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- Author, सईदउज़्ज़मां
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
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झटका इतना अचानक और तेज़ था कि इंदौर का एक साधारण-सा घर बुरी तरह हिल गया. परिवार के लोग सदमे और मायूसी के बीच फंसकर रह गए.
उनकी 12 साल की बेटी, जो पहले बहुत चुस्त-चालाक और चुलबुली थी, उसने अचानक बताया कि उसे चीज़ें दो-दो दिखाई देने लगी हैं.
अगस्त 2024 में जांच हुई तो पता चला कि उसे डिफ्यूज़ मिडलाइन ग्लियोमा (डीएमजी) है. यह बच्चों में होने वाला बेहद खतरनाक और लगभग जानलेवा ब्रेन कैंसर होता है.
इसके बाद, जैसे उसके माता-पिता की बनाई दुनिया ही ढह गई. नाम न बताने की शर्त पर उसकी मां ने कहा, “हम जो भी कमा रहे थे, मेहनत कर रहे थे, सब बच्ची के भविष्य के लिए था. लेकिन अब लड़ाई ज़िंदगी बचाने की है.”
कई महीनों से जैसे वे डर और उम्मीद के बीच की पतली रेखा पर जी रहे हैं. रेडिएशन ट्रीटमेंट होते रहे और हर एक के साथ यह समझ भी आता रहा कि मेडिकल साइंस के पास विकल्प कितने कम हैं.
डॉक्टरों ने सीधी और सख़्त भाषा में कह दिया था कि हालत ठीक नहीं हैं.
और मां कहती हैं, “जब मैंने पहली बार सुना कि हमारे पास कितना समय है… तो यह बहुत तोड़ देने वाला था. समझना मुश्किल था.”
उम्मीद की किरण
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परिवार बताता है कि उन्हें ‘धक्का लगा’ और वे ‘टूटे हुए’ महसूस कर रहे थे. उन्हें लगा जैसे इस बीमारी के निदान ने उनके भीतर, बहुत गहरे कुछ तोड़ दिया हो.
बेटी के सामने खुद को संभालना अब उनका अपना संघर्ष बन गया है.
मां कहती हैं कि उसके बिना भविष्य की कल्पना करना, ‘बहुत डरावना है.’
डॉक्टरों से हर बातचीत एक और आघात की तरह रही, “वे बहुत सपाट तरीके से बोलते हैं क्योंकि आंकड़े कोई उम्मीद नहीं दिखा रहे.”
मां बताती हैं कि बेटी की हालत लगातार बिगड़ रही है. लक्षण अब रोज़मर्रा की गतिविधियों और बेसिक मूवमेंट को प्रभावित कर रहे हैं.
उन्होंने बीबीसी को बताया, “दृष्टि तो एक समस्या है और भी दिक़्क़तें हैं जैसे कमज़ोरी, बैलेंस की समस्या, हाथ ठीक से काम नहीं कर रहे, अन्य अंगों में कमज़ोरी है. अगर हालात और बिगड़े, तो सांस लेने और निगलने में भी मुश्किल होगी.”
इस गहरे दुख के बीच एक हल्की सी उम्मीद की किरण दिखी- एक एक्सपेरिमेंटल रूसी कैंसर वैक्सीन जिसका नाम है एंटरोमिक्स.
इंदौर के इस परिवार को एंटरोमिक्स के बारे में इंटरनेट से पता चला.
परिवार कहता है, “पिछले साल जब हमें हालात का पता चला और हमने बड़े सर्जन व ऑन्कोलॉजिस्ट से बात की तो उन्होंने कोई साफ जवाब नहीं दिया. लेकिन उस समय मेरे छोटे भाई ने उम्मीद बनाए रखी.”
“उसने कहा कि कोई न कोई इलाज़ ज़रूर आएगा. जब रूस ने वैक्सीन की घोषणा की, तो वह उम्मीद हमें साकार होती दिखने लगी.”
एफ़एमबीए की प्रमुख वेरोनिका स्क्वोर्ट्सोवा के मुताबिक़, यह वैक्सीन आगे चलकर ग्लियोब्लास्टोमा- जो वयस्कों में सबसे आक्रामक ब्रेन ट्यूमर है – के इलाज में भी इस्तेमाल हो सकती है.
इन वैज्ञानिक उम्मीदों की झलक ने ऐसी जगह उम्मीद जगाई जहां पहले कुछ नहीं था.
इंदौर के इस परिवार ने प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रपति कार्यालय और विदेश मंत्रालय को पत्र लिखकर अपनी बेटी को रूस में क्लिनिकल ट्रायल में शामिल करने का मौका देने की गुज़ारिश की है.
बहुत शुरुआती दौर है
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एंटरोमिक्स अभी रिसर्च के बहुत शुरुआती दौर में है. रिपोर्ट्स के मुताबिक़ यह वैक्सीन फेज़-1 के ट्रायल में 48 कोलोरेक्टल कैंसर मरीजों के ट्यूमर घटाने में 60% से 80% तक प्रभावी दिखी है. साथ ही इम्यून रिस्पॉन्स एक्टिवेशन 100% रहा है और कोई गंभीर साइड इफ़ेक्ट नहीं दिखा है.
लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आंकड़ों को अभी तक वैज्ञानिकों की समीक्षा वाले किसी साइंटिफिक जर्नल में प्रकाशित नहीं किया गया है.
विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि पारदर्शी डेटा के बिना इस थेरेपी की असली क्षमता का अंदाज़ा लगाना नामुमकिन है.

एम्स दिल्ली में मेडिकल ऑन्कोलॉजी के प्रोफ़ेसर डॉक्टर अजय गोगिया के मुताबिक इस वैक्सीन का वास्तविक जीवन में इस्तेमाल अभी बहुत दूर है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मुताबिक़, किसी भी वैक्सीन को आम इस्तेमाल के लिए मंज़ूरी मिलने से पहले तीन चरणों के मानव परीक्षण से गुजरना पड़ता है. यह प्रक्रिया इससे पहले प्रीक्लिनिकल टेस्टिंग से शुरू होती है.
ये स्टेज कैसे काम करती हैं?
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डब्ल्यूएचओ के अनुसार प्रीक्लिनिकल टेस्टिंग में इंसानों पर टेस्ट नहीं होते. वैक्सीन को जानवरों पर आज़माया जाता है ताकि सुरक्षा और बीमारी रोकने की इसकी क्षमता का अनुमान लगाया जा सके.
अगर इम्यून रिस्पॉन्स मिलता है, तो फिर इसे मानव परीक्षण के लिए ले जाया जा सकता है. यह तीन चरण में होता है.
पहले फेज़ में वैक्सीन को कुछ स्वस्थ वयस्क वॉलंटियर्स को दिया जाता है. इसका मक़सद होता है सुरक्षा जांचना, डोज़ तय करना और देखना कि क्या इससे इम्यून रिस्पॉन्स होता है या नहीं.
दूसरे फेज़ में सैकड़ों वॉलंटियर्स शामिल होते हैं, जिनकी उम्र, लिंग और स्वास्थ्य स्थिति लक्षित आबादी जैसी होती है.
सुरक्षा और इम्यून रिस्पॉन्स की आगे जांच की जाती है. इसमें अक्सर एक कंट्रोल ग्रुप होता है, जिसे वैक्सीन नहीं दी जाती.
तीसरे फेज़ में हज़ारों वॉलंटियर्स को वैक्सीन दी जाती है, जबकि तुलना किए जाने वाले एक समूह को प्लेसीबो या दूसरा उत्पाद दिया जाता है.
यह चरण वैक्सीन की असली दुनिया में अलग-अलग जनसमूहों और स्थानों में प्रभावशीलता और सुरक्षा तय करता है.
‘कुछ भी वैज्ञानिक नहीं’
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इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ कैंसर प्रिवेंशन एंड रिसर्च के पूर्व निदेशक और कैंसर शोधकर्ता डॉक्टर रवि मेहरोत्रा इसकी पुष्टि करते हैं.
उन्होंने बीबीसी से कहा कि वैक्सीन ‘सैद्धांतिक रूप से काम कर सकती है,’ लेकिन इसके प्रमाण अभी ‘बहुत शुरुआती स्तर’ पर हैं.
डॉक्टर मेहरोत्रा ने बीबीसी से कहा, “अभी तक इस अध्ययन की अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय ने समीक्षा नहीं की है, यह प्रकाशित नहीं हुई है और हमारे पास बहुत शुरुआती स्तर का डेटा है.”
“मेरी समझ में, यह थ्योरी अभी तक तो जानवरों और इंसानों के छोटे समूहों पर हुए शुरुआती टेस्ट में काम करती हुई दिखी है, लेकिन बड़े स्तर पर किए जाने वाले क्लिनिकल ट्रायल में इसे आम लोगों के इलाज के तौर पर साबित नहीं किया गया है.”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि यह समझना ज़रूरी है कि यह कोई प्रिवेंटिव क्योर नहीं है, बल्कि एक चिकित्सा आधारित इलाज है.
यानी कि यह कैंसर को होने से रोक नहीं सकता, लेकिन थ्योरी के मुताबिक़, अगर कैंसर हो चुका है तो उसे ठीक करने में मदद कर सकता है.
डॉक्टर मेहरोत्रा के अनुसार, एफ़एमबीए का 100% इम्यून रिस्पॉन्स का दावा यह बताता है कि उन्होंने ट्रायल में शामिल जानवरों और लोगों में 100% एंटीबॉडीज़ विकसित करने में सफलता पाई है, लेकिन एंटीबॉडीज़ बनना इलाज हो जाने के बराबर नहीं है.

डॉक्टर स्वरूपा मित्रा, फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट के डिपार्टमेंट ऑफ़ रेडिएशन ऑन्कोलॉजी की डायरेक्टर और यूनिट हेड हैं.
वह कहती हैं कि हमें अपनी उम्मीदों को काबू में रखना चाहिए और जल्दबाज़ी में नतीजे नहीं निकालने चाहिए.
वह कहती हैं, “कुछ भी वैज्ञानिक नहीं है, उन्होंने कुछ भी सामने नहीं रखा है. कोई भी वैज्ञानिक आधार, मतलब कोई भी चीज़ शोध करने वालों ने सामने नहीं रखी है. यह सब मीडिया में आ रहा है. इनके आधार पर हमें कोई टिप्पणी नहीं करनी चाहिए.”
डॉक्टर मित्रा के अनुसार जब तक पारदर्शी और वैज्ञानिक समीक्षाएं सामने नहीं आ जातीं, वैक्सीन की असली क्षमता का अंदाज़ा लगाना नामुमकिन है. किसी भी मंज़ूरशुदा इलाज के आम लोगों तक पहुँचने में अभी कई साल लग सकते हैं.”
एक और परिवार, एक और बेबस गुहार
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उत्तर प्रदेश के लखनऊ में, 45 वर्षीय मनु श्रीवास्तव अपने बेटे अंश के लिए भी यही संघर्ष कर रहे हैं. अंश आंतों के कैंसर से जूझ रहे हैं.
मनु ने बार-बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु और रूसी अधिकारियों को लिखकर आग्रह किया है कि उनके बेटे को एंटरोमिक्स के क्लिनिकल ट्रायल में शामिल किया जाए.
मनु के मुताबिक़, भारत सरकार के जवाब में कहा गया कि इस वैक्सीन का रूस के अलावा कहीं ट्रायल नहीं हो रहा है और इसे भारत आने में समय लगेगा.
उन्हें रूसी सरकार ने जवाब दिया कि अंश की पात्रता पर विचार किया जाएगा, लेकिन कोई समयसीमा नहीं बताई.
डॉक्टर मेहरोत्रा बताते हैं कि ऐसे ट्रायल में दूसरे देशों के मरीज़ों को शामिल करना बेहद दुर्लभ है. आमतौर पर देश अपने नागरिकों को ही शामिल करते हैं, जब तक कि उनके पास पर्याप्त प्रतिभागी न हों और इस मामले में ऐसा नहीं है.
इस बीच, मनु अपने बेटे को लगातार कीमोथेरेपी झेलते हुए देखते हैं.
वह कहते हैं कि “बस थोड़ा सा फर्क पड़ा है.” इसलिए वह भी उसी उम्मीद के सहारे टिके हैं, जिस पर इंदौर का परिवार टिका हुआ है.
डॉक्टर रवि मेहरोत्रा ने बीबीसी को बताया कि किसी दूसरे देश में क्लिनिकल ट्रायल में शामिल होने की मरीजों की दरख़्वास्त शायद ही कभी स्वीकार होती हैं.
उन्होंने समझाया कि अंतरराष्ट्रीय भागीदारों को तभी किसी ट्रायल में लिया जाता है जब शोधकर्ताओं के पास पर्याप्त स्थानीय मरीज़ न हों. इस मामले में संभावना है कि ट्रायल सिर्फ़ रूस के लोगों तक सीमित रहेंगे.
समय और उम्मीद की तलाश
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इंदौर के परिवार के लिए एंटरोमिक्स के पीछे का विज्ञान, उसके चरण, उसकी सीमाएं, उसका अप्रमाणित डेटा, एक बहुत बड़े भावनात्मक परिदृश्य का सिर्फ़ एक हिस्सा है.
वे लोग पूरी तरह समझते हैं कि यह एक्सपेरिमेंटल है. उन्हें पता है कि संभावना बहुत कम है. लेकिन जब दुनिया अचानक अस्पताल के गलियारों, एमआरआई स्कैन और रेडिएशन शेड्यूल से परिभाषित हो रही हो तो उम्मीद की हल्की सी किरण भी पीछा करने लायक लगती है.
उनका दुख लगातार बना हुआ है, लेकिन उतनी ही बनी हुई है यह ज़रूरत कि कुछ भी किया जाए ताकि उनकी बेटी को थोड़ा और समय मिल सके.
जैसा कि मां कहती हैं, “उसके बिना भविष्य की कल्पना करना बहुत परेशान करने वाला है.”
वह कहती हैं कि पिछले साल का भावनात्मक दबाव असहनीय रहा है, वे कहती हैं, “ज़िंदगी बेकार और निराशाजनक लगती है. इससे ज़्यादा मुश्किल कुछ नहीं कि यह स्वीकार करना पड़े कि आपका बच्चा एमआरआई मशीनों या प्रोटॉन थेरेपी से गुज़र रहा है.”
फिर वह यह भी जोड़ती हैं कि अपनी बेटी को नहीं दिखा सकतीं कि उनका डर कितना गहरा है.
उनका कहना है, “ठीक उसी समय मुझे अपनी भावनाओं को काबू में रखना पड़ता है और सब सामान्य होने का नाटक करना पड़ता है, क्योंकि बच्ची काफ़ी समझदार है और जानने की कोशिश करती है कि क्या हो रहा है. मुझे उसे समझाना पड़ता है ताकि उसे आसपास की सच्चाई का अंदाज़ा न लगे.”
उन माता-पिता के लिए जो अपने बच्चों को जानलेवा कैंसर से लड़ते देख रहे हैं, वैज्ञानिक सावधानी बहुत रूखी बात लगती है.
ऐसे में जो बचता है, वह है ज़रूरत कि तुरंत मदद मिले और अपने बच्चों की ज़िंदगी बढ़ाने की हल्की से हल्की भी संभावना की तलाश.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.