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भारत के सबसे ज़्यादा प्रताड़ित नागरिक रहे दलितों के अधिकारों की रक्षा करने पर सुप्रीम कोर्ट गर्व करता रहा है.
लेकिन एक नई स्टडी का कहना है कि अदालत की अपनी भाषा ने अक्सर उसी जातिगत श्रेष्ठता को प्रतिबिंबित किया है, जिसे वह ख़त्म करना चाहती है.
लगभग 16 करोड़ भारतीय दलित हैं, जिन्हें कभी ‘अछूत’ कहा जाता था.
अब भी ये कमतर समझे जाने वाले कामों में फँसे हुए हैं और सामाजिक आर्थिक अवसरों से दूर हैं.
स्टडी में पाया गया है कि आज़ादी के बाद भारत के इतिहास के अधिकांश हिस्से में देश के शीर्ष न्यायाधीश दलितों के बारे में ऐसी भाषा में बात करने के लिए संघर्ष करते रहे हैं, जो मर्यादा को मान्यता दे न कि कलंक को मज़बूत करे.
भारत की शीर्ष अदालत के 75 वर्षों के फ़ैसलों की व्यापक समीक्षा में प्रगतिशील क़ानूनी नतीजों और पीछे ले जाने वाली भाषा के बीच यह तनाव एक अहम विरोधाभास के रूप में दर्ज है.
मेलबर्न यूनिवर्सिटी के फ़ंड से हुई इस रिसर्च में सुप्रीम कोर्ट ने भी मदद की है.
दुनिया की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिकाओं में से एक के लिए यह रिसर्च दुर्लभ आंतरिक आत्ममंथन पेश करता है.
यह स्टडी 1950 से 2025 तक की संवैधानिक बेंचों के फ़ैसलों की जाँच करती है.
इन्हें पाँच या उससे अधिक जजों ने सुनाया है. ये फ़ैसले ख़ासा अहम हैं, क्योंकि ये क़ानूनी मिसाल स्थापित करते हैं.
क़ानून के स्कूलों में पढ़ाए जाते हैं, अदालतों में इनका उल्लेख होता है और बाद की बेंचें इनका हवाला देती हैं.
मेलबर्न लॉ स्कूल की प्रोफ़ेसर फ़राह अहमद इस स्टडी की को-राइटर हैं.
उनके नोट के मुताबिक़ स्टडी में पाया गया कि जहाँ ये ऐतिहासिक फ़ैसले अक्सर दलित अधिकारों को बनाए रखते थे, वहीं उनकी भाषा कभी-कभी ‘अपमानजनक या असंवेदनशील’ भी होती थी.
कुछ फ़ैसलों में जातिगत उत्पीड़न की तुलना विकलांगता से की गई है, जिससे यह संकेत मिलता है कि प्रताड़ित या विकलांग लोग स्वाभाविक रूप से कमतर हैं.
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‘पूर्वाग्रह वाली भाषा’
बिना कोई सबूत के लोग यह मान लेते हैं कि केवल शिक्षा ही जाति को मिटा सकती है.
इससे जातीय उत्पीड़न की ज़िम्मेदारी समाज से हटकर दलितों पर व्यक्तिगत रूप से डाल दी जाती है.
ऐसा संदेश दिया जाता है कि बराबरी पाने के लिए पढ़-लिखकर ही आगे बढ़ना होगा.
कुछ अन्य फ़ैसले उन जातिगत अड़चनों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं, जो नौकरियों, क़र्ज़ और बाज़ारों तक पहुँच को रोकती हैं और ग़रीबी को गहरा करती हैं.
कुछ जजों ने दलितों की तुलना ‘साधारण घोड़ों’ से की जबकि उच्च जातियों को ‘फ़र्स्ट-क्लास दौड़ने वाले घोड़े’ जैसा बताया.
अन्य ने आरक्षण जैसी ‘अफ़रमेटिव एक्शन’ को “बैसाखियाँ” कहा, जिन पर दलितों को अधिक समय तक निर्भर नहीं रहना चाहिए.
कुछ जजों ने तो जाति की उत्पत्ति को नुक़सानदेह नहीं बताया. इसे महज काम के विभाजन की एक व्यवस्था के रूप में देखा.
रिसर्चरों का कहना है कि इससे एक बेहद नाइंसाफ़ी वाली यथास्थिति को बल मिला, जो उत्पीड़ित जातियों को तिरस्कृत और कम भुगतान वाले कामों तक सीमित कर देती है.
स्टडी में 2020 के एक फ़ैसले का ज़िक्र है. इसमें यह कहा गया कि जनजाति अपने आदिम जीवन-व्यवहार के कारण मुख्यधारा के साथ चलने और सामान्य क़ानूनों से शासित होने के योग्य नहीं हैं.
कहा गया कि इन्हें मदद करने वाले हाथ की ज़रूरत है, ताकि उन्हें “राष्ट्रीय विकास में योगदान देने योग्य बनाया जा सके और वे आदिम संस्कृति से बाहर निकलें.”
इस स्टडी का कहना है कि अदालत की ऐसी भाषा केवल ख़राब अभिव्यक्ति नहीं थी, बल्कि अन्यायपूर्ण रूढ़ियों को मज़बूत करती थी.
प्रोफ़ेसर फ़राह अहमद कहती हैं, ”ये तुलनाएँ, चाहे जानवरों से की गई हों या विकलांग व्यक्तियों से दोनों समूहों के लिए अपमानजनक थीं. वास्तविक समस्या किसी भी तरह की कथित जन्मजात कमी नहीं है बल्कि वह समाज है, जो उन्हें आगे बढ़ने में ज़रूरी समर्थन देने में नाकाम रहता है.”
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शीर्ष अदालत में विविधता की ज़रूरत
स्टडी में पाया गया कि ऐसी ‘कलंकित करने वाली धारणाएँ’ उन फ़ैसलों में भी दिखाई दीं, जो दलित अधिकारों को बनाए रखती थीं.
प्रोफ़ेसर अहमद कहती हैं, “मेरा मानना है कि जज वास्तव में उस भाषा के प्रभावों से अनजान थे, जिसका वे इस्तेमाल कर रहे थे. यह भाषा उनकी गहरी जमी हुई धारणाओं को उजागर कर रही थी. मुझे नहीं लगता कि इनमें से किसी भी मामले में दलितों का अपमान करने या उन्हें नीचा दिखाने का कोई इरादा था.”
क्या यह भाषायी पूर्वाग्रह अदालत की तर्क प्रणाली या फ़ैसले को प्रभावित करता है या यह एक ऐसा अदृश्य बिंदु था, जो प्रगतिशील फ़ैसलों के साथ-साथ मौजूद था?
प्रोफ़ेसर अहमद ने बीबीसी से कहा, “मुझे यह हैरान करेगा अगर न्यायिक भाषा में अपमानजनक या जाति-प्रथा की क्रूरता को कम करके आँकने वाली भाषा शामिल हो, जो जजों के फ़ैसलों पर कोई प्रभाव न डालती हो.”
व्यक्तिगत फ़ैसलों से परे सुप्रीम कोर्ट के जज भारतीय समाज और राजनीति को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं; उनकी भाषा महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे व्यापक रूप से रिपोर्ट किया जाता है, बहस होती है और यह सार्वजनिक विमर्श को आकार देती है.
फिर भी अदालत ने जातिगत पूर्वाग्रह को सक्रिय रूप से चुनौती दी है.
पिछले साल अक्तूबर में एक जाँच रिपोर्ट के जवाब में, अदालत ने केंद्र और राज्यों को जेल मैनुअल संशोधित करने का निर्देश दिया था, ताकि जाति आधारित भेदभाव को दूर किया जा सके.
यह भेदभाव काम के विभाजन, बैरक के अलगाव और ऐसे नियमों में साफ़ झलकता था जो ऐतिहासिक रूप से हाशिए के समुदायों को अनुचित रूप से निशाना बनाते थे.
इसके अलावा कई जज ज़ोर देते हैं कि कोई भी पुरानी या समस्याग्रस्त भाषा जानबूझकर इस्तेमाल नहीं की गई.
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस मदन लोकुर ने बीबीसी से कहा, ” यह संभव है कि अदालतें हमेशा भाषा के विकसित होते तरीक़ों से पूरी तरह अवगत नहीं रह पातीं. लेकिन यहाँ कोई ग़लत मंशा नहीं होती.”
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आत्ममंथन की ज़रूरत
इसे स्वीकार करते हुए, अगस्त 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने ‘हैंडबुक ऑन कॉम्बैटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ जारी की थी, जिसमें “जेंडर-बायस्ड” शब्दों की एक शब्दावली है, जिनका इस्तेमाल न्यायाधीशों और वकीलों को क़ानूनी राइटिंग में न करने की सलाह दी गई है.
इसका मक़सद विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों, विकलांग व्यक्तियों और यौन अपराधों से जुड़े मामलों में अपमानजनक, भेदभावपूर्ण या रूढ़िबद्ध भाषा को ख़त्म करना है.
क्या इस तरह की कोशिश सुप्रीम कोर्ट के जजों के जाति के बारे में लिखने के तरीक़ों को भी वास्तविक रूप से प्रभावित कर सकती है?
प्रोफ़ेसर अहमद कहती हैं, “यह रिपोर्ट इस दिशा में महज पहला क़दम है कि जज जाति के बारे में कैसे लिखते हैं. हम ऐसे स्थान से शुरुआत कर रहे हैं, जहाँ पहले इस समस्या की बहुत कम समझ थी. ऐसी और आंतरिक समीक्षाएँ बहुत ज़रूरी हैं. सबसे अहम बात यह है कि वकील, लॉ-अकादमिक जगत और न्यायपालिका को वह नज़रिया चाहिए, जो केवल उत्पीड़ित जातियों के सदस्यों की पूर्ण भागीदारी से ही आ सकती हैं.”
भारत के सुप्रीम कोर्ट में दलित प्रतिनिधित्व उल्लेखनीय रूप से कम रहा है.
शोधकर्ताओं ने अपने नोट में कहा है, “हमारे अनुमान के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में अब तक केवल आठ दलित जज ही रहे हैं.”
पिछले छह महीनों तक मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई सुप्रीम कोर्ट का नेतृत्व करने वाले दूसरे दलित जज थे. जस्टिस केजी बालकृष्णन सुप्रीम कोर्ट के पहले दलित मुख्य न्यायाधीश थे.
इस रिसर्च में जिन फ़ैसलों को शामिल किया गया है, उनमें से दो मामलों की बेंच में वह थे. उनकी टिप्पणियों का उल्लेख रिपोर्ट में बार-बार किया गया है.
शोधकर्ताओं के अनुसार, जस्टिस बालकृष्णन जाति को एक “अटूट बंधन” के रूप में देखते हैं, जो लोगों को “अशुद्ध” माने जाने वाले व्यवसायों में धकेल देती है.
ऐसा बंधन जिससे “मृत्यु भी मुक्ति नहीं दिलाती” क्योंकि क़ब्रिस्तानों और श्मशानों में भी भेदभाव ख़त्म नहीं होता.
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह उन फ़ैसलों से बिल्कुल अलग है, जो जातिगत नाइंसाफ़ी को कम करके आँकते हैं.
उनका कहना है कि भारत की सर्वोच्च अदालत को विविध नज़रियों की ज़रूरत है. विशेष रूप से उत्पीड़ित जातियों का यहाँ होना ज़रूरी है.
राजनीति से ऊपर मानी जाने वाली संस्था के लिए यह रिपोर्ट एक असामान्य आत्ममंथन का क्षण है.
यह संकेत देती है कि जातीय समानता के लिए संघर्ष केवल फ़ैसलों और क़ानूनों में ही नहीं बल्कि रूपकों, उपमाओं और रोज़मर्रा की भाषायी पसंद में भी लड़ा जाता है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित