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मखाना, एक ऐसी खाने की चीज़ है, जिसकी आजकल खूब चर्चा है.
बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार के भागलपुर में एक कार्यक्रम में 300 दिन मखाना खाने की बात कही थी. इससे पहले केंद्रीय बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बिहार में मखाना बोर्ड के गठन की घोषणा की थी.
पीआईबी की तरफ़ से दी गई जानकारी के मुताबिक़, “बोर्ड का गठन मखाने के उत्पादन, प्रोसेसिंग, वैल्यू एडिशन और मार्केटिंग को बेहतर बनाने के लिए किया जाएगा. ये बोर्ड मखाना किसानों को प्रशिक्षण सहायता देगा और मखाना उत्पादन से जुड़े लोगों को एफ़पीओ में संगठित करेगा.”
मखाना किसानों के लिए पहले भी मोटे तौर पर इन्हीं उद्देश्यों के साथ बिहार में राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र खोला गया था, लेकिन ये मखाना केंद्र खुद ही बदहाल है.
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स्थिति ये है कि इस केंद्र में एक अदद फुल टाइम निदेशक नहीं है और सिर्फ़ 10 स्टाफ़ के सहारे पूरा संस्थान चल रहा है.
अपने 23 साल के सफ़र में मखाना केंद्र के पास 18 साल तक ‘राष्ट्रीय’ का दर्जा भी नहीं रहा.
बता दें कि साल 2002 में राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र के तौर पर खुले मखाना केंद्र से ‘राष्ट्रीय’ होने का दर्जा साल 2005 में छिन गया था, जो साल 2023 में जाकर वापस मिला.
मखाना अनुसंधान केंद्र: अभी हालत क्या है
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मखाने को लेकर बाहरी दुनिया में चाहे जितनी हलचल हो, लेकिन बिहार के दरभंगा में एनएच 57 पर स्थित राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र बेहतर हालत में नहीं दिखता है.
25 एकड़ में फैले इस केंद्र में दाईं तरफ एडमिनिस्ट्रेटिव ब्लॉक है, वहीं बाईं तरफ उजड़े से दिखते क्वार्टर हैं.
अनुसंधान केंद्र के बाहर केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान के स्वागत का बैनर लगा है, जो आती- जाती गाड़ियों की धूल फांक रहा है.
दरभंगा में मखाने के एक राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र खोलने की योजना नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) में बनी थी. जिसके बाद साल 2002 में मखाना अनुसंधान केंद्र का कैम्प ऑफिस पटना स्थित आलू अनुसंधान केंद्र में खुला.
बाद में ये केंद्र दरभंगा शिफ्ट हो गया. इस केंद्र का उद्देश्य मखाना उत्पादन से जुड़े मुश्किल काम को आसान करने के लिए तकनीक विकसित करना, उत्पादकता, रोज़गार, वैल्यु एडिशन, मार्केटिंग आदि करना था.
अनुसंधान केंद्र के प्रभारी और प्रधान वैज्ञानिक इंदु शेखर सिंह कहते हैं, “केंद्र ने मखाने की नई वैरायटी स्वर्ण वैदेही विकसित की. इसके अलावा मखाने को पॉन्ड बेस्ड के साथ फ़ील्ड बेस्ड करने के लिए किसानों को ट्रेनिंग दी और कई मशीनें विकसित कीं जिसकी वजह से जो खेती पहले 15,000 हेक्टेयर में होती थी, वो अब 36,000 हेक्टेयर में होने लगी.”
लेकिन मखाना केंद्र की ये उपलब्धियां उसके 23 साल के सफ़र और मखाना उत्पादन से जुड़े लोगों की मुश्किलों के सामने बहुत ‘बौनी’ नज़र आती हैं.
दरअसल, मखाना केंद्र खुद ही अपनी समस्याओं से जूझता रहा.
पांच साल में खर्च किए 3.4 करोड़ रुपये
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लोकसभा में फरवरी 2025 में कृषि और किसान कल्याण राज्य मंत्री भागीरथ चौधरी के दिए गए जवाब के मुताबिक़, मखाना अनुसंधान केंद्र ने वित्तीय वर्ष 2019-20 से 2023-24 के बीच महज 3.4 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. साल 2024-25 में मखाना केंद्र ने जनवरी माह तक महज 1.27 करोड़ रुपये खर्च किए.
दरअसल, इतनी कम राशि खर्च करने की वजह मखाना अनुसंधान केंद्र का दर्जा है.
साल 2005 में इस केंद्र से ‘राष्ट्रीय’ का दर्जा वापस लेकर इसे आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) पूर्वी क्षेत्र के प्रशासनिक नियंत्रण में लाया गया. बाद में साल 2023 में फिर से मखाना अनुसंधान केंद्र को राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र का दर्जा वापस मिला.
अभी भी इस अनुसंधान केंद्र में निदेशक अतिरिक्त प्रभार में हैं. सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (सीआईपीएचईटी) लुधियाना के निदेशक नचिकेत कोतवालीवाले के पास इस केंद्र की अतिरिक्त जिम्मेदारी है.
स्टाफ़ की बात करें तो मखाना अनुसंधान केंद्र में 11 सांइटिस्ट, 14 टेक्निकल, 7 एडमिनिस्ट्रेटिव और 10 सपोर्टिंग यानी कुल 42 स्टाफ पोज़ीशन है.
लेकिन अनुसंधान केंद्र में सिर्फ 7 साइंटिस्ट और 3 टेक्निकल स्टाफ़ हैं. यानी 32 पद रिक्त पड़े हैं.
तैयार मशीनें बेकार पड़ी हैं
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मखाना अनुसंधान केंद्र जब खोला गया तो उसके उद्देश्यों में से एक था कि ऐसी तकनीक या मशीनें विकसित की जाएं, जिससे मखाना उत्पादन से जुड़े लोगों का काम आसान हो.
मखाना अनुसंधान केंद्र ने किसानों का काम आसान करने के लिए सीड ग्रेडर, पॉप ग्रेडर, कैबिनेट ड्रायर, पॉपिंग मशीन सहित 6 मशीनें विकसित की हैं. जिनकी कीमत 1.5 लाख से 7 लाख रुपये के बीच है.
लेकिन ये मशीनें आम किसान इस्तेमाल करते हुए नहीं दिखते.
मखाना अनुसंधान केंद्र के प्रभारी इंदु शेखर सिंह कहते है, “ये सही है कि आम किसान इसे खरीद नहीं पा रहे हैं, लेकिन हम लोगों की योजना है कि एक निश्चित रकम चुकाकर आम किसान मखाना निकाल लें.”
लेकिन जिन मखाना उत्पादकों ने ये मशीनें खरीदी हैं, उनके लिए भी ये बहुत फायदेमंद साबित नहीं हो रही हैं.
फारबिसगंज (अररिया) में ‘मखाना वर्ल्ड’ ब्रांड से मखाना बेच रहे ब्रह्म नारायण देव ने साल 2016 में भी इन मशीनों का सेट अप अपनी फैक्ट्री में लगाया था.
वो बताते हैं, “फोड़ी (मखाना की प्रोसेसिंग का काम करने वाले लोग) अगर एक क्विंटल से एक दिन में 50 से 60 किलो मखाना निकाल लेता है तो मशीन 70 से 80 किलो. यानी ज्यादा अंतर नहीं है. मशीन जब हम लगाते हैं तो उसमें मैनपॉवर और निवेश भी लगता है. इसलिए मशीनें शो पीस हैं और उनके होते हुए भी हम लोग फोड़ी से काम करवाते हैं.”
“ग्लोबल” होते मखाना में हाइजीन या साफ-सफाई भी एक बड़ा मसला है.
मखाना उत्पादन से जुड़े एक्पर्ट्स की मानें तो कोसी-सीमांचल और मिथिलांचल के इलाके में ऐसी छह मशीनें खरीदी गई हैं, जो मुख्य रूप से विदेशी कारोबारियों को दिखाने के लिए लगाई गई हैं.
मखाना तैयार करने वालों की हालत क्या है?
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फोड़ी मखाना की प्रोसेसिंग का काम करने वाले लोगों को कहा जाता है. पारंपरिक तौर पर निषाद समुदाय की एक उपजाति ‘वनपर’ फोड़ी और मखाना की हार्वेस्टिंग का काम करती हैं.
यह काम बहुत मुश्किल होता है. मखानों के बीज (गुर्री या गुड़िया) को पानी से निकालने (हार्वेस्टिंग) के लिए पूरा दिन पानी में रहना पड़ता है और मखाना के कंटीले पत्तों से जूझना पड़ता है.
वहीं गुर्री को भूनने और एक-एक गुर्री से मखाना निकालने की प्रक्रिया में कई बार हाथ चोटिल हो जाते हैं और जल जाते हैं.
बिहार में हुई जातीय जनगणना के मुताबिक, अति पिछड़ा वर्ग में आने वाली वनपर जाति की आबादी सिर्फ 20,371 है. मखाने की बढ़ती मांग को देखते हुए अब इस काम में अन्य जातियां भी आई हैं.
दरभंगा और मधुबनी इलाके के फोड़ी ही बिहार सहित देश के अलग-अलग हिस्से में जाकर फोड़ी का काम करते है, जहां छह महीने के लिए इनकी कॉलोनी जैसी बस जाती है.
ये फोड़ी पहले कर्ज़ लेकर मखाना किसानों से गुर्री खरीदते हैं. फिर गुर्री से मखाना निकालकर उसे बाज़ार में बेच देते हैं.
दरभंगा के नारायणपुर में इन फोड़ियों की बड़ी बस्ती है, जो अगस्त महीने में छह महीने के लिए पश्चिम बंगाल के हरिचंद्रपुर (मालदा) चले जाते हैं.
‘हम सपने कैसे देखें?’
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17 साल की मनीषा, 13 साल की नंदिनी और 17 साल की तुलसी भी अपने परिवार के साथ फोड़ी का काम करने बंगाल जाती हैं.
मनीषा सरकारी स्कूल में दसवीं में पढ़ती हैं. मनीषा के 7 भाई-बहन हैं, जो यही काम करते हैं. मनीषा बताती हैं, “हम लोगों के साथ एक मास्टर जी भी जाते हैं, जो हम लोगों को ट्यूशन पढ़ाते हैं. लेकिन पूरा दिन तो काम ही करना पड़ता है. ऐसे में क्या पढ़ाई होगी. एक घंटा पढ़ लेने से कोई कुछ बन तो नहीं जाएगा. हम सपने कैसे देखें, अभी यहां हैं तो ये काम कर रहे हैं, शादी होगी तो भी यही काम होगा.”
दरअसल, वनपर के बच्चों की पढ़ाई का यही तरीका है. पश्चिम बंगाल में उन्हें भाषाई दिक्कत आती है, इसलिए ये लोग अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए शिक्षक यहीं से लेकर जाते हैं और उसे प्रति माह एक बच्चे को पढ़ाने के लिए 300 रुपये देते हैं.
शांति देवी अब उम्रदराज़ लगती हैं, लेकिन उन्हें फिर भी ये काम करना पड़ता है. वो बताती हैं कि वो बेटा-बहू और बच्चों के साथ जाती हैं और साथ में 15-20 मजदूर उनके साथ बंगाल जाते हैं.
शांति कहती हैं, “मजदूर आम तौर पर मुसहर (मांझी) होते हैं. वो लोग हमारे साथ जाकर ये काम करवाते और लौट आते हैं. वो भी हम लोगों के साथ अच्छा पैसा कमा लेते हैं.”
छह महीना बंगाल में काम करने के बाद ये लोग अपनी जगहों पर लौट आते हैं और मछली पकड़ने का काम करते हैं.
40 साल के सुरेंद्र वनपर हैं और फोड़ी का काम करते हैं. वो बताते हैं, “इस बार 35,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गुर्री खरीदी थी. जिससे मखाना निकालकर 1100 रुपये प्रति किलो की दर पर मंडी में बेचा है. मखाना में अब पैसा आ गया है. लेकिन ये काम बहुत मुश्किल है. हाथों में जलन होती है और गांठें बन जाती हैं.”
मखाना : सुपरफूड बना तो आम लोगों की पहुंच से दूर हुआ
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बिहार के मखाना को अगस्त 2022 में जीआई टैग मिला था. इससे पहले कोविड के वक्त ही मखाना का महत्व स्थापित हो गया था.
मोटे तौर पर इन दोनों वजहों से जो मखाना बाज़ार में बमुश्किल 400-600 रुपये प्रति किलो मिलता था, उसकी कीमत तकरीबन 1300 रुपये हो गई है.
सहरसा के सत्तरकटैया की गीता देवी बीते 22 साल से मखाना की खेती कर रही हैं. वो कहती हैं, “ये पहली बार है, जब हमें मखाना में इतनी आमदनी हुई है. वरना जितनी मेहनत थी उसके हिसाब से कुछ नहीं मिलता था.”
दरअसल, एक तरफ़ जहां मखाना की क़ीमत और मांग देश-विदेश में बढ़ी, वहीं दूसरी तरफ़ इसकी अच्छी क्वालिटी भी बाज़ार से गायब हो गई.
दरभंगा के वरिष्ठ पत्रकार ललित कुमार बताते हैं, “मखाना की क्वालिटी को ‘सूता’ में नापा जाता है. 7 सूता-6 सूता सबसे अच्छी क्वालिटी थी, लेकिन वो अब स्थानीय बाज़ार से गायब है. सब बाहर जा रहा है और मखाना कारोबार में बड़े व्यापारी, बिचौलिये अहम रोल निभाने लगे हैं. किसान सिर्फ पैदा कर रहे हैं.”
मिथिलांचल की सांस्कृतिक पहचान से जुड़े मखाना का इस कदर आम लोगों की पहुंच से दूर होना, स्थानीय लोगों को जायज नहीं लगता.
विद्यानाथ झा दरभंगा की ललित नारायण मिथिला यूनिवर्सिटी में बॉटनी के प्रोफेसर रहे हैं. उन्होंने मखाना पर किताब लिखी है.
वो बताते हैं, “मखाना को एचएसएन (हार्मोनाइज्ड सिस्टम ऑफ़ नॉनमक्लेचर) कोड मिल गया है. जिससे अब मखाना का एक्सपोर्ट डेटा तैयार हो सकेगा. लेकिन इसकी मांग को देखते हुए मखाने में रिसर्च के साथ साथ मखाने की गुर्री, डंठल का भी इस्तेमाल सीखना होगा क्योंकि इनकी न्यूट्रिशनल वैल्यू है. मणिपुर में तो इससे बाकायदा थांग जिंग नाम की एक डिश बनती है.”
‘मखाना कॉरिडोर बनाए सरकार’
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विद्यानाथ झा कहते हैं, “हमें बिहार में मखाना को आगे ले जाने के लिए सबसे ज्यादा ध्यान इसके प्रोडक्शन में लगे किसान और फोड़ी पर देना होगा. साथ ही मखाना की खेती को राज्य में जहां कहीं भी जलजमाव है, वहां करवाना चाहिए.”
बिहार में मखाना पर रिसर्च का काम राष्ट्रीय मखाना अनुसंधान केंद्र के साथ-साथ पूर्णिया स्थित भोला पासवान शास्त्री एग्रीकल्चर कॉलेज भी कर रहा है.
अनिल कुमार यहां प्रिंसिपल इनवेस्टीगेटर हैं, जो मखाना से जुड़े रिसर्च में अहम भूमिका निभा रहे हैं.
वो बताते हैं, “हम लोगों ने साल 2012 में जो मखाना उत्पादन छह से सात लोगों तक सीमित था, उसका विस्तार किया है. साथ ही सबौर मखाना-1 नाम की उन्नत किस्म विकसित की है, जिसमें बीमारी नहीं लगती और उत्पादन ज्यादा होता है.”
“मखाना का उत्पादन बढ़ाने के लिए दो काम किए जाने चाहिए. पहला तो ये कि कोसी नदी का सवा दो लाख हेक्टेयर का इलाका जो साल भर जलमग्न रहता है, वहां मखाना कॉरिडोर बन सकता है और दूसरा चंपारण से किशनगंज तक के बीच भी छोटे बांध बनाकर वर्षा का जल रोककर उसमें मखाने की खेती की जा सकती है.”
मखाना बोर्ड पर सियासत
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बिहार में मखाना का उत्पादन सीमांचल, कोसी और मिथिलांचल के इलाके में होता है. ये उत्पादन पूर्णिया, कटिहार, अररिया, किशनगंज, सहरसा, सुपौल, मधेपुरा, खगड़िया, दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी में होता है.
मखाना का उत्पादन सबसे ज्यादा कटिहार और पूर्णिया में होता है. बिहार में मखाना की खेती 36,727 हेक्टेयर में होती है जिससे 28,373 टन प्रोडक्शन होता है.
मखाना बोर्ड की स्थापना की घोषणा के बाद से ही राजनीति शुरू हो गई है. अलग-अलग राजनीतिक दल और मखाना उत्पादक जिलों के जनप्रतिनिधि अपने-अपने ज़िलों में बोर्ड की स्थापना करवाना चाहते हैं.
इनमें सबसे मुखर आवाज़ है पूर्णिया सासंद पप्पू यादव, जिन्होंने मखाना बोर्ड पूर्णिया में स्थापना की मांग को लेकर बीती 24 फ़रवरी को कटिहार -पूर्णिया बंद बुलाया था.
पूर्णिया सांसद पप्पू यादव कहते हैं, “सीमांचल कोसी में मखाना का 90 फ़ीसदी उत्पादन होता है. यहां के किसान नंगे बदन मखाना उपजाने के लिए कितनी ज्यादा मेहनत करते हैं, ऐसे में मखाना बोर्ड यहां खुलना चाहिए.”
वहीं सहरसा से बीजेपी विधायक आलोक रंजन कहते हैं, “मखाना बोर्ड की स्थापना का स्थान नरेंद्र मोदी तय करेंगे.” इसी तरह सुपौल में कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने बीती 27 फरवरी को सुपौल में मखाना बोर्ड खोलने के लिए प्रदर्शन किया.
मखाना खेती करने वाले 35 साल के धीरेंद्र कुमार कहते हैं, “मखाना बोर्ड बनने से कीमतों पर नियंत्रण होगा और बिचौलिये जो बिना पूंजी के सबसे ज्यादा लाभ कमाते हैं, उनकी भूमिका कम होगी. लेकिन क़ीमतों पर नियंत्रण के साथ-साथ राज्य में मखाना मंडी बनना ज़रूरी है.”
देश भर का 80 फ़ीसदी मखाना उत्पादन बिहार में होता है. लेकिन मखाने की एक भी थोक मंडी बिहार में नहीं है बल्कि ये खारी बावली (दिल्ली), नयागंज (कानपुर), गोला दीनानाथ और विशवेश्वरगंज (बनारस) आदि जगहों पर है.
बिहार में मखाना बोर्ड बनाए जाने की घोषणा से मखाना उत्पादन से जुड़े लोगों और एक्सपर्ट्स में उम्मीद जगी है.
लेकिन बड़ा सवाल यही है कि मखाना उत्पादन से जुड़े लोगों के कामकाज़ की मुश्किलों को आसान किए बिना मखाना उत्पादन कितना बढ़ पाएगा?
जैसा कि फोड़ी का काम करने वाले सुरेश कुमार कहते हैं, “नये लड़के ये काम नहीं करना चाहते. कौन पानी में जाकर मखाने का बीज निकालेगा और गुर्री फोड़कर हाथ जलाएगा?”
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