मध्य-पूर्व के करोड़ों लोग एक सुरक्षित और शांत ज़िंदगी जीने का ख़्वाब देखते हैं.
ऐसी ज़िंदगी जिसमें न नाटकीयता हो और न ही मौत का ख़ौफ़.
पिछले साल का युद्ध आधुनिक दौर में इस क्षेत्र की सबसे ख़राब जंगों में से एक रहा है.
इस युद्ध ने एक बार फिर दिखा दिया है कि अमन के ख़्वाब तब तक हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो सकते, जब तक यहाँ की गहरी और चौड़ी सामरिक, मज़हबी और सियासी खाइयों को पाटा नहीं जाता.
एक बार फिर युद्ध इस इलाक़े की सियासत को अपने सांचे में ढाल रहा है.
हमास का हमला एक सदी से भी ज़्यादा पुराने और अनसुलझे संघर्ष के बीच से निकला था.
जब हमास के लड़ाके सुरक्षा की कमज़ोर दीवार को फांदकर इसराइल में दाख़िल हुए थे, तब उन्होंने इसराइल के इतिहास के सबसे स्याह दिन की इबारत लिख दी थी.
उस दिन लगभग 1,200 लोग मारे गए थे, जिनमें से ज़्यादातर इसराइल के आम नागरिक थे.
इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू ने अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन को फोन किया और उनसे कहा, ”जर्मनी में होलोकास्ट के बाद से हमने इसराइल के अब तक के इतिहास में ऐसी बर्बरता पहले कभी नहीं देखी थी”. इसराइल ने हमास के हमले को अपने अस्तित्व के लिए ख़तरे के तौर पर देखा था.
उसके बाद से इसराइल ने ग़ज़ा के फ़लस्तीनियों पर बहुत भयानक क़हर ढाया है.
हमास से संचालित ग़ज़ा के स्वास्थ्य मंत्रालय के मुताबिक़ पिछले एक साल में इसराइल के हमलों में ग़ज़ा के लगभग 42 हज़ार लोग मारे गए हैं. इनमें से ज़्यादातर आम नागरिक थे.
ग़ज़ा का ज़्यादातर हिस्सा खंडहर में तब्दील हो चुका है. फ़लस्तीन के लोग इसराइल पर जनसंहार करने का इल्ज़ाम लगाते हैं.
जंग का दायरा अब बढ़ चुका है. हमास के हमले के 12 महीने बाद आज मध्य-पूर्व इससे भी भयानक युद्ध के कगार पर खड़ा है; जो इससे भी ज़्यादा व्यापक और इससे भी अधिक तबाही मचाने वाला होगा.
जब टूट गए कई सारे भ्रम
हत्याओं के इस साल ने बहुत सी ग़लतफ़हमियों को दूर कर दिया है. बहुत से भ्रमजाल तोड़ डाले हैं.
पहला तो बिन्यामिन नेतन्याहू का ये यक़ीन था कि वो फ़लीस्तीनियों के आत्मनिर्णय की मांग पर कोई रियायत दिए बग़ैर इस मसले का हल निकाल सकेंगे.
इसके साथ-साथ इसराइल के फ़िक्रमंद पश्चिमी दोस्त देशों की ख़ामख़याली भी हवा में उड़ गई.
अमेरिका, ब्रिटेन और दूसरे देशों के नेताओं ने ख़ुद को ये विश्वास दिला लिया था कि ये युद्ध ख़त्म करने के लिए अपनी पूरी सियासी ज़िंदगी में इसराइल के साथ-साथ फ़लस्तीनी राष्ट्र बनाने का विरोध करने वाले नेतन्याहू से फ़लस्तीन के अस्तित्व पर हामी भरवाई जा सकेगी.
लेकिन इस मामले में नेतन्याहू का सीधा इनकार उनकी अपनी विचारधारा के साथ-साथ,असल में फ़लस्तीनियों के प्रति उस अविश्वास की अदायगी है जो इसराइल के हर नागरिक के दिल में है.
नेतन्याहू की ना ने शांति बहाली की अमेरिकी योजना पर भी पानी फेर दिया है.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन की ‘अदला बदली वाली महत्वाकांक्षी योजना’ में प्रस्ताव ये था कि इसराइल अगर फ़लस्तीन की आज़ादी के लिए तैयार हो जाएगा तो इसके बदले में उसे सबसे प्रभावशाली इस्लामिक मुल्क सऊदी अरब से पूरी कूटनीतिक मान्यता मिल जाएगी.
इसके एवज़ में सऊदी अरब को अमेरिका के साथ अपनी सुरक्षा की गारंटी का समझौता हासिल होगा.
लेकिन बाइडन की ये योजना पहले ही इम्तिहान में नाकाम हो गई. फ़रवरी में नेतन्याहू ने कहा था कि फ़लस्तीन को राष्ट्र का दर्जा देना हमास के लिए ‘बहुत बड़ा इनाम’ होगा.
नेतन्याहू की कैबिनेट के कट्टर राष्ट्रवादी मंत्री बेज़ालेल स्मोट्रिच ने कहा कि ऐसा क़दम इसराइल के ‘अस्तित्व के लिए ख़तरा’ होगा.
हमास के नेता याह्या सिनवार, जिनके बारे में ये माना जा रहा है कि वो ज़िंदा हैं और ग़ज़ा में कहीं छुपे हुए हैं, उनकी अपनी ग़लतफहमियां थीं.
एक साल पहले याह्या सिनवार ने यक़ीनन ये उम्मीद लगाई होगी कि जंग शुरू हुई तो ईरान की तथाकथित ‘प्रतिरोध की धुरी’ का हर पुर्ज़ा पूरी ताक़त से इसराइल को तबाह करने वाली इस जंग में शामिल हो जाएगा. सिनवार की ये सोच ग़लत साबित हुई.
याह्या सिनवार ने सात अक्टूबर के हमले की अपनी योजना को इतना गोपनीय रखा था कि उनके दुश्मन हैरान रह गए थे.
सिनवार ने इस हमले से अपनी तरफ़ के भी कुछ लोगों को हैरान कर दिया था.
कूटनीतिक स्रोतों ने बीबीसी को बताया कि सिनवार ने शायद, मुल्क-बदर होकर क़तर में रहने वाले अपने संगठन के सियासी नेतृत्व को भी अपनी योजना के बारे में पूरी जानकारी नहीं दी थी.
उनकी सुरक्षा के इंतज़ाम इतने ख़राब थे कि इसके लिए वो बदनाम थे. एक स्रोत ने बताया कि क़तर में रहने वाले हमास के नेता ऐसी खुली फोन लाइनों पर बातें किया करते थे, जिन्हें आसानी से सुना जा सकता था.
जब इसराइल ने ग़ज़ा पर हमला किया और राष्ट्रपति बाइडन ने हिफ़ाज़त के लिए अमेरिका के जंगी बेड़ों को इसराइल के क़रीब तैनात होने का हुक्म दिया था तब सिनवार को ये उम्मीद थी कि ईरान भी उनकी तरफ़ से मुक़ाबला करेगा.
लेकिन इन अपेक्षाओं पर पानी फेरते हुए ईरान ने ये साफ़ कर दिया था कि वो युद्ध का दायरा बढ़ाने का इच्छुक बिल्कुल नहीं है.
इसके बजाय, हसन नसरल्लाह और उनके दोस्त और सहयोगी ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने अपनी भूमिका को इसराइल की उत्तरी सीमा पर रॉकेट दागने तक सीमित रखा था.
दोनों का ये कहना था कि ग़ज़ा में युद्ध विराम होने तक वो इसराइल पर रॉकेट से हमले करते रहेंगे. हिज़्बुल्लाह के रॉकेटों का ज़्यादातर निशाना तो इसराइल के सैन्य ठिकाने थे.
लेकिन इसराइल ने लेबनान की सीमा के पास रहने वाले लगभग 60 हज़ार लोगों को वहाँ से निकाल लिया था.
वहीं, जब इसराइल ने पलटवार में लेबनान पर बमबारी शुरू की, तो वहां से शायद इससे दो गुना ज़्यादा लोगों को लेबनान छोड़कर भागना पड़ा है.
इतनी भयानक चोट का अंदाज़ा नहीं था
इसराइल ने साफ़ कर दिया कि वो हिज़्बुल्लाह के साथ ऐसी झड़प में नहीं उलझेगा, जिसके अंत का कोई ओर छोर न हो.
इसके बावजूद अक़्लमंदी तो इसी बात में थी कि इसराइल पिछले युद्धों में हिज़्बुल्लाह के मुक़ाबला करने की ज़बरदस्त ताक़त और ईरान से हासिल हुई उसकी मिसाइलों के ज़ख़ीरे से कुछ ख़ौफ़ खाता.
इसके बजाय, सितंबर में इसराइल ने हिज़्बुल्लाह के ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी. इसराइल के रक्षात्मक बलों (आईडीएफ) और ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद के वरिष्ठ अधिकारियों को छोड़ दें तो किसी को भी इस बात का यक़ीन नहीं था कि ईरान के सबसे ताक़तवर सहयोगी को इतने कम वक़्त के भीतर इतनी भयानक चोट पहुंचाई जा सकती है.
इसराइल ने पहले हिज़्बुल्लाह कमांडरों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पेजर और वायरलेस सेट को हैक करके विस्फोटक डाले और फिर उनमें रिमोट से धमाका किया.
इससे हिज़्बुल्लाह की आपसी संचार लाइनें ध्वस्त हो गईं और उसके कई नेता मारे गए.
इसके बाद इसराइल ने हिज़्बुल्लाह पर आधुनिक दौर की सबसे भयंकर और ज़बरदस्त बमबारी वाले अभियान की शुरुआत की.
बमबारी के पहले ही दिन इसराइल ने लेबनान के लगभग 600 नागरिकों को मार डाला. इनमें से ज़्यादातर आम नागरिक थे.
इसराइल के इस हमले ने ईरान के उस भरोसे को तोड़ डाला कि उसके सहयोगियों का नेटवर्क इसराइल को डराने और भयभीत करने की उसकी रणनीति को कामयाब बनाएगा.
इसका एक अहम लम्हा 27 सितंबर को आया, जब इसराइल ने बेरूत के उपनगरीय इलाक़े में एक भयंकर हवाई हमला किया जिसमें हिज़्बुल्लाह के सर्वोच्च नेता हसन नसरल्लाह और उनके कई बड़े सहयोगी मारे गए. हसन नसरल्लाह ईरान की ‘प्रतिरोध की धुरी’ का एक अहम हिस्सा थे.
ये धुरी ईरान के सहयोगियों और उसकी मदद से चलने वाले संगठनों के नेटवर्क वाला एक अनौपचारिक संगठन है.
इसराइल ने इस युद्ध से बाहर आने के लिए इससे भी बड़ा संघर्ष छेड़ दिया है.अगर इसका सामरिक मक़सद हिज़्बुल्लाह को हमले बंद करने और सीमा से पीछे हटने पर मजबूर करना है तो इसराइल अपने मक़सद में नाकाम रहा है.
इसराइल की ये बमबारी और दक्षिणी लेबनान पर आक्रमण ईरान को रोक पाने में नाकाम रहे हैं.
ऐसा लग रहा है कि ईरान इस नतीजे पर पहुंच गया है कि उसके एक व्यापक युद्ध के प्रति खुलकर अनिच्छा जताने की वजह से इसराइल के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं.
पलटवार करने के अपने जोखिम थे और इसराइल का जवाबी हमला भी तय था. लेकिन ईरान के रिवोल्यूशनरी गार्ड्स के सर्वोच्च नेता के लिए इसराइल को निशाना बनाने के उनके तमाम विकल्पों में से सबसे कम ख़राब था.
मंगलवार एक अक्टूबर को ईरान ने इसराइल पर बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला कर ही दिया.
ज़ख्मों और सदमों का ढेर
कफ़ार अज़ा का किब्बुत्ज़, उस बाड़ के बेहद क़रीब स्थित है, जिससे ये उम्मीद लगाई गई थी कि वो ग़ज़ा पट्टी से लगने वाली इसराइल की सरहद की हिफ़ाज़त करेगी.
ये किब्बुत्ज़ एक छोटा सा समुदाय था, जिनके एक खुले इलाक़े में बने आम से दिखने वाले घर और साफ सुथरे बाग़ीचे थे.
सात अक्टूबर को कफ़ार अज़ा उन ठिकानों में शुमार था, जो हमास के हमले का शुरुआती निशाना बने थे. हमास के हमले में इस किब्बुत्ज़ में रहने वाले 62 लोग मारे गए थे.
यहां से बंधक बनाकर ग़ज़ा ले जाए गए 19 लोगों में से दो को तो इसराइली सैनिकों ने उस वक़्त मार डाला था, जब वो हमास की क़ैद से छूटकर भाग रहे थे. कफ़ार अज़ा के पांच बंधक अभी भी ग़ज़ा में ही हैं.
इसराइल की सेना हमले के बाद पत्रकारों को 10 अक्टूबर को कफ़ार अज़ा लेकर गई थी. उस वक़्त भी ये जगह जंग का मैदान बनी हुई थी.
हमने वहां इसराइल के सैनिकों को किब्बुत्ज़ के इर्द-गिर्द खंदकें खोदकर मोर्चा बनाए बैठे देखा था.
वहां से थोड़ी ही दूर से गोलीबारी की आवाज़ सुनाई दे रही थी.
इसराइली सैनिक उन इमारतों को ख़ाली करा रहे थे, जहां उन्हें हमास के लड़ाकों के छुपे होने का अंदेशा था.
हमास के हाथों मारे गए इसराइल के नागरिकों को बॉडी बैग में उनके घरों के खंडहरों से निकालकर बाहर रखा जा रहा था.
वहीं, किब्बुत्ज़ पर क़ब्ज़े की लड़ाई के दौरान इसराइली सैनिकों के हाथों मारे गए हमास के लड़ाके अभी भी साफ़ सुथरे लॉन में यूं ही पड़े हुए थे.
भूमध्य सागर के सूरज की भयंकर गर्मी में उनकी लाशें सड़ने लगी थीं.
एक साल बाद आज जान गंवाने वाले तो दफ़्न कर दिए गए हैं. लेकिन, इसके सिवा कफ़ार अज़ा में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है. यहां रहने वाले अब तक अपने घरों में नहीं वापस आए हैं.
बर्बाद हो चुके घरों को वैसे का वैसा सहेजकर रखा गया है, जैसा हमने 10 अक्टूबर को देखा था.
हां अब वहां उन लोगों की तस्वीरें लगा दी गई हैं और उनके नाम लिख दिए गए हैं, जो वहां रहा करते थे और मारे गए. उनके बड़े बड़े पोस्टर और स्मारक यहां लगाए गए हैं.
इस किब्बुत्ज़ में रहने वाले ज़ोहार शपाक और उनका परिवार उस हमले में बाल बाल बच गए थे. ज़ोहार ने हमें अपने पड़ोसियों के घर दिखाए, जो उनकी तरह क़िस्मतवाले नहीं रहे थे.
इनमें से एक मकान की दीवार पर वहां रहने वाले एक नौजवान जोड़े की बड़ी सी तस्वीर टंगी थी.
उन दोनों को हमास ने 7 अक्टूबर को मार डाला था. घरों के आस-पास की ज़मीन को खोद डाला गया है.
ज़ोहार बताते हैं कि उस युवक के पिता कई हफ़्तों तक वहां ज़मीन खोद खोदकर अपने बेटे का सिर तलाशते रहे थे. बाद में उनके बेटे को बिना सिर के ही दफ़नाना पड़ा था.
7 अक्टूबर को मारे गए लोगों और बंधकों की दास्तानें इसराइल में सबको अच्छे से मालूम हैं.
इसराइल का मीडिया अभी भी अपने देश में मची तबाही की बातें करता है और पुरानी बातों में नई जानकारियां जोड़ता जाता है.
ज़ोहार ने कहा कि अभी ये सोचना जल्दबाज़ी होगी कि वो अपनी ज़िंदगी को किस तरह नए सिरे से खड़ा कर सकेंगे.
उन्होंने कहा, ”हम अभी भी सदमे के चक्रव्यूह में ही घिरे हुए हैं. हम अभी उस दहशत की जकड़ से बाहर नहीं आ सके हैं. जैसा कि लोगों ने कहा कि हम अभी भी यहीं पर हैं. हम अभी भी जंग में शरीक हैं. हम चाहते तो थे कि ये जंग ख़त्म हो जाए. लेकिन, हम ये चाहते हैं कि जंग हमारी जीत के साथ ख़त्म हो. पर हमें सेना की जीत नहीं चाहिए. हमें युद्ध वाली जीत नहीं चाहिए.’
ज़ोहार ने कहा कि,”मेरी जीत ये होगी कि मैं यहां अपने बेटे, बेटी, पोते पोतियों के साथ शांति से रह सकूं. मैं अमन में यक़ीन रखने वाला इंसान हूं.”
ज़ोहार और कफ़ार अज़ा के बहुत से दूसरे निवासियों का ताल्लुक़ इसराइल की वामपंथी सियासत से है.
इसका मतलब है कि वो ये मानते हैं कि इसराइल में तभी अमन क़ायम हो सकता है जब वो फ़लस्तीनियों को उनकी आज़ादी दे दे.
ज़ोहार और उनके पड़ोसियों जैसे इसराइलियों को इस बात का विश्वास है कि नेतन्याहू मुल्क को तबाह कर देने वाले प्रधानमंत्री हैं.
सात अक्टूबर के हमले और उनको सुरक्षा देने के बजाय कमज़ोर हालात में छोड़ देने की सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी नेतन्याहू की ही है.
लेकिन ज़ोहार उन फ़लस्तीनियों पर भी भरोसा नहीं करते, जिनको वो उस दौर में इसराइल के अस्पतालों में पहुंचाया करते थे, जब हालात इतने ख़राब नहीं हुए थे. जब ग़ज़ा के लोगों को इलाज के लिए इसराइल जाने की आज़ादी थी.
वो कहते हैं, ”मैं वहां रहने वाले लोगों पर बिल्कुल भी यक़ीन नहीं करता. लेकिन, मै शांति चाहता हूं. मैं ग़ज़ा के समुद्र तटों पर जाना चाहता हूं. लेकिन, मैं उन पर भरोसा नहीं करता. नहीं. मैं उनमें से किसी पर भी विश्वास नहीं करता हूं.”
ग़ज़ा की तबाही
हमास के नेता ये नहीं मानते कि इसराइल पर उनका हमला एक ग़लती थी, जिसने इसराइल के ग़ुस्से को उनके अवाम पर बरपा किया.
जिसके लिए अमेरिका ने हथियार और समर्थन दिया. वो कहते हैं कि इसकी वजह फ़लस्तीन पर इसराइल का अवैध क़ब्ज़ा है. मौत का खेल खेलने और तबाही मचाने का उसका शौक़ है.
एक अक्टूबर को इसराइल पर ईरान के हमले से एक घंटे या उससे कुछ पहले, मैंने ख़लील अल-हय्या का इंटरव्यू किया था.
वो ग़ज़ा के बाहर रह रहे हमास के सबसे बड़े नेता हैं. अपने संगठन में याह्या सिनवार के बाद अल-हय्या दूसरे सबसे बड़े नेता हैं.
ख़लील अल-हय्या ने इस बात से इनकार किया कि उनके लड़ाकों ने सात अक्टूबर को निहत्थे आम नागरिकों को निशाना बनाया था.
जबकि इस बात के तमाम सबूत मौजूद हैं. यही नहीं उन्होंने हमास के हमले को जायज़ ठहराते हुए कहा कि फ़लीस्तीनियों के दु:ख और तकलीफ़ को दुनिया के सियासी एजेंडे में शामिल कराने के लिए ये हमला ज़रूरी था.
ख़लील अल-हय्या ने कहा,”दुनिया में ख़तरे की ये घंटी बजाकर लोगों को ये बताना ज़रूरी था कि ये देखो. ये वो लोग हैं, जिनका एक मक़सद है और जिनकी कुछ मांगें हैं. उन्हें पूरा किया जाना चाहिए. ये हमला हमारे यहूदी दुश्मन इसराइल के लिए बड़ा ज़ख़्म था.”
इस झटके को इसराइल ने महसूस भी किया और पिछले साल 7 अक्टूबर को जब इसराइली सेना अपनी टुकड़ियां ग़ज़ा सीमा की तरफ़ रवाना कर रही थी, तो बिन्यामिन नेतन्याहू ने एक भाषण में ”भयानक बदला” लेने का वादा किया था.
उन्होंने युद्ध का मक़सद एक सैनिक और सियासी ताक़त के तौर पर हमास का ख़ात्मा करने और बंधकों को घर वापस लाने का तय किया था.
इसराइल के प्रधानमंत्री अभी भी इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि ‘संपूर्ण विजय’ हासिल करना संभव है और उनके सैनिक पिछले एक साल से हमास के बंधक बने इज़राइली नागरिकों को आज़ाद करा लेंगे.
वहीं, बंधकों के रिश्तेदार और नेतन्याहू के सियासी विरोधी इल्ज़ाम लगाते हैं कि अपनी सरकार के कट्टर राष्ट्रवादियों को ख़ुश करने के लिए वो युद्ध विराम और बंधकों की अदला बदली के समझौते की राह में अड़ंगा डाल रहे हैं.
नेतन्याहू पर ये इल्ज़ाम भी लग रहे हैं कि वो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने को इसराइली नागरिकों की ज़िंदगियों पर तरज़ीह दे रहे हैं.
इसराइल में नेतन्याहू के बहुत से सियासी दुश्मन हैं. हालांकि, युद्ध का दायरा लेबनान तक बढ़ाने से नेतन्याहू की लोकप्रियता कुछ बढ़ी है. पर वो अभी भी विवादित नेता बने हुए हैं.
लेकिन इसराइल के ज़्यादातर नागरिकों की नज़र में ग़ज़ा का युद्ध ग़लत नहीं है. पिछले साल 7 अक्टूबर के बाद से इसराइल के ज़्यादातर नागरिकों ने फ़िलिस्तीनियों पर हो रहे ज़ुल्मों को लेकर अपने आपको संगदिल बना लिया है.
युद्ध शुरू होने के दो दिन बाद इसराइल के रक्षा मंत्री योआव गैलेंट ने कहा था कि उन्होंने ग़ज़ा पट्टी की ‘पूरी तरह से नाक़ेबंदी’ करने का हुक्म दिया है.
गैलेंट ने कहा था, ” ग़ज़ा को बिजली, खाना, पानी, ईंधन कुछ भी नहीं मिलेगा… सब कुछ बंद कर दिया गया है. हम इंसानी जानवरों से लड़ रहे हैं और उसी के मुताबिक़ फ़ैसले कर रहे हैं.”
उसके बाद से अंतरराष्ट्रीय दबाव में इसराइल ग़ज़ा की नाकेबंदी में मामूल ढील देने को राज़ी हुआ है.
सितंबर महीने के आख़िर में संयुक्त राष्ट्र में नेतन्याहू ने ज़ोर देते हुए दावा किया था कि ग़ज़ा के लोगों को जितना खाना-पानी चाहिए वो उनको मिल रहा है.
हालांकि, ज़मीनी सबूत साफ़ तौर पर ये दिखाते हैं कि नेतन्याहू का दावा सही नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र में नेतन्याहू के भाषण के कुछ ही दिनों पहले संयुक्त राष्ट्र की मानवीय सहायता देने वाली एजेंसियों ने एक घोषणा पर दस्तख़त करके ‘ग़ज़ा में भयंकर मानवीय तबाही और इंसानों की भयावाह मुसीबतें’ ख़त्म करने की मांग की थी.
इस घोषणा में संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों ने कहा था, ”20 लाख से ज़्यादा फ़लस्तीनी ने पानी, साफ़-सफ़ाई, सिर पर छत, स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा, बिजली और ईंधन के अलावा सुरक्षा से महरूम हैं. ये किसी इंसान के ज़िंदा रहने की बुनियादी ज़रूरतें हैं. परिवारों को जबरन और बार-बार दर-बदर किया जा रहा है. उन्हें एक असुरक्षित ठिकाने से दूसरे ख़तरनाक इलाक़े में भेज दिया जाता है और उनके बचने का कोई रास्ता नहीं होता.”
बीबीसी वेरिफाई ने युद्ध के एक साल बाद ग़ज़ा के हालात का विश्लेषण किया है.
हमास द्वारा संचालित स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि अब तक 42 हज़ार से ज़्यादा फ़लस्तीनी नागरिक मारे जा चुके हैं.
अमेरिका के अकादमिक विशेषज्ञों कोरे श्केर और जामोन फॉन डेन हूक ने सैटेलाइट से ली गई तस्वीरों का जो विश्लेषण किया है, उसके मुताबिक़ ग़ज़ा की 58.7 प्रतिशत इमारतें या तो पूरी तरह तबाह हो गई हैं, या टूट-फूट गई हैं.
विस्थापन का सिलसिला जारी
लेकिन ग़ज़ा के लोगों को एक और इंसानी क़ीमत भी चुकानी पड़ी है. उन्हें अपने घरों से दर-बदर होना पड़ा है. ग़ज़ा के आम नागरिकों को इसराइल की सेना बार-बार अपने ठिकानों से जाने का निर्देश देती रहती है.
लोगों की आवाजाही का ग़ज़ा पर कैसा असर हुआ है, इसको अंतरिक्ष से भी देखा जा सकता है.
सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें दिखाती हैं, ग़ज़ा रफ़ा शहर के बीच में तंबू किस तरह कभी लगाए जा रहे हैं तो कभी समेटे जा रहे हैं. ये पैटर्न पूरी ग़ज़ा पट्टी में बार-बार दोहराया जा रहा है.
विस्थापित होने के इस सिलसिले की शुरुआत पिछले साल 13 अक्टूबर को हुई थी, जब इसराइली सेना ने ग़ज़ा के उत्तर में रहने वाली आधी आबादी को अपनी सुरक्षा के लिए दक्षिणी ग़ज़ा की तरफ़ जाने को कहा था.
बीबीसी वेरिफाई ने सोशल मीडिया की ऐसी 130 पोस्ट की पहचान की है, जिन्हें इसराइली सेना ने जारी किया था.
इन सोशल मीडिया पोस्ट में इज़राइली सेना ने ग़ज़ा के लोगों को उन इलाक़ों की जानकारी दी थी, जहाँ वो अभियान चलाने वाली थी.
सोशल मीडिया पोस्ट में इसराइली सेना ने ग़ज़ा के लोगों को बाहर निकलने के रास्ते की जानकारी दी थी और उन ठिकानों के बारे में भी बताया था, जहाँ लड़ाई कुछ देर के लिए रोक दी गई थी.
कुल मिलाकर इन सोशल मीडिया पोस्ट में इसराइली सेना ने ग़ज़ा के लोगों को 60 बार अपने घर और इलाक़े से बाहर जाने का आदेश दिया था. इनमें ग़ज़ा पट्टी का 80 प्रतिशत इलाक़ा शामिल था.
बीबीसी वेरिफाई ने पाया कि ऐसी बहुत सी सूचनाओं में अहम जानकारियां पढ़ने में ही नहीं आ रही थीं और जिन सीमाओं के नक़्शे जारी किए गए थे वो सोशल मीडिया पोस्ट में लिखी बातों से मेल नहीं खाती थी.
इसराइली सेना ने दक्षिणी ग़ज़ा के तटीय इलाक़े अल मवासी को मानवीय सहायता का इलाक़ा घोषित कर रखा है. इसके बावजूद वहां बमबारी होती है.
बीबीसी वेरिफाई ने इस इलाक़े की सीमा के भीतर 18 हवाई हमलों की तस्वीरों का विश्लेषण किया है.
‘हमारी ज़िंदगियां ख़ूबसूरत थीं, अचानक हमारा सब कुछ छिन गया’
जब इसराइल ने उत्तरी ग़ज़ा की लगभग पूरी आबादी को वहाँ से निकल जाने का आदेश दिया था, तो उसके बाद की सैटेलाइट तस्वीरों में सलाह अल-दीन सड़क पर लोगों की भारी भीड़ साफ़ दिखाई दे रही थी.
सलाह अल-दीन उत्तरी और दक्षिणी ग़ज़ा को आपस में जोड़ने वाली मुख्य सड़क है. इस पर दक्षिणी ग़ज़ा की तरफ़ जा रहे लोगों की इस भीड़ में कहीं इंसाफ़ हसन अली भी अपने पति और दो बच्चों के साथ थीं.
उनके लड़के की उम्र 11 साल है. वहीं बेटी सबा सात बरस की है. अब तक वो सब इस तबाही में बचे हुए हैं, जबकि उनके ख़ानदान के बहुत से लोग इतने ख़ुशक़िस्मत नहीं रहे.
इसराइल ग़ज़ा में पत्रकारों को स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग करने की इजाज़त नहीं देता. हम ये मानते हैं कि वो ऐसा इसलिए करता है, क्योंकि वो नहीं चाहता कि दुनिया को पता चले कि उसने ग़ज़ा में क्या किया है.
हमने ग़ज़ा के भीतर स्वतंत्र रूप से काम करने वाले फलस्तीन के एक भरोसेमंद पत्रकार को इंसाफ़ और उनके बेटे से बात करने के लिए कहा.
इंसाफ़ ने अपने उस भयानक ख़ौफ़ के बारे में बताया, ”जब इज़राइली सेना के हुक्म पर वो लगभग दस लाख दूसरे लोगों के साथ उत्तर से दक्षिणी ग़ज़ा की तरफ़ जा रही थीं. इंसाफ़ बताती हैं कि हर तरफ़ मौत ही मौत दिख रही थी.”
उन्होंने कहा, ”हम सलाह अल-दीन सड़क पर पैदल चल रहे थे. हमारे सामने चल रही एक कार पर हमला हुआ. हमने ये हमला देखा और कार जल रही थी. हमारे बांई ओर लोग मारे जा रहे थे और दाहिनी तरफ़ भी यही मंज़र था. यहां तक कि जानवरों जैसे कि गधों पर भी बमबारी की जा रही थी.”
इंसाफ़ ने बताया, ”हमने उस वक़्त कहा कि अब हो गया, अब हमारी कहानी ख़त्म. अब कोई और रॉकेट आएगा, जो हमको निशाना बनाएगा.”
जंग शुरू होने से पहले इंसाफ़ और उनके परिवार के पास एक आरामदेह घर था, जैसा फ़लस्तीन के आम मध्यम वर्गीय परिवारों के पास होता है. उसके बाद से इसराइली सेना के आदेश पर वो 15 बार दर-बदर हो चुके हैं. अपने जैसे लाखों अन्य लोगों की तरह इंसाफ़ का परिवार भी बेघर है.
उनको अक्सर भूख के साथ दिन बिताना पड़ता है. वो लोग अल-मवासी इलाक़े में एक तंबू में रह रहे हैं.
ये रेत के टीलों वाला एक सुनसान इलाक़ा है. अक्सर उनके तंबू के भीतर सांप, बिच्छू और ज़हरीले बड़े कीड़े घुस आते हैं, जिन्हें भगाना पड़ता है. हवाई हमले में मारे जाने का ज़ोखिम तो है ही.
इंसाफ़ के परिवार को भुखमरी, बीमारियों और लाखों लोगों के रहने की वजह से इंसानी मल की गंदगी से जूझना पड़ता है. यहां रहने वाले लाखों लोगों के पास साफ़-सफ़ाई की कोई सुविधा नहीं है.
ग़ज़ा में 20 लाख लोगों की उम्मीद
उन्होंने रोते रोते कहा , ”हमारी ज़िंदगी ख़ूबसूरत थी और अचानक हमारा सब कुछ छिन गया. हमारे पास कुछ भी नहीं था. न कपड़े थे. न खाना था, न ज़िंदगी की दूसरी ज़रूरतों के सामान थे. लगातार दर-बदर होते रहने ने मेरे बच्चों की सेहत पर बहुत बुरा असर डाला है. वो कुपोषण के शिकार हो गए हैं और उन्हें कई बीमारियां हो गई हैं. उन्हें पेचिश पड़ रही है और हेपेटाइटिस भी हो गया है.”
इंसाफ़ ने कहा कि इसराइल की बमबारी के शुरुआती महीने तो रोज़-ए-महशर या क़यामत के दिन जैसे भयानक लगते थे.
उन्होंने कहा,”कोई भी मां ऐसा ही महसूस करेगी. जिसके पास भी कोई क़ीमती चीज़ होगी तो उन्हें ये डर लगा रहेगा कि कहीं किसी लम्हे में वो चीज़ उनके हाथ से फिसल न जाए. जब भी हम किसी घर में दाख़िल होते थे, तभी उस पर बमबारी हो जाती थी और हमारे ख़ानदान का कोई न कोई शख़्स उसमें मारा जाता था.”
इंसाफ़ और उनके परिवार और उनके जैसे ग़ज़ा के लगभग 20 लाख लोगों की ज़िंदगी में किसी मामूली सुधार की उम्मीद युद्ध विराम को लेकर रज़ामंदी पर टिकी हुई है.
अगर मौत का ये खेल थमता है, तो शायद राजनयिकों के पास मौक़ा होगा कि वो ग़ज़ा को और भयंकर तबाही की तरफ़ बढ़ने से रोक सकें.
क्योंकि, अगर युद्ध जारी रहता है तो भविष्य में यहां और भी तबाही मचने का डर है.
इसराइलियों और फ़लस्तीनियों की नई पीढ़ी एक दूसरे की करतूतों की वजह से एक दूसरे के प्रति जो नफ़रत और बर्बरता का भाव महसूस करती है, उसके शिकंजे से आज़ाद नहीं हो सकेगी.
इंसाफ़ के 11 बरस के बेटे अनस अवाद ने युद्ध में अब तक जो कुछ देखा है, उसका अनस पर बहुत गहरा असर पड़ा है.
वो कहते हैं, ”ग़ज़ा के बच्चों का कोई मुस्तकबिल नहीं है. मैं जिन दोस्तों के साथ खेला करता था, वो सब शहीद हो गए हैं. हम एक साथ मिलकर दौड़ लगाया करते थे. अल्लाह उन पर रहम करे. मैं जिस मस्जिद में जाकर क़ुरान की आयतें याद करता था, वो बमबारी से तबाह हो गई है. मेरे स्कूल पर भी बम बरसाए गए हैं और हमारे खेल के मैदान पर भी… सब कुछ तबाह हो गया है. मैं अमन चाहता हूं. काश कि मैं अपने दोस्तों के पास लौट पाता और उनके साथ फिर से खेल पाता. काश की हमारा एक घर होता और हमें तंबू में न रहना पड़ता.”
अनस ने कहा,”अब मेरा कोई दोस्त नहीं है. हमारी सारी ज़िंदगी रेत में तब्दील हो गई है. जब हम नमाज़ वाले इलाक़े में जाते हैं, तो डर लगता है. हिचक होती है. मुझे कुछ ठीक नहीं लगता.”
जब अनस ये सब कह रहे थे, तो पास खड़ी उनकी मां सुन रही थीं.
इंसाफ़ ने कहा,”ये मेरी ज़िंदगी का सबसे मुश्किल साल रहा है. हमने वो मंज़र देखे हैं, जो नहीं देखने चाहिए थे. यहां वहां बिखरी लाशें. हाथ में बच्चों के लिए पीने के पानी की बोतल लिए फिरते एक बदहवास बुज़ुर्ग. और हां. हमारे घर अब घर नहीं रहे; अब तो वो महज़ रेत का ढेर बनकर रह गए हैं. लेकिन, हमें अब भी उस दिन की आस है, जब हम अपने घरों को लौट सकेंगे.”
क़ानून क्या कहता है?
संयुक्त राष्ट्र की मानवीय सहायता देने वाली एजेंसियों ने इसराइल और हमास दोनों की निंदा की है.
उन्होंने अपने बयान में कहा, ”पिछले एक साल के दौरान दोनों पक्षों के बर्ताव ने उनके इस दावे का मखौल बनाया है कि वो मानवता के अंतरराष्ट्रीय नियम क़ायदों और इंसानियत के न्यूनतम बुनियादी उसूलों का पालन करते हैं.’
दोनों ही पक्ष इस इल्ज़ाम से इनकार करते हैं कि उन्होंने युद्ध के क़ानूनों का उल्लंघन किया है.
हमास का दावा है कि उसने अपने लड़ाकों को आम इज़राइली नागरिकों को नहीं मारने का आदेश दिया था. इसराइल कहता है कि वो फ़लस्तीन के आम नागरिकों को बमबारी से पहले सुरक्षित ठिकानों पर जाने की चेतावनी देता है. लेकिन हमास उन्हें इंसानी ढाल की तरह इस्तेमाल करता है.
इसराइल के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी अपील की गई है. ये अपील करने वाले दक्षिण अफ्रीका ने इसराइल पर नरसंहार का इल्ज़ाम लगाया है.
इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के मुख्य वादी ने युद्ध अपराध के तमाम इल्ज़ामों के लिए हमास के याह्या सिनवार और इसराइल के बिन्यामिन नेतन्याहू और योआव गैलेंट के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी वारंट जारी करने की अर्ज़ी दी है.
अनिश्चितता के समंदर में छलांग
इसराइल के लोगों के लिए 7 अक्टूबर को हमास का हमला, यूरोप में यहूदियों के उस ऐतिहासिक तकलीफ़देह संहार और क़त्ल-ए-आम की याद दिलाने वाला था, जिसकी परिणति जर्मनी में नाज़ी हुकूमत द्वारा किए गए नरसंहार के रूप में सामने आई थी.
युद्ध के शुरुआती महीनों में इसराइल के लेखक और पूर्व राजनेता अवराहम बर्ग ने अपने देश पर इस हमले के गहरे मनोवैज्ञानविक असर को समझाया था.
उन्होंने मुझसे कहा था, ” हम यहूदी क़ौम के लोग, ये मानते हैं एक देश के तौर पर इसराइल, यहूदियों को उनके इतिहास से बचाने वाला पहला और सबसे अच्छा प्रतिरोधी कवच है. अब कोई क़त्ल-ओ-ग़ारत नहीं. अब कोई नरसंहार नहीं. अब यहूदियों की सामूहिक हत्या की कोई घटना नहीं होगी. और अचानक ये सब वापस आ गया.”
अतीत की भयानक यादें फ़लस्तीनियों को भी सताती हैं. फ़लस्तीन के मशहूर लेखक और मानव अधिकार कार्यकर्ता राजा शेहादेह ये मानते हैं कि इसराइल एक और नकबा- एक और क़यामत बरपाना चाहता था:
अपनी हालिया किताब, ‘व्हाट डज़ इसराइल फियर फ्रॉम पैलेस्टाइन’ में राजा शेहादेह लिखते हैं, ”जैसे-जैसे युद्ध आगे बढ़ा तो मैं देख सकता था कि उन्होंने जो कुछ कहा वैसा ही करने का उनका इरादा भी था और उन्हें बच्चों समेत आम नागरिकों की कोई फ़िक्र नहीं थी. उनकी और ज़्यादातर इसराइली नागरिकों की निगाह में ग़ज़ा के सारे के सारे लोग मुजरिम थे.”
अपने नागरिकों की हिफ़ाज़त करने के इसराइल के पक्के इरादे पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है. इसमें उसे अमेरिका की ताक़त से भी ज़बरदस्त मदद मिलती है.
हालांकि एक और बात भी शीशे की तरह साफ़ है. युद्ध ने दिखा दिया है कि कोई भी ख़ुद को इस बात पर मूर्ख नहीं बना सकता कि फ़लस्तीन के लोग इसराइल के सैनिक क़ब्ज़े के तहत जीना क़ुबूल कर लेंगे और वो अपने लिए आम अधिकार नहीं मांगेंगें.
आवाजाही की आज़ादी और स्वतंत्रता की मांग नहीं करेंगे.
संघर्ष की तमाम पीढ़ियों के बाद इज़राइली और फ़लस्तीनी एक दूसरे से टकराव के आदी हो चुके हैं.
लेकिन वो एक दूसरे के अगल बगल जीने की आदत भी डाल चुके हैं. भले ही ये असहज लगता हो. जब भी युद्ध विराम होगा, तो नेताओं की नई पीढ़ी के साथ ये उम्मीद बंधेगी कि वो फिर से अमन बहाल करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन अभी तो ये तो बहुत दूर की कौड़ी लगता है. इस साल के बचे हुए महीने और आने वाला 2025 के साल में जब अमेरिका में नए राष्ट्रपति कमान संभालेंगे, तब तक का दौर अनिश्चित और तमाम तरह के ख़तरों से भरा दिख रहा है.
हमास के इसराइल पर हमले के कई महीनों बाद तक डर इसी बात का था कि युद्ध कहीं और न फैल जाए. कहीं हालात और न बिगड़ जाएं.
धीरे धीरे और फिर अचानक एक झटके में ही ऐसा हो गया, जब इसराइल ने हिज़्बुल्लाह और लेबनान पर तबाही मचाने वाले हमले शुरू कर दिए.
अब ये कहने का समय बीत चुका है कि मध्य पूर्व युद्ध के मुहाने पर है. आज इसराइल और ईरान आमने सामने खड़े हैं.
एक दूसरे से मुक़ाबला कर रहे दोनों पक्ष इस युद्ध में कूद पड़े हैं. और, जो देश अभी सीधे तौर पर इस युद्ध में शामिल नहीं हैं, वो ख़ुद को इस जंग में घसीटे जाने से बचाने की पुरज़ोर कोशिश कर रहे हैं.
आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं, तब तक इसराइल ने ईरान के एक अक्टूबर के हमले पर पलटवार नहीं किया है.
हालांकि इसराइल ने संकेत दिए हैं कि वो ईरान को बहुत कड़ा दंड देगा.
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन और इसराइल को नियमित रूप से हथियार और समर्थन देने वाला उनका प्रशासन एक ऐसे पलटवार का हिसाब किताब लगाने में जुटा है, जिससे ईरान को इस युद्ध को और भड़काने से बचने का रास्ता दिया जा सके.
अमेरिका में एक महीने बाद होने वाले राष्ट्रपति चुनाव और तमाम युद्ध लड़ने के तौर तरीक़ों को लेकर तमाम ऐतराज़ों के बावजूद इसराइल को जो बाइडन की तरफ़ से लगातार समर्थन देने से इस बात की बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं लगती कि अमेरिका, सबके बच निकलने का कोई न कोई रास्ता निकाल लेगा.
इसराइल से मिलने वाले संकेत इशारा करते हैं कि नेतन्याहू, योआव गैलेंट और इज़राइली सेना के जनरल और खुफिया एजेंसी के आला अधिकारी ये मानते हैं कि उन्हें इस बार बढ़त हासिल है.
उनके लिए सात अक्टूबर एक तबाही वाला दिन था. प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू को छोड़ दें तो इसराइल के सभी सुरक्षा और सैन्य आला अधिकारी देश से माफ़ी मांग चुके हैं और कइयों ने इस्तीफ़ा भी दे दिया है. उन्होंने हमास के साथ युद्ध की कोई योजना नहीं बनाई थी.
लेकिन हिज़्बुल्लाह के साथ युद्ध की योजना तो 2006 का पिछला युद्ध ख़त्म होने के साथ ही शुरू हो गई थी, जब युद्ध इसराइल के लिए बेहद शर्मनाक यथास्थिति में ख़त्म हुआ था. हिज़्बुल्लाह को भी ऐसे गंभीर झटके लगे हैं, जिनसे शायद वो कभी न उबर सके.
अब तक तो इसराइल की जीत फ़ौरी ही लग रही है. एक स्थायी सामरिक जीत हासिल करने के लिए इसराइल को अपने दुश्मनों पर ऐसा दबाव बनाना पड़ेगा, जिससे वो अपना बर्ताव बदलें.
अपनी कमज़ोर हालत के बावजूद हिज़्बुल्लाह ने लड़ाई जारी रखने की इच्छाशक्ति दिखाई है. एक बार फिर से दक्षिणी लेबनान में दाख़िल हो चुकी इसराइल की पैदल सेना और उसके टैंकों से मुक़ाबला करके हिज़्बुल्लाह ने इसराइल की उस बढ़त को ख़त्म कर दिया है, जो उसे हवाई ताक़त और ख़ुफ़िया कारनामों की शक्ल में हासिल थी.
अगर इसराइल के पलटवार के जवाब में ईरान फिर से बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला करता है, तो इस युद्ध में दूसरे देश भी खिंच सकते हैं.
इराक़ में ईरान के समर्थन वाले हथियारबंद संगठन अमेरिकी हितों को निशाना बना सकते हैं. इसराइल के दो सैनिक उस ड्रोन हमले में भी मारे गए थे, जो इराक़ से किया गया था.
सऊदी अरब भी हताश निगाह से ये हालात बिगड़ते देख रहा है. सऊदी अरब के युवराज प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान ने भविष्य को लेकर अपना नज़रिया बिल्कुल साफ़ कर दिया है.
वो तभी इसराइल को मान्यता देने पर विचार करेंगे, जब फिलिस्तीनियों को इसके बदले में उनका देश मिलेगा और अमेरिका उनके देश के साथ सुरक्षा देने का समझौता करेगा.
इसमें जो बाइडन की भूमिका भी काफ़ी अहम है. एक तरफ़ तो वो बेलगाम इसराइल पर क़ाबू पाने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ वो हथियारों, कूटनीतिक प्रयासों और जंगी जहाज़ों के बेड़ों से पूरी मदद भी दे रहे हैं.
ऐसे में अगर जंग का दायरा बढ़ा तो अमेरिका को भी ईरान के साथ युद्ध में कूदने को मजबूर होना पड़ सकता है. वो ऐसा होने नहीं देना चाहते. लेकिन, बाइडेन ने क़सम खाई है कि ज़रूरत पड़ी तो अमेरिका, इसराइल की मदद के लिए ज़रूर आगे आएगा.
इसराइल द्वारा हसन नसरल्लाह की हत्या और ईरान की रणनीति और उसकी ‘प्रतिरोध की धुरी’ को हुए नुक़सान के बाद इसराइल और अमेरिका में कुछ लोगों को नई नई ग़लतफ़हमियां होने लगी हैं.
ख़तरनाक सोच ये है कि उनके पास कई पीढ़ियों में एक बार आने वाला मौक़ा है, जब वो मध्य पूर्व को ताक़त के दम पर नए सिरे से गढ़ सकते हैं. वहां व्यवस्था क़ायम कर सकते हैं और इसराइल के दुश्मनों को निष्क्रिय बना सकते हैं. जो बाइडन और उनके वारिस को ऐसी ग़लतफ़हमी पालने से बचना चाहिए.
पिछली बार जब मध्य पूर्व को ताक़त के दम पर बदलने पर विचार किया गया था, वो अमेरिका पर अल क़ायदा के 9/11 के हमले के बाद का दौर था.
उस समय अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर 2003 में इराक़ पर हमला करने की तैयारी कर रहे थे.
इराक़ पर वो हमला मध्य पूर्व को हिंसक उग्रवाद से छुटकारा नहीं दिला सका था. हालात पहले से ज़्यादा ख़राब हो गए थे.
जो लोग ये युद्ध रोकना चाहते हैं, उनके लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता ग़ज़ा में युद्ध विराम की होनी चाहिए. हालात को शांत करने और कूटनीति के लिए गुंजाइश पैदा करने का यही एकमात्र मौक़ा और तरीक़ा है. युद्ध का ये साल ग़ज़ा से शुरू हुआ था. शायद ये वहीं पर ख़त्म भी हो सकता है.
( कैथी लॉन्ग, पॉल ब्राउन,बेनेडिक्ट गारमैन और मेसुत एरसोज़ की अतिरिक्त रिपोर्टिंग)
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित