाली महिलाओं को कोई याद नहीं करता. ठीक उसी तरह समाज और देश को बनाने में अपने को आहूत कर देने वाली ज़्यादातर महिलाएं भी गुमनाम रह जाती हैं.
हम उदाहरण के तौर पर कुछ महिलाओं के नाम ज़रूर गिना सकते हैं. मगर ये कुछ नाम ही होंगे. हज़ारों के बारे में हमें बस बेनाम ज़िक्र ही मिलता है. कई के बारे में तो बेनामी ज़िक्र भी नहीं मिलता है. कुछ के नाम पता हैं लेकिन उनके काम का कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता है.
यही नहीं, कई मामलों में स्त्री ने ख़ुद अपने या अपनी साथी महिलाओं के बारे में न लिखा होता तो अनेक पुरखिनों के तो नामोनिशान भी न मिलते.
ऐसी ही हमारी एक पुरखिन हैं, फ़ातिमा शेख़. जिनके बारे में कुछ फुटकर सूचनाएँ मिलती हैं, मगर सालों की तलाश के बाद भी मुझे उनकी पूरी तफ़सील नहीं मिलती है.
हम जोतिबा और सावित्री बाई फुले के बारे में जानते हैं. जोतिबा सामाजिक क्रांति के अगुआ थे और वंचितों की तालीम के लिए बड़ा काम किया.
सावित्री बाई को तो हम भारत की पहली महिला शिक्षिका के रूप में याद करते हैं. क्रांतिज्योति मानते हैं. यही सावित्री बाई अगर किसी के बारे में कह रही हैं कि मेरी ग़ैरहाज़िरी में वह बिना किसी परेशानी के सारे काम संभाल लेगी तो ज़ाहिर है, वह स्त्री भी कम अहमियत नहीं रखती होगी.
वह स्त्री ही फ़ातिमा शेख़ हैं.
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सावित्री बाई के मिशन की साथी
हम सावित्री बाई के मिशन की इस साथी फ़ातिमा शेख़ के बारे में लगभग नहीं जानते हैं.
सावित्री बाई के बारे में भी हम ज़्यादा इसलिए जान पाते हैं क्योंकि उन्होंने और जोतिबा फुले ने कई चीज़ें लिखीं. वे चीज़ें हमें मिल गईं. फ़ातिमा शेख़ के बारे में ऐसी कोई चीज़ हमें अब तक नहीं मिलती.
फ़ातिमा के बारे में दिलचस्पी हाल में ही बढ़ी है. जोतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के बारे में माहिर माने जाने वाले लोगों के पास भी फ़ातिमा के बारे में ख़ास जानकारी नहीं है. इसलिए उनसे जुड़ी ज़्यादातर बातों के तथ्य नहीं मिलते.
कहानियाँ ज़रूर मिलती हैं. कहानियों का सिरा नहीं मिलता. कोई उन्हें किसी उस्मान शेख़ की बहन बताता है. ऐसा कहा जाता है कि जब सामाजिक काम की वजह से फुले को उनके पिता ने घर से निकाल दिया तो उन्हें उस्मान शेख ने अपने यहाँ जगह दी थी. लेकिन उस्मान शेख़ के बारे में भी जानकारी आसानी से नहीं मिलती है.
वैसे यह कितना दिलचस्प है. अगर हम आज फ़ातिमा शेख़ का ज़िक्र भी कर पा रहे हैं तो इस जानकारी का ज़रिया उनकी साथी सावित्री बाई फुले ही हैं. यानी एक स्त्री, दूसरी स्त्री का योगदान हम तक पहुँचा रही है.
सावित्री बाई फुले के हवाले से हमें एक अहम जानकारी मिलती है. ‘सावित्री बाई फुले समग्र वांङ्मय’ में एक तस्वीर है. इस तस्वीर में सावित्री बाई के बगल में ही एक और स्त्री बैठी है. वह स्त्री कोई और नहीं, फ़ातिमा शेख हैं. यह फ़ोटो फ़ातिमा और सावित्री बाई के होने का सबसे बड़ा प्रमाण है. मगर इस तस्वीर का ही क्या प्रमाण है?
ऐतिहासिक तस्वीर और फ़ातिमा शेख़
‘सावित्री बाई फुले समग्र वाङ्मय’ के संपादक डॉक्टर एमजी माली ने अपनी प्रस्तावना में एक महत्वपूर्ण जानकारी दी है.
सावित्री बाई की तस्वीर सालों पहले पुणे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘मजूर’ में छपी थी. यह पत्रिका 1924 से 1930 के बीच प्रकाशित होती रही.
इसके संपादक रा. ना. लाड यानी आरएन लाड थे. माली को यह फोटो द. स. झोडगे यानी डीएस झोडगे से मिली. झोडगे कुछ समय तक ख़ुद मजूर पत्रिका के संपादक थे. मालीसाहेब को इस तस्वीर के बारे में ज्यादा जानकारी झोडगे साहब से मिली.
डॉक्टर एमजी माली के मुताबिक, ”लोखेंडे नाम के एक मिशनरी की एक प्रसिद्ध पुस्तक में सावित्री बाई की एक ग्रुप फोटो प्रकाशित हुई थी. उसकी किताब में छपी फोटो और मजूर पत्रिका में छपी फोटो एक जैसी थी. उस ग्रुप फोटो से ही सावित्री बाई की तस्वीर निकाली गई है. सन 1966 में प्रोफ़ेसर लीला पांडे की एक पुस्तक ‘ महाराष्ट्र कर्तृत्वशालिनी” छपी. उस पुस्तक में एक रेखाचित्र छपा.”
”किताब में छपे रेखाचित्र और उस तस्वीर में भी कोई अंतर नहीं है. मैंने इस तस्वीर के अलावा अन्य तस्वीरों के बारे में भी पड़ताल की है. पुणे के एकनाथ पालकर के पास भी कुछ निगेटिव थे. झोडगे को उनसे ही यह निगेटिव मिले. इस निगेटिव से सावित्र बाई और फ़ातिमा शेख़ की तस्वीर मिली. यह सौ साल पुरानी निगेटिव से तैयार दुर्लभ तस्वीर है. इसी से हमें यह तस्वीर मिल पाई.”
मुमकिन है, यह तस्वीर न मिलती तो फ़ातिमा शेख़ तो दूर की बात हैं, हमें सावित्री बाई की झलक भी नहीं मिल पाती. हम सावित्री बाई की जो तस्वीर देखते हैं, वह यही है. इसी तस्वीर ने ही फ़ातिमा शेख़ को सावित्री बाई की ही तरह इतिहास का एक अहम किरदार बना दिया है. फ़ातिमा शेख़ को बातस्वीर ज़िंदगी दी है. उन्हें हमारे सामने ला खड़ा किया है.
पुणे का जर्जर मकान और इतिहास बनाती महिलाएं
पुणे में महात्मा फुले द्वारा लड़कियों के लिए बनाए गए पहले स्कूल के जर्जर मकान के बाहर जो बोर्ड लगा है, उसमें भी फ़ातिमा शेख़ का ज़िक्र मिलता है.
इस जर्जर होते कमरे की दरो-दीवार को ग़ौर से देखने पर हमें फ़र्श पर बैठी लड़कियाँ और उनसे मुख़ातिब दो औरतें यानी सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ दिखाई देने लगती हैं. जी, लगभग पौने दो सौ साल पहले इसी जगह पर तो ऐतिहासिक बदलाव की नींव पड़ी थी. इन्हीं कमरों में सावित्री बाई और फ़ातिमा शेख़ ने मिलकर लड़कियों को तालीम देने की शुरुआत की थी.
हमें जानकारी मिलती है कि दलितों, वंचितों, स्त्रियों को तालीम देने की वजह से फुले दंपती और ख़ासकर सावित्री बाई को काफ़ी बाधाएँ, विरोध, परेशानियाँ और बेइज़्ज़ती सहनी पड़ी.
ज़ाहिर है यह सामाजिक विरोध और बेइज़्ज़ती फ़ातिमा के खाते में भी आयी होगी. अगर पत्थर, गोबर, कीचड़ सावित्री बाई पर फेंके गए और उनका माखौल उड़ाया गया और ताने दिए गए तो यह कैसे मुमकिन है कि उनकी ख़ास सहयोगी और दोस्त फ़ातिमा इन सब से बच गई होंगी. ध्यान रहे, फ़ातिमा जिस समुदाय से आती हैं, वह भी उन्हें ख़ास बनाता है.
इस स्कूल की उम्र और सावित्री बाई की हम उम्र होने की वजह से फ़ातिमा शेख़ की पैदाइश अंदाज़न एक सौ अस्सी-नब्बे साल पहले हुई होगी. इनके काम का क्षेत्र अंग्रेज़ों के ज़माने का पुणे था.
सावित्री बाई की वो चिट्ठी
अब एक सबसे अहम बात. वह यह बात है जो फ़ातिमा शेख़ और सावित्री बाई के मज़बूत बहनापे का सबसे बड़ा स्रोत और सुबूत है.
सावित्री बाई मायके गई हैं. वहाँ उनकी तबीयत ख़राब हो जाती है. वो पुणे आने की हालत में नहीं हैं. तब तक पुणे में वंचितों और लड़कियों के लिए कई स्कूल खुल चुके हैं. काम काफ़ी ज़्यादा है. तालीम का काम करने वाले जुनूनी लोग कम हैं. ज़ाहिर है, इन स्कूलों के बारे में वे फ़िक्रमंद हैं. वे फुले की चिंता भी समझ रही हैं.
इसी दिमाग़ी हालत में वे 10 अक्टूबर 1856 यानी 164 साल पहले ‘सत्यरूप जोतिबा’ को एक चिट्ठी लिखती हैं. वे लिख रही हैं, ‘मेरी फ़िक्र न करें. फ़ातिमा को तकलीफ़ होती होगी. मगर वह आपको परेशान नहीं करेगी और किसी तरह की शिकायत नहीं करेगी.’
फ़ातिमा को किस बारे में तकलीफ़ होती होगी और वह क्यों नहीं परेशान करेगी? यह स्कूल से जुड़ी बात है. यानी, फ़ातिमा महज़ यों ही पढ़ाने वाली कोई स्त्री नहीं हैं. वे सावित्री बाई के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़कियों को तालीम देने की जद्दोजेहद में शामिल हैं.
ज़िम्मेदारी उठाने में वे भी बराबर की भागीदार और साझीदार हैं. वे उनकी साथी हैं. मगर उनकी अपनी अलग शख़्सियत भी है. तब ही तो वे अकेले स्कूल संभाल रही हैं. यह चिट्ठी कुछ और नहीं तो इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है.
यह एक ज़िक्र फ़ातिम शेख़ को दिमाग़ और ज़िंदगी दे देता है. यानी फ़ातिमा शेख़ किसी की दिमाग़ की उपज नहीं हैं. फ़ातिमा थीं. दिमाग़दार थीं. समाज की मुख़ालफ़त के सामने डटकर वंचितों और स्त्रियों के हक़ में खड़ी रहीं.
तो अगर सावित्री बाई पहली महिला शिक्षिका हैं तो फ़ातिमा बाई को क्या दर्ज़ा मिलना चाहिए? वे भी तो पहली टीचर हुईं. कई लोग उन्हें पहली मुसलमान टीचर कहने की कोशिश कर रहे हैं. मगर सवाल है कि जब हम सावित्री बाई के साथ ऐसा कुछ विशेषण नहीं लगा रहे हैं तो फ़ातिमा के साथ क्यों लगाना ही चाहिए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.