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एनडीए ने बिहार में 243 में से 202 सीटें जीतकर ऐतिहासिक बहुमत हासिल किया है.
राष्ट्रीय जनता दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और अन्य पार्टियों के महागठबंधन को बड़ी और अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है.
कांग्रेस पार्टी का प्रदर्शन और भी ख़राब रहा है. 60 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस ने सिर्फ़ छह सीटें जीत पाई.
इस बार कांग्रेस का बिहार विधानसभा चुनावों में वोट शेयर 8.71 प्रतिशत रहा है.
पिछले चुनाव में कांग्रेस ने 19 सीटें जीती थीं.
पिछले कुछ दशकों से बिहार राजनीतिक रूप से कांग्रेस के लिए बहुत मुश्किल रहा है.
2015 में पार्टी ने 27 सीटें जीतीं थीं. वहीं, 2010 में सिर्फ़ चार सीटें जीत सकी थी.
इस बार कांग्रेस के खाते में सिर्फ़ छह सीटें आई हैं. यानी पार्टी का हर दस में से सिर्फ़ एक उम्मीदवार ही जीत सका.
विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस का यह लचर प्रदर्शन भले ही अप्रत्याशित और हैरान करने वाला हो लेकिन इसके संकेत चुनाव प्रचार के दौरान ही नज़र आने लगे थे.
1990 के बाद से बिहार में कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं है और राज्य में पार्टी अधिकतर समय सत्ता से दूर ही रही है.
चुनावी नतीजों के बाद कांग्रेस से जुड़े अधिकतर नेताओं ने अपनी प्रतिक्रियाओं में इस नतीजे के लिए चुनाव आयोग को ज़िम्मेदार बताया है.
चुनाव नतीजों के दौरान कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने कहा, “ये चुनाव बिहार की जनता बनाम चुनाव आयोग है. चुनाव आयोग भारी पड़ रहा है.”
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने कहा, “यह पूरा खेल फ़र्ज़ी मतदाता सूचियों और फ़र्ज़ी ईवीएम का है, मेरा शक सच साबित हुआ.”
वहीं हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर हुड्डा ने कहा, “रैलियों की भीड़ देख कर लग रहा था कि महागठबंधन की सरकार बनेगी. ये हार अप्रत्याशित है, हम कारणों की समीक्षा करेंगे.”
हालांकि, विश्लेषक कांग्रेस के इस ख़राब प्रदर्शन के लिए सामाजिक आधार की कमी, कमज़ोर संगठन, गठबंधन से तालमेल का अभाव और उम्मीदवारों के चुनाव में लापरवाही को मानते हैं.
कमज़ोर सामाजिक आधार
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विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में कांग्रेस का कोई मज़बूत सामाजिक आधार नहीं है और यही पार्टी के ख़राब नतीजों का सबसे बड़ा कारण रहा.
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस के पास कोई मज़बूत सोशल बेस (सामाजिक आधार) नहीं हैं. अगड़ी जातियां पहले ही पार्टी से छिटक चुकी हैं, पिछड़ी जातियां भी पार्टी के साथ नहीं जुड़ पाई हैं.”
”कांग्रेस विचारधारा आधारित पार्टी है लेकिन बिहार की राजनीति में जातिगत और सामाजिक समीकरण अधिक हावी हैं. पार्टी के पास ऐसा कोई मज़बूत वर्ग नहीं है, जिसका सामाजिक आधार इतना बड़ा हो कि चुनाव के नतीजों को प्रभावित कर सके.”
वहीं, बिहार के प्रमुख हिन्दी दैनिक प्रभात ख़बर के स्टेट हेड अजय कुमार मानते हैं कि कांग्रेस ने अपने कमज़ोर होते जनाधार को फिर से जोड़ने का कोई गंभीर प्रयास बिहार में नहीं किया है.
अजय कुमार कहते हैं, “कांग्रेस का बिहार में सामाजिक आधार लगातार कमज़ोर होता गया है. 2005 के बाद से पार्टी ने अपने पुराने जनाधार को जोड़ने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया. राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव के दौरान दलित और ईबीसी जातियों को जोड़ने की कोशिश जरूर की लेकिन वह प्रयास इस चुनाव में सफल साबित नहीं हुआ.”
विश्लेषक ये भी कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने अपना सामाजिक आधार मज़बूत करने के लिए कोई सक्रिय प्रयास चुनावों के दौरान नहीं किया
पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “राहुल गांधी ने चुनाव से दो महीने पहले पिछड़ा वर्ग को लेकर एक संकल्प पत्र जारी किया था, लेकिन पार्टी ने इसे प्रचारित नहीं किया. नतीजतन, पिछड़ी जातियों में पार्टी की पकड़ कमजोर रही. वहीं, बीजेपी और जेडीयू की मज़बूत सामाजिक एवं संगठनात्मक रणनीतियों ने चुनाव में बेहतर काम किया.”
वैचारिक चुनौतियां
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भारतीय जनता पार्टी के पास हिंदुत्व का मज़बूत एजेंडा है और पार्टी ने पिछले एक दशक में कई चुनाव जीते हैं.
हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के बाद अब बिहार में बीजेपी के एनडीए गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की है.
चुनाव प्रचार के दौरान बीजेपी नेताओं ने अपने वैचारिक आधार की अभिव्यक्ति में कोई झिझक भी नहीं दिखाई.
वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस के सामने एक बड़ी चुनौती यह है कि लोग उसकी विचारधारा से जुड़ नहीं पा रहे हैं. बिहार के लोगों ने कांग्रेस की विचारधारा और रणनीति दोनों को नकार दिया है. लेकिन कांग्रेस के सामने यह चुनौती सिर्फ़ बिहार में ही नहीं है. कांग्रेस को अपने अंदर गहराई से सोचना होगा क्योंकि न केवल बिहार बल्कि पूरा देश में लेफ्ट टू सेंटर पार्टियों को चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. दूसरी तरफ़ दक्षिणपंथी पार्टियां और भी मज़बूत हो रही हैं.”
विश्लेषकों का ये भी मानना है कि सोशल मीडिया और सूचना विस्फोट के इस दौर में लोग भावनात्मक रूप से अधिक प्रभावित होते हैं. कांग्रेस जिन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है वो वैचारिक तो हैं लेकिन उनमें इमोशनल कनेक्ट नहीं है.
सुरूर अहमद कहते हैं, “जब से सोशल मीडिया लोगों की ज़िंदग़ी का हिस्सा बना है और सूचना विस्फोट हुआ है, लोग सोचने समझने के बजाए भावुक ज़्यादा हो गए हैं. कांग्रेस या दुनिया की दूसरी लेफ़्ट टू सेंटर (वामपंथी और मध्यमार्गी) पार्टियां दुनिया भर में इस चुनौती का सामना कर रही हैं. वह राइट विंग पार्टियों की तरह लोगों से भावनात्मक रूप से ना जुड़ पा रही हैं ना उनकी भावनाओं को प्रभावित कर पा रही हैं.”
नैरेटिव ना गढ़ पाना
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बिहार विधानसभा चुनाव में यूं तो कांग्रेस ने बेरोज़गारी, सामाजिक न्याय, आरक्षण, मुफ़्त बिजली, ग़रीब कल्याण, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे मुद्दों को अपने घोषणापत्र में शामिल किया.
लेकिन पार्टी के चुनाव में बिहार मतदाता सूची में विशेष गहन पुनरीक्षण और ‘वोट चोरी’ जैसे मुद्दे ही हावी रहे और मीडिया कवरेज में यही पार्टी के नैरेटिव भी नज़र आए.
विश्लेषक मानते हैं कि एसआईआर और ‘वोट चोरी’ के मुद्दों से बिहार की जनता कनेक्ट नहीं कर सकी और कांग्रेस पार्टी प्रभावी नैरिटिव गढ़ने में नाकाम रही.
विश्लेषक यह मानते हैं कि इसका कोई ख़ास असर चुनाव पर नहीं रहा.
वरिष्ठ पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “वोट चोरी को चुनावी मुद्दा बनाना बिहार के लोगों को समझ नहीं आया और इससे नैरेटिव बिल्डिंग में दिक्क़त आई.”
राहुल गांधी ने बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक एक दिन पहले दावा किया कि हरियाणा विधानसभा चुनावों के दौरान वोट चोरी हुई. उन्होंने भारतीय जनता पार्टी और चुनाव आयोग पर कई आरोप लगाए.
नचिकेता नारायण कहते हैं, “बिहार के लोग इस मुद्दे को समझ ही नहीं सके. लोग मतदान करने जा रहे थे और राहुल गांधी कह रहे थे कि आपका वोट चोरी हो रहा है.”
पत्रकार अजय कुमार भी मानते हैं कि कांग्रेस बिहार में अपना कोई नैरेटिव गढ़ने में कामयाब नहीं हो सकी.
अजय कुमार कहते हैं, “कोई पार्टी तब बेहतर प्रदर्शन कर पाती है, जब उसके पास स्पष्ट एजेंडा हो, सक्रियता हो और लोग उससे जुड़ें. कांग्रेस लंबे समय से अपना कोई नैरेटिव गढ़ने में संघर्ष कर रही है. बिहार चुनाव में भी यही हुआ, कांग्रेस ये दिखा ही नहीं पाई कि उसका एजेंडा क्या है.”
वहीं दूसरी तरफ़ एनडीए गठबंधन ने चुनाव की शुरुआत के दिनों से ही बिहार में लालू यादव के शासनकाल के दौरान रहे कथित ‘जंगलराज’ को अपने नैरेटिव का आधार बनाए रखा.
विश्लेषक मानते हैं कि एनडीए गठबंधन की सबसे कामयाब रणनीति यह रही कि उन्होंने अपने शासनकाल की कमियों की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाने दिया ना ही उसे चर्चा में आने दिया बल्कि कभी लालू के ज़माने को सुर्ख़ियों में रखा और चर्चा भी इसके ही इर्द-गिर्द रही.
सुरूर अहमद कहते हैं, “कांग्रेस और महागठबंधन के दल नैरेटिव की लड़ाई में ही हार गए थे.”
वहीं नचिकेता नारायण कहते हैं, “एनडीए का जंगल राज को लेकर जारी अभियान सफल रहा जबकि कांग्रेस के पास इसका प्रभावी मुक़ाबला करने वाली कोई रणनीति या नैरेटिव नहीं था.”
गठबंधन से तालमेल की कमी
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बिहार चुनाव में एक तरफ़ एनडीए नए दलों को जोड़कर मज़बूत हो रहा था तो दूसरी तरफ़ महागठबंधन की प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल में तालमेल और विश्वास की कमी दिखने लगी थी.
हालात ऐसे हुए कि दोनों पार्टियों के नेताओं को पटना में साझा प्रेंस कॉन्फ्रेंस करके ये भरोसा देना पड़ा कि महागठबंधन में सब ठीक है.
विश्लेषक मानते हैं कि गठबंधन सहयोगियों के साथ तालमेल की कमी महागठबंधन में साफ़ नज़र आ रही थी.
अजय कुमार कहते हैं, “बिहार में कांग्रेस न संगठन को मज़बूत करने पर ध्यान दिया और ना ही गठबंधन के साथ समन्वय को. कांग्रेस के भीतर मंडल आयोग के बाद से द्वंद्व रहा कि लालू यादव के साथ रहना चाहिए या स्वतंत्र रूप से खड़ा होना चाहिए. बिहार में पार्टी यूनिट की राय जो भी रही हो लेकिन पार्टी की लीडरशिप ने गठबंधन राजद के साथ चुना. ऐसा लगता है कि ये गठबंधन असरदार नहीं रहा.”
वहीं सुरूर अहमद मानते हैं कि कांग्रेस और राजद के बीच गठबंधन को लेकर जो असमंजस की स्थिति बनी थी उसका भी असर नतीजों पर रहा हो सकता है.
हालांकि वह मानते हैं कि अगर कांग्रेस महागठबंधन से अलग होती तो उसके लिए हालात और भी ख़राब हो सकते थे.
सुरूर अहमद कहते हैं, “अगर कांग्रेस आरजेडी से अलग हो जाती तो वह बड़ी ग़लती होती क्योंकि अलग होकर उनके पास वोट प्रतिशत इतना कम हो जाता कि वह बिहार में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए ही संघर्ष करती नज़र आती.”
वहीं पत्रकार नचिकेता नारायण कहते हैं, “कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बीच तालमेल का अभाव बड़ा कारण रहा. कई सीटों पर फ्रेंडली फाइट हुई, जो चुनावी रणनीति के लिए नुकसानदायक है और ऑप्टिक्स के लिए भी.”
कमज़ोर संगठन और उम्मीदवारों के चयन पर सवाल
बिहार में कांग्रेस के पास मज़बूत काडर नहीं है, ना ही समर्पित कार्यकर्ता. विश्लेषक मानते हैं कि हाल के सालों में संगठन के लिहाज़ से पार्टी और भी कमज़ोर हुई है. विश्लेषक पार्टी के उम्मीदवारों के चयन पर भी सवाल उठाते हैं.
सुरूर अहमद कहते हैं, “”कांग्रेस के अंदर पार्टी का स्ट्रक्चर मज़बूत नहीं है. मिडिल क्लास और कुछ प्रेरित लोग कांग्रेस से जुड़े हैं, लेकिन व्यापक स्तर पर वह प्रभावी आधार नहीं बना पाई है. कांग्रेस के पास बिहार में ऐसे समर्पित कार्यकर्ता नहीं है जैसे राजद या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के पास है. इसी से साफ़ हो जाता है कि कांग्रेस बिहार में बहुत मज़बूत स्थिति में नहीं है.”
अजय कुमार कहते हैं, “कोई पार्टी तब बेहतर प्रदर्शन कर पाती है, जब उसके पास स्पष्ट एजेंडा हो, सक्रियता हो और लोग उससे जुड़ें. ये कांग्रेस में लंबे समय से कमी रही. जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां नहीं हैं, वहां ज़रूर कांग्रेस ने अपना एक मज़बूत संगठन खड़ा किया है लेकिन यूपी, बिहार और बंगाल जैसे राज्य जहां मज़बूत क्षेत्रीय पार्टियां है, वहां पार्टी अपना संगठन खड़ा करने में बहुत हद तक नाकाम ही रही है.”
वहीं पत्रकार नचिकेता नारायण मानते हैं कि कांग्रेस के उम्मीदवारों का चयन भी सवालों में रहा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित