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मध्य प्रदेश के सागर ज़िले में अपने कच्चे-पक्के घर के सामने बैठे, सनत मिश्रा कहते हैं, “बहुत ढूंढा हमने… जिसने जहाँ बताया वहाँ गए… लेकिन कुछ पता नहीं चला. 13 साल हो गए मेरी बहन को लापता हुए.”
उनकी आवाज़ में एक थकान है, बहन का ज़िक्र करते हुए आँखें मानो अतीत में कहीं खो जाती हैं.
इस घटना को हुए एक दशक से से ज़्यादा समय गुज़र चुका है और जैसे ही परिवार में कुमोदिनी पर चर्चा होती है घर में सन्नाटा पसर जाता है.
सनत की बहन कुमोदिनी मिश्रा साल 2012 में एक रात घर से अपने मामा के घर टीवी देखने निकली थीं. उस समय क़रीब साढ़े आठ बजे थे लेकिन कुमोदिनी उस दिन वहां पहुंच ही नहीं पाईं.
परिवार का कहना है कि वो दिन था और आज का दिन है उन्हें कुमोदिनी की कोई खोज-ख़बर नहीं मिल पाई है.
मिश्रा परिवार के लोग अपने घर का दरवाज़ा इस आस में खोलकर छोड़ देते हैं कि वो वापस लौट आएगी.
‘मेरी आत्मा रोती नहीं होगी क्या?’
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माँ उर्मिला की आंखें कुमोदिनी का ज़िक्र करते ही नम हो जाती हैं … झुर्रियों से भरे चेहरे में वो उसे छिपाने की कोशिश करती हैं और बहुत कहने पर हमसे बात करती हैं.
बहुत हिम्मत जुटाकर वो कहती हैं, “बिटिया को गुम हुए 13 साल हो गए हैं. मेरी आत्मा रोती नहीं होगी क्या? जब घर में उसकी पसंद की चीजें बनती हैं, तो मेरे हलक से निवाला नीचे नहीं उतरता.”
वो कहती हैं , “ये एक ऐसी तकलीफ़ है जिसकी आदत नहीं पड़ सकती, चाहे कितना भी समय बीत जाए.”
लेकिन कुमोदिनी अकेली नहीं हैं. आंकड़े बताते हैं कि मध्य प्रदेश के लगभग हर ज़िले में आपको ऐसी कहानी मिल जाएगी जहां घर से लापता हुई लड़कियों और महिलाओं का इंतज़ार तो है, पर जवाब नहीं.
केंद्र सरकार का कहना है कि साल 2019 से 2021 के बीच अकेले मध्य प्रदेश में लड़कियों और महिलाओं की ग़ुमशुदगी के क़रीब दो लाख मामले दर्ज हुए जो कि देश में सबसे अधिक है.
मध्य प्रदेश सरकार के आंकड़ों की मानें तो जनवरी 2024 से जून 2025 के बीच मध्य प्रदेश में 23,129 लड़कियां और महिलाएं लापता हुई हैं. यानी हर दिन लगभग 43 लड़कियां और महिलाएं गुमशुदा हुईं.
यही संख्या बताती है कि यह सिर्फ़ कुछ परिवारों का दुःख नहीं, बल्कि एक बड़ी समस्या है.
हमने जब राज्य के महिला सुरक्षा शाखा से सवाल किया कि यह आंकड़ा इतना बड़ा क्यों है और ऐसी घटनाओं के पीछे क्या कारण हैं, तो शाखा में पदस्थ मध्य प्रदेश के एडीजी, अनिल कुमार ने कई कारण बताए.
उन्होंने बताया, “साल 2013 के बाद नाबालिग बच्चों की गुमशुदगी पर तुरंत ही अपहरण की धाराओं में एफआईआर दर्ज़ की जाती है. हमने यह देखा है कि मध्य प्रदेश में गुमशुदगी के लगभग 42 फ़ीसदी मामलों में किशोरियाँ घर से नाराज़ होकर जाती हैं. क़रीब 15 फ़ीसदी घटनाओं में लड़कियां अपनी मर्जी से रिश्तेदारों के घर जाती हैं और 19 से 20 फ़ीसदी मामलों में वो प्रेमी के साथ चली जाती हैं.”
वो कहते हैं कि हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में शादी के लिए लड़कियों को बेचने के मामले “बहुत ही कम” हैं, और ये देखा गया है कि वो एक हज़ार में एक है.
पुलिस का क्या है कहना

मध्य प्रदेश पुलिस का यह भी दावा है कि वे 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों की तलाश के लिए पुलिस विशेष अभियान ‘ऑपरेशन मुस्कान’ चला रही है.
एडीजी के अनुसार , इसके तहत, लंबित मामलों की संख्या घटी है और इसकी मासिक समीक्षा की जाती है.
साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में 18 साल से कम उम्र के हर गुमशुदा बच्चे की शिकायत पर अनिवार्य रूप से एफ़आईआर दर्ज करने का आदेश दिया था.
इसके बाद साल 2015 में केंद्रीय गृह मंत्रालय की तरफ से ऑपरेशन मुस्कान पहल की शुरुआत की गई जिसका मकसद था हर गुमशुदा बच्चे को बचाना और उनका पुनर्वास करना.
हालांकि 18 साल या उस से अधिक उम्र की महिलाओं की गुमशुदगी के सवाल पर अनिल कुमार ने कहा, “देखिए, हमारे पास इसका कोई संकलित ब्यौरा नहीं है. 18 साल या उस से ज़्यादा उम्र की महिलाओं की गुमशुदगी की रिपोर्ट तो दर्ज होती लेकिन ज़्यादातर मामलों में एफ़आईआर दर्ज नहीं हो पाती, सिर्फ़ उन्हीं मामलों में दर्ज हो पाती है जहां मानव तस्करी या अपहरण जैसे अपराध जुड़े हुए हों”.
पुलिस बताती है कि क्योंकि, 18 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के मामलों में अक्सर एफ़आईआर ही दर्ज नहीं होती ऐसे में जांच स्थानीय थाने की फाइलों में सीमित रह जाती है.
मिश्रा परिवार को इसी पर एतराज़ है, क्योंकि सनत मिश्रा की बहन साल 2012 में गुम हुईं थीं यानी कि 2013 के पहले जिस साल नाबालिग बच्चों की गुमशुदगी पर एफ़आईआर की अनिवार्यता का नियम लागू हुआ था.
सनत मिश्रा कहते हैं, “हम लोग पुलिस की कार्रवाई से बिल्कुल संतुष्ट नहीं हैं. जिनपर शक था उनसे ढंग से पूछताछ नहीं हुई. महिला पुलिस तक नहीं बुलाई गई. शुरू से ही हमें लगा कि हमारा मामला गंभीरता से नहीं लिया गया.”
गुमशुदा लड़कियों और महिलाओं के मामलों में यह शिकायत आम है. कई परिवार कहते हैं कि शुरुआती घंटों और शुरुआती दिनों में तेज़ी से काम नहीं होता, और यही देरी तलाश को मुश्किल बना देती है.
पुलिस महकमे में नज़रिए का सवाल

मध्य प्रदेश की राजनीति में महिलाओं को लंबे समय से सबसे महत्वपूर्ण मतदाता समूहों में से एक माना जाता है.
बीते दो दशकों में राज्य की सत्ता पर अधिकतर बीजेपी का ही कब्ज़ा रहा है, और पार्टी ने अपने चुनावी नैरेटिव में महिलाओं को केंद्र में रखकर कई योजनाएं भी निकाली.
पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दौर में लाड़ली लक्ष्मी और बाद में लाड़ली बहना जैसी सीधा पैसा ट्रांसफर करने वाली योजनाओं का सरकार ने खूब प्रचार किया और इन्हें चुनाव जीतने का मुख्य आधार भी बनाया.
सामाजिक कार्यकर्ता अर्चना सहाय का कहना है कि योजनाएं भले ही आर्थिक सहायता को बढ़ावा देती हैं, मगर महिलाओं की सुरक्षा, आवाजाही और विशेषकर गुमशुदगी रोकने जैसे संवेदनशील मुद्दों पर राज्य ने कोई ठोस या संरचनात्मक सुधार नहीं किया है.
पुलिस ढांचे में निवेश, जाँच की समुचित व्यवस्था, देरी से दर्ज होने वाली रिपोर्टों को रोकने के उपाय, मानव तस्करी पर नकेल, और ज़्यादा पलायन वाले जिलों के लिए विशेष निगरानी तंत्र, इन सभी मोर्चों पर राज्य का प्रदर्शन लगातार सवालों में रहा है.
इसका नतीजा यह दिखता है कि महिलाओं की गुमशुदगी के मामले बढ़ रहे हैं.
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि महिलाओं से जुड़े कल्याणकारी वादे वोट तो दिलाते हैं, लेकिन सुरक्षा से जुड़े जटिल मुद्दों पर जवाबदेही तय करने के लिए जिस तरह की निरंतरता और इच्छाशक्ति चाहिए, वह लंबे समय से नदारद है.
अर्चना सहाय पिछले तीन दशकों से राज्य में बच्चों और महिलाओं के साथ काम कर रही हैं. वो कहती हैं कि गुमशुदगी के ये बड़े आंकड़े केवल व्यक्तिगत कारणों से नहीं हैं.
अर्चना कहती हैं, “नाबालिग बच्चियों के मामले में तो मध्य प्रदेश ने कुछ बेहतर काम किया है लेकिन 18 साल से अधिक उम्र की महिलाएं गुम होती हैं तो ज़्यादातर मामलों को अपराध नहीं माना जाता. प्रशासन का रवैया रहता है कि कहीं चली गई होगी, आ जाएगी. उन्हें ढूंढ़ने की कोशिश उतनी गंभीरता से नहीं होती. यह नज़रिए की समस्या है और इसीलिए गुमशुदा महिलाओं के आंकड़े बहुत बढ़े हुए हैं”.
सरकार बदलती रहे या वही सरकार सत्ता में लौटती रहे, लेकिन जिन परिवारों की बेटियां या महिलाएं आज तक घर नहीं लौटीं, उनके लिए ये राजनीतिक वादे और घोषणाएं अक्सर सिर्फ काग़ज पर लिखी हुई बातें ही लगते हैं.
लेकिन इस डरावनी तस्वीर के बीच कुछ मामले उम्मीद भी देते हैं.
कुछ घर लौटीं, लेकिन अब भी डर
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डिंडौरी ज़िले की फूल (बदला हुआ नाम) इसी साल जनवरी में अपने गांव से एक परिचित के बेहतर नौकरी और जिंदगी के झांसे में फंसकर दिल्ली चली गई थीं.
जब हम फूल से मिलने पहुंचे तो वो पहाड़ों की तलहटी पर बने अपने कच्चे घर के सामने बिछी खाट पर बैठकर पढ़ाई पर ध्यान लगाने की कोशिश कर रही थीं.
बीबीसी से बात करते हुए फूल ने कहा, “मुझे अच्छा काम मिलेगा और बहुत पैसा मिलेगा यह बोला गया था. तो मैं दिल्ली चली गई. लेकिन दिल्ली पहुँचते ही मुझे बंधुआ मजदूरी में धकेल दिया गया”.
उन्होंने बताया कि काम की जगह उन्हें जेल जैसी लगती थी. रात को रोते-रोते सोती थीं और उनके साथ काम की जगह पर कई बार मारपीट भी हुई.
एक महीने बाद लंबी कोशिशों के बाद उन्हें वहाँ से छुड़ाया गया और जून में वह घर लौट पाईं.
फूल की माँ, अनीता (बदला हुआ नाम), जो कि सिंगल मदर हैं, वो कहती हैं, “जब वो मिली तब जाकर मुझे चैन मिला. वरना इतने दिनों तक तो बस चिंता ही लगी रहती थी… डर लगा रहता था कि मेरी बेटी को बेच न दें.”
फूल अब घर पर हैं, लेकिन परिवार बताता है कि वह अक्सर चुप रहती हैं, सहमी रहती हैं, और इस बारे में बात नहीं करतीं कि दिल्ली में उनके साथ क्या हुआ.
अर्चना कहती हैं , “इन गुमशुदगियों के पीछे गरीबी, दलालों और ठेकेदारों का नेटवर्क, पलायन, सामाजिक पिछड़ापन, तस्करी और एक कमजोर पुलिस व्यवस्था सब मिलकर इस संकट को पैदा करते हैं”.
अर्चना कहती हैं कि राज्य सरकार ने योजनाएं तो बहुत शुरू की हैं, लेकिन वास्तविक सुधार तब होगा जब गुमशुदा महिलाओं के मामलों को अपराध की गंभीरता के साथ देखा जाए.
इसके अलावा जिन लड़कियों को ढूंढ लिया जाता है उनके समाज में वापस घुलने-मिलने और सामान्य ज़िंदगी में लौट पाने के बारे में अर्चना कहती हैं कि इस मामले में स्थिति अभी ख़राब है.
उन्होंने बताया, “पुलिस अगर लड़कियों को ढूंढ भी लेती है तो भी वो सामान्य ज़िंदगी जी पाएंगी इसकी कोई गारंटी नहीं होती. सरकार के स्तर पर उन लड़कियों के पुनर्वास के लिए उठाए जा रहे कदम काफ़ी नहीं हैं. उन्हें शिक्षा में मदद, काउंसलिंग, समय-समय पर उनकी स्थिति का जायज़ा लेने और वापस लौटने के बाद किसी तरह की उपेक्षा न हो इसका ध्यान रखने के लिए संरचनात्मक सुधार करना होगा”.
कुमोदिनी की कहानी, फूल की वापसी, और इनके अलावा हजारों फाइलों में दर्ज नाम, मिलकर महिलाओं की गुमशुदगी की एक ऐसी तस्वीर बनाते हैं जिसे अनदेखा करना मुश्किल है.
मध्य प्रदेश में हर ज़िले में सैकड़ों परिवार हर शाम दरवाज़े पर नज़र टिकाए यह उम्मीद लगाए मिल जाएंगे कि उनकी बेटी या बहन एक दिन अचानक लौट आएगी.
पर लौटकर आने वाली लड़कियां गिनी-चुनी हैं. बाकी कहानी इंतज़ार, अधूरी खोज और एक ऐसे सिस्टम की है जिसके पास जवाबों से ज़्यादा खामोशी है.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित.