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बांग्लादेश में अगले साल 12 फ़रवरी को होने वाले आम चुनाव को ध्यान में रखते हुए नेशनल सिटीज़न पार्टी (एनसीपी) जमात-ए-इस्लामी के साथ सीटों के समझौते पर बातचीत कर रही है.
इस बीच, पार्टी और इसके ज़्यादातर नेताओं के ग़लत राह पर चलने का आरोप लगाते हुए एक केंद्रीय नेता ने एनसीपी से इस्तीफ़ा दे दिया है.
अब इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि जमात के साथ चुनावी समझौते की स्थिति में पार्टी के कुछ और केंद्रीय नेता भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं.
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि चुनावी समझौते पर पार्टी में आम राय नहीं होने के बावजूद जमात की ओर एनसीपी का झुकाव क्यों बढ़ रहा है?
कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि एनसीपी ने पहले राजनीति में नई व्यवस्था शुरू करने, 300 सीटों पर उम्मीदवार उतारने और चुनाव जीत कर सरकार के गठन जैसे दावे के साथ अपने आत्मविश्वास का परिचय दिया था.
लेकिन इसके बावजूद अब एक पुरानी राजनीतिक ताक़त के साथ गठजोड़ के मुद्दे पर बातचीत ने पार्टी के रुख पर सवालिया निशान लगा दिया है.
हालांकि, एनसीपी नेताओं की दलील है कि चुनावी समझौते को अब तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है.
कई अन्य राजनीतिक दलों के साथ भी इस मुद्दे पर बातचीत चल रही है. लेकिन, सुधारों के मुद्दे पर जमात के साथ अपने रुख़ में सामंजस्य के कारण एनसीपी उस पार्टी के साथ सीट समझौते की ओर झुकती नज़र आ रही है.
कई लोग मानते हैं कि बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के साथ सीटों पर समझौता नहीं हो पाना भी एनसीपी के जमात की ओर झुकाव की एक प्रमुख वजह है.
दूसरी ओर, विश्लेषकों का मानना है कि बीते साल हुए जन आंदोलन के बाद एनसीपी ने बांग्लादेश की राजनीति में बदलाव के जो वादे किए थे, उसके साथ पार्टी का कामकाज़ मेल नहीं खा रहा है.
यही वजह है कि पार्टी को अपने ग़ैर-परंपरागत राजनीतिक फ़ैसलों के लिए भी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि चुनावी समीकरण को साधते हुए सत्ता की राजनीति में अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए ही एनसीपी जमात की ओर झुक रही है. लेकिन इस बात पर संदेह जताए जा रहे हैं कि इस फै़सले से पार्टी को कितना फायदा होगा.
जमात के साथ समझौते पर एनसीपी ने क्या कहा?
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बीते साल हुए आंदोलन के बाद शेख़ हसीना बांग्लादेश छोड़कर भारत चली आईं. और इस आंदोलन के कई प्रमुख चेहरों ने मिलकर एनसीपी का गठन किया.
पार्टी के संयोजक नाहिद इस्लाम ने इसमें शामिल होने के लिए अंतरिम सरकार के सलाहकार के पद से इस्तीफ़ा दे दिया था.
एनसीपी पर शुरुआत से ही सरकार के संरक्षण में पार्टी के गठन और संचालन के आरोप लगते रहे हैं. इसके साथ ही पार्टी के केंद्रीय नेताओं की विभिन्न गतिविधियों के कारण कुछ लोग समय-समय पर इस पर ‘जमात की बी टीम’ होने का भी आरोप लगा चुके हैं.
हालांकि, जुलाई चार्टर के कार्यान्वयन और जनसंपर्क प्रणाली (पीआर) के ज़रिए संसदीय चुनाव कराने समेत सुधारों के तौर-तरीकों को लेकर जमात की कुछ मांगों पर मतभेद होने के कारण एनसीपी नेतृत्व ने आठ इस्लामी पार्टियों के संयुक्त आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया.
लेकिन इसके साथ ही एनसीपी, एबी पार्टी और स्टेट रिफॉर्म मूवमेंट को मिलाकर ‘डेमोक्रेटिक रिफॉर्म अलायंस’ यानी लोकतांत्रिक सुधार गठजोड़ की भी घोषणा की गई.
इसके दो सप्ताह बाद ही संसदीय चुनाव में जमात के साथ सीटों के समझौते के बातचीत जारी रहने की ख़बरें सामने आई हैं.
इस बारे में पूछने पर एनसीपी के सदस्य सचिव अख्तर हुसैन ने बीबीसी बांग्ला से कहा, “हम शुरू से ही अकेले, किसी के साथ मिल कर या सीटों पर समझौते के सवाल पर खुली मानसिकता के साथ आगे बढ़ रहे थे. जमात, बीएनपी और कई अन्य राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ या सीटों पर समझौते और राजनीतिक माहौल के आकलन के मुद्दे पर हमारी बातचीत चल रही है.”
उनका कहना है कि मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में एनसीपी उन दलों को सबसे ज़्यादा महत्व दे रही है जो सुधारों के मुद्दे पर ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं और इसके लिए कृतसंकल्प हैं.
वह कहते हैं, “राष्ट्रीय सर्वसम्मति आयोग में सुधार के मुद्दे पर दूसरे दलों के बीएनपी से मतभेद नज़र आते थे. लेकिन एनसीपी, जमात और दूसरे राजनीतिक दलों में सुधार के बिंदुओं पर स्वाभाविक रूप से सहमति बनी थी.”
अख्तर का कहना था, “मौजूदा परिस्थिति में सुधार, नए सिरे से देश के गठन और बांग्लादेश के आधारभूत ढांचे को नए सिरे से तैयार करने के लिए जैसी राजनीति ज़रूरी है. उसके प्रति प्रतिबद्धता को ही पार्टी चुनावी राजनीति में गठजोड़ या सीटों पर समझौते के मामले में सबसे अहम और विचारणीय मुद्दा मान कर आगे बढ़ रही है.”
क्या कहते हैं जानकार?

इससे पहले बीएनपी के साथ भी एनसीपी के सीटों पर समझौते की बातचीत होने की खबरें सामने आई थीं.
राजनीतिक विश्लषकों का मानना है कि वहां कई वजहों से बात आगे नहीं बढ़ने के बाद ही पार्टी अब जमात की ओर झुक रही है.
ढाका विश्वविद्यालय में प्रोफे़सर आसिफ़ मोहम्मद साहन बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, “अलग-अलग सूत्रों से मिलने वाली ख़बरों के मुताबिक़ एनसीपी वोटों का हिसाब-किताब कर रही है. उनका आकलन है कि जमात के साथ समझौते की स्थिति में ज़्यादा सीटें मिलेंगी.”
उनके मुताबिक़, दूसरे दलों के साथ बातचीत में ज़्यादा सीटों का भरोसा नहीं मिलने और जमात के साथ जाने पर ज़्यादा सीटें मिलने की उम्मीद की वजह से एनसीपी नेताओं को लगता है कि वो संसद में जा सकते हैं और पार्टी का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर सकते हैं.
हालांकि बीते 10 दिसंबर को 125 सीटों पर पार्टी के उम्मीदवारों के एलान के बाद एनसीपी के संयोजक नाहिद इस्लाम ने कहा था, “हम यह सोच कर चुनाव में नहीं उतर रहे हैं कि कितनी सीटें मिलेंगी, कितनी नहीं. अगर सीटें जीतना ही प्राथमिकता होती तो हम किसी न किसी गठजोड़ में शामिल हो जाते.”
विश्लेषकों का कहना है कि आंदोलन से उभरने वाली एनसीपी को ‘मूवमेंट’ यानी आंदोलनकारी पार्टी भी कहा जाता है.
इसी वजह से गठन के समय से ही वो जिस नए राजनीतिक समझौते की बात करती रही है उसके साथ पार्टी के मौजूदा रवैए का कोई लेना-देना नहीं है.
प्रोफे़सर साहन कहते हैं, “पार्टी अगर किसी अन्य राजनीतिक संगठन के साथ सीटों पर समझौता करती है तो उस पर लगने वाले ‘जमात की बी टीम’ होने के आरोप सही साबित होंगे और एक अलग स्वतंत्र पहचान के साथ ‘मूवमेंट पार्टी’ के तौर पर एनसीपी के उभरने की जो संभावना थी उसे वो लोग वो पूरी तरह ख़त्म कर देंगे.”
लेकिन ढाका विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफे़सर सब्बीर अहमद इस मामले को अलग नज़रिए से देखते हैं.
उनके मुताबिक, एनसीपी कभी यह स्पष्ट नहीं कर सकी है कि नए राजनीतिक समझौते या व्यवस्था से उसका क्या मतलब है और पार्टी अब सत्ता की राजनीति में शामिल हो गई है.
वो कहते हैं, “पावर पॉलिटिक्स यानी सत्ता की राजनीति में सब कुछ जायज़ है. अब एनसीपी भी इसका हिस्सा बन गई है. इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है.”
पार्टी क्यों छोड़ रहे हैं एनसीपी के नेता?

जमात के साथ सीटों पर समझौते को लेकर चलने वाली बातचीत के बीच ही एनसीपी के संयुक्त सदस्य सचिव मीर इरशादुल हक ने पार्टी पर नाकामी का आरोप लगाते हुए इस्तीफ़े का एलान कर दिया.
इससे पहले अनिक राय, तुहिन ख़ान और अलिक नामक तीन केंद्रीय नेताओं ने भी पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया था.
इस बात के पर्याप्त संकेत मिल रहे हैं कि जमात के साथ सीटों पर समझौता होने के बाद ऐसे नेताओं की संख्या और बढ़ सकती है.
कुछ विश्लेषकों का कहना है कि चुनाव से पहले एनसीपी के पास अपना वोट बैंक तैयार करने का मौका था. लेकिन उस रास्ते पर चलने की बजाय पार्टी सत्ता की पारंपरिक राजनीति की ओर झुक रही है.
उनके मुताबिक, विभिन्न सर्वेक्षण में एनसीपी समर्थकों की जो संख्या सामने आई है, जमात के साथ समझौते की स्थिति में उसमें और गिरावट आ सकती है. ऐसी स्थिति में पार्टी पूरी तरह जमात पर निर्भर हो जाएगी.
कई लोगों का मानना है कि जो लोग पार्टी के इस रवैए से असहमत हैं, वो इस्तीफ़ा देकर अपनी स्थिति स्पष्ट कर रहे हैं.
प्रोफे़सर सब्बीर अहमद की राय में कुछ लोग निजी हितों को साधने और खुद को स्थापित करने के लिए एनसीपी के मंच का इस्तेमाल कर रहे हैं.
वह मानते हैं कि एनसीपी के गठन के समय भारी तादाद में विभिन्न विचारधारा वाले एकजुट हुए थे. अब जिनके विचार पार्टी से मेल नहीं खा रहे हैं वो इससे नाता तोड़ कर दूर जा रहे हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.