रुमनी घोष, जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। वैसे तो मोटापे को लेकर समय-समय पर चिंताएं व्यक्त की जाती रही हैं, लेकिन हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मेडिकल जर्नल लैंसेट के अनुसार वर्ष 2050 तक देश के 44 करोड़ लोग मोटापे से ग्रस्त हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी मोटापे के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेड़ते हुए खाने से 10 प्रतिशत तेल कम करने की अपील की है। देश के लोगों की सेहत सुधारने के इस अभियान में कई प्रतिष्ठित आयुर्वेदाचार्य लंबे अरसे से जुटे हैं। उनमें से एक हैं वैद्य ताराचंद शर्मा। बीते सप्ताह आयुष मंत्रालय ने उन्हें राष्ट्रीय धन्वंतरि आयुर्वेद पुरस्कार से सम्मानित किया।
राजस्थान के झुंझुनूं के रहने वाले 83 वर्षीय ताराचंद शर्मा अखिल भारतीय आयुर्वेद विद्यापीठ के अध्यक्ष हैं और नाड़ी वैद्य के रूप में ख्यात हैं। करियर के शुरुआती दौर में राजस्थान में कार्यरत रहे। फिर वह दिल्ली आ गए और चैरिटेबल अस्पताल से जुड़ गए। उन्होंने आयुर्वेद पर अब तक 60 से ज्यादा पुस्तकें लिखी हैं।
उनकी लिखी पुस्तकें बीएएमएस (बैचलर इन आयुर्वेद मेडिसिन और सर्जरी) व एमडी में पढ़ाई जा रही हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी उनका अपने शरीर पर इतना नियंत्रण है कि गर्मी में उनका वजन 55 से 57 किग्रा. और ठंड में 60 किग्रा. के पार नहीं जाता है। उनका सुझाव है कि यदि आने वाली पीढ़ी को मोटापे से बचाना है, तो इसकी जिम्मेदारी हर मां को लेनी होगी। वह कहते हैं मैं सभी मांओं से आग्रह करना चाहता हूं कि वे अपने बच्चों से यह पूछना बिलकुल बंद कर दें कि बेटा, क्या खाओगे। उनकी सेहत के लिए जो फायदेमंद हैं, वही बनाएं और खिलाएं। साथ ही कच्चे फल-सब्जियों के सलाद को आहार से बाहर कर दें।
दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे आयुर्वेद की आज के समय में जरूरत और एलोपैथी से प्रतिस्पर्धा के दौर में आयुर्वेद पर लग रहे आरोपों, भ्रम और मरीजों के हित के लिए चिकित्सा विधाओं के बीच समन्वय पर विस्तार से चर्चा की।
जवाब– आयुर्वेद तो नाम ही है संतुलित जीवन पद्धति का। यह हर व्यक्ति को उनके शरीर की प्रकृति के अनुसार स्वस्थ रहने की कला सिखाता है, लेकिन हमने इसे अनदेखा ही किया है। उसका ही परिणाम है कि अब संकट इतनी विकट हो गई है कि सरकार को अभियान छेड़ना पड़ रहा है। जहां तक बात समाधान की है तो निश्चित रूप से आयुर्वेद में बताए गए जीवन पद्धति के जरिये इसका हल ढूंढा जा सकता है। यह नियंत्रित हो गया तो ब्लड प्रेशर, शुगर जैसी बीमारियों पर काबू पाना आसान हो जाएगा। देश की सेहत सुधारनी है तो लोगों को अपनी सेहत सुधारनी होगी।
मोटापे को नियंत्रित कैसे किया जाए?सवाल– आखिर मोटापे को कंट्रोल कैसे कर सकते हैं?जवाब– यह तो सभी को पता है कि जंक फूड, यानी पिज्जा, बर्गर संस्कृति मोटापे का कारण है। अब इसके पीछे के कारण को टटोलना जरूरी है। कसरत या डाइटिंग की बात तो बाद में होगी… सबसे पहले मैं सभी मांओं से कहना चाहता हूं कि वे अपने बच्चों को सेहतमंद देखना चाहते हैं तो यह पूछना बंद कर दें कि बेटा क्या खाओगे? वह अपने बच्चों को वह खिलाएं जो उनके लिए सेहतमंद हो। जब मैं आज के बच्चों को देखता हूं तो मुझे मेरा बचपन याद आता है। रात में जब सबके लिए खाना बनता था तो मां थोड़ी ज्यादा रोटियां बनाकर रख देती थीं। सुबह नाश्ते में वही रोटियां मिलती थीं। दही रखा रहता था। मां एक बार भी नहीं पूछती थी कि क्या खाना है। खाना है…भूख लगी है तो वही खाना पड़ेगा। आज मैं सोचता हूं कि जाने-अनजाने ही सही, वह हम बच्चों को कितना सेहतमंद और संतुलित खाना खिलाती थीं।
सवाल– आपने कहा कि माएं तय करें कि उन्हें बच्चों को क्या खिलाना है? कैसे तय करें?जवाब– आयुर्वेद में सब्जियों को दो हिस्सों में बांटा गया है। पथ्य (खाने योग्य) और अपथ्य (नहीं खाने योग्य)। पथ्य में आने वाली सब्जियों को खाने में कोई परहेज नहीं है। जैसे घीया (लौकी), तोरी, टिण्डे, पैठा (कद्दू), परवल, पत्ता गोभी, करेला, आलू, मैथी, बथुवा, कच्ची मूली, शलगम, शिमला मिर्च। यह सब्जियां आपके नियमित आहार का हिस्सा होना चाहिए। वहीं अपथ्य में भिंडी, अरबी, पनीर, फूल गोभी, फली वाली सब्जी, मटर, ग्वारफली, किसी भी तरह के बीज (लोबिया, राजमा, सेम, राजमा, बीन्स, छोले), उड़द दाल शामिल हैं। यह सब चीजें नियमित आहार में शामिल नहीं होना चाहिए। इसके दुष्परिणाम को इस तरह से समझिए कि ठंडी में लोग लगातार मटर खाते रहते हैं। यदि तीन महीने तक आप लगातार मटर खाते रहे तो आप अपना हाथ सीधा नहीं रख पाएंगे।
“शरीर में एसिड की मात्रा इतनी बढ़ जाएगी कि हाथ कांपने लगेगा। इसी तरह विदेशियों को देख-देखकर हमारे यहां भी लोगों ने सलाद खाना शुरू कर दिया है। इसे तुरंत बंद करना चाहिए। केमिकल से उगाई हुई सब्जियों को कच्चा खाने से उसमें मौजूद रसायन भी हमारे शरीर में जाता है। यह वायु उत्पन्न करता है। यही नहीं सेव, आम, आडू, लीची, चेरी, अनानस, संतरा, मौसमी, बबुबोसा, अंगूर का भी नियमित सेवन नहीं होना चाहिए। यह रोजाना खाने वाली चीज नहीं है। इन सब्जियों और फलियों को महीने में एकाध बार खाएं तो ठीक है। दलिया, उपमा, सेवइयां, मखाने की खीर, श्यामक के चावल, दूध-मुरमुरा, भुने चने, पापकार्न जैसी चीजें नियमित नाश्ते का हिस्सा हो सकता है।” वैद्य ताराचंद शर्मा
सवाल- सामान्य कद-काठी के भारतीयों का औसत वजन कितना होना चाहिए?जवाब- सामान्य तौर पर 60 से 70 किलो।सवाल- आजकल लोगों को गेहूं का आटा खाने से भी मना किया जा रहा है, क्यों?जवाब- बिलकुल सही है। इन दिनों यह शिकायत बड़े पैमाने पर आ रही है कि आटा हजम नहीं हो रहा है। अब आप कहेंगे के बरसों बरस से लोग रोटी खाते आ रहे हैं। फिर ऐसा क्या हो गया? जरा पीछे मुड़कर देखिए। वर्ष 2000 तक भी दिल्ली जैसे शहर में लोग गेहूं खरीदकर लाते थे। फिर उसे धोकर-सुखाकर पिसवाते थे। धोने की वजह से छिड़काव किए गए पेस्टीसाइड्स या केमिकल निकल जाते थे, लेकिन अब सीधे पैकेटबंद आटा आ रहा है। इसमें ग्लूटेन की मात्रा इतनी ज्यादा है कि हजम करने में दिक्कत पैदा कर रही है। इसकी जगह श्यामक के चावल का उपयोग ठीक है।
सवाल- हेल्दी लाइफ स्टाइल तो ठीक है, लेकिन इलाज के मामले में लोग आयुर्वेद पर पूरी तरह यकीन नहीं कर पाते हैं। क्यों?जवाब- आजादी के बाद से ही आयुर्वेद की उपेक्षा शुरू हो गई थी। पहली चिकित्सा मंत्री राजकुमारी अमृत कौर थीं। विदेश में पढ़ी-लिखी होने की वजह से उनका झुकाव एलोपैथी की ओर ज्यादा था। उन्होंने आयुर्वेद या किसी अन्य चिकित्सकीय विधा के प्रचार-प्रसार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। यहां तक कि जिस देश में आयुर्वेद का जन्म हुआ, उस देश में इस चिकित्सा की मान्यता और प्रचार-प्रसार के लिए कोई पहल नहीं की गई थी। वह तो बरेली के वैद्य डा. धर्म दत्त व उत्कल के वैद्य पंडित शिव शर्मा सहित अन्य का लंबा संघर्ष रहा, तब जाकर कहीं चिकित्सा विज्ञान में आयुर्वेद और अन्य चिकित्सकीय विधा को मान्यता मिल पाई।
सवाल- आयुर्वेदिक दवाइयों में मिलाए जाने वाले पारे से होने वाले नुकसान के मामले सामने आते रहते हैं? क्या यह सही है?जवाब- यह सही कि आयुर्वेद में पारे का उपयोग होता है, लेकिन उसे चूर्ण में मिलाने से पहले आठ संस्कारों से शुद्ध किया जाता है। पारा यदि रेखा पूरित (यदि अंगुलियों की पोरो में समा जाए और किसी सतह पर छाप लेने पर फिंगर प्रिंट साफ तौर पर दिखाई दे) है तो वह शुद्ध है। इलाज की पद्धति में कोई गड़बड़ी नहीं है, बल्कि गलती उसे सटीक ढंग से नहीं बना पाने वाले डाक्टरों, फार्मा कंपनियों की है। जो गलत दवाइयां बना रहे हैं, सरकार उन्हें रोकें। कड़ी कार्रवाई करें।
सवाल- आरोप लगता आया है कि आयुर्वेद अवैज्ञानिक है? एलोपैथी में एक ही दवा दुनियाभर के मरीजों पर एक जैसा असर करती है, लेकिन आयुर्वेद में ऐसा नहीं है।जवाब- पूरी एलोपैथी ही ‘ट्रायल एंड एरर’ पर चल रही है। आज ट्रायल करते हैं और दस-बीस साल बाद जब बड़े पैमाने पर साइड एफेक्ट्स सामने आते हैं, उन दवाइयों को बाजार से बड़ी आसानी से वापस ले लिया जाता है। आयुर्वेद में सारे ट्रायल चरक संहिता लिखे जाने से पहले ही कर लिए गए। उनके परिणामों में आज भी कोई बदलाव नहीं है। उसमें लिखी पद्धतियों से चूर्ण या दवाइयां बनाइए। निश्चित रूप से परिणाम देगा। चरक संहिता में सिर्फ इंसान ही नहीं बल्कि जानवरों में होने वाले ज्वर व व्याधियों के लिए भी उपचार हैं।कैंसर या मधुमेह जैसी बीमारियों का कारगर इलाज है क्या आयुर्वेद में?जवाब- तो क्या एलोपैथी के पास इन बीमारियों का इलाज है? आयुर्वेद में इसकी दवाइयां उपलब्ध हैं, लेकिन लोग विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। आयुर्वेदिक दवाइयों में मेटल्स और मिनरल्स है कहकर डराया जाता है। और सबसे बड़ी बात लोगों को पथ्य का पालन यानी परहेज नहीं होता है। इसकी वजह से बड़े पैमाने पर परिणाम सामने नहीं आ पाते हैं।सवाल- गंभीर बीमारी के इलाज के लिए लोग पूरी तरह से भरोसा क्यों नहीं कर पा रहे हैं?जवाब- आयुर्वेद का इलाज परहेज पर निर्भर है। अधिकांश लोग यह नहीं कर पाते हैं तो उन्हें परिणाम नहीं मिल पाता है।सवाल- तो क्या आयुर्वेद में शोध की जरूरत नहीं है? या फिर संसाधनों की कमी है?
जवाब- दुनिया के बीच आयुर्वेद की क्षमताओं से अवगत करने के लिए शोध जरूरी हैं। जनकपुरी स्थित सेंटर काउंसिल फार रिसर्च इन आयुर्वेद साइंस (सीसीआरएएस) के अधीन आने वाले देशभर की 16 संस्थाएं इस दिशा में काम कर रही हैं। इस समय देशभर में कम से कम 100 ख्यात आयुर्वेदाचार्य हैं, जिनके अधीन दो-दो बीएएमएस के विद्यार्थी प्रशिक्षण ले रहे हैं, ताकि वह पुरानी से पुरानी विधा को सीख सकें। हालांकि मेरा मानना है कि और मदद की जरूरत है।सवाल- चलते-फिरते, जिम करते, खेलते हुए हार्ट अटैक की घटनाएं हो रही हैं? क्या वजह है?जवाब- डॉक्टर्स सहमत-असहमत हो सकते हैं, लेकिन मेरा दावा है कि 80 प्रतिशत मरीजों को हार्ट अटैक बताकर स्टेंट लगाया जा रहा है, जबकि वह गैस का दर्द है। गैस हृदय को नीचे से दबाता है। इसकी वजह से यह परेशानी आ रही है।
सवाल- आप नाड़ी विज्ञान के ज्ञाता हैं। क्या नाड़ी देखकर एक व्यक्ति सजग हो सकता है और समय पर अस्पताल पहुंच सकता है?जवाब- नाड़ी एक तरह से प्रेस्क्रिप्शन है…। जिस पर आपके भीतर चल रही सारी गतिविधियां लिखी होती हैं। वैद्य अपनी तीन अंगुलियों को उन नाड़ियों पर रखकर उसे पढ़ लेता है। इसके लिए गहन प्रशिक्षण की जरूरत है। आयुर्वेद की डिग्री लेने वाले हर डाक्टर को यह बहुत गंभीरता से सीखना चाहिए।
बाबा रामदेव एलोपैथी पर आरोप लगाते रहते हैं। क्या आप उनसे सहमत हैं?जवाब- बाबा रामदेव कई मायनों में सही हैं। आयुर्वेद या अन्य चिकित्सा पद्धति इसी देश की देन है, फिर भी एलोपैथी के डाक्टर्स इसके खिलाफ प्रचार करते रहते हैं। जिस बीमारी का इलाज हमारे पास बहुत कारगर नहीं होता, हम उन्हें एलोपैथी के डाक्टर्स के पास भेजते हैं। एलोपैथी के डाक्टर्स भी हमारे पास मरीज भेज सकते हैं, लेकिन वह मरीज के मरते दम तक ऐसा नहीं करते हैं।
“आयुर्वेद में कई क्षार ऐसे हैं जो किडनी, गालब्लाडर की पथरियों को कुछ महीने में गलाकर खत्म कर सकता है, लेकिन वह आपरेशन कर मरीजों का अंग निकालने में विश्वास करते हैं। इसी तरह 80 प्रतिशत मरीजों को गैस की शिकायत होती है,लेकिन हार्ट की बीमारी बताकर स्टेंट लगा देते हैं। फिर उन्हें जिंदगी भर दवाई पर रखते हैं। बीपी, शुगर, हार्ट, थाइराइड सभी में एलोपैथी के डाक्टर्स मरीजों को जिंदगी भर दवाई खिलाते रहते हैं। यह उपचार नहीं है। दवा देकर मर्ज को पूरी तरह से ठीक कर देना ही सही उपचार है।” वैद्य ताराचंद शर्मा
सवाल- चिकित्सा की अलग-अलग विधाओं के बीच कैसे तालमेल बिठाया जा सकता है?जवाब- चीन में जब भी कोई मरीज अस्पताल पहुंचता है तो उसका इलाज पहले चाइनीज पद्धति से होता है। यदि मरीज वहां ठीक नहीं होता है तो वे लोग उसे एलोपैथी के लिए रेफर करते हैं। कुछ इसी तरह का तालमेल यहा होना चाहिए। लड़ाई के बजाय पहली प्राथमिकता मरीज को ठीक करना होना चाहिए।
आयुर्वेद के डाक्टरों को कोई संदेश?जवाब- आयुर्वेद के प्रति भ्रम के लिए सिर्फ एलोपैथी ही नहीं, बल्कि आयुर्वेद के वे डॉक्टर्स भी जिम्मेदार हैं, जो पैसा कमाने के लिए एलोपैथी विधा से इलाज करने लगते हैं। इससे उनका ही भविष्य खतरे में है और उनका पूरा अध्ययन बेकार हो रहा है।सवाल- आप नाड़ी वैद्य हैं और 60 से ज्यादा पुस्तकें लिख चुके हैं? आदमी नाड़ी देखकर कैसे समझ सकता है कि उसे क्या बीमारी है? या उसे किसी तरह की कोई चिकित्सकीय बीमारी है?जवाब- मैं इंटर के बाद जयपुर आ गया था। मेरे जीजाजी की आयुर्वेदिक दवाइयों की दुकान थी। वहां मैंने चूर्ण बनाना, नाड़ी देखना सीख लिया था। सबने कहा कि जब यह सब आ गया है तो आयुर्वेद की डिग्री ले लो। राजस्थान यूनिवर्सिटी के अधीन आने वाले आयुर्वेद के कालेज में प्रवेश ले लिया।
वर्ष 1967 आयुर्वेदाचार्य बना। चार साल जयपुर में ही पढ़ाया। वर्ष 1971 से 1978 में रोहतक अध्यापन कार्य से जुड़ा रहा। देशभर के कालेजों में मेरी लिखी किताबें चलने लगी थी। मेरे सहकर्मियों, जूनियर्स व छात्रों ने आग्रह किया कि सर, हम आपकी किताबें ही पढ़कर एमडी कर रहे हैं। आप भी करो। वैद्य ताराचंद शर्मा
ताराचंद शर्मा ने कहा, “एमडी करने के बाद 1980 में दिल्ली आया और लाजपतनगर स्थित मूलचंद खराती राम अस्पताल से जुड़ गया। यह लाहौर का प्रतिष्ठित अस्पताल हुआ करता था। विभाजन के बाद उनके परिवार ने दिल्ली में इसे पुनः खोला। उसी दौरान अखिल भारतीय आयुर्वेद विद्यापीठ से जुड़ गया। भारत सहित नेपाल व श्रीलंका के 152 कालेज इसके अधीन थे।”यह भी पढ़ें: ‘सरकारी नौकरी के पद कम, कैंडिडेट ज्यादा’, सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी; इस मामले में हाईकोर्ट का आदेश पलटा