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बिहार के बक्सर ज़िले के जनार्दन सिंह के जवान बेटे की मौत 18 नवंबर को हो गई थी.
25 साल के बेटे की मौत के बाद आजकल वह एक क़ब्रिस्तान को संचालित करने के लिए कमेटी बनाने में लगे हैं.
दरअसल बेटे की मौत पर जनार्दन सिंह ने अपनी एक बीघा ज़मीन, मुसलमानों को क़ब्रिस्तान के लिए दे दी है.
जनार्दन बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहते हैं, “जैसे मेरे बेटे का अंतिम संस्कार सम्मान के साथ हुआ वैसे ही किसी भी धर्म और जाति के मनुष्य का अंतिम संस्कार सम्मान के साथ होना चाहिए. हमारे बगल के गांव में मुस्लिम परिवारों के लिए क़ब्रिस्तान नहीं है. तो मेरे बेटे की याद में इससे बड़ी चीज़ क्या हो सकती है?”

क्या है मामला?
बिहार के बक्सर ज़िले के चौसा ब्लॉक में रामपुर पंचायत की हद में देबी डीहरा नाम का गांव है. इस गांव में जनार्दन सिंह का परिवार रहता है. जनार्दन सिंह, देहरादून में आयुर्वेदिक दवाओं के कच्चे माल का व्यापार करते हैं.
जनार्दन सिंह और उनकी पत्नी गीता देवी के तीन बच्चे हैं. जनार्दन के सबसे बड़े बेटे शिवम सिंह की मौत देहरादून में एक सड़क दुर्घटना में हो गई. शिवम ने एमबीए किया था और वह अपने पिता का ही कारोबार संभालते थे.
जनार्दन सिंह ने बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहा, “मेरा शिवम बहुत ही शांत और मिलनसार बच्चा था. दूसरे धर्मों के प्रति सम्मान, जानवरों से प्रेम उसके स्वभाव में था. जब मैंने उसका बनारस के मणिकर्णिका घाट पर दाह संस्कार किया तो लगा कि इस दुनिया से प्रत्येक मनुष्य की विदाई अच्छे से होनी चाहिए.”
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“मुझे अपने गांव के बगल के मुस्लिम परिवारों का ख़याल आया कि वह लोग एक क़ब्रिस्तान के लिए परेशान हैं. इसलिए मैंने यह फ़ैसला लिया.”
जनार्दन सिंह का परिवार संपन्न है. उनकी मां शारदा देवी रामपुर पंचायत की सरपंच हैं. जनार्दन सिंह की बेटी मेडिकल की पढ़ाई कर रही है, वहीं छोटा बेटा आठवीं कक्षा का छात्र है.
जनार्दन सिंह ने बताया कि अभी शिवम की शादी नहीं हुई थी.
क़ब्रिस्तान के लिए हिंदू-मुस्लिम कमेटी
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जनार्दन सिंह का परिवार संपन्न है लेकिन संपन्नता के साथ-साथ इस परिवार का संबंध फ़ौज से रहा है.
जनार्दन सिंह के दादा मोती सिंह फ़ौज में थे. परिवार के पास साल 1961 में गोवा की आज़ादी के लिए लड़ी गई लड़ाई सहित कई मेडल, मोती सिंह की फ़ौज में हुई ट्रेनिंग के वक़्त लिखी गई उनकी डायरी, इसकी गवाही देते हैं.
जनार्दन सिंह कहते हैं, “हमारे दादा फ़ौज में थे. हम देशभक्तों के परिवार के रहे हैं और समाज के लिए काम करना हम अपनी ज़िम्मेदारी मानते हैं.”
लेकिन ज़मीन को हस्तांतरित करने का तरीक़ा क्या होगा?
इस सवाल पर जनार्दन सिंह के भाई और वकील बृजराज सिंह बीबीसी न्यूज़ हिन्दी से कहते हैं, “हम लोग एक कमेटी बनाने पर काम कर रहे हैं जिसमें कुछ हिंदू होंगे और कुछ मुस्लिम. इस कमेटी के दो काम होंगे. पहला तो यह सुनिश्चित करना कि ज़मीन क़ब्रिस्तान के अलावा किसी दूसरे काम के लिए इस्तेमाल न हो.”
“और दूसरा इसके रख-रखाव के लिए काम करना. अभी इस ज़मीन पर धान लगा है. हम लोगों ने यह भी तय कर दिया है कि इस फ़सल को काटकर जो रक़म मिले उससे कमेटी क़ब्रिस्तान की घेराबंदी करवाए.”
क्या इस ज़मीन को वक़्फ़ किया जाएगा?
इस सवाल पर बृजराज सिंह कहते हैं, “कमेटी बनाकर इसके और क़ानूनी पहलू देखे जाएंगे. लेकिन इतना तय है कि हमारे पूरे संयुक्त हिंदू परिवार का अब कोई दावा इस ज़मीन पर नहीं है. ये ज़मीन हमारे घर के बच्चे के नाम पर मुस्लिम भाइयों को सदा के लिए दे दी गई है.”

‘हमारे पूर्वजों की क़ब्र पर मैदान बना दिया’
रामपुर पंचायत में मुस्लिम आबादी के बारे में बात करें तो यहां 50 से 60 मुस्लिम परिवार हैं.
सगरा और रसूलपुर गांव में 20 मुस्लिम परिवार हैं लेकिन इन परिवारों के पास अपने परिजनों के अंतिम संस्कार के लिए कोई क़ब्रिस्तान नहीं था.
मुहर्रम मियां ईंट भट्टे पर काम करते हैं. उनकी मां का इंतक़ाल आठ साल पहले हुआ था. मुहर्रम के पिता भी बूढ़े हो चुके हैं.
बीबीसी न्यूज़ हिन्दी को मुहर्रम बताते हैं, “मां की जब मौत हुई तो उसे गांव में दफ़्न करना था. लेकिन अब उस जगह सरकारी स्कूल बन गया. सारी क़ब्रें सपाट हो गईं. हमारे पूर्वजों की क़ब्र पर स्कूल का मैदान बन गया और लड़के खेलते हैं. इसलिए चिंता बनी रहती थी कि आगे परिवार में किसी की मौत हो गई तो उसके कफ़न-दफ़न का इंतज़ाम कैसे होगा? “
दरअसल सगरा गांव में पहले एक क़ब्रिस्तान था लेकिन कुछ साल पहले वहां सरकारी स्कूल बन गया. स्थानीय लोग बताते हैं कि यह ज़मीन शिक्षा विभाग की थी.
जब गांव में स्कूल खुला तो उस क़ब्रिस्तान वाली जगह पर ही बिल्डिंग बनी. लेकिन इससे दो समस्याएं पैदा हो गईं. पहला तो ये कि गांव के मुसलमानों के पूर्वजों की क़ब्र का कोई नामोनिशान नहीं रहा और दूसरा यह कि मृत्यु के बाद शव को 5 किलोमीटर दूर ले जाकर दफ़्न करना पड़ता था.
‘ये नक़ली घर है, असली घर क़ब्रिस्तान है’
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अलाउद्दीन पेशे से मज़दूर हैं. वह निर्गुण भी गाते हैं. निर्गुण गायन, एक तरह से आध्यात्मिक गीत है जो जीवन और मृत्यु के इर्द-गिर्द बुने होते हैं.
अलाउद्दीन बीबीसी को बताते हैं, “हमारे पूर्वज सब इसी स्कूल के नीचे दफ़्न हैं. हम लोग अनपढ़ आदमी, कोई काग़ज़ पत्तर नहीं बनवाए. बाद में जब स्कूल बनने लगा तो कई बार डीएम साहब के पास गए. डीएम साहब ने आश्वासन दिया कि क़ब्रिस्तान मिल जाएगा, लेकिन नहीं मिला.”
“अब तो हमारे लिए यह (जनार्दन सिंह) ही मसीहा बनकर आए हैं. हम लोग अभी तो नक़ली घर में रह रहे हैं, असली घर तो हमारा क़ब्रिस्तान ही है.”
दरअसल बीबीसी ने सगरा गांव में मौजूद जिन मुस्लिम परिवारों से बातचीत की, उनमें से कोई भी ज़िलाधिकारी बक्सर को लिखा गया, कोई पत्र नहीं दिखा पाया. लेकिन इन परिवारों का दावा है कि उन्होंने कई साल तक इसकी शिकायत की.
इन मुस्लिम परिवारों के ज़्यादातर लोग ईंट-भट्ठे में मज़दूरी करके जीवनयापन कर रहे हैं. बहरहाल अपना क़ब्रिस्तान मिल जाने से मुस्लिम परिवार ख़ुश हैं.
32 वर्षीय मुस्तकीम के तीन बच्चे हैं. ये तीनों बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं.
मुस्तकीम कहते हैं, “हम लोगों को जो क़ब्रिस्तान मिला है. हम लोग अब उसकी देखभाल करेंगे, उसमें पेड़ पौधा लगाएंगे. वहां मिट्टी बराबर करेंगे. साफ़-सफ़ाई रखेंगे.”
“हम लोगों के लिए तो मस्जिद भी नहीं है, हम लोग इसकी भी मांग कर रहे हैं. लेकिन क़ब्रिस्तान मिल गया, इतनी राहत की बात है. हम भविष्य के बारे में सोच रहे हैं. हम लोग जब क़ब्रिस्तान बनाकर रखेंगे तो बाल बच्चों को दिक़्क़त नहीं होगी.”
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.