इस साल आम चुनाव के बाद जिस विधानसभा चुनाव पर सबसे अधिक ध्यान केंद्रित था, वह महाराष्ट्र का चुनाव था.
महाराष्ट्र न केवल उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक सांसद भेजने वाला राज्य है, बल्कि यहाँ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई भी स्थित है.
इस कारण से यह चुनाव ख़ास था. इसके साथ ही झारखंड में भी विधानसभा चुनाव हुए और कई उपचुनावों में भी वोट डाले गए.
महाराष्ट्र में एनडीए ने ‘महायुति’ के नाम से चुनाव लड़ते हुए ऐतिहासिक जीत दर्ज की, लेकिन झारखंड में मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन ने एनडीए को पीछे छोड़ दिया.
महायुति की धमाकेदार वापसी
लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में ‘महाविकास अघाड़ी’ के बैनर तले इंडिया गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया था, लेकिन कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव में यह स्थिति पलट गई.
इस बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महायुति गठबंधन में शामिल भारतीय जनता पार्टी ने 132 , एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 41 सीटें जीती हैं.
यानी महायुति ने कुल 230 सीटें हासिल कर सत्ता में धमाकेदार वापसी की है.
दूसरी ओर, महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार की एनसीपी शामिल हैं. इन्हें कुल 46 सीटें मिली हैं और करारी हार का सामना करना पड़ा है.
इन चुनाव परिणामों के तुरंत बाद लोकसभा का शीतकालीन सत्र शुरू होने वाला है. ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि चुनाव परिणामों का प्रभाव संसद की कार्यवाही पर भी दिखाई देगा.
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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने लगातार अदानी और अंबानी का नाम लेकर महायुति पर निशाना साधा.
हाल ही में अमेरिका में अदानी समूह को मिले झटके का असर भी शीतकालीन सत्र में देखने को मिल सकता है.
हालांकि विधानसभा चुनाव के नतीजों ने सत्तारूढ़ भाजपा को अतिरिक्त आत्मविश्वास प्रदान किया है.
अब सभी की निगाहें दिल्ली के विधानसभा चुनावों पर टिक गई हैं, जो जनवरी-फरवरी के बीच होने की संभावना है.
इस चर्चा में बीबीसी मराठी के संपादक अभिजीत कांबले, हिंदुस्तान टाइम्स की राजनीतिक संपादक सुनेत्रा चौधरी, सी-वोटर संस्था के संस्थापक निदेशक यशवंत देशमुख, लोकनीति-सीएसडीएस के सह-निदेशक संजय कुमार और टाइम्स ऑफ इंडिया डिजिटल की सीनियर असिस्टेंट एडिटर अलका धूपकर शामिल हुए.
इन वजहों से बदले नतीजे?
कुछ ही महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी ने अच्छा प्रदर्शन किया था, लोकसभा में महाराष्ट्र के हिस्से में 48 सीटें आती हैं.
इस चुनाव में महाविकास अघाड़ी को 30 और महायुति गठबंधन को 17 सीटें मिली थीं.
जिसके बाद माना जा रहा था कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महाविकास अघाड़ी को इसका फ़ायदा मिलेगा.
लेकिन अब जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे सामने आ गए हैं, तब महाविकास अघाड़ी 288 सीटों में से 46 सीटों पर ही सिमट गई है.
लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक बीजेपी और महायुति के अन्य दलों ने ऐसा क्या किया जिसके कारण उन्हें इस चुनाव में इतनी ज़्यादा बढ़त मिली.
वो कौन सी तीन चीज़ें हैं जो बीजेपी और महायुति के लिए गेमचेंजर साबित हुईं?
इस सवाल पर ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की राजनीतिक संपादक सुनेत्रा चौधरी ने कहा कि लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनाव में आरएसएस का योगदान ज़्यादा था.
वो कहती हैं, ”महाराष्ट्र में भाजपा के वोटरों में अजित पवार की एनसीपी पार्टी को लेकर गुस्सा था, लेकिन उन नाराज़ वोटरों को समझाने में आरएसएस ने अपनी भूमिका अच्छी तरह निभाई”.
उनका कहना है, ”भाजपा ने ‘मुख्यमंत्री लाडकी बहिन योजना’ के संदेश को पहुंचाने के लिए सीटों की पहचान की और हर क्षेत्र में महिला प्रभारी बनाई गईं, जिन्होंने भाजपा के इस संदेश को हर महिला तक अच्छी तरह पहुंचाया.”
सुनेत्रा कहती हैं, ”इसका फ़ायदा ये मिला कि हर विधानसभा क्षेत्र से महिलाओं ने पुरुष मतदाताओं से ज़्यादा वोट किया.”
सुनेत्रा चौधरी ने कहा कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव में टिकट के बंटवारे में कुछ ग़लतियां की थीं लेकिन इस बार उन्होंने ख़ास करके विदर्भ और मराठवाड़ा (जो कि पारंपरिक तौर पर भाजपा के क्षेत्र नहीं माने जाते) में सर्वे करवाए और संगठन के ज़रिए वहां टिकट दिए गए.
सुनेत्रा कहती हैं, ”इसके अलावा लोकसभा चुनाव में जिस तरह मुस्लिम वोटरों में एकजुटता दिखी थी उसकी काट के लिए ‘एक हैं, तो सेफ़ हैं’ जैसे नारों को बड़े ही सधे अंदाज़ में लोगों तक पहुंचाया गया. इसका महायुति को काफी लाभ मिला.”
बीबीसी मराठी के संपादक अभिजीत कांबले का मानना है कि महायुति की जीत में ‘मुख्यमंत्री लाडकी बहिन’ का असर बहुत ज़्यादा रहा. साथ ही युवाओं के लिए अप्रेंटिसशिप स्कीम के लिए जो पैसे जमा हुए थे उसका भी असर हुआ है.
अभिजीत कहते हैं, ”भाजपा ने हिंदुत्व कार्ड इस बार जमकर खेला है. प्रधानमंत्री मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अलावा खुद देवेंद्र फडणवीस भी ‘वोट जिहाद’ की बात कर रहे थे, जिसके कारण इस चुनाव में हिंदुत्व का मुद्दा हावी रहा.”
अभिजीत आगे कहते हैं, ”आखिरी के दो-तीन दिन हिंदुत्व का मुद्दा ख़ासकर मराठवाड़ा और विदर्भ में बहुत बड़ा गेमचेंजर साबित हुआ है.”
अभिजीत इस जीत में बीजेपी के चुनाव मैनेजमेंट को भी श्रेय देते हैं. वो कहते हैं, ”भाजपा ने इस चुनाव में अच्छा पोल मैनेजमेंट किया, चाहे वो उम्मीदवार को चुनना हो या आरएसएस की भूमिका हो. उसने बिल्कुल सधे अंदाज़ में इसे अंजाम दिया.”
सी-वोटर संस्था के संस्थापक निदेशक यशवंत देशमुख महाराष्ट्र के इस चुनाव को ऐतिहासिक मानते हैं.
उनका कहना है, ”ये चुनाव ऐतिहासिक हैं और इसके बाद भारत में कोई भी चुनाव पुराने तरीके से नहीं लड़ा जाएगा.”
वो कहते हैं, ”75 साल में इस बार एक ऐसा वोट बैंक उभरा है जो जाति और धर्म से अलग हटकर वोट कर रहा है, और वो हैं महिलाएं.”
यशवंत का मानना है, ”भारत की चुनावी राजनीति में आने वाले दशकों में ये मंडल और कमंडल से भी ज़्यादा बड़ा मोड़ साबित होगा.”
वो आगे कहते हैं, ”इसके बाद चुनाव में उस तरह का प्रचार नहीं होगा, बस एक एजेंडा चलेगा कि कैसे महिलाओं के वोट बैंक को अपनी योजनाओं से हम साध सकते हैं.”
वहीं ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ डिजिटल की सीनियर असिस्टेंट एडिटर अलका धूपकर का मानना है कि ‘महाविकास अघाड़ी के तीनों दल में ओवर कॉन्फिडेंस की लहर थी. लोकसभा चुनाव के बाद मिट्टी से उनका नाता टूटने लगा और पार्टियां हरियाणा की तरह हवाओं में रहने लगीं, कितनी सीटें आने वाली हैं इस चीज़ के ऊपर उनका ध्यान नहीं था.’
कहां चूक गई कांग्रेस?
महाराष्ट्र चुनाव में कभी अकेले दम पर 200 से ज़्यादी सीटें लाने वाली कांग्रेस इस बार के चुनाव में 16 सीटों के लिए भी संघर्ष करती दिखाई दी.
लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के बाद माना जा रहा था कि कांग्रेस कहीं ना कहीं वापसी कर रही है, लेकिन नतीजों ने फिर से कांग्रेस की राजनीति को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है.
कांग्रेस पहले हरियाणा में हारी और अब महाराष्ट्र में उसे बुरी हार का सामना करना पड़ा है. आख़िर बार- बार कहां चूक रही है कांग्रेस?
इस सवाल पर अलका धूपकर कहती हैं, ”महाराष्ट्र को हम पिछले कई साल से कांग्रेस का राज्य मानते आ रहे हैं. लेकिन आज उसने खुद को एक थाली में रखकर विपक्ष के हवाले कर दिया है.”
”इस हार से कांग्रेस को ये समझ आ जाना चाहिए कि हाईकमान महाराष्ट्र जैसा राज्य नहीं चला सकता, जहां पर पांच बड़े क्षेत्र हैं.”
अलका कहती हैं, ”अगर विदर्भ क्षेत्र को देखें तो भाजपा ने कांग्रेस को लगभग पूरा हटा दिया है. पश्चिमी महाराष्ट्र, जिसे हम कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) का क्षेत्र मानते थे वहां पर आज सबसे ज़्यादा भाजपा के विधायक हैं.”
वो आगे कहती हैं, ”कांग्रेस आलाकमान ने एक दो महीने पहले ऐसे प्रभारी भेजे, जिन्हें राज्य के बारे में कुछ नहीं पता और ना ही यहां के स्थानीय मुद्दों के बारे में पता है. वो स्थानीय लोगों के बारे में भी कुछ नहीं जानते.”
वहीं सुनेत्रा चौधरी कहती हैं, ”अगर आप कांग्रेस से पूछें कि महिलाओं के लिए आपकी क्या योजना है तो वो बता नहीं पाएंगे.”
सुनेत्रा चौधरी कहती हैं कि भाजपा ने जिस तरह से ज़मीनी स्तर पर योजना बनाई उस तरह की योजना हमें कांग्रेस की तरफ से नहीं दिखी. यही वजह है कि कांग्रेस इतनी कम सीटों पर सिमट कर रह गई.
‘महायुति’ को किस चीज़ का मिला फ़ायदा?
महाराष्ट्र की ‘मुख्यमंत्री- मेरी लाडकी बहिन योजना’ हो या मध्य प्रदेश की ‘लाडली बहन योजना’. झारखंड में ‘मुख्यमंत्री मैया सम्मान योजना’ हो या पश्चिम बंगाल सरकार की ‘लक्ष्मी भंडार योजना’, महिलाओं का वोट बैंक किसी भी पार्टी के लिए कारगर साबित दिखाई पड़ रहा है.
यही वजह है कि हर पार्टी अपनी-अपनी योजनाओं से महिलाओं को अपनी तरफ़ करना चाहती है.
आने वाले समय में किसी भी पार्टी के लिए ये कितना कारगर साबित होने वाला है?
वो कहती हैं, “महिलाओं को एलपीजी सिलेंडर देना, महायुति में बाग़ी नहीं होना, सभी उम्र के लोगों के लिए योजना और महाविकास अघाड़ी की तरह मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर कोई मुक़ाबला नहीं होना, इन सब चीज़ों का नतीजों पर बहुत असर पड़ा है.”
सुनेत्रा चौधरी कहती हैं, “मैंने हेमंत सोरेन से बात की और उन्होंने कहा कि पहले वो चुनाव प्रचार कर रहे थे, लेकिन इस बार कल्पना सोरेन की अपील ने सारी महिलाओं को अपनी ओर कर लिया.”
जबकि अभिजीत कांबले का कहना है कि इस चुनाव में काफी हद तक दलित वोटरों ने बीजेपी और महायुति का साथ दिया है.
इस चुनाव में आरएसएस की भूमिका
महाराष्ट्र चुनाव में आरएसएस की चर्चा इसलिए अहम हो जाती है क्योंकि नागपुर में इसका मुख्यालय है.
नागपुर भाजपा का गढ़ माना जाता है और यहीं महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का जन्म हुआ था.
हाल के लोकसभा चुनाव में कहा गया कि आरएसएस कुछ हद तक या तो नाराज़ था या बीजेपी के लिए उतना सक्रिय नहीं दिखा था.
लेकिन इस चुनाव में ऐसा कहा गया कि संघ ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है, तो ऐसे में क्या भाजपा और संघ के संबंध में ये सुधार के संकेत हैं या आरएसएस को अपनी प्रतिष्ठा बचानी थी?
इस सवाल पर यशवंत देशमुख ने कहा, ”झारखंड में संघ के लोग हेमंत सोरेन को दुश्मन की तरह नहीं देखते. आरएसएस का मानना है कि आदिवासी समाज का इतना बड़ा लीडरशिप वहां पर है तो उसकी हमें इज़्ज़त करनी चाहिए.”
भाजपा के साथ संघ संबंध को लेकर यशवंत का मानना है कि इसमें ठंडी-गर्मी चलती रहेगी, लेकिन संघ को जहां काम करना था उसने किया.
वो कहते हैं, ”संघ कोई भी काम करता है तो उसका परिणाम हमें दिखाई पड़ता है लेकिन हां जब वो नाराज़ होते हैं तो वो और भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है.”
झारखंड में कहां पीछे रह गई भाजपा?
एक ओर जहाँ महाराष्ट्र में बीजेपी मज़बूत नज़र आई वहीं दूसरी ओर झारखंड में उसे संघर्ष करना पड़ा. यहां 81 सीटों में से बीजेपी 21 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी.
लोकनीति-सीएसडीएस के सह-निदेशक संजय कुमार ने इसकी वजह समझाते हुए कहा कि झारखंड में बीजेपी ने काफ़ी हद तक नकारात्मक अभियान किया, जिसमें घुसपैठियों जैसे मामले शामिल हैं.
संजय आगे कहते हैं, ”अगर जेएमएम और कांग्रेस के चुनाव अभियान को देखें तो वो सकारात्मक तरीके से अपने काम के बारे में बात कर रहे थे, जिसका फायदा उन्हें मिला.”
यशवंत देशमुख बताते हैं कि जब हेमंत सोरेन जेल गए थे तब संघ ने इस बात पर नाराज़गी जताई थी.
नतीजों का आने वाले विधानसभा चुनावों पर क्या असर पड़ेगा
पहले हरियाणा और अब महाराष्ट्र चुनाव में बीजेपी का अच्छा प्रदर्शन एक बार फिर बाक़ी पार्टियों के लिए चिंता की बात बन गई है.
ऐसे में आने वाले विधानसभा चुनावों में बीजेपी को इन नतीजों का कितना फ़ायदा मिलेगा?
संजय कुमार कहते हैं, ”दिल्ली में भाजपा अकेले चुनाव लड़ेगी लेकिन उनके लिए अहम होगा बिहार का चुनाव. इस बात की चर्चा अभी से है कि बिहार में गठबंधन का क्या समीकरण बनेगा, महाराष्ट्र में भाजपा की बड़ी जीत के बाद ये संकेत साफ है कि वो अपने गठबंधन साथियों को साथ लेकर चलना चाहते हैं.”
इस चुनाव के नतीजों के बाद अगर बीजेपी उसी अंदाज़ में दिल्ली में चुनाव लड़ेगी तो क्या कुछ चीज़ें बदल सकती हैं?
क्या लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक साथ आ सकती हैं?
संजय कुमार का मानना है कि अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी साथ नहीं आते हैं तो निश्चित रूप से इसका फ़ायदा बीजेपी को मिलेगा.
साथ ही उनका ये भी मानना है कि लोकसभा चुनाव में दोनों ही पार्टी साथ आए थे लेकिन बीजेपी को इसका नुकसान नहीं हुआ.
वो कहते हैं कि दिल्ली की जनता के लिए लोकसभा चुनाव और विधानसभा के चुनाव में फर्क है, इसलिए अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी साथ आते हैं तो दोनों को फायदा ही फायदा है.
सुनेत्रा चौधरी कहती हैं, ”जिस तरह जेएमएम ने हेमंत सोरेन को लेकर लोगों में हमदर्दी पैदा की कि किस तरह गलत मामले में उन्हें जेल भेजा गया. उसे आम आदमी पार्टी अच्छी तरह से देख रही है. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं को जेल भेजा गया, पार्टी को तोड़ने की कोशिश की गई. इन मुद्दों को लेकर भी ‘आप’ खेलने की कोशिश करेगी.”
सुनेत्रा चौधरी का मानना है कि आम आदमी पार्टी को अगर ये चुनाव जीतना है तो उन्हें प्रदूषण से लेकर कई मुद्दों पर विपक्ष के सवालों का अच्छी तरह से सामना करना पड़ेगा.
वो कहती हैं, ”चूंकि विपक्ष अब हरियाणा और महाराष्ट्र भी हार गया है तो तो उनके लिए ये साफ़ संदेश है कि उन्हें गठबंधन के साथ काम करना पड़ेगा. लेकिन दिल्ली में कांग्रेस के नेताओं की राजनीति आम आदमी पार्टी के पूरे खिलाफ है. इस रवैये को बदलना होगा. अगर कांग्रेस और ‘आप’ को दिल्ली में गठबंधन करना है तो उन्हें अपने स्थानीय नेताओं को एक साथ लाना होगा जो एक दूसरे के ख़िलाफ़ काम करते हैं.”
उत्तर प्रदेश में नौ विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में बीजेपी ने सात सीटें जीतकर बढ़त बनाई, जबकि समाजवादी पार्टी ने दो सीटों पर जीत दर्ज की है.
चुनाव के नतीजों के बाद समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया कि बीजेपी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया और कुछ लोगों को वोट डालने से रोका गया.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खराब प्रदर्शन के बाद योगी आदित्यनाथ पर सवाल उठ रहे थे. लेकिन अब जब बीजेपी नौ में से सात सीटें जीत गई तो ऐसे में इन नतीजों को योगी आदित्यनाथ के संदर्भ में कैसे देखा जाना चाहिए.
इस पर सुनेत्रा कहती हैं, ”जिस तरह से योगी आदित्यनाथ ने पूरे चुनाव में एजेंडा तैयार किया, उन्होंने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का जो नारा दिया, उससे उनके कोर वोटर पर प्रभाव पड़ा और विपक्ष सिर्फ इन्हीं नारों के ऊपर बात करता रहा.”
”जो भी योगी आदित्यनाथ को लेकर सवाल उठ रहे थे शायद इस चुनाव में उन्होंने सबको चुप करा दिया.”
प्रियंका के संसद में आने से क्या बदलेगा?
केरल की वायनाड सीट से कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी पहली बार चुनावी मैदान में उतरीं और चार लाख से भी ज़्यादा वोटों से जीत दर्ज की.
प्रियंका के आने से राहुल गांधी को मज़बूती मिलेगी या बीजेपी को परिवारवाद पर हमला करने का मुद्दा मिल जाएगा?
इस सवाल पर यशवंत देशमुख कहते हैं, ”ज़मीन और उसकी नब्ज़ को पकड़ने और उस पर अपनी राय रखने के मामले में जो महारत जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी या फिरोज़ गांधी की थी, वहां से लेकर मौजूदा समय तक कांग्रेस के लिए काफी कुछ बदला है.”
लेकिन वो ये भी कहते हैं, ”जिस तरह की स्थिति हम आज देख रहे हैं उसमें आने वाले समय में प्रियंका गांधी का ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ का नारा बेहद प्रभावशाली साबित होगा.”
सुनेत्रा चौधरी कहती हैं, “बीजेपी के सामने अखिलेश यादव और महुआ मोइत्रा के बाद प्रियंका गांधी एक मज़बूत स्पीकर के रूप में सामने आ गई हैं, यही कारण है कि संसद में दोनों ही पक्षों में और भी ज़्यादा टकराव देखने को मिल सकता है.”
वो कहती हैं कि प्रियंका गांधी जानती हैं कि कैसे मुद्दों को रखा जाए, कैसे लोगों का ध्यान अपनी ओर किया जाए.
किसे महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाएगा ‘महायुति’?
288 सीटों वाली महाराष्ट्र विधानसभा में सरकार बनाने के लिए 145 सीटों की ज़रूरत होती है और महायुति ने इस आंकड़े को आसानी से पार कर लिया.
अब मुख्यमंत्री चेहरे पर सभी की नज़रें बनी हुई हैं. चूंकि महायुति गठबंधन में भाजपा ने सबसे ज़्यादा सीटों पर जीत हासिल की है लिहाज़ा माना जा रहा है कि पार्टी अपना मुख्यमंत्री बनाने के लिए आगे आएगी.
अब क्या भाजपा मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में देवेंद्र फडणवीस को आगे करेगी?
इस सवाल पर अलका धूपकर कहती हैं, ”देवेंद्र फडणवीस जीत के बाद जिस मूड में दिख रहे हैं उससे ऐसा लग रहा है कि शायद उनको ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा. लेकिन बीजेपी एकनाथ शिंदे और अजित पवार को नाराज़ करने का जोखिम नहीं लेगी.”
अलका कहती हैं, ”बीजेपी को मराठा बनाम ब्राह्मण का भी समीकरण देखना होगा. एकनाथ शिंदे और अजीत पवार मराठा हैं और देवेंद्र फडणवीस ब्राह्मण हैं.”
वो कहती हैं, ”ये महाराष्ट्र जिसको हम संतों की भूमि बोलते हैं वहां मुसलमानों से नफरत वाले इतने प्रचार मैंने पहले कभी नहीं देखे थे. वहां ‘वोट जिहाद’ की बात हुई. योगी आदित्यनाथ ने आकर ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ की बात की. उन्होंने ऐसा दिखाया कि वो मुस्लिमों के ख़िलाफ़ खड़े हैं और हिंदू के साथ हैं.”
उद्धव ठाकरे और शरद पवार की चुनौतियां
इस चुनाव में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की एनसीपी को करारी हार का सामना करना पड़ा है.
इसके बाद ये सवाल उठ रहे हैं कि इन दोनों के राजनीतिक भविष्य का क्या होगा.
इस सवाल पर अलका धूपकर कहती हैं, “अगर हम शरद पवार की बात करें तो इतना कुछ होने के बाद भी उन्होंने दस सीटें जीतीं, जिससे हम ये नहीं कह सकते हैं कि उनकी पार्टी पूरी तरह से खत्म हो गई है. लेकिन अब उद्धव ठाकरे के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.”
वो कहती हैं कि महाराष्ट्र जैसे राज्य में बहुत ही कमज़ोर विपक्ष का होना एक चिंता की बात है.
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