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बांग्लादेश से पिछले साल अगस्त महीने में शेख़ हसीना के सत्ता बेदख़ल होने के बाद से ही भारत से रिश्तों में तनाव दिख रहा था.
लेकिन अगले साल फ़रवरी में होने वाले चुनाव से पहले बांग्लादेश में भारत एक अहम मुद्दा बन गया है.
ढाका स्थित भारतीय उच्चायोग और देश भर में उसके सहायक उच्चायोगों को धमकियों का सामना करना पड़ रहा है.
भारत के लिए यह मायने रखता है कि बांग्लादेश में फ़रवरी में होने वाले चुनाव में किसे जीत मिलती है.
भारत को लेकर हालिया नाराज़गी 12 दिसंबर को 32 वर्षीय शरीफ़ उस्मान हादी की गोली मारकर हत्या से भड़की.
हादी उस आंदोलन में शामिल थे, जिसके चलते प्रधानमंत्री शेख़ हसीना को पाँच अगस्त 2024 को सत्ता से हटना पड़ा था.
इंक़लाब मंच के प्रवक्ता हादी को पिछले शुक्रवार ढाका में बाइक सवार नकाबपोश हमलावरों ने सिर में गोली मार दी थी. तब हादी 12 फ़रवरी को होने वाले चुनावों के लिए अपने अभियान की शुरुआत कर रहे थे.
18 दिसंबर को उनकी मृत्यु हो गई. बांग्लादेश में सोशल मीडिया पर कहा जाने लगा कि हादी पर हमला करने वाले सीमा पार कर भारत चले गए हैं.
इस दावे ने हादी के समर्थकों में ग़ुस्सा भड़का दिया. ढाका में भारतीय उच्चायोग के आसपास भीड़ जमा होने लगी और नेशनल सिटिज़न पार्टी (एनसीपी) के नेता हसनत अब्दुल्लाह भारतीय उच्चायुक्त को निकालने की मांग करने लगे.
ढाका स्थित उच्चायोग के अलावा भारत के चार सहायक उच्चायोग चटगांव, राजशाही, खुलना और सिलहट में हैं.
इन प्रदर्शनों के चलते बांग्लादेशी नागरिकों के लिए वीज़ा आवेदन केंद्र एक दिन के लिए बंद करना पड़ा. भारत ने दिल्ली में बांग्लादेश के राजदूत को तलब किया है और ढाका के अधिकारियों से अपने मिशनों की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा.
बांग्लादेश भारत से जो चाहता है
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बांग्लादेश के दो प्रमुख अख़बारों के दफ़्तरों पर भी हमले हुए. इन हमलों से द डेली स्टार और प्रथम आलो के प्रकाशन भी प्रभावित हुए.
शेख़ हसीना के आलोचकों का आरोप है कि ये मीडिया संस्थान उनके ‘सहयोगी’ और ‘भारत समर्थक’ थे. हालांकि इन दोनों ने शेख़ हसीना की सरकार का भी विरोध किया था.
इन दोनों समाचार संगठनों ने पिछले साल छात्रों के नेतृत्व में हुए हसीना-विरोधी प्रदर्शनों का समर्थन किया था.
शेख़ हसीना अगस्त 2024 से भारत में रह रही हैं. हसीना को बांग्लादेश में मौत की सज़ा सुनाई गई है. मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार भारत से शेख़ हसीना का प्रत्यर्पण चाहती है.
लेकिन भारत सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया है. बांग्लादेश की सरकार इसे लेकर कई बार नाराज़गी जता चुकी है.
बांग्लादेश के चुनाव पर भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की क़रीबी नज़र है.
भारत ने 14 दिसंबर को कहा था कि वह बांग्लादेश में ‘शांतिपूर्ण माहौल’ में स्वतंत्र, निष्पक्ष, समावेशी और विश्वसनीय चुनावों के पक्ष में है.
ज़ाहिर है कि समावेशी का मतलब चुनाव प्रक्रिया में हसीना की अवामी लीग को शामिल करना है. बांग्लादेश सरकार ने अपने बयानों में ‘समावेशी’ शब्द का उल्लेख नहीं किया है.
उसने कहा है कि वह सर्वोच्च मानकों वाले चुनाव कराना चाहती है और ऐसा माहौल बनाना चाहती है, जिसमें लोग मतदान के लिए प्रोत्साहित हों.
अंतरिम सरकार का कहना है कि ऐसा माहौल पिछले 15 वर्षों से मौजूद नहीं रहा है.
बांग्लादेश के विदेश मामलों के सलाहकार तौहीद हुसैन को भारत की यह टिप्पणी रास नहीं आई.
तौहीद हुसैन ने कहा, ”भारत के हालिया बयान में हमारे लिए सलाह शामिल थी. मुझे नहीं लगता कि इसकी कोई ज़रूरत है. हम यह नहीं चाहते कि पड़ोसी देश हमें यह सलाह दे कि बांग्लादेश में चुनाव कैसे कराए जाने चाहिए.”
बीएनपी के भारत से रिश्ते
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बांग्लादेश में शेख़ हसीना की सरकार से भारत के अच्छे संबंध रहे हैं. इस बार के चुनाव में शेख़ हसीना की बांग्लादेश अवामी लीग को चुनाव में हिस्सा से प्रतिबंधित कर दिया गया है.
बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की सरकार से भारत के अच्छे संबंध नहीं रहे हैं. बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की अध्यक्ष ख़ालिदा ज़िया बीमार हैं.
इस महीने की शुरुआत में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ालिदा ज़िया की सेहत के लिए दुआ करते हुए हर तरह की मदद की पेशकश की थी. पीएम मोदी की इस पेशकश को बीएनपी के प्रति भारत की नरमी के रूप में देखा जा रहा है.
ख़ालिदा ज़िया चार दशक से ज़्यादा समय से बांग्लादेश की राजनीति में हैं. अपने पति के मारे जाने के बाद ख़ालिदा ज़िया ने बीएनपी की कमान अपने हाथों में ली थी.
1981 में ज़ियाउर रहमान बांग्लादेश के राष्ट्रपति थे और तभी उनकी हत्या कर दी गई थी. ख़ालिदा ज़िया बांग्लादेश में बहुदलीय लोकतंत्र की समर्थक रही हैं.
बेगम ज़िया 1991 में बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनी थीं. 1991 में बीएनपी को चुनाव में जीत मिली थी. इसके बाद वो 2001 में सत्ता में लौटी थीं और 2006 तक रही थीं.
बीएनपी ने पिछले तीन चुनावों का बहिष्कार किया है. 2024 में शेख़ हसीना के ख़िलाफ़ शुरू हुए आंदोलन का ख़ालिदा ज़िया ने समर्थन किया था.
बीएनपी अभी बांग्लादेश की सबसे बड़ी पार्टी है और कहा जा रहा है कि अगले साल होने वाले चुनाव में वो सत्ता में आ सकती है.
भारत में एक्सपर्ट्स क्या कह रहे हैं?
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भारत की पूर्व विदेश सचिव निरूपमा राव मानती हैं कि अगर शेख़ हसीना सत्ता में होतीं तो बांग्लादेश जिस रास्ते पर बढ़ता दिख रहा है, वैसा नहीं होता.
निरूपमा राव ने एक्स पर लिखा है, ”शेख़ हसीना को उनके विदेश विरोधियों ने बहुत ही संकीर्ण नज़रिए से देखा. बांग्लादेश का मूल्यांकन ऐसे किया गया मानो वह मतदान प्रतिशत की समस्या से जूझता डेनमार्क हो, न कि एक नाज़ुक, अत्यधिक घनी आबादी वाला देश, जिसकी पृष्ठभूमि हिंसक इस्लामवादी इतिहास और गहरी त्रासदी से गुज़री राजनीतिक संस्कृति की रही है.”
निरूपमा राव कहती हैं, ”ऐसा करते हुए तीन तीखी हक़ीक़तों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया. पहला, हसीना कोई क्रांतिकारी नहीं थीं बल्कि एक शत्रुतापूर्ण माहौल में देश-निर्माता थीं. एक स्थिर शक्ति थीं. उन्होंने जमात और उसके सहयोगी संगठनों को नियंत्रण में रखा. नागरिक-सैन्य संतुलन बनाए रखा. किसी भी यथार्थवादी विकल्प की तुलना में अल्पसंख्यकों की बेहतर सुरक्षा की और बांग्लादेश को आर्थिक के साथ भू-राजनीतिक रूप से प्रासंगिक बनाए रखा. उनके पश्चिमी विरोधी यह जानते थे लेकिन उन्होंने इसे जानबूझकर कम करके आंका.”

राव कहती हैं, ”दूसरा उन्होंने ‘लोकतांत्रिक विपक्ष’ को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दे दिया. कोई विश्वसनीय, एकजुट, उदार विकल्प परदे के पीछे तैयार खड़ा नहीं था. हसीना पर दबाव बढ़ाने से लोकतंत्र समर्थक ताक़तें सशक्त नहीं हुईं. इसके बजाय सड़क की ताक़त, कट्टरपंथी तत्व और लोग मज़बूत हुए जो संस्थाओं के कमज़ोर पड़ते ही फलते-फूलते हैं.”
“तीसरा, यह पुरानी आदत थी यह मान लेने की कि किसी मज़बूत सत्तावादी को गिराने या उसकी वैधता को कमज़ोर करने से अपने आप बहुलतावाद के लिए जगह बन जाती है. इतिहास में इसकी मिसालें हैं. विभाजित समाजों में सत्ता के ख़ालीपन को उदारवादी ताक़तें नहीं भरतीं. उसे भरती हैं सबसे ऊँची आवाज़ वाली, सबसे क्रोधित और सबसे संगठित शक्तियाँ. अक्सर धार्मिक कट्टरता और हिंसा.”
राव कहती हैं, ”ये विनाशकारी चूकें थीं. इसलिए नहीं कि हसीना ग़लत नहीं थीं बल्कि इसलिए कि राज्य का पतन हमेशा अपूर्ण व्यवस्था से कहीं अधिक बुरा होता है. लोकतांत्रिक दिखावे के पीछे भागते हुए एक ऐसी प्रक्रिया तेज़ हो गई जिसने राजनीति को खोखला कर दिया, उत्पीड़न को सामान्य बना दिया और पूरे देश को अस्थिर कर दिया.”
किस तरफ़ बढ़ रहा है बांग्लादेश?
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भारत के अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय मामलों के संपादक स्टैनली जॉनी भी मानते हैं कि शेख़ हसीना कोई क्रांतिकारी नहीं थीं लेकिन हिंसक तत्वों के ख़िलाफ़ मज़बूत दीवार थीं.
स्टैनली जॉनी ने एक्स पर लिखा है, ”मैं पहले दिन से ही बांग्लादेश में हुई इस कथित ‘क्रांति’ को लेकर संशय में रहा हूँ. ऐसा नहीं था कि हसीना में कमियां नहीं थीं. बांग्लादेश एक गहराई से विभाजित समाज है. हसीना देश के सबसे हिंसक तत्वों के ख़िलाफ़ एक मज़बूत दीवार थीं. आप और मैं जमात-ए-इस्लामी के अतीत को भली-भांति जानते हैं.”
“हसीना के पतन ने एक विशाल ख़ालीपन पैदा कर दिया, जिसे हर तरह के हाशिये के और चरमपंथी तत्वों ने भरने की कोशिश की. यूनुस बस उसी बहाव के साथ चलते चले गए. एक चतुर शासक राजनीतिक स्थिरता को दोबारा खड़ा करने, क़ानून के शासन को लागू करने और चरमपंथियों को सत्ता और सड़कों से दूर रखने की कोशिश करता. लेकिन यूनुस या तो अक्षम थे या फिर इसमें हिस्सेदार.”
स्टैनली जॉनी ने लिखा है, ”जमात को फिर से मुख्यधारा में ला दिया गया. नए कट्टरपंथी समूहों को सड़कों पर खुली छूट दे दी गई. धार्मिक अल्पसंख्यकों, अहमदिया मुसलमानों और अवामी लीग समर्थकों के ख़िलाफ़ व्यापक हिंसा हुई और इन सब पर ‘क्रांति’ की चादर डालकर पर्दा डाल दिया गया.”
“पहले छात्र लीग पर प्रतिबंध लगाया गया और फिर अवामी लीग पर भी, जो देश की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों में से एक है. और उसके बाद उन्होंने लोकतांत्रिक चुनाव कराने की घोषणा कर दी! यह कैसी विडंबना है.”

स्टैनली ने लिखा है, ”हसीना और उनकी पार्टी के नेताओं के ख़िलाफ़ एक दिखावटी अदालत चलाई गई और उन्हें मौत की सज़ा सुना दी गई. इससे समाज में विभाजन और गहरा हो गया. बिना चुनी हुई, ग़ैर-प्रतिनिधि अंतरिम सरकार एक साल से भी ज़्यादा समय तक सत्ता में बनी रही.”
“उन्होंने पाकिस्तान के जनसंहारक जनरलों से बांग्लादेश की मुक्ति के मूल्यों को खुलकर चुनौती दी (1971 कोई बहुत दूर की बात नहीं है), उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ रुख़ अपनाया, जिसने उन्हें आज़ादी दिलाई (उनके आवास पर कितनी बार हमला हुआ!) और संविधान को फिर से लिखना चाहा.”
“जुलाई–अगस्त 2024 में जो हुआ, वह कोई क्रांति नहीं थी, वह एक प्रति-क्रांति (काउंटर-रिवोल्यूशन) थी. ख़ुद देख लीजिए कि ‘नया बांग्लादेश’ कैसा दिखता है. यूनुस को भूल भी जाएँ, तो चुनाव के बाद आने वाली अगली सरकार को भी नफ़रत और ग़ुस्से से भरी सड़कों के बीच देश को स्थिर करने में भारी मुश्किल होगी. लंबे समय तक अस्थिरता और हिंसा के लिए तैयार रहिए.”
स्टैनली की इस पोस्ट के जवाब में बांग्लादेश के राजनीतिक विश्लेषक यूसुफ़ ख़ान ने लिखा है, ”वर्तमान अराजकता के लिए शेख़ हसीना को छोड़कर बाक़ी सभी को दोष देना ज़िम्मेदारी से बचने का एक सुविधाजनक तरीक़ा है, लेकिन यह गंभीर जाँच-परख पर खरा नहीं उतरता. अगर हम ईमानदार हों, तो आज की इस अव्यवस्था की मुख्य और निर्णायक ज़िम्मेदारी शेख़ हसीना और उनके द्वारा निर्मित व्यवस्था पर ही आती है.”
इसके जवाब में स्टैनली ने लिखा है, ”आप शेख़ हसीना को जितना चाहें दोषी ठहराएँ. मैं किसी का पक्ष नहीं ले रहा हूँ. लेकिन आज हसीना सड़कों पर घूमकर इमारतें नहीं जला रही हैं और न ही लोगों की भीड़ द्वारा हत्या करवा रही हैं.”
“जिन ताक़तों का उन्होंने विरोध किया था और जो उनसे नफ़रत करती थीं, वही आज ये सब कर रही हैं. उन्हें भी उनकी हिस्सेदारी का दोष दीजिए. हसीना को सत्ता से हटाए जाने के 15 महीने बाद भी बांग्लादेश को जकड़ चुकी अराजकता और हिंसा के लिए लगातार उन्हें ही दोषी ठहराना, असल में ज़िम्मेदारी से बचने जैसा ही है.”
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