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- Author, दीपक मंडल
- पदनाम, बीबीसी संवाददाता
साल 1996 का वक़्त. बनारस के रहने वाले श्याम सुंदर दुबे ने दिल्ली आकर केंद्र सरकार के मंत्रालय में अपनी नई नौकरी शुरू की थी.
नए कर्मचारियों के उस बैच में झारखंड की सुनीता कुशवाहा भी थीं.
दोनों की नज़दीकियां बढ़ीं और साल भर बाद उन्होंने शादी करने का फ़ैसला किया.
लेकिन न तो श्याम सुंदर और न ही सुनीता के घरवाले इस अंतरजातीय शादी को मंजूरी देने के लिए तैयार थे.
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दुबे के घरवालों को ये मंजूर नहीं था कि ओबीसी समुदाय की कोई लड़की उनके परिवार में आए.
सुनीता के माता-पिता की नज़र भी कुशवाहा समुदाय के एक ‘अच्छे लड़के’ पर थी.
परिवार वालों की रज़ामंदी न मिलने पर श्याम सुंदर और सुनीता ने दिल्ली में कोर्ट मैरिज की.
दोनों के परिवारों ने वर्षों के बहिष्कार के बाद उन्हें स्वीकार किया.
दिल्ली में रह रहीं पत्रकार पूजा श्रीवास्तव ने भी जब 2013 में अपने सहकर्मी पवित्र मिश्रा के साथ शादी करने का फ़ैसला किया तो दोनों के परिवार में इसका विरोध हुआ.
दोनों भारतीय समाज में ऊंची मानी जाने वाली जातियों से ताल्लुक रखते हैं.
लेकिन उनका परिवार इस अंतरजातीय प्रेम विवाह को सहमति देने के लिए तैयार नहीं था.
परिवार की मंजूरी न मिलने पर इस पत्रकार जोड़े को भी अदालत में शादी करनी पड़ी.
जाति की दीवारें
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उत्तराखंड के शहर हल्द्वानी में रहने वाले संजय भट्ट और कीर्ति आर्या की शादी का तो भट्ट बिरादरी में खूब विरोध हुआ. भट्ट ब्राह्मण हैं और कीर्ति दलित.
हल्द्वानी में वो जिस मोहल्ले में रहते हैं वहां ज्यादातर भट्ट (ब्राह्मण) लोग ही हैं. उनमें रिश्तेदारियां हैं.
संजय भट्ट का एक अनसूचित जाति की लड़की से शादी करना उन परिवारों में चर्चा का विषय बन गया.
2016 में जब संजय ने कीर्ति से शादी करने का फैसला किया तो उनके रिश्तेदारों ने उनके माता-पिता पर इस बात का दबाव बनाना शुरू कर दिया कि वो अपने बेटे को समझाएं.
संजय अपने फै़सले को बदलने को तैयार नहीं थे और उनके माता-पिता को ये मंजूर नहीं था.
संजय ने कीर्ति से आर्य समाज मंदिर में शादी की. उस दौरान दोनों का कोई रिश्तेदार वहां मौजूद नहीं था.
शादी के बाद संजय को शहर में ही दूसरी जगह मकान तलाशना पड़ा.
सात साल बाद जब संजय और कीर्ति एक बच्चे के पैरेंट बने तब जाकर संजय के घरवालों से उनका बोलचाल शुरू हुआ.
ये तीनों कहानियां बताती हैं कि भारतीय समाज में अंतरजातीय शादियों को परिवार की मंजूरी मिलना अभी भी कितना मुश्किल है.
अंतरजातीय शादियों की कछुआ चाल
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शहरीकरण, महिलाओं की शिक्षा, वर्किंग प्लेस में उनकी बढ़ती मौज़ूदगी के साथ महिला-पुरुषों के मिलने-जुलने के मौके बढ़ने के बावज़ूद भारत में अंतरजातीय शादियां अभी भी काफी कम हैं.
देश में अंतर-जातीय शादियों को लेकर कोई निश्चित आंकड़ा नहीं है. क्योंकि केंद्र ने सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना में से जाति का आंकड़ा जारी नहीं किया है.
लेकिन सैंपल सर्वे के आधार पर किए गए अध्ययनों से ये साफ है कि भारतीय परिवारों में अंतरजातीय शादियों का विरोध काफी ज़्यादा है.
2018 में अंतरजातीय शादियों के बारे में जानकारी जुटाने के लिए 1,60,000 परिवारों का सर्वे किया गया था. सर्वे के नतीजे बताते हैं कि 93 फ़ीसदी लोगों ने परिवारों की ओर से तय शादियां की थी. सिर्फ 3 फ़ीसदी ने प्रेम विवाह किया था.
सिर्फ दो फ़ीसदी प्रेम विवाहों को परिवार की मंजूरी मिल सकी थी.
भारत में बहुसंख्यक हिंदू परिवारों में ज़्यादातर ‘अरैंज्ड मैरिज’ (परिवार की ओर से तय) एक ही जातियों की भीतर होती हैं.
इस सर्वे के मुताबिक़ कई दशकों के बाद भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी मिलने की दर बेहद कम है.
2018 में हुए इस सर्वे में जिन बुजुर्गों से बात की गई ( अस्सी वर्ष की उम्र वालों से) उनमें 94 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति में शादी की थी.
इसके मुताबिक़ 21 की उम्र या इससे बाद में शादी करने वालों में 90 फ़ीसदी ने अपनी ही जाति के युवक या युवती से शादी की थी.
यानी इतने दशकों के अंतराल के बाद अपनी ही जाति में शादी करने वालों का आंकड़ा सिर्फ चार फ़ीसदी कम हुआ था.
इसके तहत जम्मू-कश्मीर, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मेघालय और तमिलनाडु में जिन लोगों का सर्वे किया गया था उनमें 95 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उनकी शादी जाति के भीतर हुई है.
पंजाब, गोवा, केरल में स्थिति थोड़ी बेहतर थी. वहां 80 फ़ीसदी लोगों ने कहा था कि उन्होंने अपनी जाति में शादी की.
इंडियन स्टेटस्टिकल्स इंस्टीट्यूट के रिसर्चरों ने इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे और नेशनल सैंपल सर्वे 2011-12 के आंकड़ों का हवाला देते हुए 2017 के एक पेपर में दिखाया था कि लोगों के पढ़े-लिखे होने के बावज़ूद भारतीय समाज में जाति बंधन कम नहीं हुआ है.
ज्यादातर लोग जाति के अंदर शादी करने को प्राथमिकता देते हैं.
इस सर्वे में जिन लोगों से सवाल पूछे गए थे उनमें हर जाति, समुदाय और धर्म के लोग शामिल थे.
अड़चनें कहां हैं ?
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अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादी करने पर परिवार में असुरक्षा या हिंसा का सामना करने वाले जोड़ों को सुरक्षा देने और लैंगिक समानता के लिए काम करने वाले एनजीओ ‘धनक’ के को-फाउंडर आसिफ़ इक़बाल का कहना है कि अंतरजातीय प्रेम विवाहों के लेकर परिवार के अंदर अभी भी हालात आसान नहीं है.
‘धनक’ के पास अक्सर ऐसे अंतरजातीय और अंतर धार्मिक जोड़े आते हैं, जिनकी शादियों का उनके परिवार या समुदाय में विरोध हो रहा होता है.
आसिफ़ कहते हैं, ”भारतीय परिवारों के अंदर अभी भी अंतरजातीय शादियों को मंजूरी की दर ज्यादा नहीं है. इसके बजाय ऐसी शादी करने वालों जोड़ों के लिए परिवार के बाहर स्थिति ज्यादा आसान है. क्योंकि राज्य उन्हें सुरक्षा देता है. शादी का सर्टिफिकेट मिलते ही पुलिस और अदालत उनकी हिफ़ाजत के लिए आगे आ जाती है.”
वो कहते हैं, ” गांवों में अंतरजातीय शादियों को लेकर हिंसा और विवाद ज्यादा दिखते हैं. शहरों में हिंसा की स्थिति नहीं दिखती. क्योंकि अंतरजातीय शादियों को राज्य और अदालतों की ओर से संरक्षण हासिल है. हालांकि शहरों में भी परिवारों के अंदर अंतरजातीय और अंतर धार्मिक शादियों की स्वीकार्यता बहुत कम है.”
विवेक कुमार दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोशल सिस्टम में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं.
वो अंतरजातीय शादियों की संख्या धीमी होने पर अचरज नहीं जताते. उनका मानना है कि इसकी जड़ें भारतीय समाज की संरचना में है.
विवेक कुमार कहते हैं कि भारत में पांच-सात फ़ीसदी अंतरजातीय विवाह भी हो रहे हैं तो ये यहां की आबादी के हिसाब से बहुत बड़ी संख्या है. हालांकि ऐसी शादियों के बढ़ने की रफ़्तार धीमी है.
वो कहते हैं, ” भारत में अभी भी 68 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती है. अभी तक एक ही गांव में रहने वाले युवक-युवतियों के बीच भाई-बहन का रिश्ता मानने की परंपरा चली आ रही है, चाहे वो किसी भी जाति के क्यों न हों. भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं में भाई-बहन के बीच शादियां नहीं होती है. इसलिए अंतरजातीय विवाह कम हैं.”
विवेक कुमार का मानना है कि यूनिवर्सिटी में लड़कियों की संख्या कम होने से भी अंतरजातीय शादियां कम दिख रही हैं. उच्च शिक्षा संस्थानों में लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते हैं. जैसे-जैसे यहां लड़कियों की संख्या बढ़ेगी अंतरजातीय विवाह ज्यादा होंगे.
वो ये भी कहते हैं कि भारत में लड़कियों की तुलना में लड़कों के विचार ज्यादा परंपरावादी हैं और अभी भी वो पितृसत्ता के बंधन में बंधे हैं और दहेज लेकर शादी करना पसंद करते हैं.
उनका कहना है कि चूंकि परिवार की ओर से तय अंतरजातीय शादियों में वर पक्ष को दहेज मिलता है इसलिए माता-पिता बेटे की मर्जी से होने वाली अंतरजातीय शादियों का विरोध करते हैं. क्योंकि ऐसी शादियों में दहेज मिलने की संभावना कम हो जाती है.
यहां भी हैं मुश्किलें
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भारत में बहुसंख्यक हिंदुओं के साथ मुस्लिम, सिख और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक समुदायों में भी जाति विभाजन है.
इस्लाम सैद्धांतिक तौर पर सभी मुसलमानों को बराबर मानता है लेकिन भारतीय मुस्लिमों में भी अंतरजातीय शादियां को परिवारवालों की मंजूरी की दर काफी कम है.
देश में पसमांदा (पिछड़े) और दलित मुसलमानों के हकों के लिए लंबा आंदोलन करने वाले राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता अली अनवर कहते हैं कि इस्लाम के मुताबिक़ सभी मुसलमान बराबर हैं. लेकिन भारत में मुस्लिमों में जातिगत भेदभाव मौजूद है.
अनवर कहते हैं कि मुसलमानों में ऊंची जातियों यानी अशराफ़ और अजलाफ़ (पसमांदा यानी पिछड़े) अरजाल जातियों (दलित मुसलमान) के युवक-युवतियों की आपस में शादियां बहुत कम देखने को मिलती है.
वो कहते हैं कि मुस्लिमों की 20 से 25 करोड़ (अनुमानित) आबादी में ऐसी शादियां इतनी कम हैं कि इसे नगण्य मानना चाहिए.
उन्होंने बीबीसी हिंदी से कहा,”पांच-छह दशक पहले तो भारतीय मुसलमानों में इस तरह की शादियां बहुत कम दिखती थीं. लेकिन पिछले 20-30 साल से मुसलमानों में ऐसी अंतरजातीय शादियां दिखने लगी हैं, जिन्हें परिवारों की मंजूरी मिल रही है.”
हालांकि इसमें एक पेंच है. अनवर कहते हैं, ”मुसलमानों में ऊंची जाति के माने जाने वाले लोग अपनी बेटियों की शादियां पिछड़ी जातियों (पसमांदा) के ऐसे मुसलमान युवकों से कराने के लिए तैयार दिखते हैं जो ऊंचे सरकारी ओहदे या बढ़िया कारोबार वाला हो. लेकिन बहू लाने के वक़्त वो ऊंची जातियों के मुसलमान परिवारों को ही प्राथमिकता देते हैं. ऐसे लोग बहू लाते वक़्त वंशावली खोजने लगते हैं. कहते हैं कि पिछड़ी जाति से बहू लाकर क्या ख़ानदान की ‘हड्डी’ ख़राब करोगे.”
अली अनवर कहते हैं,”मुसलमानों में अशराफ़ और अजलाफ़ के बीच तो छोड़ ही दीजिए अजलाफ़ और अरजाल यानी दलित मुस्लिमों के बीच भी विवाह संबंध बहुत ही कम हैं. ऐसी शादियों को बढ़ावा देने के लिए हमने पसमांदा आंदोलन के तहत पहल की थी लेकिन हालात ज्यादा बदले नहीं हैं.”
गांधी, आंबेडकर और लोहिया से मिला था बढ़ावा
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भारत में लंबे समय से अंतरजातीय शादियों की वकालत की जाती रही है.
ऐसी शादियों को जातियों में बंटे भारतीय समाज में समरसता लाने का अहम औजार समझा गया.
बाद में उन्होंने ये कहना शुरू किया कि वो उसी शादी समारोह में हिस्सा लेंगे जिसमें वर या वधू में से एक हरिजन हो.
भारत में दलितों के बड़े नेता बीआर आंबेडकर ने अंतरजातीय शादियों की जमकर वकालत की. उन्होंने अपने प्रसिद्ध भाषण ( जो उन्हें देने नहीं दिया गया था. बाद में ये पुस्तिका के तौर पर छपा) ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में कहा था कि जाति तोड़ने की असली दवा अंतरजातीय शादियां हैं.
आंबेडकर का मानना था कि भारतीय समाज में जातियों के बीच रोटी-बेटी का संबंध कायम होने से एकता बढ़ेगी.
उन्होंने सुझाव दिया था कि सरकारी कर्मचारियों के लिए अंतरजातीय शादी अनिवार्य बना देना चाहिए.
1970 के दशक में सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौरान अंतरजातीय शादियों और उपनाम (जाति सूचक) न लगाने का चलन काफ़ी बढ़ा.
इस आंदोलन में शामिल बड़ी तादाद में युवक-युवतियों ने जाति के बाहर शादी की और उपनाम लगाना छोड़ दिया.
लेकिन इसके बाद देश के राजनीतिक आंदोलनों में इस तरह के सामाजिक सुधारों की वकालत कम दिखी.
माना गया कि बढ़ता शहरीकरण, औद्योगीकरण और शिक्षा का प्रसार खुद-ब-खुद जाति के बंधनों को तोड़ देगा. लेकिन ऐसा होता दिख नहीं रहा है.
भारतीय अख़बारों में छपने वाले मेट्रोमोनियल्स यानी शादी के लिए दिए जाने वाले विज्ञापनों में बाकायदा जातियों के कॉलम होते हैं. ये ‘जाति बंधन नहीं’ वाले कॉलम से बहुत बड़े होते हैं.
सामाजिक कार्यकर्ता और दलित महिलाओं के संघर्ष को अपनी कविताओं का विषय बनाने वाली कवियित्री अनिता भारती ने अंतरजातीय शादियां कम होने की वजहों पर बीबीसी से बात करते हुए कहा, ” भारत में जाति व्यवस्था थोड़ी ढीली पड़ी है लेकिन अभी भी अंतरजातीय शादियों को ज्यादा प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है. समाज में इसका सपोर्ट सिस्टम नहीं है.”
वो कहती हैं, ” हम अपने आसपास देखते हैं कि अंतरजातीय शादी करने वाले लोगों को संघर्ष करना पड़ता है. कई जोड़ों को अपने माता-पिता को मनाने में वर्षों लग जाते हैं और कइयों को उनकी मर्जी के ख़िलाफ़ शादी करनी पड़ती है. दरअसल हम जब तक जाति व्यवस्था के बंधनों को नहीं तोड़ेंगे ऐसी दिक्कतें बनी रहेंगीं. मैं तो कहूंगी कि अंतरजातीय ही नहीं अंतर धार्मिक शादियों को भी बढ़ावा मिले तभी भारत एक खूबसूरत समाज वाला देश बनेगा.”
2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के आने के बाद केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने डॉक्टर आंबेडकर फाउंडेशन के ज़रिये ऐसे जोड़ों के लिए ये राशि बढ़ा कर ढाई लाख रुपये कर दी थी.
इस स्कीम की शर्त थी कि शादी करने वाले जोड़े में से कोई एक ( वर या वधू) दलित हो.
शुरू में इस स्कीम के तहत हर साल 500 जोड़ों को ये राशि देने का लक्ष्य रखा गया था.
लेकिन 2014-15 में सिर्फ पांच जोड़ों को ये राशि मिली. 2015-16 में सिर्फ 72 जोड़ों को ये रकम मिली. जबकि 522 जोड़ों ने आवेदन किया था.
2016-17 में 736 आवेदनों में सिर्फ 45 मंजूर हुए. वहीं 2017-18 में 409 आवेदनों में से सिर्फ 74 मंजूर हुए.
उनके मुताबिक़ इस नियम के मुताबिक़ सिर्फ वैसे अंतरजातीय जोड़ों के आवेदन मंजूर किए जाते हैं, जिनकी शादियां हिंदू मैरिज एक्ट के तहत हुई हों.
जबकि कई अंतरजातीय शादियां स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत रजिस्टर्ड होती हैं.
इन आवेदनों के लिए सांसद, विधायक या ज़िलाधिकारी की मंज़ूरी ज़रूरी होती है. इसके साथ ही इस योजना को लेकर लोगों में ज्यादा जागरुकता भी नहीं है.
कई राज्यों ने भी अंतरजातीय शादियों को प्रोत्साहन देने के लिए योजनाओं का ऐलान किया है.
इनके तहत अलग-अलग राज्य दस हजार रुपये से लेकर पांच लाख रुपये तक देते हैं. राजस्थान सरकार सबसे ज्यादा पांच लाख रुपये देती है.
उम्मीद थी कि इस तरह की योजनाओं से अंतरजातीय शादियों को प्रोत्साहन मिलेगा लेकिन नियम-कानूनों की पेचीदगियों की वजह से इनका लाभ ज्यादा लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा है.
अंतरजातीय शादियों को बढ़ावा देने में पढ़ी-लिखी मां का होना कई बार निर्णायक साबित होता है.
2017 में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि पढ़ी-लिखी मां अपने बच्चों की अंतरजातीय शादियों को ज्यादा आसानी से स्वीकार करती हैं.
इस अध्ययन में कहा गया है कि दूल्हे की मां जितनी ज्यादा शिक्षित होगी अंतरजातीय बहू को स्वीकार करने की उसकी सहमति उतनी ही बढ़ जाएगी.
( इस स्टोरी में जिन अंतरजातीय जोड़ों से बात की गई है उनके अनुरोध पर उनके नाम बदल दिए गए हैं.)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.