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पिछले विधानसभा चुनाव में मिली बढ़त को मज़बूत करते हुए असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने बिहार की जिन 25 सीटों पर इस बार चुनाव लड़ा, उनमें से पांच अपने नाम कर ली हैं.
इनमें जोकिहाट, बहादुरगंज, कोचाधामन, अमौर और बायसी सीटें शामिल हैं. ये सभी पांच सीटें मुस्लिम बहुल सीमांचल इलाक़े में आती हैं.
एआईएमआईएम की ये जीत इसलिए अहम हो जाती है क्योंकि बिहार में एनडीए की लहर के बीच आरजेडी जैसी बड़ी पार्टी की सीटें 25 तक आकर सिमट गईं.
मगर एआईएमआईएम पिछले चुनाव में मिली पांचों सीटों को बचाने में कामयाब रही. वो भी तब जब पार्टी के पिछले चुनाव में जीते पांच में से चार विधायक आरजेडी में चले गए थे.
सीमांचल में किशनगंज, कटिहार, अररिया और पूर्णिया ज़िले आते हैं, जिनमें कुल 24 विधानसभा सीटें हैं.
ये इलाक़ा मुस्लिम बहुल है और इसे लंबे समय से विपक्षी पार्टियों का मज़बूत गढ़ माना जाता रहा है.
लेकिन एनडीए ने इस चुनाव में यहां 14 सीटें जीती हैं. वहीं कांग्रेस के खाते में चार सीटें गई हैं और आरजेडी महज़ एक सीट पर जीती है.
अधिकांश सीटें एनडीए की झोली में जाने से ये स्पष्ट है कि अल्पसंख्यक समुदाय की बड़ी आबादी वाला ये इलाक़ा बिहार में विपक्षी पार्टी के बेहतर प्रदर्शन की गारंटी नहीं देता है.
बिहार विधानसभा चुनाव नतीजे 2025
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एआईएमआईएम का मज़बूत प्रदर्शन
बिहार की आबादी में मुसलमानों की संख्या क़रीब 17 फ़ीसदी है और कुल मुस्लिम आबादी का क़रीब 47 फ़ीसदी सीमांचल में बसता है. यहां मुस्लिम और यादव को आरजेडी का कोर वोटर माना जाता है.
सीमांचल इलाक़े की सीमा पश्चिम बंगाल के रास्ते नेपाल और बांग्लादेश से लगती है और यह इलाक़ा राज्य की राजनीति में अक्सर ध्यान खींचता रहा है.
साल 2020 में जब चुनाव हुए थे तब बीजेपी ने यहां आठ सीटें जीती थीं और उसकी सहयोगी जेडीयू चार पर विजयी रही थी.
उस समय कांग्रेस के खाते में इस इलाक़े ने पांच सीटें दी थीं और सीपीआईएमएल और आरजेडी एक-एक सीट पर जीते थे.
उस वक्त एआईएमआईएम ने यहां पांच सीटें जीतकर सबको हैरान कर दिया था. हालांकि, कई लोगों का ये भी तर्क था कि इससे आरजेडी और कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक में सेंध लगी, जिसका फ़ायदा बीजेपी और उसकी सहयोगी जेडीयू को मिला.
वहीं, 2025 में एआईएमआईएम ने न केवल पांच सीटों पर जीत दर्ज की है बल्कि वह किशनगंज के ठाकुरगंज और कटिहार के बलरामपुर में भी बेहद कम वोटों के अंतर से हारी है.
प्राणपुर, अररिया, कस्बा और केवटी जैसी कम से कम चार सीटों पर एआईएमआईएम तीसरे नंबर पर रही लेकिन यहां उसके उम्मीदवारों को मिले वोट हार-जीत के मार्जिन से ज़्यादा हैं.
इसका सीधा मतलब ये हुआ कि इन सीटों पर एआईएमआईएम नतीजों को प्रभावित कर सकी है.
इन चारों सीटों पर जीत मिली बीजेपी, लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) और कांग्रेस को. लेकिन घाटा कुल मिलाकर महागठबंधन का हुआ क्योंकि कांग्रेस पूर्णिया ज़िले की कस्बा सीट एलजेपी (आर) के हाथों हार गई.
बीजेपी की बी-टीम होने का आरोप
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ताज़ा नतीजे ये दिखाते हैं कि आरजेडी या उसकी अगुवाई वाले गठबंधन को मिलते आ रहे मुसलमानों के वोट बैंक में सेंध लग गई है.
हालांकि, यह बदलाव साल 2020 में भी दिखा था जब बार-बार विपक्षी पार्टियों की ओर से बीजेपी की बी-टीम कहे जाने के बावजूद ओवैसी की पार्टी को पांच सीटों पर जीत मिली थी.
2025 के चुनाव में एआईएमआईएम ने महागठबंधन से संपर्क साधा था ताकि साथ में चुनाव लड़ा जा सके और वोटों का बंटवारा न हो. लेकिन ये गठबंधन नहीं हुआ.
इसी साल जून महीने में बिहार के एआईएमआईएम अध्यक्ष अख़्तरुल ईमान ने द प्रिंट से बातचीत में कहा था, “आरजेडी ने हमारे विधायक तोड़े. लेकिन हम उसे भूलकर उनके साथ नई शुरुआत करने को तैयार हैं. अगर वे हमारा ऑफ़र नहीं स्वीकार करते तो बाद में वे नहीं कह सकते कि हम मुसलमानों के वोटों को बांटते हैं. हम अपनी मज़बूत पकड़ वाली और सीमांचल की 50 से अधिक सीटों पर लड़ने को तैयार हैं.”
हालांकि, इस बार एआईएमआईएम ने 25 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ा था.
चुनाव में एआईएमआईएम के प्रदर्शन का क्रेडिट पार्टी प्रवक्ता मोहम्मद आदिल हसन, अख़्तरुल ईमान को देते हैं.
वो कहते हैं कि एआईएमआईएम ने अल्पसंख्यक और दलितों से जुड़े हर मुद्दे को उठाया है इसलिए दोबारा लोगों ने एआईएमआईएम पर भरोसा किया.

आदिल हसन बलरामपुर सीट पर एलजेपी (आर) की संगीता देवी से केवल 389 वोटों से चुनाव हार गए. यहां से पहले महबूब आलम विधायक थे.
साल 2020 में एनडीए ने 243 सीटों वाली विधानसभा में 125 सीटें जीती तो थीं, लेकिन ये बहुमत के लिए ज़रूरी 122 सीटों से थोड़ा ही ज़्यादा था. उस साल आरजेडी 144 सीटों पर लड़ी और 75 सीटों पर जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी.
वहीं कांग्रेस ने 70 सीटों पर चुनाव लड़कर 19 सीटें जीती थीं. सीपीआईएमएल ने 12, सीपीआई ने दो सीपीएम ने दो सीटें जीती थीं. गठबंधन को कुल 110 सीटों पर जीत मिली थी.
ऐसा माना जा रहा है कि महागठबंधन के वोट बैंक में एआईएमआईएम ने जो सेंध लगाई उसके दो मुख्य आधार थे.
पहला तो ये कि ओवैसी लगातार अपनी रैलियों में सीमांचल के लोगों की उपेक्षा का मुद्दा उठाते रहे थे.
साथ ही उन्होंने मुसलमानों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की मांग उठाई. दोनों प्रमुख गठबंधनों ने आबादी के अनुपात में कहीं कम संख्या में मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे.

ओवैसी के हक़ में कौन सी बातें गईं?
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद बीबीसी संवाददाता स्नेहा से कहते हैं, “मुस्लिम बहुल इलाक़े में मुसलमानों का जो वोटिंग करने का तरीक़ा होता है, वो ज़रूरी नहीं है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक वाले मुसलमानों की तरह हो. मुस्लिम बहुल इलाक़ों में मुसलमानों के लिए सुरक्षा का मसला उस तरह नहीं होता है. वो स्थानीय स्तर पर मुद्दों को देखते हैं.”
वो कहते हैं, “उनके मन में कई तरह की बातें होती हैं, जैसे उनकी अपनी पार्टी हो. साथ ही उनके स्थानीय मुद्दे होते हैं और स्थानीय स्तर पर उनकी पसंद और नापसंद होती है.”
उनका कहना है कि सीमांचल में ये बातें एआईएमआईएम के पक्ष में गईं.
इसके अलावा सुरूर अहमद कहते हैं, “ओवैसी मुख्यत: मुसलमानों की राजनीति करते हैं और ऐसे में उनका मुख्य मुक़ाबला उन पार्टियों से होगा जिनका वोट बैंक भी मुसलमान है. इसलिए यहां उनका निशाना मुख्य रूप से आरजेडी थी. उनको बीजेपी या जेडीयू से बहुत ज़्यादा लेना-देना नहीं है.”
वहीं वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा कहती हैं कि पिछली दफा एआईएमआईएम ने पांच सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन अमौर में अख़्तरुल ईमान के अलावा बाकी के विधायकों ने आरजेडी का हाथ थाम लिया था.
बीबीसी के ‘द लेंस’ कार्यक्रम में उन्होंने कहा, “ओवैसी ने एक के बाद एक रैली में ये बात की और नैरेटिव बनाया कि मैं महागठबंधन के पास हाथ मिलाने गया था लेकिन उन्होंने मुझे रिजेक्ट किया.”
वो कहती हैं कि कांग्रेस और आरजेडी मुसलमान और यादव को अपने वोट बैंक के तौर पर देख रही थीं लेकिन इस बार इस वोट बैंक में सेंध लगी है.
वो कहती हैं, “चुनाव कवर करने के दौरान मैंने यहां लोगों में ये नाराज़गी देखी कि महागठबंधन उन्हें क्यों अपने साथ लेकर नहीं चलना चाहता. लोगों के मन में सवाल था कि क्या महागठबंधन उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं देना चाहता.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.