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साल 2025 का बिहार विधानसभा का चुनाव राज्य के हालिया इतिहास के सबसे तेज़ी से ध्रुवीकृत चुनावों में से एक बनकर उभरा है.
इसके परिणाम बताते हैं कि किस तरह से जातीय निष्ठा ने अन्य वजहों के साथ मिलकर नतीजों को निर्णायक रूप से प्रभावित किया.
मतदान के पैटर्न से साफ़ है कि कई जातीय समूहों में एक ही गठबंधन के पक्ष में गहरी एकजुटता दिखी जो अब तक अक्सर सिर्फ़ 60 से 80% तक ही दिखती थी.
साल 2020 के विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले कुछ बदलाव ज़रूर दिखते हैं, लेकिन कुल मिलाकर रुझान बताते हैं कि इस बार जातीय ध्रुवीकरण काफ़ी मज़बूत हुआ है.
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ये रुझान भी ख़ासकर एनडीए के पक्ष में था, जबकि पिछले चुनावों में वोटर की पसंद बेहद बिखरी हुई रहती थी.
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अगड़ी जातियां किस ओर गईं?
शोध संस्थान सीएसडीएस के लोकनीति कार्यक्रम ने ताज़ा सर्वे के आंकड़ों और पिछले चुनावों के जातिवार डेटा को खंगाला है जिसे देखने से इन बदलावों का पैमाना और दिशा दोनों साफ़ झलकते हैं.
यह दिखाते हैं कि बिहार की चुनावी राजनीति किस दिशा में बदल रही है.
अगड़ी जातियों ने साल 2025 में भारी संख्या में एनडीए का समर्थन किया.
ब्राह्मणों से एनडीए को सबसे मज़बूत समर्थन मिला, जहां 82% वोट गठबंधन के पक्ष में गए.
इसके बाद भूमिहारों से 74%, और बाक़ी अगड़ी जातियों से 77% वोट एनडीए को मिले.
इसके उलट साल 2020 में अगड़ी जातियों का एनडीए को समर्थन 52% से 59% के बीच था. इसका मतलब था कि उस समय एक बड़ा हिस्सा अन्य दलों के साथ भी गया था.
कुल मिलाकर इस बार का पैटर्न दिखाता है कि अगड़ी जातियों का लगभग पूरा वोटबैंक एनडीए के पीछे एकजुट हो गया.
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ओबीसी में भी अगड़ी जातियों वाला रुझान
इसी तरह का स्पष्ट और मज़बूत झुकाव पिछड़ी जातियों के वोट पैटर्न में भी देखने को मिला.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पारंपरिक आधार माने जाने वाले कुर्मी-कोइरी समुदायों के 71% वोट इस साल एनडीए को गए.
वहीं पिछड़ी जातियों के अलग-अलग समूह के कुल मिलाकर 68% वोट एनडीए के पक्ष में गए.
साल 2020 के चुनावों में यह समर्थन कम एकजुट था. उस समय 66% कुर्मी-कोइरी और 58% बाक़ी ओबीसी जातियों ने एनडीए के पक्ष में वोट किया था, जबकि बाकी वोट अलग-अलग दलों में बंट गए थे.
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‘एमवाई’ समीकरण का इस बार क्या हुआ?
आरजेडी के नेतृत्व वाले महागठबंधन को उसके पारंपरिक ‘एमवाई’ (मुस्लिम–यादव) वोटर बेस से इस बार भी काफ़ी समर्थन मिला. हालांकि साल 2020 की तुलना में इसमें गिरावट साफ़ दिखती है.
इस साल 74 फ़ीसदी यादवों और 69 फ़ीसदी मुसलमानों ने महागठबंधन का समर्थन किया. हालांकि बीते चुनावों के मुक़ाबले इसमें गिरावट आई है.
पिछले चुनावों में 84 फ़ीसदी यादवों और 76 फ़ीसदी मुसलमानों ने महागठबंधन का समर्थन किया था. इस गिरावट के साथ ही एनडीए को दोनों समुदायों से थोड़ा समर्थन ज़रूर मिला है.
महागठबंधन के इस ढीले पड़ते वोट बेस ने असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के लिए जगह बनाई है. एआईएमआईएम ने साल 2020 के अपने प्रदर्शन को दोहराते हुए इस बार भी पांच सीटें जीतीं. ये वे सभी सीटें हैं जिनमें मुस्लिम आबादी 35 प्रतिशत से ज़्यादा है.
एनडीए की व्यापक जीत की लहर के बीच भी एआईएमआईएम की यह सफलता इशारा करती है कि मुस्लिम मतदाताओं का एक हिस्सा सीधे तौर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व को तरजीह देता है जो उनके मुद्दों पर सीधा फ़ोकस करता हो. यह वर्ग महागठबंधन जैसे पारंपरिक धर्मनिरपेक्ष गठबंधनों के भरोसेमंद वोट-बैंक राजनीति का हिस्सा भर नहीं रहना चाहता.
हालांकि महागठबंधन अभी भी ‘एमवाई’ समुदायों के बीच मज़बूत बढ़त बनाए हुए है, मगर 2025 का नतीजा यादवों और मुस्लिम वोटरों में बहुत कम लेकिन एक बेहद ख़ास ढील का संकेत देता है.
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दलित वोटबैंक किस ओर था?
इस साल चुनाव में दलित वोटों में भी पिछले चुनावों की तुलना में कहीं ज़्यादा स्पष्ट झुकाव देखने को मिला.
पासवान/दुसाध समुदाय जो लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) का पारंपरिक वोटर रहा है, उसने इस बार भारी संख्या में एनडीए का समर्थन किया. इस समुदाय का 62 फ़ीसदी वोट गठबंधन के पक्ष में गया.
साल 2020 में जब एलजेपी ने एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ा था तो उस समय पासवान समुदाय के 31 फ़ीसदी वोट एलजेपी के पक्ष में गए थे जबकि एनडीए को इस समुदाय के 18 फ़ीसदी वोट मिले थे.
इस लिहाज़ से 2025 का परिणाम पासवान वोटों के बड़े पैमाने पर एनडीए के पीछे एकजुट होने का संकेत देता है.
बाक़ी दलित जातियों का रुझान भी एनडीए की ओर झुका दिखा, जहां लगभग दो-तिहाई वोट उसे मिले.
इसके उलट साल 2020 में दलित वोट काफ़ी बिखरे हुए थे और किसी भी गठबंधन के पास ज़्यादातर दलित समुदायों का एकतरफ़ा समर्थन नहीं था.
साल 2025 का जनादेश इसलिए दलित वोटरों में पिछले चुनावों की तुलना में कहीं अधिक स्पष्ट और एकजुट रुझान को दर्शाता है.
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जाति और सुशासन के बीच
जब बिहार के मतदाताओं से पूछा गया कि 2025 के विधानसभा चुनाव में उनके मतदान के फ़ैसले पर जाति, समुदाय या बिरादरी का कितना प्रभाव पड़ा, तो 45 फ़ीसदी ने कहा कि इसका असर हुआ, जबकि 51 फ़ीसदी ने इसे नकार दिया. वहीं बाक़ी 4 फ़ीसदी ने कोई जवाब नहीं दिया.
एक दूसरे सवाल में मतदाताओं से पूछा गया कि वे किस बात से ज़्यादा सहमत हैं- क्या उनके लिए सुशासन और विकास सबसे बड़ा मुद्दा था, या फिर सुशासन–विकास ज़रूरी तो हैं, लेकिन चुनाव का असल मुद्दा जाति और समुदाय ही है?
इसके जवाब में दस में से लगभग छह (क़रीब 60%) मतदाताओं ने सुशासन और विकास को प्राथमिक मुद्दा माना, जबकि तीन (लगभग 30%) मतदाताओं का मानना था कि चुनाव में निर्णायक कारक अब भी जाति और समुदाय ही है.
इससे यह संकेत मिलता है कि विकास के नैरेटिव की व्यापक अपील होने के बावजूद, एक बड़ा वर्ग अब भी मतदान के समय जाति को एक महत्वपूर्ण चीज़ मानता है. यानी बिहार में चुनावी फ़ैसलों में जाति अब भी एक अहम दृष्टिकोण बना हुआ है.
कुल मिलाकर, आंकड़े बताते हैं कि बिहार के वोटिंग करने के तरीक़े में जाति की भूमिका निर्णायक बनी रही, ख़ासकर उन समुदायों में जिनका राजनीतिक झुकाव ऐतिहासिक रूप से जाति-आधारित रहा है.
इसी वजह से इस प्रभाव ने एनडीए और महागठबंधन जैसे बड़े गठबंधनों के पक्ष में वोटरों को एकजुट किया.
ये लेखकों के निजी विचार हैं जो किसी भी संगठन के विचारों को नहीं दिखाते हैं.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.